के.के. नैयर- ख्वाजा अहमद अब्बास साहब मैं हाज़िर हुआ हूँ आपके पास इस इरादे से की आप के फन,फन के ये सूरत, ये तहरीक, फिल्म साजी ये सब शामिल है उसमें और जो मोमताज मक़ाम आपने हासिल किया है न सिर्फ अदब में बल्कि जर्नलिज्म और फिल्मों में, तो आपकी जिंदगी आपके रात आपके फन के बारे में मालूमात हासिल करके लोगो तक पहुँचाऊ| तो मैं आपसे ये जानना चाहूँगा कि आप ने फिल्म को मीडियम चुना तो क्यों चुना?
ख्वाजा अहमद अब्बास- बात ये है कि हमारी फ़िल्मी हलकों में अदबी हलकों में जर्नलिस्ट हलकों में एक बहस छिड़ी हुई है कि ख्वाजा अहमद अब्बास क्या है? जर्नलिस्ट ये कहते है कि अब ये जर्नलिस्ट नहीं रहा फिल्म वाला हो गया| फिल्म वाले कहते है कि साहब ये फिल्म आर्ट के बारे में कुछ नही जानता| ये बस एक फ़िल्मी जर्नलिस्ट है और अदीब जो है उन्होंने अदब के दायरे से मुझे खारिज कर दिया है, चूँकि मैं फ़िल्में बनाता हूँ और जर्नालिस्म करता हूँ | तो मैं क्या हु कोई बतलाए कि हम बतलाएँ क्या? लेकिन ये है कि मैं ख़यालात कि व्यापारी हूँ| और अपने ख्यालात को लोगों तक मोख्त्लीफ़ जराए से पहुंचना चाहता हूँ| तो शुरू मैं मैंने ये ख़यालात, महसूसात जर्नलिज्म के जरिये से मजमून लिख कर लोगों तक पहुचने कि कोशिश कि लेकिन ये करते हुए मुझे ये एहसास हुआ, दुसरे अदीबों कि तखलीकात पढ़कर कि अदब के रंग में अदब कि चाशनी देकर अगर कोई खयालात और महसूसात को लोगो तक पहुँचाया जाए तो वो ज्यादा दिलनशीं होते हैं और ज्यादा मकबूल और लोगों के दिल की गहराई तक वो पहुँच सकते हैं और ये सोच कर मैंने अफसनानिगारी शुरू कि तो थोड़ी बहुत फिल्मों में भी दिलचस्पी थी तो उस जमाने में मैं अखबार में फिल्म क्रिटिक कि हैसियत से काम कर रहा था|
के.के. नैयर- कपूर साहब कि फिल्मों में जो आपकी दिलचश्पी थी, उसकी नवईयत क्या थी|
ख्वाजा अहमद अब्बास- उस वक़्त तक तो नवईयत ये थी कि हम फिल्म देखना पसंद करते थे और अच्छे और बुरे फिल्मों में थोड़ी तमीज़ करना सीख रहें थे|
तो उस अरसे में हमको एडिटर साहब ने कहा था कि तुम फिल्म रिव्यु लिखो| तो जब फिल्म रिव्युज मैंने लिखने शुरू किए, तो मैंने महसूस किया कि हमारी हिन्दुस्तानी फिल्मों में जो सबसे बड़ी कमजोरी है, वो कहानियाँ है, कहानियों की कमजोरी है, कहानियों कि बुनियाद अच्छी नहीं होते है और कहानियों का प्रेजेंटेशन यानि उनकों जिस तरह से पेश किया जाता है, वो अच्छी तरह से हमारे फिल्मोंन में नहीं होता था|
के.के. नैयर- ये कबकी बात है?
ख्वाजा अहमद अबास- ये है सन् 40 से पहले कि बात लेकिन सन् चालीस में एक एक बड़ा दिलचस्प वाक्या हुआ कि तमाम फिल्म प्रोड्यूसर्स ने हमारे अखबार बाम्बे क्रॉनिकल जिसके एडिटर सैयद अब्दुल्लाह बरेलवी थे, उसका बायकाट कर दिया और कहा कि हम इस अख़बार में इश्तेदार ने देंगे| जब तक ये शख्स जिसका नाम ख्वाजा अहमद अब्बास है वो इसका फिल्म क्रिटिक रहेगा| तो मुझे निकला तो नहीं गया बल्कि जिसको में कहते हैं किक्ड अप स्टेय्र्स यानि एक ऊँचा ओहदा दे दिया गया कि फिल्म क्रिटिक तो एक मामूली चीज़ है हम तुम्हे संडे एडिशन का इन्चार्ज बना देते हैं और तुम इसके एडिटर मुक़र्रर किये तो नतीजा ये हुआ कि वो फिल्म रिव्यु करने का काम मुझसे ले लिया गया| तो उस जमाने में जब फिल्म रिव्यु लिख रहा था उस जमाने के एक अच्छे खासे मशहूर बम्बई के प्रोड्यूसर ने मुझे ताना दिया था कि कहानी पर ऐतराज करना तो बहुत आसन है लेकिन उसे फिल्म के लिए लिखना एक मुश्किल काम है|
के.के. नैयर- तो आपको चल्लांगे दिया?
