लोकनाट्य राजा सलहेस का रंग विधान: प्रो. प्रफुल्ल कुमार सिंह 'मौन'
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लोकनाट्य राजा सलहेस का रंग विधान: प्रो. प्रफुल्ल कुमार सिंह 'मौन'

in Interview
Published on: 21 September 2018

Sunil Kumar

Sunil Kumar is an independent cultural journalist, art researcher and art film maker based in Ghaziabad. Experiencing himself as a tool of mainstream media, where space for art writing and production of art shows is constantly shrinking, he never gave up his efforts to find options to showcase art and art matters. Having almost 14 years of journalistic experience in background, he is engaged with audio-visual and photo documentation of various tangible and intangible folk-art forms of Bihar, that also includes recording of archival interviews of living legends and oral histories of art traditions. He is recipient of Dinkar Puraskar (Bihar Kala Samman) 2017 for his writings on visual art.

Prof. Prafull Kumar Singh 'Maun' in conversation with Sunil Kumar on the theatrics of the folklore of Raja Salhesh in Vaishali, Bihar, October, 2017.
 

 

सलहेस नाच को मैंने तीन रूपों में देखा है। पहला रूप जो एकदम क्रूड, एकदम विशुद्ध ग्राम्य परिवेश में ग्राम्य कलाकारों द्वारा अभिनीत जो मैंने देखा, वह नरहन में। नरहन समस्तीपुर जिला में पड़ता है। वहां यंग, यानी युवा सलहेस और युवती कुसमा-मालिन दोनों एकदम सामान्य ग्राम्य वेशभूषा में  एकसाथ अपना अभिनय कर रहे हैं और बहुत ही मुझे स्वभाविक लग रहा हैै। उसको देखकर ये मुझे याद आ रहा है श्याम बेनेगल की रामकथा, जो अत्यंत सहज और ग्राम्य परिवेश में प्रस्तुत करने का एक मौलिक रूप था, वही वहां सलहेस का रूप था। इसमें सलहेस मात्र एक गमछा लपेटे हुए था। खुली देह, धूल से भरा हुआ और धूल में लोटते, अभिनय करते हुए दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करते दिखाई दिया।

 

इसका दूसरा रूप जो मैंने देखा, गढ़ महिसौथा में। गढ़ महिसौथा नेपाल में, नेपाल तराई में राजा सलहेस की जन्मभूमि माना जाता है। वहां मैंने देखा। वहां सलहेस का विशाल एक गवहर है। उस गवहर के प्रांगण में जो मैंने सलहेस नाच देखा वह विशुद्ध पारसी थियेटर शैली में प्रस्तुत किया जा रहा था। पारसी थियेटर शैली का मतलब यह हुआ कि ढोल और नगाड़े पर नाच का आरंभ होता था और सतत नगाड़े बजते रहते थे और कलाकार अपनी भंगिमाएं प्रस्तुत करता जाता था। सलहेस उसमें विशुद्ध पारसी थियेटर की वेशभूषा में काफी चमक दमक वाली पोशाक में मंच पर आता है और वह जोर-जोर से बोलता है। पारसी थियेटर की यही विशेषता मैंने देखी कि जोर-जोर से बोलना। यह समझिये कि एक उन लोगों की मुख्य प्रवृत्ति होती थी। चाहे भाव जो भी हो, लेकिन जोर-जोर से बोलना उनकी आदत थी। इस तरह से ऑर्क्रेस्ट्रा का जहां तक सवाल है, उस पारसी थियेटर में सब पारसी थियेटर वाला ही ऑक्रेस्ट्रा था। ढोल नगाड़ा पिपही। इसको देखने के बाद ऐसा लगा कि पारसी थियेटर शैली भी और उसमें भी सलहेस को निभाया जा रहा है।

 

