दलितों के प्रतिरोध की अभिव्यक्ति हैं सलहेस

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Published on: 21 September 2018

हसन इमाम

हसन इमाम पटना के जाने-माने रंगकर्मी है। उन्होंने राजा सलहेस समेत बिहार की कई लोकगाथाओं का विस्तृत अध्ययन किया है और सामाजिक दृष्टिकोण से उनकी विवेचना की है। लोकगाथाओं पर कई पुस्तकों का लेखन भी उन्होंने किया है।

चित्र: सलहेस लोकगायक, बाजितपुर, दरभंगा टीम, 2016। चित्र - सुनील कुमार

 

इससे पूर्व कि मैं लोकगाथा राजा सलहेस की सामाजिक प्रासंगिकता के विषय पर विस्तार से चर्चा करूं, अपनी पृष्ठभूमि के बहाने राजा सलहेस नाच की थोड़ी चर्चा करना चाहूंगा। लोकगाथाओं से मेरा पहला परिचय बचपन में हआ। मैं पटना के सेंट जेवियर स्कूल में पढ़ता था। मेरे पिताजी सेना में थे। किसी वजह से उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और पटना से हम अपने गांव चले आये। वहां मेरे पिताजी लेफ्ट डेमोक्रेटिक मूवमेंट में शामिल हो गये। मुझे पटना और सेंट जेवियर की बहुत याद आती थी। एक दिन जब मेरे पिताजी ने मुझे उदास देखा तो उन्हेंने उम्र में बड़े मेरे एक चरेरे भाई से कहा कि ‘नाच’ कंपनी आयी है, तीन दिन तक नाच होगा। इसको साइकिल पर बिठाओ और ले जाकर इसे ‘नाच’ दिखाओ। ‘नाच’ यानी लोकनाट्य।

 

उसके बाद हम रात-रात भर खुले मंच के ‘नाच’ देखने जाने लगे। मुझे नाच में जोकर का अंदाज, उसके बोलने की भाव-भंगिमा, उसके जोकरई के कारनामें, नचना-गाना आदि देखने में बहुत मजा आता। नाच देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ता था। तब यह सवाल धीरे-धीरे मन में आने लगा कि आखिर इस नाच में ऐसा क्या होता है कि इतना हुजूम उमड़ता है? साथ-साथ नाच को लेकर कई उलटी-सीधी बातें भी कान तक पहुंचती थी। तो यह जानने की भी इच्छा हुई कि लोग नाच को अच्छा क्यों नहीं मानते हैं? ये सवाल इसलिए भी मन में उमड़े कि एक दिन नाच देखने की वजह से स्कूल के मास्टरजी ने मेरी पिटाई कर दी थी। उन्होंने कहा कि आपने पिता नौकरी से इस्तीफा देकर गांव में कितना भलाई का काम कर रहे हैं और आप कैसे बेवकूफ आदमी हैं कि नाच देखते हैं। यह बात मैंने सहजता से अपने पिताजी को बताई, तो उनका जवाब था, ‘अरे जाने दो, ये सामंती लोग हैं, उन्हें क्या पता कि उन नाचों में सामंती विचारों के खिलाफ गरीब-गुरबों की आवाज है।’ मेरे पिताजी उन दिनों जमींदारों के शोषण के खिलाफ लाल झंडे के पीछे मजदूरों को लामबंद करने में जुटे हुए थे। बहरहाल, लोकनाट्यों से यह मेरा पहला भावात्मक परिचय था।

 

