बसोर एक व्यावसायिक जाति है। बांस का काम करने के कारण ये बसोर कहलाते हैं । कुम्हारों की तरह गांव की आवश्यकता के हिसाब से प्रत्येक गांव में एक या दो घर बसोर लोगों के होते हैं। जिला मुख्यालय अंबिकापुर से दरीमा हवाई पटटी के रास्ते में स्थित लुचकी गांव सारा का सारा ही बसोर परिवारों का है। मुख्य सड़क से कुछ किलोमीटर अंदर छोटी पहाड़ियों की तलहटी में, सघन कटहल के पेड़ों से घिरा यह गांव बहुत ही सुंदर लगता है। मुख्य सड़क से लुचकी गांव तक एक कच्ची पगडंडी जाती हैं जो गांव के प्रत्येक झोपड़े को आपस में जोड़ती भी है।
एक छोटे से क्षेत्र में फैले इस गांव में, बसोरों के लगभग बीस परिवार रहते हैं। इनके सफेद छुई मिटटी के लीपे गए झोपड़े कटहल के पेड़ों की छांव में, दूर से आकर्षित करते हैं। अधिकांश झोपड़ियों के सामने स्त्री-पुरूष एक लंगोटी या चादर लपेटे काम में व्यस्त रहते हैं।
गांव के लोगों ने बताया कि वे तूरी जाति के लोग हैं जो आदिवासी हैं और बांस का काम करने के कारण बसोर कहलाते हैं। यह जाति उत्तर प्रदेश और, बिहार व मध्य प्रदेश में भी पाई जाती है। छत्तीसगढ़ में तूरी अथवा तूरिया समुदाय की मुख्य आबादी सरगुजा जिले में ही है। बसोर कई प्रकार के होते हैं जैसे तूरी, पंडी, कोडाकू, ढिरकार, डोम आदि। इनमें तूरिया अपने को सबसे अलग और उच्च मानते हैं। तूरिया जाति के लोग अपने को सूपा भगत भी कहते हैं तथा अन्य बसोर लोगों के यहां रोटी बेटी का संबंध नहीं रखते। उनके साथ एक चटाई पर भी नहीं बैठते। इन लोगों की मान्यता के अनुसार पंडी, ढिरकार, कोडाकू, डोम यह सब अलग जाति हैं, परन्तु सरकार इनके द्वारा बांस का काम करने के कारण इनकी गिनती बसोर में करती है।
तूरी जाति का कोई विशेष देवी-देवता नहीं होता। सारे गांव में एक भी मंदिर या देवस्थान नहीं है। देवी-देवताओं के बारे में पूछने पर यह लोग हंसकर कहते हैं, यह बांस और पहाड़ ही हमारे देवता हैं। सभी अपने घरों में अपने पुरखों का स्थान बनाते हैं और किसी भी दुख तकलीफ आने पर उनका स्मरण करते हैं । विवाह आदि में ब्राह्मण या पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती है। यदि कोई लड़का या लड़की अपनी जाति के किसी लड़के या लड़की को पसंद करने लगते हैं तो अपने पिता को बता देते हैं। गांव के लोग उनका विवाह कर देते हैं। यदि लड़का-लड़की भाग जाते हैं तो उनके मां बाप उन्हें वापस बुलाकर गांव में रख लेते हैं। विवाह का रिश्ता लड़का-लड़की के बड़े ही करते हैं, परन्तु विवाह के समय लड़के वाले को लड़की वालों को कुछ पैसा देना होता है। लड़की के गांव की पंचायत तय करती है कि कितना पैसा दिया जाए। लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं। वहां सारें गांव का खाना होता है, बकरा कटता है, शराब पिलाई जाती है, विवाह के मंडप में चौक बनाया जाता है और अंगारे रखें जाते हैं। फिर रात भर मांदल बजती है तथा स्त्री पुरूष सभी नृत्य करते हैं। जादू टोने पर इनका अटूट विश्वास है। यदि बीमार हो तो डाक्टर के यहां जाना इन्हें पसंद नहीं। यह तो गुनियां से झाड़ फूंक ही करवाते हैं।