तीसरा मंचन मैंने देखा पटना में, आधुनिक कला मंच पर, आधुनिक नाट्य मंच जिसको बोलते हैं, उस पर मैंने देखा, इसमें सलहेस नाच को दिखाया जा रहा था। सारा दृष्टिकोण विशुद्ध आधुनिक था, तकनीक आधुनिक थे, लाइट और  साउंड की व्यवस्था थी। और सारे किरदार अपने भाव भंगिमा में अपनी-अपनी भूमिका निभाते जा रहे थे। ऐसी स्थिति में लगा कि सलहेस को हम जिस रूप में भी देखें, उसमें एक उद्देश्य होना चाहिए और हर कला शैली का अपना एक उद्देश्य होता है। और, हर नाट्य निर्देशक उस उद्देश्य विशेष को ही केंद्रित करके अपनी चीजों को प्रस्तुत करता है ताकि उसकी प्रासंगिकता बनी रहे। तो आधुनिक मंच में यही दिखाया गया कि सलहेस राष्ट्रीय एकता के प्रबल पक्षधर हैं, और उसी तरह से अन्य में भी दिखा गया कि उनका कौन सा रूप लोकग्राही है, कौन-सा रूप संवेदनशील है, कौन-सा रूप उपयोगी है।

 

इन सबों से अतिरिक्त एक भंगिमा दी श्याम भाष्कर ने मधुबनी में। राजा सलहेस पर 52 एपिसोड की एक फिल्म बनी, धारावाहिक बना। उसका प्रीमियर भी हुआ, लेकिन तकनीकी करणों से वह आजतक रिलीज नहीं हो सका। वह अपने आप में एक बढ़िया डॉक्यूमेंटेशन था जिसे लोग नहीं देख सके। इस तरह से सलहेस को लोगों ने अलग अलग ढंग से अलग अलग विधाओं में प्रस्तुत करने की कोशिश की है और यह एक ऐसा प्रयोग है जिसकी संभावना हमेशा बनी रहेगी। तो इस तरह से आपने देखा कि सलहेस को हम जिस रूप में भी देखें, उसके पीछे एक उद्देश्य होना चाहिए। चाहे हम पारसी थियेटर के माध्यम से देखें, चाहे हम लोकमंच की दृष्टि से देखें, चाहे हम आधुनिक मंच की दृष्टि से देखें, चाहे फिल्म की दृष्टि से देखें।

 

उसके कलाकार सभी ग्रामीण क्षेत्र के होते थे, उनकी शिक्षा दीक्षा बहुत मामूली होती थी, लेकिन यथा संभव उन्होंने अपने चरित्र को बनाकर रखने की कोशिश की, क्योंकि चरित्र को हम रिफ्लेक्ट करते हैं नायक के माध्यम से, जो कलाकरों ने हमेशा निभाने की कोशिश की। अब रही बात वाद्य यंत्रों की, तो वाद्य यंत्रों में तो पारंपरिक वाद्य यंत्र ही खासकर के ढोल, नगाड़ा, पिपही और क्लारनेट की प्रधानता होती थी। क्लारनेट एक प्रमुख वाद्य यंत्र होता था जबकि सलहेस गाथा के गायन में मूलत: ओरनी बाजा का प्रयोग विशिष्ट है। ओरनी बाजा एक तंतु वाद्य है छोटा-सा जिसपर गाथा गायक सलहेस की गाथा को गाया करते हैं। आज वह विलुप्ति के कगार पर है। आज खोजने से भी ओरनी मिलने वाला नहीं है। लेकिन, गाथाओं में, गीतों में उसकी चर्चा बेहद हुई है।

 

जहां तक किरदारों द्वारा निभाया गया चरित्र हमें आकृष्ट करता है इसका पहला कारण यह है कि हमारे समाज से ही जाता है और अपने समाज के लोगों को हम उस रूप में कुछ क्षण के लिए भी देखते हैं तो आत्मीयता महसूस होती है और वो भी अपने किरदार के प्रति अधिक आत्मीय होते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि उन किरदारों को सजीव और सशक्त बनाने के लिए स्थानीय कलाकारों का योगदान उपयुक्त होगा और अधिक उपयुक्त हुआ है।

 