‘नाच’, या कहें लोकनाट्यों के प्रति यह आकर्षण, बचपन से ही प्रबल होता गया। वर्षों बाद मैं रंगमंच से जुड़ा तब उन पर काम करने और शोध करने की इच्छा बलवती हुई। सन् 2004-5 के आसपास जब मैंने काम करना शुरू किया, तब पाया कि सन् 76-77 में मैंने जिस सूरमा सलहेस या वीर सलहेस का नाच देखा था, अब वह राजा सलहेस का रूप ले चुका है। सूरमा या वीर सलहेस महज तीस वर्षों में राजा सलहेस बन चुके थे। यह रूपान्तरण क्यों हुआ इसकी चर्चा आगे हम विस्तार से करेंगे, उससे पूर्व आज यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि अपनी सांस्कृतिक विरासत के बहाने लोकगाथाओं जिसे गांव-देहातों में बहुता ‘नाच’ कहा जाता है, हम उसके सामाजिकता के प्रश्न का सैद्धांतिक निरूपण करते हैं या नहीं? सैद्धांतिक निरूपण की यह समस्या वास्तव में संपूर्ण सांस्कृतिक विरासत के समक्ष भी दिखती है।

 

मेरी समझ में जब हम सांस्कृतिक विरासत की बात करते हैं तब हमें प्रतीकों की अवधारणा के उस सिद्धांत को भी समझना होगा जिसके जरिये व्यक्ति जीवन व जीवन दृष्टि के संप्रेषण और उसके शाश्वतीकरण का प्रयास करता है और वही विरासत के रूप में हमारे समक्ष प्रकट होता है। इसके लिए यह जरूरी है कि हम समाज के वर्गीय चरित्र को भी समझें। यथा, हमारे जन्म के समय भी एक वर्गीय समाज था और आज भी है। लेकिन, तब और अब की जीवन दृष्टि में आयी भिन्नता आसानी से महसूस की जा सकती है। यानी दो जीवन दृष्टि और दो जीवन संसार। इसलिए, यह भी तय है कि दो जीवन दृष्टि और दो जीवन संसार के भीतर कोई जाति, वर्ग या समुदाय जब कला माध्यमों के जरिए अपनी अभिव्यक्ति करेगा, तब उसके अपने-अपने दृष्टिकोण भी होंगे। उसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति उसके ऐतिहासिक विकास और उसकी अवस्थाओं से इतर नहीं होगीं। राजा सलहेस ‘नाच’ या लोकगाथा राजा सलहेस एक ऐसी ही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है।

 

जाहिर तौर पर इसका समाज से गहरा सरोकार है और उपरोक्त बातों के मद्देजनर यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि सूरमा सलहेस राजा कैसे बने क्योंकि संपूर्ण लोकगाथा में सलहेस के राजा बनने की गाथा नहीं मिलती। यह भी सवाल है कि राजा सलहेस लोकदेव सलहेस कैसे बने या उन पर देवत्व का आरोहण कैसे हुआ? मैंने अपने शोध में पाया कि बिहार के दलित समुदाय, खासकर दुसाधों और पासवानों में लोकदेवता के रूप में पूजे जाने वाले सलहेस की सूरमा से राजा बनने और राजा से लोक देवता बनने की यात्रा न केवल ऐतिहासिक यात्रा है बल्कि यह संबंधित समाज विशेष की आकांक्षाओं का सामाजिक और राजनीतिक विस्तार भी है।

 

जब आप सलहेस की लोकगाथा को विश्लेषणात्मक नजरिये से देखेंगे तो पाएंगे कि सलहेस के बहाने वह समाज किस प्रकार अपने जीवन के यथार्थों की अभिव्यक्ति करता है और उसके जीवन की कल्पनाएं कितनी सशक्त और उम्मीदों से लेबरेज है। स्पष्ट है कि यथार्थ को उनका समाज जीता है और उनकी आंखों में बेहतर भविष्य की तीव्र ललक है, सपने हैं उम्मीदें हैं, जिनकी पूर्ति के लिए वह संघर्ष करता हैं। यही वर्गीय समाज का चरित्र भी है। दलित समाज के भीतर का यह संघर्ष सिर्फ रोटी या न्यूनतम मजदूरी का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक प्रतीकों के विनियोग का भी संघर्ष है। प्रतीकों के इन संघर्षों के बीच उनकी अपेक्षाएं पिछले चार दशकों यहां तक पहुंची हैं कि उनकी पास राजनीतिक शक्ति भी होनी चाहिए। सूरमा सलहेस का राजा सलहेस हो जाना उसी राजनीतिक शक्ति को पाने की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति की मौखिक परंपराओं में इस तरह के विरूपण की पूरी गुंजाईश होती है, इसलिए यह रूपांतरण भी सहजता से हो जाता है।