ख्वाजा अहमद अब्बास- हाँ, पर उस जमाने में तो मैंने एक्सेप्ट नहीं किया जिस जमाने में मई फिल्म रेविव लिख रहा था, क्योंकि उस जमाने में अक्सर रिश्वत के तौर पे मुझे फिल्म प्रोड्यूसर ये कहते थे रहते थे कि भाई तुम मेरे लिए कहानी लिख दो मतलब ये था कि वो उस बहाने से मुझे हज़ार-दो हज़ार दें देंगे| और मैं चुप हो जाऊंगा| तो मैंने कहा कि मई तो आजकल फिल्म रिव्यूज लिखता हूँ इस लिए मैं आपके लिए कहानी लिख सकता हूँ|
के.के. नैयर- अच्छा ये लोग जो आपसे नाराज़ हुए तो आपने इरादतन नाराज़ किया या ईमानदारी से नाराज़ किया ?
ख्वाजा अहमद अब्बास- मैंने अपनी ईमानदारी से रिव्यूज़ लिखे और और वो अपनी ईमानदारी से नाराज़ हो गए| तो दोनों अपनी-अपनी जगह इमानदार ही थे| फिर मैंने ये सोचा कि चूँकि अब मैं एक फिल्म क्रिटिक नहीं रहा तो क्यों न एक फ़िल्मी कहानी का तजरबा कर लूँ और अपने ख्यालात फ़िल्मी कहानी के जरिए लोगो तक पेश करूँ| क्योकिं हमारे मुल्क में उस जमाने में अखबार तो बहुत कम लोग पढ़ते थे| सन् १९४५ में मैंने पीपुल्स थिएटर के लिए अपनी पहली डायरेक्ट कि हुई पिक्चर पेश कि जिसका नाम था, धरती के लाल| इसकी कहानी कि बुनियाद बंगाली के एक ड्रामे पर थी जिसका नाम था अन्नदाता उनकी बुनियाद पर इसका सिनारिओ लिखा गया था| लेकिन इसको मैंने डायरेक्ट और प्रोड्यूस किया था|
के.के. नैयर- इसमें बलराज साहनी साहब थे?
ख्वाजा अहमद अब्बास- हाँ, इसमें बलराज साहनी साहब पहली दफा पेश किये गए थे| और पहली दफा ही उन्होंने इस कदर खूबसूरत ओए मौअस्सर काम किया था| इसमें तृप्ति मित्रा भी थी और शम्भू मित्रा भी थे जो बंगाल में दो मशहूर अदाकार हैं और आजकल स्टेज पर काम करते है|
के.के. नैयर- उसके बाद?
ख्वाजा अहमद अब्बास- उसके बाद फिर वक्तन-फ-वक्तन वो पिक्चर तो तेजारती ऐतबार से तो फेल हो गई| हालाँकि पेरिस में और दूसरी जगहों पर जहाँ भी फिल्म फेस्टिवल वगेरह में दिखाई गयी| वहां काफी पसंद की गयी और आज भी वो अक्सर जो फिल्म लाइब्रेरीज हैं दुसरें मुल्कों कि और हमारे मुल्को कि भी इस तस्वीर के प्रिंट को महफूज़ रखा गया है| क्योकि उनका कहना है कि ये दुनिया कि बेहतरीन फिल्मों में से एक हैं|
के.के. नैयर- दूसरा ये भी हो सकता है कि हिंदुस्तान कि फिल्म इंडस्ट्री में तारीखी ऐतबार से भी इसकी अहमियत हो, शायद इस वजह से भी रखा है|
ख्वाजा अहमद अब्बास- हाँ क्योकि उस ज़माने तक रियलिज्म कि बुनियाद पर फ़िल्में कम बनती थीं| इस फिल्म के बारे में ये कहा जा सकता है कि ये पहली रियलिस्टिक फिल्म थी|
के.के नैयर- अब्बास साहब. धरती के लाल फिल्म ज्यादा मकबूल न हो सकी तो इससे आपको अज्म को तो थोडा धक्का पहुंचा होगा?