अब रही बात संवादों के बोलने की तो पारसी थियेटर में बड़ी जोर-जोर से जोर-जोर से आवाज में किसी भी भाव-भंगिमा की बात हो, जोर से बोलने की प्रवृति होती है। यह तो कहीं-कहीं बड़ा अस्वभाविक-सा लगता है, लेकिन वहां तो ध्वनि प्रसारक यंत्र की सुविधा तो थी नहीं, इसलिए जोर से बोलना आवश्यक हो जाता था, ताकि दूर-दूर तक बैठे हुए दर्शक उन्हें सुन सकें। इसलिए यह आवश्यक है कि वो जोर-जोर से ही बोलेंगे, भले ही उसकी भाव-भंगिमा उसके डायलॉग से भिन्न हो, लेकिन वो बोलेंगे ही। पारसी थियेटर में तो स्पष्ट है कि वेश-भूषा का आत्यधिक महत्व होता है। राजा है तो राजा के लायक होना चाहिए, सिपाही है तो सिपाही के लायक होना चाहिए। माथे पर बड़ा-बड़ा बाल, मुकुट, देह पर शेरवानी, पीछे लगा हुआ पिछोला, और आगे की और से हाथ में तलवार या भाला, उनके जो मुख्य अस्त्र थे, सलहेस के, यह तो होना ही चाहिए क्योंकि इससे एक परफेक्टनेस आता है कि राजा सलहेस ऐसे ही थे। उनका आयुध भाला था, भाला मतलब लौह का अविष्कार हो चुका था। लेकिन इतिहास की दृष्टि से देखें तो यह स्पष्ट है कि लोहे के अविष्कार के बाद की ही सलहेस की गाथा है क्योंकि जब लोहे का अविष्कार ही नहीं हुआ तब लोहे का भाला कहां से आया, तलवार कहां से आया। यद्यपि इनकी गाथा में जहां तहां तोप और बंदूक की बात आ गयी है। यह विशुद्ध गलत है और ऐसे तत्वों को छांट करके प्रस्तुत करना चाहिए था क्योंकि ऐतिहासिक भ्रांति हम ही डालते हैं और हम ही उन्हें खंगाल कर अलग भी कर सकते हैं। इन्हीं सब भ्रांतियों के जुड़ने से उनकी गाथा और नाच की परंपरा लंबी होती चली गयी है।

 

इस नाट्य मंच के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण काम किया है महेंद्र मलंगिया ने। मलंगिया जी ने एक एक नाच और उससे जुड़ी नाट्य मंडलियां, उनका इतिहास खंगाल करके प्रस्तुत करने की कोशिश की है कि ये नाट्य मंडलियां आज क्यों नहीं है, या आज घटती क्यों जा रही हैं। इसलिए कि उसका कोई डिमांड नहीं है। यह तो सलहेस जयंती के अवसर पर इसे प्रस्तुत किया जाए और तो कोई अवसर बनता नहीं है जो किसी खास मौके पर नाच मंडली बना दी जाये। हां, एक तकनीकी विशेषता यह आई है कि उसके कैसेट्स बनने लगे हैं। यह बड़ी संख्या में सलहेस संबंधी कैसेट्स बने हैं, गीतों के और उन गीतों के कैसेट्स के माध्यम से भी हम सुन सकते हैं, मंडलियों की जरूरत नहीं होती है। तो यह कैसेट भी एक मार्केट बन गया है।

 

इसका कारण यह है कि व्यावसायिक मंडलियां से जुड़े हुए जितने भी किरदार या कलाकार थे उनकी रोजी रोटी का सवाल प्रमुख हो गया। उससे उनका पेट नहीं भरता था। क्योंकि साल में एक दो बार हो गया उससे उसका साल भर का जीवन यापन नहीं चलता था। इसलिए स्थायी रोजगार की और इन लोगों ने अपना रास्ता बदल लिया। आज बहुत सारे कलाकार दूसरे-दूसरे पेशों में लगे हुए हैं। कोई ऑर्केस्ट्रा चलाता है, कोई नाच गान की मंडली चलाता है, कोई छोकरवारी नाच करता है वगैरह-वगैरह। जो सालो भर उसका किसी न किसी बहाने, शादी ब्याह के मौके पर चलता रहता है। तो इस तरह से स्थायी वृत्ति पकड़ने के खयाल से मंडलियों के लोगों ने इससे अपना निरंतर संपर्क बनाये रखना व्यवहारिक नहीं समझा।

 