 

लोकगाथा राजा सलहेस के भीतर दलित समाज की वास्तविकताओं और उनकी अपेक्षाएं का द्वंद क्या है, इस पर चर्चा से पूर्व दलितों की स्थिति पर नजर डालना जरूरी है। वैदिक समाज की व्यवस्थाओं के बीच दलित आदि काल से बहिष्कृत और वंचित रहे हैं। ‘वेद’ में जिस ‘लोक’ की चर्चा है, वह वस्तुत: दलित समाज ही है। ऋगवेद में ‘लोक’ शब्द का प्रयोग जीव एवं स्थान के अर्थों में होता है – पद्भ्यां भूमर्मिद्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकां अकल्पयन् (ऋग्वेद 10/90/24)। ‘लोक’ शब्द का प्रयोग ‘वेद’ शब्द के साथ-साथ और एक-दूसरे के परस्पर भिन्न अस्तित्व के संदर्भ में भी आया है। पाणिनी ने अनेक शब्दों की निष्पत्ति के क्रम में लिखा है कि इस शब्द का रूप और अर्थ ‘वेद’ में इस प्रकार है परंतु ‘लोक’ में इस शब्द का रूप और अर्थ भिन्न समझना चाहिए। पातंजलि ने भी ‘लोक’ और ‘वेद’ का विरोधी प्रसंगों में प्रयोग किया है। महाभाष्य में आता है – केषां शब्दना? लौकिकानां वैदिकानां च। एकस्य शब्दस्य बहवो अपभ्रंशा। भरतमुनी अपने नाट्यशास्त्र के चौदहवें अध्याय में दो परस्पर भिन्न प्रवृतियों नाट्यधर्मी और लोकधर्मी का उल्लेख करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि ‘लोक’ और ‘वेद’, लौकिक एवं वैदिक दो भिन्न जीवन संसार एवं जीवन दृष्टि रही है। ‘लोक’ और ‘वेद’ का अंतरविरोधी संबंध यह सिद्ध करता है कि तब ‘वेद’ के बाहर के भी विषय मौजूद थे जो वस्तुत: ‘लोक’ के विषय थे। तदर्थ यह कि भारतीय संदर्भ में वैदिक परंपराओं एवं आस्थाओं के समानांतर और विरोधी वैचारिक धाराएं भी मौजूद थीं।

 

इस पृष्ठभूमि पर जब राजा सलहेस की लोकगाथा को सामाजिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करते हैं, तब पाते हैं कि उसमें संबंधित समाज की वास्तविकताओं और उनकी अपेक्षाओं की गाथाएं वास्तव में शोषक और शोषित समाज के बीच की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक टकराहटों की गाथाएं हैं। इसमें सामाजिक प्रतिष्ठा, मान सम्मान एवं गरिमा के लिए संघर्ष की गाथाएं भी मौजूद हैं। यथा, महिसौथा के राजा नारायण जब दो दलित युवतियों लालपरी और सबुजपरी के साथ बलात्कार की कोशिश करता है और उन्हें कैद कर लेता है, तब सलहेस उन दोनों को नारायण के चंगुल से आजाद कराते हैं। राजा नारायण के सामाजिक आतंक एवं उसके सामंती आचरण का प्रतीकार कर युद्ध में सलहेस के द्वारा पराजित करना, सलहेस का सुग्गा हीरामन जो पकड़ियागढ़ की राजकुमारी चंद्रावती के पास रहता है, आजाद कराने के लिए शैनी राजा से युद्ध करना, मोकामा के राजा चूहड़मल द्वारा सलहेस पर चंद्रावती के आभूषण चोरी करने के आरोप को नाराधार साबित करने की कोशिश और कारागार में खुद को और अन्य परहेदारों की मुक्ति के प्रयास के तमाम प्रसंग सामाजिक शोषण के खिलाफ प्रतिवाद के ही उदाहरण हैं जो लोककंठ में कथानक के रूप में रचे-बसे हैं। यहां दलित शोषण, दलित स्त्री शोषण और इस पूरे संदर्भ में दलित स्त्री मुक्ति का प्रश्न भी स्वभाविक रूप से जुड़ जाता है।

