सरगुजा के बसोर और उनके बनाए बांसशिल्प

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Published on: 08 August 2019

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

यूं तो सरगुजा के सभी इलाकों में बसोर रहते हैं किन्तु लुचकी एवं तरिया बीरा गांव में इनकी संख्या बहुत ज़्यादा है। बसोर कोई जाति नहीं बल्कि बांस का काम करने वाले लोगों को दिया गया सम्बोधन है। बांस का काम यहाँ तूरी, कोड़ाकू, डोम एवं ढिरकार समुदाय के लोग करते हैं, जो कृषि उपकरण और दैनिक उपयोग की अनेक वस्तुए बनाते हैं। बसोरों के अलावा मछली पकड़ने के उपकरण कुमनी और चोरिया अधिकांश लोग अपने लिए स्वयं ही बना लेते हैं. बांस की कावड़ यहाँ आदिवासी जीवन का ऐसा अभिन्न अंग है जिसके बिना दैनिक कार्यो के संचालन की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। सामान, पानी, बर्तन, घांस, मिट्टी कुछ भी वजन उठाना हो, सबके लिए कावड़ आवश्यक है। उपयोगिता की दृष्टि से उपकरण बनाने में सरगुजा के बसोरो का जवाब नहीं है। कितने भी छोटे गांव का हाट बाजार लगा हो बिना बसोरो की दूकान के पूरा नहीं होता। सरगुजा में बांस के उपकरणों में बुनावट की विविधता उतनी नहीं है परन्तु आकारों और उपयोगिता की दृष्टि से वे उच्च श्रेणी के होते हैं। प्रस्तुत विवरण १९८३-८५ में किये गए क्षेत्रीय सर्वेक्षण पर आधारित है.  

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and archaeology, Government of Chhattisgarh to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.