नाच मूलत नृत्य का पर्याय है। नाच लोकपर्यायवाची शब्द है, मूलत यह समझें कि लोक भाषायी पर्याय है नाच। तो यहीं अंतर स्पष्ट मालूम पड़ता है कि अभिजात्य भाषा में जिसे हम नृत्य या नाट्य बोलते हैं उसे हम लोक भाषा में नाच बोलते हैं। यहीं पर दृष्टिकोण में एक भिन्नता दिखायी पड़ती है कि अभिजात्य दृष्टिकोण और जनसामान्य दृष्टिकोण। जनसामान्य के अधिक चाहने वाले थे इसलिए नाच शब्द अधिक प्रचिलत हुआ। अभिजात्य लोग तो कोठे में भी ड्रामा देख लेते हैं, कर लेते हैं, मंच पर देख लेते हैं। कहीं न कहीं ऐसी जगह देख लेते हैं जहां उन्हें हर तरह की सुविधा देखने सुनने उठने बैठेने अल्पाहार वगैरह की व्यवस्था होती है, लेकिन नाच में तो ऐसी बात नहीं है। न तो कहीं भी बैठकर आप आनंद से देख सकते हैं, खुले आसमान के नीचे, वहां कोई एक दायरा नहीं होता है, न वहां कोई मेकअप रूम होता है। और लोग आराम से अपनी भंगिमा बदल कर आते हैं मंच पर चले जाते हैं फिर भंगिमा बदलकर मंच से चले जाते हैं।

 

उपहास के पात्र का जहां तक सवाल है, मैथिली नाच में ऐसी स्थिति कभी नहीं आयी है। भोजपुरी में आयी है अवश्य। क्योंकि भोजपुरी में, भोजपुरी के भिखारी ठाकुर जितने अधिक लोककलाकार थे और लोक को जिस सच्चाई के रूप में उभारने की कोशिश की है वह अपने आप में अद्वितीय है। और इस रूप में उपहास के पात्र बनते चले गये क्योंकि गांव का कोई एक पात्र कलकत्ता चला जाता है नौकरी के खयाल से या किसी के खयाल से और वहां बाई जी के कोठे पर फंस जाता है। या भाई भाई में बिछोह हो जाता है दुश्मनी हो जाती है भाई-बिछोह नाटक या इनके भिखारी ठाकुर के जितने भी नाटक है सभी विदेशिया नाम से कहे गये है, विदेशिया क्यों, ये विदेशिया शब्द क्यों आया। भिखारी ठाकुर ने विदेशिया शब्द क्यों रखा, क्योकि अपने ग्रामांचल से बाहर जाने को विदेश जाना कहते थे, चाहे वह असम जाये या कलकत्ता जाये। तो इस विदेश की स्थिति मानसिकता यही थी। और विदेश में क्या-क्या प्रकृतियां होती हैं वह आम जन से भिन्न होती हैं। इस भिन्नता को भिखारी ठाकुर ने जितनी नग्नता के साथ प्रस्तुत किया है उतनी नग्नता के साथ मैथिली नाचों में नहीं हुआ है।

 

कलाकार जब किसी एक भाव भंगिमा में केंद्रित होकर जब कुछ करना चाहता है, तो उसमें चरित्र की महानता या महान चरित्रों को पकड़ने की जरूरत होती है और ऐसे महान चतित्र जिसमें अनेक तत्व सन्निहित हों। सलहेस में यही विशेषता है क्योंकि एक लंबी परंपरा होने के कारण इसमें अनेक लोक तत्वों ने और लोक रंगों ने अपनी खोज कर ली है। किसी ने मिट्टी में उसे गढ़ने की बना ली कि राजा सलहेस हाथी पर चढ़े हुए हैं, राजा सलहेस घोड़ा पर चढ़े हुए हैं, राजा सलहेस घोड़ा पर भी चढ़े हुए हैं ऐसी मूर्तियां महिसौथा साइड में मिलती है और राजा सलहेस हाथी पर भी चढ़े हुए हैं। यानी राजा सलहेस जब पहरेदारों के प्रमुख थे, तब घुड़सवारी करते थे, घोड़े पर चढ़कर अपने क्षेत्र की देखभाल किया करते थे। लेकिन जब वो राजा हो गये, तो वो हाथी पर बैठ गये। हाथी पर बैठ गये तब राजा हो गये।

 

इस तरह से ये हुआ कि स्थिति जो बदलती है, मानसिकता इसी रूप में बदलती है। तो कलाकार खोजता है तो वह हाथी बना दिया, हाथी पर बैठा हुआ। आज तो कंक्रीट का हाथी बनता है, सीमेंट का हाथी बनता है, स्थायी। उसे भसाने की जरूरत नहीं है। उसको साल में एक दो बार धो पोंछ के चमका दो। ऐसी ही सलहेस की मूर्ति आपको लहरियासराय में भी है। विशाल मंदिर है, उसकी मूर्तियां विशिष्ट है और उसी पैटर्न की बनी है जिस पैटर्न की गढ़ महिसौथा में बनी है। तो मूर्तियों की कला, चित्र की कला।