ख्वाजा अहमद अब्बास- हाँ, धक्का काफी पहुंचा क्योकिं हमको कम से कम छः या सात बरस लगे इसका क़र्ज़ उतरने के लिए| तो उस अरसे में हम कोई दूसरी फिल्म शुरू नहीं कर सकते थे|
लेकिन में बेकार बेठना जुर्म समझता हूँ| तो उस अर्से में मैंने हिंदी का एक परचा निकला जिसका नाम था ‘सरगम’| इसके जरिए से हम उर्दू अदब को हिंदी रस्लुम ख़त में पेश करना चाहते थे| तो उस जमाने में ये तजुरबा कर लिया गया| तीन-चार बरस तक ये मैगज़ीन निकलता रहा और बाद में तमाम हिंदी रिसाले, हिंदी पर्चे और हिंदी पब्लिशर उर्दू अदब कि तरफ मोतवज्जे हो गए| तो हमारा काम हो गया और इसके बाद ये परचा बंद कर दिया और फिर सन् 1951में हम फिर से फिल्म बनाने कि तरफ मोतवज्जे हो गए| क्योकिं पुराने क़र्ज़ अब अदा हो चुके थे|
के.के. नैयर- अपनी फिल्म बनाने कि तरफ ?
ख्वाजा अहमद अब्बास- हाँ
के.के. नैयर- आपने अपनी फ़िल्में बनाने के अलावा मेरा ख्याल ये कि चंद एक कहानियाँ दुसरे फिल्मों के लिए भी लिखी, जो दुसरे लोगों ने डायरेक्ट और प्रोड्यूस की थी|
ख्वाजा अहमद अब्बास- जी हाँ|
के.के. नैयर- तो उनका जिक्र भी करें|
ख्वाजा अहमद अब्बास- अब मैं जरा मोहतात हो गया था | पहले तज़रबे से के पहले अगर किसी ने कहा और मैंने कहानी लिख दी| और उसने जैसा चाहा उसको बना दिया| तो अब मैं किसी तरह मोहतात हो गया था और अब मैं गिने-चुनें लोगो के लिए ही कहानी लिखी है| जो लोग इन कहानियों के साथ इंसाफ कर सकते थे| तो जो इनमें से जो सबसे मशहूर और मकबूल कहानी हुई| और मेरे ख्याल में जिसका नाम था ‘आवारा’| जिसको मेरे दोस्त राज कपूर साहब ने डायरेक्ट और प्रोड्यूस किया मेरा ख्याल है कि ये फिल्म काफी मोअस्सर और कामयाब फिल्म थी|
के.के. नैयर- मैं जब नर्गिस साहबा से मिला था तो उन्होंने आपकी एक कहानी का जिक्र किया जिस फिल्म में उन्होंने काम किया, ‘अनहोनी’|
ख्वाजा अहमद अब्बास- हाँ मैं समझता हूँ कि उसमे नर्गिस कि बहुत लाजवाब अदाकारी थी और दरअसल देखा जाए तो आवारा कि और अनहोनी कि एक ही कहानी के दो रुख थे| उसमें दोनों का थीम जों था , वो एक ही था यानि कि उसमें जो दिखाया गया या दिखाने कि कोशिश कि गयी वो ये थी कि इन्सान का जो करैक्टर है वो उसके माहौल से बनता है न कि वो अपने माँ के पेट से या जन्म से ले के आता है|
के.के. नैयर- क्या ‘आवारा’ और ‘अनहोनी’ के अलावा भी कोई कहानी है जिसे आपने दुसरे लोगों को दिया?
ख्वाजा अहमद अब्बास- शांता राम जी के लिए मैंने हकीकत पर मबनी एक कहानी ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ उनके लिए लिखी थी| ये जंग के दोरान में हिंदुस्तान से पंडित जवाहर लाल नेहरु ने एक मेडिकल मिशन चाइना भेजा था| जिसमे पाँच डॉक्टर थे और जिसमे सबसे नौजवान डॉक्टर द्वारका नाथ कोटनीस थी| ये नौजवान सबसे ज्यादा अर्से तक चीन में रहे और वहाँ उन्होंने एक चीनी लड़की से शादी कर लि थी जिससे एक बच्चा हुआ और चीनियों के साथ ही कम करते हुए उनका इंतकाल हो गया|
के.के. नैयर- ये चीनी लड़की कि किरदार जयश्री ने निभाया था?
ख्वाजा अहमद अब्बास- जी हाँ और वी.शांताराम ने डॉक्टर कोटनीस का किरदार निभाया था|
के.के नैयर- फिल्म धरती के लाल के बाद आपने अपनी कहानी खुद डायरेक्ट करके प्रोड्यूस करके कौन सी फिल्म बनायी?