यहाँ बांस के जंगलों की भरमार है, बाहर से बांस नहीं मंगाना पड़ता। बांस की वस्तुएं बनाने में दो प्रकार के स्थानिय बांस काम में लाए जाते हैं। रोपा या देहाती बांस, झिंझी या पहाड़ी बांस। रोपा बांसा मोटा और पोला होता है, इसकी लकड़ी में चमक और मजबूती कम होती है। 20 से 35 फुट लंबा यह बांस मुडाई के काम के लिए उपयुक्त रहता है। झिंझी या पहाड़ी बांस पतला, ठोस और 15 से 20 फुट तक लंबा होता है। चमकदार और मजबूत होने के कारण इसमें बनाई वस्तुएं श्रेष्ठ और मजबूत होती हैं। कृषि और वनज उठाने के सारे उपकरण इसी बांस से बनाए जाते हैं। इस बांस की पतली तीलियां भी बहुत अच्छी बन सकती हैं इसलिए बारीक काम के लिए यह उपयुक्त रहता है। लुचकी गांव के बसोर लोगों को शासन की ओर से बांस उपलब्ध कराने की व्यवस्था है।
बांस को छुरी से आढ़ा चीरा जाता है, जिससे बाहर का कडा भाग और अंदर का नर्म भाग अलग-अलग हो जाता है। अंदर के नर्म भाग की चैड़ी-चैड़ी पट्टियां बनाई जाती हैं, जो डलियों का ढांचा (आर्मेचर) और पंखे बुनने के काम में आती हैं। बांस के कड़े भाग की तीलियां बनाई जाती हैं जो बुनाई के काम आती हैं तथा बांस से बनी वस्तुएओं को मजबूती प्रदान करती हैं।
बच्चों के खिलौने, स्त्रियों के श्रृंगार का सामान और पान रखने की डालिया तथा विवाह में दिये जाने वाली बांस से बनी झांपी (बड़ी ढक्कनदार डलिया ) में रंगाई करके डिजाइन बनाए जाते हैं। बांस रंगने के लिये महावर और काजल, दो रंगों का प्रयोग किया जाता है। महावर को गर्म पानी में घोल कर काम में लाया जाता हैं। काजल के लिये घर में जलने वाली चिमनी के धुएं को किसी खपरे में जमा कर इकटठा कर लिया जाता है, फिर इसे बांस की खपच्चियों पर छिड़क कर किसी पेड़ के पत्ते से रगड़ दिया जाता है। रंगी हुई खपच्चियों से बुनाई करके विभिन्न पैटर्न बनाए जाते हैं।
सभी बसोर परिवारों की आर्थिक स्थिाति खराब है। शहरी रेडिमेड सामान ने गांव की रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाली बांस से बनी बहुत सी चीजों का महत्व कम कर दिया है, परंतु फिर भी इनकी बनाई हुई वस्तुएं बाजार में खप जाती हैं। सारे परिवार दरीमा में लगने वाली इतवार की हाट बाजार में सामान बेचते हैं। यह लोग गांव में काम आने वाली बहुत सी वस्तुएं बनाते हैं परंतु प्रत्येक के बनने का एक निश्चित समय होता है। जिस समय धान पककर कट चुकी होती है, उस समय धान रखने की बड़ी-बड़ी टंकियां, जिन्हें यहां डेली या छींकी कहते हैं, बनाई जाती हैं। किसान इसे धान रखने के काम में लाते हैं। सर्दियों में चटाई, जो यहां पटिया कहलाती है, बहुत बनाई जाती हैं। यह जमीन पर बिछाने और झोपड़े में दीवारों के स्थान पर लगाने के काम आती हैं। सर्दियों की तीखी हवा रोकने का इनके पास इसके अतिरिक्त और कोई साधन नहीं है।