 

राजा सलहेस लोकगाथा में सामाजिक वर्जनाओं का संघर्ष भी मुखरता से उपस्थित है। खासतौर पर विवाह व्यवस्था की वर्जनाओं के खिलाफ। दुसाध कुल के होने के बावजूद सलहेस, उनके छोटे भाई मोतीराम और बुधेसर का विवाह क्षत्रिय राजकुमारियों से होता है। ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था इस तरह के विवाहों को अवैध मानता है और इसे अधर्म माना जाता है। विष्णुपुराण प्रतिलोम विवाह – क्षत्रिय पुरुष एंव ब्राह्मण स्त्री को विगर्हित बताता है और उनसे उत्पन्न संतानों को अवैध बताता है। मनुस्मृति में इसकी कड़ी मनाही है। इसके बावजूद, सलहेस लोकगाथा की उच्च कुल की नायिकाएं, अछूत जाति के नायकों से विवाह का प्रण करती हैं। सलहेस को विराटनगर की राजकुमारी सती सामर या सांवरवती से विवाह हेतु राजा विराट से युद्ध करना पड़ता है। सलहेस के छोटी भाई मोतीराम की शादी तीसीपुर, बंगाल के क्षत्रीयवंशी राजा मुनी जमींदार की बेटी कुसुमावती से युद्ध के पश्चात् ही संभव होती है। बुधेसर का विवाह श्यामलगढ़ की क्षत्रिय राजकुमार श्यामलवती से होती है। यहां भी सलहेस को श्यामलराज से युद्ध करना पड़ता है। इन प्रसंगों में दलितों और स्त्रियों द्वारा सजातीय विवाह व्यवस्था के निरंकुश प्रावधानों एवं सामाजिक-धार्मिक वर्जनाओं को न केवल चुनौती दी गयी है, बल्कि उसे ध्वस्त किया गया है जिसमें स्त्री एवं दलित अपने स्वाभाविक जीवन साथी चुनने के अधिकारों से वंचित कर दिये गये थे।

 

राजा सलहेस और उनकी पूरक गाथा रेशमा चूहड़मल में आर्थिक सवालों, खासतौर पर पशुधन की सुरक्षा के सवाल पर संघर्ष के कई उदाहरण मिलते हैं। यह तथ्य है कि दलित भू-संपदा से वंचित थे और उनकी आजीविका का मुख्य साधन पशुपालन था। जमींदार द्वारा दलितों पर आर्थिक अत्याचार होते थे जिसमें बेगारी करवाना, पशुधन पर कब्जा कर लेना, दलितों के पशुओं को अपनी परती जमीन पर नहीं चरने देना आदि शामिल थे। महिसौथा का राजा नारायण भी ये अत्याचार करता था। एक प्रसंग में यह चर्चा है कि नारायण ने प्रजा पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए एक बार राज्य के सभी गायों को फाटक में बंद कर दिया और गायों की रखवाली के लिए ‘पिछड़ा’ नाम के एक बलिष्ठ तथा ‘बासोछत्र’ नाम के एक नाग को पहरेदारी पर लगा दिया। सलहेस दोनों के परास्त कर पशुधन संपदा की रक्षा करते हैं। यह गौर करने वाली बात है कि बिहार के भूगोल में किसी दलित राजा की चर्चा नहीं है, सलहेस राजा नहीं थे, लेकिन उनसे दलितों की अपेक्षा यह है कि उनके बीच से एक नायक राजा की तरह नारायण के पास जाएगा, उसे चुनौती देगा और उसे परास्त कर उनकी गायों को मुक्त कराएगा।

 