ख्वाजा अहमद अब्बास- ‘अनहोनी’ सन 1952 में आई है|
के.के. नैयर- उसके बाद
ख्वाजा अहमद अब्बास- उसके बाद फिर मैंने डॉक्टर मुल्क राज आनंद कि एक नावेल कि बुनियाद पर एक फ़िल्म बने जिसका नाम था ‘राही’ और उस नॉवेल का नाम है ‘ टू लीव्स एंड अ बड’ ये नॉवेल उन लोगों के बारे में है जो चाय के बागानों में काम करते हैं|
के.के. नैयर- एक गीत भी कुछ उसी तरह का था ‘एक कली और दो पत्तियाँ’
ख्वाजा अहमद अब्बास- जी हाँ, प्रेम धवन साहब ने इस गीत को लिखा था|
के.के नैयर- देवानंद साहब थे, इसमें?
खवाजा अहमद अब्बास- हाँ देवानंद साहब थे और इसमें नलिनी जयवंत भी थी|
के.के. नैयर- और म्यूजिक था अनिल बिश्वास साहब का|
ख्वाजा अहमद अब्बास- हाँ
के.के. नैयर- ये काफी मकबूल फिल्म थी उस जमाने की|
ख्वाजा अहमद अब्बास- जी हाँ आप कह सकते हैं कि ये एक मकबूल फिल्म थी|
के.के. नैयर- तो आपने इसके बाद जो मेरा ख्याल है एक मंजिल आती है, जहाँ बड़ा एक अहम मोड़ है वो है आपकी फिल्म ‘शहर और सपना’ या आपकी समझ से कोई इसके पहले का एसा दौर जिसका आप जिक्र करना चाहेंगे|
ख्वाजा अहमद अब्बास- नहीं मई अपनी फिल्म साजी को तीन हिस्सों में तकसीम करता हूँ| एक तो धरती के लाल का जमाना था, दूसरा जो अपनी कहानियां लेकर लेकिन स्टार्स को साथ में लेकर फ़िल्में बनाई, वो पीरियड मेरा ख़त्म हो गया ‘चार दिल चार राहें” तक इसमें मैंने भरपूर तरीके से स्टार्स लिए जो न सिर्फ स्टार्स थे बल्कि बहुत अच्छे एक्टर भी थे| मैनें उनको सिर्फ इसलिए नहीं लिया था कि वो बहुत बड़े स्टार थे बल्कि बहुत अच्छे एक्टर भी थें लेकिन उसके बाद मैंने जानबुझ कर एक अलग रुख अख्त्यार किया| क्योकिं उस जमाने तक स्टार्स बहुत मेहेंगे हो चुके थे| न सिर्फ पैसे के एतबार से बल्कि स्टार्स बहुत मशरूफ भी हो चुके थे| एक नया जमाना हमारी फिल्म इंडस्ट्री में आया था, एक स्टार दस-दस पन्द्रह-पन्द्रह फिल्मों के कम करने लगा था| तो मैंने ये महसूस किया कि अब अगर रियलिस्टिक तस्वीर बनानी है तो उसको नए किरदारों को लेकर नये एक्टर और एक्ट्रेस को लेकर बनानी चाहिए|
अब स्टार्स को लेक्र कमर्शियल फिल्म ही बन सकतें है| और अवाम का रुझान कुछ ऐसा हैं कि वो कामयाब स्टार्स को एक ख़ास किस्म के रोल में ही देखना पसंद करते हैं|
मसलन मैं आपको बताऊँ कि ‘चार दिल चार राहें’ में मैंने राज कपूर को एक गाँव वाले के रूप में पेश किया था और मीना कुमारी को एक काली रंगत के भंगन के रूप में पेश किया था हालाँकि दोनों ने कमल कि अदाकारी पेश कि थी लेकिन अवाम को पसंद नहीं आया| क्योकिं उनको पसंद नही आया कि उनके महबूब अदाकार को इस तरह पेश किया जाए किसी को धोती कुरता पहन दिया गया जाए| वो उनकों उसी ढंग से देखना चाहते है जिस ढंग से वो उनको कमर्शियल फिल्मों में देखते हैं| तो मैंने ये सोचा कि ये मेरी कहानियों के साथ भी नाइंसाफी हो रही है और एक्टर और स्टार्स के साथ भी नाइंसाफी हो रही है जिनको मैंने लिया था| तो’ शहर और सपना’ से फिर मेरा फिल्म साजी का नया दौर शुरू हुआ|
के.के. नैयर- और इस फिल्म में तो मेरा ख्याल है कि आपको अहमियत हासिल है| बतौर फिल्म साज कि इसको प्रेसिडेंट से अवार्ड मिला और इसमें आपने नए चेहरे भी लिए|
ख्वाजा अहमद अब्बास- जी हाँ दिलीप राज बलराज साहब के साहबजादे और सुरेखा|
के.के. नैयर- एक फिल्म और है जिसका मई समझता था कि आप जिक्र करेंगे जो गालिबन आपके नज़र से हट गयी ही, वो है परदेसी|
ख्वाजा अहमद अब्बास-हाँ, वो आप कह सकते हैं कि वो एक और पीरियड था मेरी फिल्मसाजी का| परदेसी इंडो-सोवियत को-प्रोडक्शन फिल्म थी, जिसको सोवियत के मशहूर डायरेक्टर प्रोनीनऔर मैंने मिलकर बनाई है| जिसमे एक तरफ बलराज साहनी ने काम किया था, नर्गिस ने काम किया था तो दूसरी तरफ ओलेग सि्ट्रजनेव काम कर रहे थे| ये एक नया तजरबा था इसको हमारी नया संसार और रूस कि कंपनी मोसफिल्म स्टूडियो ने मिलकर प्रोड्यूस किया था| इस फिल्म को यहाँ हमने हिंदुस्तानीं में रिलीज़ किया और उन्होंने वहा इसे रुसी में रिलीज़ किया|
के.के. नैयर- तो ‘शहर और सपना’ के बाद जो फ़िल्में आपने बनाई क्या उसमे आपने वाही अप्रोच अपनाया जो आपने ‘शहर और सपना’ में आपने अपनाया था?