धान और अनाज जैसे कोदो, कुटकी आदि साफ करने के लिये सूपा और डलिया, जो यहां पथिया कहलाती है, की बहुत मांग रहती है। डलिया यहां कई प्रकार की बनाई जाती है। कुछ लोग सादा डलिया में अंदर की ओर गोबर की लिपाई करके भी बेचते हैं। गोबर से डलिया की दीवार के छोटे-छोटे छिद्र बंद हो जाते हैं, जिससे उसमें रखी वस्तु फैलती नहीं है। आटा रखने के लिये यहां विशेष प्रकार की डलिया बनाई जाती है, जिसे दौरा कहते हैं। इसमें एक सादा डलिया के अंदर चटाई का अस्तर लगा दिया जाता है, जिससे आटा फैलता नहीं है। इस पर रंगाई करके कुछ पैटर्न भी बना दिए जाते हैं। यह डलिया अपने काम में कुशल बसोर ही बना सकते हैं।
विवाह के मौसम में झांपी और पर्रा-बीजना बहुतायत से बनाए जाते हैं। पर्रा, यहां छोटे-छोटे सूप को और बीजना पंखे को कहते हैं। आदिवासी समुदायों में इसके बिना विवाह की रस्में पूरी नहीं हो सकती। विशेषतः कॅवर जनजाति के लोागों में इसे अति आवश्यक माना जाता है। भांवरों के समय मंडप में दूल्हा-दुल्हन पर्रा- बीजना एक दूसरे को भेंट करते हैं। झांपी एक बड़े आकार की ढक्कन वाली डलिया होती है। लड़की के विवाहोपरांत बिदा के समय इसमें कपड़े और सामान रख कर दिए जाते हैं। सरगुजा के बसोर इसे विशेष रूप से रंगाई करके सजाते हैं। इनकी आकृति भले ही एक जैसी हो, परन्तु प्रत्येक बसोर का इसे रंगने का तरीका और डिजाइन अपना ही होता है। इसके अलावा घर के रोजमर्रा की काम आने वाली बांस की बनी वस्तुएं हैं- पुट्टी, फूल डलिया, सुपली, पिटला, गरनी-गरना, खोदरी, परात, बिजबोनी आदि।
बांस से बनाई जानेवाली वस्तुएं एवं उपकरण
समूचे छत्तीसगढ़ की भांति सरगुजा में भी मछली का शिकार आदिवासी समुदायों में अत्यंत लोकप्रिय है। छोटे-छोटे पहाड़ी नालों और पोखरों तक में लोग मछली, केकड़े और झीगें पकड़ते हैं। मछली पकड़ने के लिये यहां जाल तो प्रयोग किये ही जाते हैं परन्तु सबसे ज्यादा इस कार्य के लिये बांस के बने उपकरण काम में लाए जाते हैं। बांस के ये उपकरण अधिकांशतः लोग अपने लिये स्वयं ही फुर्सत के क्षणों में बना लेते हैं। बहुत ही कम लोग ऐसे होगें जो इन्हें बनाना न जानते हों, परन्तु कुछ लोग इन्हें तूरी लोगों से भी बनवा लेते हैं।
चोरिया: यह एक ही बांस से बनाया गया, कनेर के फूल की आकृति जैसा उपकरण होता है। इसका प्रयोग बहते पानी में मछलियां पकड़ने के लिये किया जाता है। इसके लिये नदी या नाले का वह भाग जहां पानी पतली धार में बहता हो, वहां एक नाली बना दी जाती है जिसमे से होकर पानी बहता है। इसी नाली के मुहाने पर चोरिया लगा दिया जाता है। इस प्रकार बहने वाला सारा पानी चोरिया से होकर ही गुजरता है। साथ ही पानी में बहने वाली मछलियां चोरिया से होकर गुजरती हैं। चोरिया का दूसरा सिरा बंद होने के कारण उसमें बहने वाली मछलियां चोरिया में फंस जाती हैं ।
