लोकगाथा सलहेस की सामाजिक प्रासंगिकता: हसन इमाम

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Sunil Kumar

Sunil Kumar is an independent cultural journalist, art researcher and art film maker based in Ghaziabad. Experiencing himself as a tool of mainstream media, where space for art writing and production of art shows is constantly shrinking, he never gave up his efforts to find options to showcase art and art matters. Having almost 14 years of journalistic experience in background, he is engaged with audio-visual and photo documentation of various tangible and intangible folk-art forms of Bihar, that also includes recording of archival interviews of living legends and oral histories of art traditions. He is recipient of Dinkar Puraskar (Bihar Kala Samman) 2017 for his writings on visual art.

लोकनाट्य विशेषज्ञ हसन इमाम से सुनील कुमार की बातचीत। पटना, नवंबर 2017

 

चित्र: हसन इमाम, रंगकर्मी व लोकनाट्य विशेषज्ञ, पटना

 

 

लोकगाथा राजा सलहेस की सामाजिक प्रासंगिकता

 

हसन इमाम,

वरिष्ठ रंगकर्मी व सलहेस लोकगाथा विशेषज्ञ, प्रेरणा, पटना।

 

मैंने अपने शोध में पाया कि बिहार के दलित समुदाय, खासकर दुसाधों और पासवानों में लोकदेवता के रूप में पूजे जाने वाले सलहेस की सूरमा से राजा बनने और राजा से लोक देवता बनने की यात्रा न केवल ऐतिहासिक यात्रा है बल्कि यह संबंधित समाज विशेष की आकांक्षाओं का सामाजिक और राजनीतिक विस्तार भी है। जब आप सलहेस की लोकगाथा को विश्लेषणात्मक नजरिये से देखेंगे तो पाएंगे कि सलहेस के बहाने वह समाज किस प्रकार अपने जीवन के यथार्थों की अभिव्यक्ति करता है और उसके जीवन की कल्पनाएं कितनी सशक्त और उम्मीदों से लेबरेज है। स्पष्ट है कि यथार्थ को उनका समाज जीता है और उनकी आंखों में बेहतर भविष्य की तीव्र ललक है, सपने हैं उम्मीदें हैं, जिनकी पूर्ति के लिए वह संघर्ष करता हैं। यही वर्गीय समाज का चरित्र भी है। दलित समाज के भीतर का यह संघर्ष सिर्फ रोटी या न्यूनतम मजदूरी का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक प्रतीकों के विनियोग का भी संघर्ष है। प्रतीकों के इन संघर्षों के बीच उनकी अपेक्षाएं पिछले चार दशकों यहां तक पहुंची हैं कि उनकी पास राजनीतिक शक्ति भी होनी चाहिए। सूरमा सलहेस का राजा सलहेस हो जाना उसी राजनीतिक शक्ति को पाने की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति की मौखिक परंपराओं में इस तरह के विरूपण की पूरी गुंजाईश होती है, इसलिए यह रूपांतरण भी सहजता से हो जाता है।