ख्वाजा अहमद अब्बास- जी हाँ
के.के. नैयर- तो उनका जिक्र कीजिए आप?
ख्वाजा अहमद अब्बास- ‘शहर और सपना’ के बाद हमने एक फिल्म बनाई जो बच्चों के लिए थी और वो फिल्म थी ‘हमारा घर’| ओस फिल्म को मैंने जवाहर लाल नेहरु के हुक्म से बनाया था| और उनकी याद में बनायी थी, जब हम शहर और सपना का अवार्ड लेने गए तो पंडित जी ने हमको घर पर बुलाया और कहा कि भाई हम तो ये चाहते हैं एक फिल्म तुम हमारे लिए बनाओ, तो मैंने कहा कि साहब मैं तो हर फिल्म आपके लिए बनाता हूँ| खुसूसन ‘शहर और सपना’ तो आपके लिए ही बनायी गयी है| तो उन्होंने कहा कि नहीं जो बच्चों के लिए बनाओगे वो फिल्म हमारे लिए होगी|
के.के. नैयर- तो उन्होंने ख़ास फरमाइश कि आपसे?
खवाजा अहमद अब्बास- जी हाँ, तो मैंने कहा कि मैं आपसे वादा करता हूँ कि मरी जो अगली फिल्म होगी वो बच्चों के लिए होगी| तो इसपर वो बहुत खुश हुए लेकिन हमारी बदकिस्मती से उसके एक महीने के अन्दर उनका इंतकाल हो गया| तो हमने उनके यादगार के तौर पर और उनके हुक्म के मुताबिक ‘हमारा घर’ फिल्म बनायी| जो तेरह बच्चों कि कहानी थी| जो कि एक सुनसान और गैर-आबाद जजीरे पर पहुँच जाते हैं| और वहाँ अपनी नयी दुनिया बसा लेते हैं| उसमे जो दुनिया के मोखतलिप मसाएल हैं| ख़ास तौर से हिंदुस्तान के मसाएल जैसे जबान के, फिरकों के, मजहबों के, उनको हमने बच्चें के जरिए बयां करने कि कोशिश की है|
के.के. नैयर- तेरह कि गिनती से मुझे सात का किस्सा याद आता है,आपकी एक फिल्म थी ‘सात हिन्दुस्तानी’ उसमे आपने क्या दिखने कि कोशिश कि है?