कुछ आदिवासी रेत की दीवार बना कर नदी का एक हिस्सा छोटे तालाब में बदल देते हैं फिर उसमें एक जंगली फल कुचल कर डाल देते हैं इस फल के रस से मछलियां की आंखों मे जलन होती है और वे स्वच्छ पानी की और भागती हैं। अब रेत की दीवार एक स्थान से तोडकर वहां चोरिया लगा दिया जाता है। देखते ही देखते उसके चोरिया में अनेक मछलियां फंस जाती हैं।
फांदा: पक्षियों के शिकार के लिये सरगुजा के आदिवासी आमतौर पर फान्दा का प्रयोग करते हैं। बांस और धागे से तैयार किये जाने वाले यह जाल, लोग आमतौर पर अपने लिये स्वयं ही बना लेते हैं। यह काफी लम्बे होते हैं जिन्हें तह करके रखा जाता है। शिकार के लिए इन्हें फैलाकर खेतों में रख दिया जाता है। जब कोई पक्षी इसमें से गुजरता है तो वह इसमें फंस जाता है।
चिरई, चखरी और हवाई जहाज- बच्चों के खेलने के लिये बांस से कुछ खिलौने भी बनाए जाते हैं। इनमें चिरई (चिडिया), चखरी (हवा में घूमनेवाली फिरकी) और हवाई जहाज प्रमुख हैं। इन्हें आकर्षक बनाने के लिए रंगा भी जाता है।
मांदलः यह मांदल (ढोलक) की अनुकृति होती है। लगभग तीन-चार इंच चौड़ी और छ-आठ इंच लम्बी, बेलनाकार यह आकृति चारों ओर से बंद बुनी जाती है। इसके अंदर कुछ कंकड़ डाल दिये जाते हैं जो इसे हिलाने पर छुनछुने की तरह बजते हैं। यह बच्चों के खेलने का खिलौना है।
तराजू: सामान्यतः तराजू लोहे की बनी होती है परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में सब्जी, भाजी तौलने के लिये काम आने वाली तराजू के पलड़े बांस से बुने जाते हैं। यह तराजू वजन करने के लिए प्रामाणिक नहीं होती पर गांवों में यह मान्य होती है।
पर्रा-बीजनाः पर्रा का अर्थ होता है बहुत छोटी डलिया और बीजना का अर्थ होता है पंखा। सरगुजा जिले के आदिवासियों में प्रथा है कि विवाह के समय वर वधु को पर्रा-बीजना भेंट किये जाते हैं। पर्रा-बीजना हमेंशा ही रंगीन बनाए जाते हैं। भांवरों के समय वर-वधु पर्रा में लाई भर कर एक दूसरे पर फेंकते हैं।
पौतीः औरतों के श्रृंगार का सामान रखने की छोटी चैकोर या आयताकार टोकरी पौती कहलाती है। इस पर ढक्कन लगाया जाता है। इसकी लम्बाई एक फुट और चैड़ाई छः इंच के करीब होती है। यह बांस की चौड़ी खपच्चियों से बुनी जाती है।
सुपलीः यह धान या अनाज फटकने के लिये काम में आती है। यह आगे से चौड़ी और पीछे से अर्द्धगोलाकार होती है। इसे बांस की चौड़ी, मोटी खपच्चियों के ढांचे पर पतली खपच्चियों द्वारा बुनकर तैयार किया जाता है। विवाह में दिये जाने वाली सुपली पर गुलाबी, हरे, काले या गेरू के रंग से पैटर्न भी बनाए जाते हैं ।
सैमा: लगभग छः इंच ऊंचा और दस इंच लम्बा सैमा पर्स जैसे आकार का होता है। यह दो भागों में बनाया जाता है जो आपस में मिलकर ढक्कन बंद पर्स जैसी आकृति बनाता है। इसे पान सुपारी, तम्बाकू रखने के काम में लाया जाता है। कभी-कभी इसमें गुलाबी रंग से रंगी खपच्चियों से पैटर्न बुने जाते हैं।