राजा सलहेस की लोकगाथा में एक प्रसंग है ननमहरी मंदिर का। महिसौथा राज में एक ननमहरी मंदिर था। अन्य मंदिरों की तरह ननमहरी मंदिर में भी दलितों का प्रवेश वर्जित था। कहा जाता है कि जब सलहेस वहां पूजा के लिए जाते हैं और मंदिर का घंटा अपने आप बजने लगता है और घंटे की आवाज सुनकर मंदिर के भीतर से एक बाघ निकलता है। उस बाघ को देखकर सलहेस के भाई मोतीराम उससे युद्ध के लिए ताल ठोंकता है। कहा जाता है ताल की आवाज से वहां दो घटनाएं होती हैं। एक, ताल की आवाज सुनकर बाघ वापस मंदिर के भीतर चला जाता है और दूसरी घटना यह होती कि ताल की आवाज से मंदिर का एक भाग टूटकर मधुबनी के झहुरी पोखर के पास गिरता है और उस स्थान पर दलितों का एक मेला शुरू हो जाता है। आज वहां सलहेस का मंदिर है।

 

यह सिर्फ प्रसंग भर नहीं हैं। इसे वैदिक परंपराओं के आइने में भी देखने की जरूरत है जहां दलितों को मंदिर प्रवेश की इजाजत नहीं थी और उन्हें देवताओं से दूर रखा गया था। धर्म अगड़ी जातियों के लिए दलितों के शोषण का वैचारिक आधार था। इस शोषण के खिलाफ संघर्ष की अभिव्यक्ति कितनी सूक्ष्मता से इस महागाथा में है, जरा कल्पना कीजिए। सलहेस की प्रतीकात्मकता लिए एक दलित तमाम प्रतिबंधों को चुनौती देते हुए मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश करता है। इसके लिए वह याचना नहीं करता है। जब लोकतांत्रिक तरीके से उसे मंदिर प्रवेश की इजाजत नहीं मिलती है वह प्रतीकार करता है, ताल ठोंककर और जब उससे भी बात नहीं बनती है तब अपने ताल ठोंकने से टूटे मंदिर के भाग के अपने लिए नये व वैकल्पिक पूजा स्थल का निर्माण कर लेता है। प्रतीकात्मकता का यह अद्भुत प्रयोग है। उन्होंने अपने लिए सलहेस के रूप में वैकल्पिक भगवान गढ़ लिया और गहवरों के रूप में अपने लिए वैकल्पिक पूजास्थलों का भी निर्माण कर लिया। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि यह लोकगाथा दलितों की अपेक्षाओं का एक तरह से सशक्त और मौखिक दस्तावेजीकरण है।

 

दलितों की इन सशक्त अभिव्यक्तियों की धार को कुंद करने के लिए शोषक समाज ने उनके समक्ष कल्चरल हेजोमनी के रूप में एक नयी चुनौती प्रस्तुत की और वह चुनौती प्रत्यक्ष हुई दलितों की प्रतीकात्मक नायकों में देवत्व के आरोहण के रूप में। राजा सलहेस में देवत्व का आरोहण भी उसी का एक परिणाम है और यह तब स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है जब हम इसे जातीय पूर्वाग्रह की दृष्टि से नहीं, लोक की नजर से देखते हैं। मैंने अब तक जिन नाच पार्टियों को अपने अध्ययन के दौरान देखा है, उनमें से ज्यादातर के मालिक दलित नहीं हैं, बल्कि उच्च जाति के हैं। इसकी वजह भी साफ है। नाच पार्टी चलाने के लिए उनके पास सामर्थ है। ऐसे ही एक नाच पार्टी के मालिक ने मुझे सलहेस के जन्म को लेकर मजेदार कहानी बतायी। उस कहानी के मुताबिक सलहेस दुसाध नहीं थे, दैवक पुत्र थे। उसकी कथा भी उन्होंने कही। उनके मुताबिक बारह वर्षों से तपस्या में लीन वाक् मुनि की तपस्या मंदोदरी या मायावती नाम की एक अप्सरा भंग कर देती है। तब मुनि उन्हें श्राप देते हैं कि मंदोदरी को संतान नहीं होंगे। मुनि के शाप से व्यथित अप्सरा जब क्षमा याचना करती है तब मुनि एक अमरफल खाने के लिए देते हैं और कहते हैं कि इससे तुम्हें पुरइन के पात पर चार बच्चों की प्राप्ति होगी। मंदोदरी को सलहेस, मोतीराम, बुधेसर और बनसप्ति पुरइन के पात पर मिलते हैं। तब वे दुसाध कहां थे? सलहेस दैवक पुत्र थे, उन्हें दैवक पुत्र बताने से उनमें देवत्व का आरोहण आसान हो गया। अब सलहेस देवता हो गये और सलहेस की पूजा उन्ही विधि-विधाओं के जरिये होने लगी जिसके खिलाफ खुद सलहेस का संघर्ष था। इस तरह से दलितों के संघर्ष को कुंद करने की कोशिश की गयी और अनजाने में ही सही दलित उसी कल्चरल हेजोमनी का शिकार होते चले गये, जिसका वो अबतक विरोध करते चले आए थे।