 

अब चित्र की कला पर आइये। चित्रकारों ने इसे बड़ा बनाया। इसका सबसे बड़ा केंद्र लहरियागंज है जहां सलहेस के चित्र बड़ी संख्या में बनते हैं। मैंने अपनी आंखों से जाकर देखा। वह शिवन पासवान और ललिता देवी को देखा कि सलहेस का चित्र बड़ी गंभीरता से बना रही हैं। विकलांग हैं लेकिन सलहेस का चित्रण कर रही है। अब सलहेस का चित्रण करने के लिए किस प्रकार का चित्रण किया जाएगा। मान लीजिए कुसमा मालिन को दिखाना है तो कुसमा मालिन की विशेषता होनी चाहिए। मालिन है तो उसके हाथ में फूलडाली होनी चाहिए, जिस फूलडाली में वह फूल तोड़कर जमा करे और अपने ईस्ट को चढ़ावे या ईस्ट की प्रसन्नता के लिए फूल की सैय्या बनावे या फूल का मोर मुकुट बनाये या फूल से उसके देह को सजाये। तो कुसमा मालिन फूलडाली लिये हमेशा राजा सलहेस के बगल में खड़ी मिलती है। इससे दोनों के बीच एक आत्मीय संबंध अंतप्रेमसंबंध को उजागर किया गया है जबकि दोनों कभी खुलकर प्रेम के मार्ग में नहीं आये। हां कुसमा और दौना दोनों मालिन बहने हैं और ये दोनों बहनों ने मन से राजा सलहेस का वरन किया था इसलिए वह उनके हर सुखदुख में साथ देती है। जब मालिनों को मालूम हुआ कि सलहेस को पकड़ लिया गया है चोरी के जुर्म में, यद्यपि सलहेस उस जुर्म में नहीं थे, लेकिन रखवाली उन्हीं की थी इसलिए जवाबदेही उनकी बनती है। तो इनको पकड़ लिया गया। तो मालिनों ने आकर के राजा के यहां एक अपना लिखित ताम्रपत्र दिया, दस दिन का समय मांग लिया और उस दिन में चोर को पकड़कर हाजिर करने का वचन दिया, लिखित तब जाकर सलहेस को मुक्ति मिली।

 

तो इस तरह से जब सलहेस संकट में पड़ते हैं तो इन मालिनों ने उन्हें अपना मार्गदर्शन दिखाया है। ये दोनों मालिनें पर्वतीय गुफा में रहती थीं। और गुफा का एकांत प्रेम और गुफा का एकांत साधनास्थल, साधनास्थल मैं इसलिए जोड़ रहा हूं कि ये प्रेम साधिका थीं, कुसुमा और दौना प्रेम साधिका थीं, इसलिए प्रेम साधनास्थल और बारह वर्षों तक खीर लांघती रही, एक उद्देश्य से कि सलहेस की प्राप्ति हो, लेकिन कभी खुलकर सलहेस से नहीं कहा, दोनों भीतर ही भीतर एक दूसरे के प्रति। लेकिन सलहेस को तो राजपाट की चिंता थी। वो तो कुसुमा दौना तक सीमित नहीं थे, वो तो बड़े उद्देश्य के लिए काम कर रहे थे। तो अंत में जब मिथिला विजय भूटियों ने नहीं किया ऐसी स्थिति में देश की सुरक्षा कायम की और देश को सुरक्षित निकाल लिया उसके बाद सलहेस इन दोनों को इनकी गुफा में आकर धन्यवाद देते हैं।

 