छींटीः यह बांस की पतली तीलियों से बुनी सपाट और गोल आकर की डलिया होती है। इसका व्यास लगभग 10-12 इंच होता हैं। आमतौर पर इसका प्रयोग उबले चावल पसाने के कार्य में किया जाता है। कभी-कभी इसे ढक्कन की तरह भी प्रयुक्त किया जाता है।
बिजबोनीः यह एक छोटी सी विशेष प्रकार की डलिया होती है जिसमें विभिन्न सब्जियों के बीज रखे जाते हैं। फसल पर बीज की बुवाई के समय इसका प्रयोग किया जाता है। इसे बांस की कम चौड़ी खपच्चियों द्वारा बुना जाता है। कभी-कभी इस पर ढ़क्कन भी बनाया जाता है।
फुलडलियाः यह चौकोर या बेलनाकार डलिया होती है जिस पर ढक्कन भी बनाया जाता है। इसे घर का छोटा-मोटा सामान रखने के लिये प्रयुक्त किया जाता है। इसे कंधे या खूँटी से लटकाने के लिये इसमें छाल या बांस का हेन्डल भी लगाया जाता है ।
पुट्टी: यह बांस की चैड़ी पटिटयों से बनाई जाने वाली, ऊपर से बेलनाकार तथा आधार पर चैकोर टोकरी होती है। इसकी चैड़ाई छः इंच से दो फुट तक होती है। इसे, साग भाजी, महुआ के फूल, आदि रखने के लिये प्रयुक्त किया जाता है। पुट्टी घर में सबसे ज्यादा प्रयोग में आने वाली टोकरी है। कभी-कभी इसे गुलाबी और हरे रंग से रंगा भी जाता है।
कुमनी: यह बांस की पतली तीलियों द्वारा बनाया गया बेलनाकार या चौकोर डब्बे जैसा उपकरण होता है जिसके मुख पर बांस की तीलियों का वाल्व बना दिया जाता है, जिसमें से होकर छोटी-छोटी मछलियां इसमें घुस तो सकती हैं परन्तु निकल नही सकतीं। कुमनी का प्रयोग तालाबों के ठहरे पानी में छोटी मछलियां पकड़ने के लिये किया जाता है। लेकिन इसे श्रेष्ठ कारीगर ही बना सकते हैं। अन्य प्रकार की कुमनी एक लम्बे आयताकार बाक्स के समान होती है जिसमें दो वाल्व बनाए जाते हैं। इनसे मछली अन्दर तो जा सकती है परन्तु बाहर नहीं आ सकती। इसकी बनावट अत्यंत जटिल होती है इसे बहुत अनुभवी तूरी ही बना पाते हैं।
खोदरीः यह मैना अथवा चिड़िया पालने का पिंजरा होता हैं, जो आम आदिवासियों के घर देखने को मिल जाता है। यह पिरामिड के आकार का होता है जिसकी निचली सतह पर चटाई बुन दी जाती है।
गरना-गरनी: यह मुर्गा-मुर्गी पालने के लिये बनाया गया पिंजरा होता है, जो चपटा एवं गोल आकर का बनाया जाता है। इसके बीच में एक बड़ा मुंह बनाया जाता है जिसमें से मुर्गे बाहर निकाले जाते हैं ।
पिटला: यह एक मजबूत बांस की चौड़ी खपच्चियों से बना लंबा बेलनाकार होता है। इसमें तिल रखकर उसका तेल निकाला जाता है। सरगुजा के आदिवासी इलाकों में सरसों एवं तिल से तेल निकालने का बहुत ही आदिम तरीका प्रचलित है। दो लकड़ी के मोटे और भारी लट्ठों के बीच पिटला में तिल रखे जाते हैं या उसमें एक खूंटा फंसा दिया जाता है और दूसरे सिरे पर पत्थर रखे या लटकाए जाते हैं। इस प्रकार तेल धीरे-धीरे पर शुद्ध निकलता है ओर बचा हुआ तिल पिटला में रह जाता है।