ख्वाजा अहमद अब्बास- भाई उसमें हमने ये दिखने कि कोशिश कि है कि एक जमाने में हमारे अन्दर एक कौमी जज्बा था और वो कौमी जज्बा इतना जबरदस्त और पुख्ता था कि उस जज्बे में जो दुसरे छोटे-छोटे जज्बे थे वो दब जाया करते थे| गुम हो जाया करते थे, ये जज्बा हमारे जंगे आज़ादी के बाद हुए गोवा कि जंग-ए-आज़ादी के दौरान भी जारी रहा|
के.के. नैयर- मेरी मुलाक़ात यहाँ कुछ प्रोड्यूसर्स से हुई है| जो ये कोशिश करते है ज्यादा से ज्यादा लोग उनकी फिल्म को देखे उनको पसंद करें तो आपने जो स्टार्स को छोड़ा और ये तजरबा किया तो आप ये महसूस नहीं करते कि जो आप ये चाहते थे कि जो बात बहुत से लोगों तक पहुंचे वो बात तो उन तमाम लोगों तक नहीं पहुँचती है|
ख्वाजा अहमद अब्बास- ये सही है कि स्टार्स को छोडकर मैंने एक तरह से पब्लिक को भी छोड़ दिया, मैं उन तक नहीं पहुँचा लेकिन जो बात मैं कहना चाहता था वो कम से कम कुछ लोगों तक पहुँच जाती है| लेकिन स्टार्स को लेकर में उस अंदाज़ में नहीं कह सकता था जिस अंदाज़ में मैं कहना चाहता था|
के.के. नैयर- तो क्या नए लोगों से काम लेने में आपको मुश्किल नहीं होती है| क्योकिं स्टार्स को तो जो रोल आप देंगे आप ये उम्मीद कर सकते हैं कि वो रोल वो निभा दें|
ख्वाजा अहमद अब्बास- अगर आप बुरा न मानें और स्टार्स बुरा न मानें तो मैं एक बात कहूँगा कि स्टार्स हमेशा वो नहीं निभा पाते हैं| इसमें स्टार्स का कसूर नहीं है बल्कि स्टार सिस्टम का कसूर है| यानि आर्टिस्ट जो हैं वो स्टार के गोल्ड में गिरफ्तार हो जाते हैं| और वो उसे अनदाज़ में अदाकारी करते है जो आवाम में पोपुलर हो गयी होती है और जो करैक्टर को निभाना होता है वो कम होता चला जाता है| स्टार की जो पर्सनालिटी है वो किरदार कि पर्सनालिटी पर हावी होता चला जाता है| तो मैं ये समझता हूँ कि नए लोगों से काम लेना आसान तो नहीं है थोड़ी मुश्किलात जरुर पड़ती है| उनको ट्रेनिंग देनी पड़ती है लेकिन बाद लिहाज से मैं इसको आसन समझता हूँ और बेहतर भी समझता हूँ|
बनिस्बत उन आर्टिस्टों से काम लेने में जो स्टार के सांचे में ढल गए हैं| मैं समझता हूँ कि अब तक जितने लोगों ने काम किया हैं उनमें ज्यादातर से मैं बिलकुल मोकम्मल तौर से मुत्मईन हूँ| और ये सिर्फ मेरी जाती राय नहीं है मसलन दिलीप राज ने जब शहर और सपना में कम किया तो बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने जो कि एक बहुत ही मोसतनद एदारा है उन्होंने दिलीप राज को उस साल दिलीप कुमार,देवानंद,राजकपूर,सुनील दत्त इन चारों के मुकाबले बेस्ट एक्टर कि ख़िताब दिया था|
के.के नैयर- मेरा ख्याल है कि दिलीप राज साहब ने आपकी फिल्म ‘आसमान महल’ में भी काम किया है|
ख्वाजा अहमद अब्बास- जी हाँ, तो यही में आपसे आरज कर रहा था कि फ्रांस कि एक अदारा है जो नौजवानों कि फिल्मों के सिलसिले में बनाया गया है जिसने कालेईवारी फिल्म फेस्टिवल में दिलीप राज और सुरेख को बेस्ट नौजवान अदाकार के लिए मुतखब किया तो इसी तरह से मैंने जलाल आगा के| मैंने ‘बम्बई रात कि बाहों में’ में पेश किया और फिर जलाल आगा को नेशनल फिल्म फेस्टिवल में आउटस्टैंडिंग एक्टिंग का साइटेशन दिया गया और इस नई पिक्चर में मैंने अमिताभ बच्चन को मैंने पेश किया है और उसको भी इस साल स्पेशल कमेंडेशन एक्टिंग के लिए मिलता है|
के.के. नैयर- एक बात बताईए ये जो महंगी-महंगी फ़िल्में बन रही हैं जिसमे बहुत सारा पैसा लग रहा है और रिस्क बहुत बड़ा है| आपके ख्याल में कम सरमाया में अच्छी फिल्म नही बन सकती?