 

बहरहाल, सलहेस ही नहीं, सलहेस के साथ-साथ रेशमा-चूहड़मल और दीना-भद्री समेत तमाम लोकगाथाएं ‘लोक’ और वेद के बीच के सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक संघर्षों के विविध रूपों को सामने लाते हैं और इनका सम्मिलित राजनीतिक चिंतन कुछ इस तरह से उभरता है कि दलितों एवं मेहनतकशों को अपने सामाजार्थिक अधिकारों के लिए सामंती पूंजीवादी एकाधिकार के खिलाफ संघर्ष करना होगा और संघर्ष का अंतिम लक्ष्य, सामंती पूंजीवादी एकाधिकार की पोषक एवं रक्षक राजनीतिक व्यवस्था का खात्मा कर, दलित एवं मजदूर वर्ग के नेतृत्ववाली राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करना होगा। इस तरह से ये लोकगाथाएं उन सारे धार्मिक-राजनीतिक दर्शनों को खारिज कर देती हैं जो सत्ता को ईश्वरीय देन (Divine theory of Kinship) तथा सत्ता पर खास जाति के (ब्राह्मण, क्षत्रिय) के अधिपत्य को ईश्वरीय विधान मानता है।

 

यहां जाने-माने इतिहासकार प्रो. इम्तियाज अहमद की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण हो जाती है कि 'आक्रोश, प्रतिरोध और उत्पीड़न का एहसास ऐसी बहुत-सी भावनाएं मानव प्रवृत्ति का स्वभाविक अंग हैं। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति के तरीके व्यक्ति के स्वभाव के अलावा जाति, वर्ग, आर्थिक परिस्थिति और सामाजिक हैसियत पर निर्भर होते हैं। जिस प्रकार से एक ब्राह्मण या जमींदार इन भावनाओं को व्यक्त करता है उस प्रकार दलित व्यक्त नहीं कर पाता। इसका मतलब यह नहीं कि उसके अंदर इन भावनाओं का एहसास नहीं है। केवल उनके द्वारा इन भावनाओं को व्यक्त करने का तरीका अलग होता है।' राजा सलहेस, रेशमा चूहड़मल, दीना-भद्री समेत तमाम लोकगाथाओं का अगर सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाये तो प्रो. इम्तियाज अहमद की टिप्पणी के मायने समझे जा सकते हैं और यह भी समझा जा सकता है कि किस तरह से ये लोकगाथाएं मेहनतकशों के रोजमर्रे के अनुभवों एवं संघर्षों के बीच जन्म लेते सपनों एवं आकाक्षांओं की कलात्मक अभिव्यक्ति है, सामाजिक उत्पीड़न, आर्थिक शोषण एवं राजनीतिक व धार्मिक अपवर्जन के खिलाफ दलितों के बीच उपजते प्रतिरोध की मुखर अभिव्यक्ति है।