सिंहरी: कांवड ही सहायता से धांस या धान के गट्ठर उठाने के लिये सींहरी का प्रयोग किया जाता है। इसे बांस की मोटी और मजबूत पट्टियों से बनाया जाता है। इसे हरे बांस से ही बनाया जाता है। बनाने के पहले बांस की पट्टियों को कुछ समय तक भिगोना भी पड़ता है ताकि वे मोड़नेपर टूटे नहीं।
कांवड: कांवड़, छत्तीसगढ़ क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वाधिक काम में आने वाला उपकरण है। सभी प्रकार का बोझा ढोने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। इसके अभाव में आदिवासी जीवन की यहां कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसमें बांस के लगभग पांच फुट लम्बे आधार पर दोनों ओर दो पलड़े लटकाए जाते हैं जिनमें रख कर बोझा ढोया जाता है।
खोमरा: इसे बरसात में छाते के रूप् में प्रयुक्त किया जाता है। यह करीब चार फुट लम्बा और दो फुट चैड़ा होता है, इसे बांस की चौड़ी पटिटयों से जाली की तरह दो परतों में बुना जाता है। दोनों पर्तो के बीच सिहार के सूखे पत्तों की तह जमाई जाती है। धान की बुवाई के समय इसे पीठ पर रख लिया जाता है ताकि बरसते पानी मे काम किया जा सके।
झांपी: झांपी एक बड़ी एवं ढक्कनदार रंगीन डलिया होती है। इसका ढक्कन शंकु आकार का होता है, इसकी बुनावट में रंगीन खपच्चियों के अनेक पेटर्न बुने जाते हैं। झांपी, आदिवासी समुदायों में लड़की के विवाह में दी जाने वाली टोकरी है। इसमें वधु के दहेज में दिए गए कपड़े, गहने आदि रखकर दिए जाते हैं। झांपी की ऊंचाई और चौड़ाई आवश्यकता अनुसार रखी जाती है।
परात: यह एक चपटी और गोल थाली जैसी डलिया होती है जिसकी चैड़ाई डेढ़ से दो फुट तक होती है। इसकी किनारों की ऊंचाई एक इंच होती है। इसे दलिया सुखाने के काम या धान रखने के काम में लाते हैं।
पथिया: हाट बाजारों में सामान ले जाने के लिये लगभग तीन फुट चौड़े और दो फुट गहरे पथिया बनाए जाते हैं। कभी-कभी इनकी अन्दर की सतह पर गोबर मिटटी की लिपाई भी की जाती है। जिससे इसके छेद बंद हो जाते हैं और मजबूती भी आती है ।
छटका: धान या अनाज रखने के लिये बनाई जाने वाली लगभग देा फुट व्यास वाली और चार फुट ऊंचाई वाली बेलनाकार टोकरी छटका कहलाती है। इसे बांस की चौड़ी खपच्चियों से चटाई में प्रयुक्त होने वाली बुनाई में बुना जाता है।
दौरा: रोजमर्रा के कामों में लाई जाने वाली बांस की तीलियों से बुनी साधाराण टोकरी दौरा कहलाती है। इसका आकार एक फुट से लेकर तीन फुट तक होता है।
डिठोरीः यह मछलियों को पकड़ कर रखने के लिये बनाई गई वह टोकनी है जिसे रस्सी से कंधे पर लटकाया जाता है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and archaeology, Government of Chhattisgarh to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.