ख्वाजा अहमद अब्बास- हाँ बन सकती है और जरुर बन सकती हैं| अच्छी फिल्म के लिए अच्छा दिमाग चाहिए और रूपये कि जरुरत हर फिल्म के लिए नहीं है| किसी किसी फिल्म के लिए जरुर सरमाये कि जरुरत होती है | अगर आप कोई तारीखी फिल्म बना रहे है और कोई जुंग के ऊपर फिल्म बना रहे है| तो ऐसी फिल्मों को आप बगैर सरमाए के नहीं बना सकते लेकिन मई समझता हूँ आर्टिस्टिक तस्वीरें भी और इन्टेरेस्टिंग एंटरटेनिंग और पब्लिक कि दिलचस्पी कि तस्वीरे भी बगैर सरमाए के बन सकती हैं| तो हमारी इकनोमिक सिस्टम कि बदकिस्मती से ऐसी फिल्मों के लिए सरमाया इकठ्ठा करना आसन हो जाता है लेकिन आर्टिस्टिक रियलिस्टिक फिल्म के लिए थोडा सा सरमाया इकठ्ठा करना मुश्किल हो जाता है|
के.के नैयर- तो एक फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन फायदे के लिए ही बनायी गयी थी लेकिन बरसों तक वो जिन फिल्मों को फाइनेंस करते रहे वो सही किस्म कि फिल्म नहीं थी| लेकिन पिछले दो-तीन बरस से वो अच्छी फिल्मों को फाइनेंस कर रहे हैं| एक्सपेरिमेंटल फिल्मों को, आर्टिस्टिक और रियलिस्टिक फिल्मों को और इसका सबसे बड़ा सेहरा उनके सर ये है कि म्रणाल सेन को जो कि बंगाली फिल्मों के एक मशहूर डायरेक्टर थे उनको हिंदी में लाने के लिए फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन ने उनकी फिल्म ‘भूवन सोम” को हिंदी में लाने के लिए फाइनेंस किया और ‘भूवन सोम” न सिर्फ एक अच्छी और दिलचस्प फिल्म बनी बल्कि पहले उसे वेनिस फिल्म फेस्टिवल में अवार्ड मिला बाद में प्रेसिडेंट गोल्ड मैडल मिला| तो इसको मैं न सिर्फ म्रणाल साहब कि बल्कि फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन कि एक बहुत बड़ी कामयाबी मानता हूँ|
के.के नैयर- अब्बास साहब आपके अन्दर जो अदीब है जो आपके फिल्म साज से मुत्मईन हुई है?
ख्वाजा अहमद अब्बास- पूरी तरह से मुत्मईन नहीं है|
के.के. नैयर- वजह
ख्वाजा अहमद अब्बास- वजह उए है कि फिल्म साजी के बहुत दिमागों से दिमागों के इश्तेराक कि जरुरत होती है, अदीब तो सिर्फ अपने दिमाग से काम लेता है| और फिल्म साज जो है, वो आपने दिमाग से अपने कैमरा मैन के दिमाग से, रिसोर्सेज से, पैसे से, उन सब चीजों से मिलकर वो एक तकलीफ करता है| इसलिए मैं सो फीसदी अपनी फिल्मों से या अपने फिल्म साजी से मुत्मईन नहीं हूँ| लेकिन मई समझता हु कि मोकाबलतन हालात को देखते हुए इतनी भी बुरी फ़िल्में नहीं है|
के.के. नैयर- आइंदा आप कौन सि फिल्म बनाने वाले हैं ?
ख्वाजा अहमद अब्बास- अब मैं एक फिल्म बनाने वाला हूँ वो भी इसी किस्म कि फिल्म है जिसको लोग पागलपन कहते हैं उसी किस्म का तज़रबा है|एक फिल्म बनाना चाहता हूँ जिसका नाम तो होगा ‘दो बूंद पानी’ और उसमे राजस्थान के उस इलाके में रहने वालों के हालात पेश करने कि कोशिश करूँगा| जहाँ पानी लोगों को नसीब नहीं होता|
के.के. नैयर- अब्बास साहब पाकिस्तान कि कोई फिल्म देखी है आपने?
ख्वाजा अहमद अब्बास- पाकिस्तान तो मैं अभी पिछले दिनों पहली दफा गया था| एक हफ्ते के लिए| अपनी किसी अज़ीज़ कि शादी के सिलसिले में तो वहां मैंने दो फ़िल्में देखी| तो उनमे से एक फिल्म के बारे में सुनकर मेरा ख्याल है कि आपको दिलचस्पी होगी| और वो थी हीर-रांझा अब ये दिलचस्पी बात है कि हीर-रांझा पाकिस्तान में भी तक़रीबन उसी वक़्त बनी है जबकि हमारे यहाँ भी बनी हैं| और यहाँ भी कलर में बनी हैं और वहां भी कलर में बनीं है|
उस फिल्म को देखकर मुझ पर बहुत बड़ा असर हुआ| इसका जिक्र मैंने वहां पाकिस्तान में अपने राइटर दोस्तों से और जर्नलिस्ट दोस्तों से भी किया| और यहाँ भी कियता| और मैं आपसे भी करना चाहता हूँ| कि मैंने ये महसूस किया कि हमारे और पाकिस्तान के दरमियाँ कितनी तारीखी और कल्चरल और जबान के हिसाब से कितनी चीजें मुश्तरक हैं|
मसलन इस कहानी में हीर-रांझा कि कहानी में जो पाकिस्तान मैं बनी है (अभी मैंने हिंदुस्तान वाली फिल्म नहीं देखि है) उसमे मैंने देखा कि एक मुसलमान लड़का एक मुसलमान लड़की से मोहब्बत करता था और फिर उसमे दिखाया है कि एक मुसलमान क़ाज़ी ने रिश्वत लेकर जबरदस्ती उस लड़की का ब्याह किसी और से कर दिया| लेकिन जब ये मायूस होकर राँझा जंगलों-जंगलों फिर रहा था और खुदकुशी करना चाहता था| तो उस वक़्त एक हिन्दू मठ के जोगी ने उसको तस्सली दी और उसको कहा कि तेरे अन्दर जो लगन और मोहब्बत अपने हीर के लिए है, उसको तू भगवान के लगन में और भगवान के मोहब्बत में तू गुम कर दे| और तब तेरे मन को शांति मिलेगी| और फिर वो राँझा उस जोगी के मठ में शामिल हो गया और जोगी बन गया| और जोगियों के जो निशानात जो उनके लिबास होते हैं उसे उसने पहने और फिर वो जोगी बनकर भीक मांगता-मांगता हीर के दरवाज़े पर पहुँचा| तो ये वारिस शाह ने जैसी कहानी लिखी थी वैसी ही कहानी हिंदुस्तान में भी बनायीं गयी हैं और हिंदुस्तान में लाखो-करोड़ों जो पंजाबी है, वो इस हीर-रांझा कि कहानी से उतनी ही मोहब्बत करते हैं जिसे वारिस शाह ने लिखा है जितना कि पाकिस्तान कि आवाम और खुशुसन पकिस्तान की पंजाबी अवाम| तो मैं ये सोच रहा था कि ए=ये जो हीर-रांझा कि कहानी है वो एक छोटी सि निशानी है उन चीजों कि उन कद्रों को जो हमारे और पाकिस्तान के आवाम के दरमियाँ मुश्तरक हैं|
के.के. नैयर- एक और बार मेरे जेहन में आती है| अब्बास साहब आपकी तवज्जो ग़ालिबन उस बात कि तरफ गयी होगी के आप दुसरे लोगों के साथ मिलकर ये सोचें कि हिंदुस्तान कि जो फिल्म इंडस्ट्री है उसकी मोस्तकबील क्या है?
ख्वाजा अहमद अब्बास- मोस्तकबिल फिल्म इंडस्ट्री कि कुछ ऐसा ही है जैसा कि उस का हाल है| और उसमें अच्छी चीजें भी हैं और उम्मीद शिकन चीजें भी हैं| तो हमारी फिल्म इंडस्ट्री में जैसे कि हमारी ज़िन्दगी में दोनों रुख पाए जाते हैं मेरी अपनी जाती राय जो है जिससे आमतौर पर लोग मुत्तफिक नहीं हैं वो ये है कि फिल्म इंडस्ट्री इस किस्म कि एक इंडस्ट्री है जी कि निजी हाथों में पड़ क्र इसकी बेहतरी नहीं हो सकती है|
के.के. नैयर- तो किसी नये मोड़ कि उम्मीद करते हैं आप?
ख्वाजा अहमद अब्बास- हाँ मोड़ तो नया इस वक़्त भी मौजूद है| अच्छी फ़िल्में, नई फ़िल्में, नये किस्म के तजरबात हो रहे हैं लेकिन मुश्किल ये है कि उनको थिएटर चलने के लिए नहीं मिलते तो इन सब हालात के बावजूद कुछ लोग अच्छी चीजें पेश कर रहें है और कुछ अच्छी चीजें पेश करने कि कोशिश कर रहे है मैं इसको एक नेक फेल समझता हूँ और मैं समझता हूँ कि हमारे फनकारों में हमारे अच्छे डायरेक्टरों में, राइटरस में बड़ी जान है और बड़ी तड़प है कि इतना हौसला शिकन हालात होते हुए भी वो एक अच्छी फिल्म पेश करने कि कोशिश कर रहे हैं|
के.के. नैयर- अब्बास साहब आपका बहुत-बहुत शुक्रिया कि आपने अपना कीमती वक़्त हमें दिया ताकि हम लोगन को आपकी ज़िन्दगी आपने फन जिसमें तह्रेर अदब और जर्नालिस्म के शक्ल में और फिल्म साजी और इसके अलावा फिल्म इंडस्ट्री के मोस्तकिब्ल उसके हाल के बारे में जो आपकी राय है,वो उन तक पहुँचा सकें| आपने वक़्त दिया आपका बहुत-बहुत शुक्रिया| आदाब|
ख्वाजा अहमद अब्बास- मुझे आपका शुक्रिया अदा करना चाहिए| आदाब अर्ज़ है|