राजा सलहेस के संबंध में ऐसा कोई डॉक्यूमेंट्री प्रूफ नहीं है। लेकिन जिन स्थानों को चिन्हित किया गया है राजा सलहेस के गढ़ के रूप में उन जगहों में जाकर मैंने देखा, पुराविदों के साथ जाकर मैंने देखा, और वह एक ऐसी जगह है जिसे खपटेडारा कहते हैं, खपटेडारा मतलब पॉटरी पिसेज वाली जगह, जहां पॉटरी पिसेज बहुत मिलते हैं। वह एक ऐसी जगह है, पहाड़ की तलहटी में तीन ओर से घिरा हुआ और चौथी ओर खुला हुआ। उसको लोगों ने सलहेस का स्थान माना है लेकिन जहां तक इसिहास का प्रश्न उठता है उस खपटेडारा से जो पॉटरी पिसेज मिले हैं वह एनबीपी के हैं। एनबीपी तो  बहुत ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक चला जाता है। राजा सलहेस का पीरियड तो इतना पुराना कभी नहीं हो सकता है क्योंकि इसकी सारी चीजें जितनी मिलती है गुप्तोत्तर काल की है, उससे अधिक प्राचीन नहीं है। तो ऐसी स्थिति में इतिहास को टटोलने की अपेक्षा इतिहास को स्थापित करने की चेष्टा होनी चाहिए थी। मैंने वहां के सिरहा कॉलेज में उन पुरावषेओं को संकलित करके दे दिया कि इसे तुम रखो, वे चीजें वहां सुरक्षित हैं। मेरे साथ डॉक्टर भुवनेश्वर गुरमैता भी थे, माने एक से एक विद्वान लोग थे जिन लोगों ने जा करके उस खपटेडारा का अध्ययन किया था।

 

राजा सलहेस की गाथा सामाजिक दृष्टिकोण से, आर्थिक दृष्टिकोण से और कहिए धार्मिक दृष्टिकोण से इतनी प्रासंगिक क्यों हो गयी। क्योंकि कोई भी जाति किसी भी जाति की पहचान उसके द्वारा स्थापित या उसके द्वारा मान्य लोकनायक या लोकदेवता के रूप में होती है। दुसाधों के लिए सलहेस एक पहचान बन गया और इस पहचान को कायम रखने के लिए दुसाधों ने अपनी सारी कुर्बानी दे दी और वो आंखमूंद करके एकनिष्ठ भाव से सलहेस को पूजते रहे। यह एक सामाजिक चरित्र है। समाज उसी को मान्यता देता है जिसकी मान्यता लोग देते आ रहे हैं।

 

तो समाजाकि और आर्थिक का जहां तक सवाल है तो दुसाध तो एक अत्यंत पिछड़ी हुई जाति है और आज भी उतनी ही पिछड़ी है जितनी पहले थी। यानी सामाजिक स्थिति में तो कोई फर्क नहीं हुआ है। आर्थिक स्थिति में भी थोड़ा बहुत फर्क हुआ है क्योंकि ये लोग सूअर पालते हैं और बांस की कारीगरी करते हैं। ये दो तीन चीजें ऐसी हैं जो इन्हें समाज से भिन्न आर्थिक मोर्चे पर खड़ा हुआ देखता है। तो आर्थिक स्थिति के कारण दुसाधों की अपनी स्थिति मजबूत है, सामाजिक दृष्टिकोण से अपने नायक को लेकर इनकी स्थिति मजबूत है और इसीलिए इनकी पहचान बनी हुई है, राजा सलहेस की, दुसाध जातियों की। अत: सलहेस मूलत: दुसाधा जाति के देवता, दुसाध जाति के लोकनायक हैं। और इतना ही नहीं, आज तो स्थिति यह है कि सलहेस को सर्वजातीय देवता की मान्यता मिलने लगी है क्योंकि एक गांव जिसमें कुछ दुसाधों द्वारा सलहेस की पूजा होती है, उस गांव के अन्य लोग भी देखादेखी उसमें अपनी सहभागिता देते हैं।

 

वैदिक परंपरा और लौकिक परंपरा दोनों का एक दूसरे पर प्रभाव हुआ है लेकिन कहीं एक दूसरे के प्रति समर्पित नहीं है। जैसा कि मेरी अपनी एक किताब है  ‘हमारे लोक देवी देवता’ उसमें जैसा कि लोक देवी देवता का चरित्र लिखा गया है, वे अपने बलबूते पर जीते हैं, अपनी अच्छाइयों पर जीते हैं, अपने कर्म तपस्या के बल पर जीते हैं सिर्फ जातीय मान्यता के आधार पर नहीं। तो रही बात वैदिकबादी तो वैदिकबादी है क्या जो एक देवगृह होना चाहिए, देवगृह होना चाहिए तो उसके पूजापाठ के विधान होने चाहिए, उसके अनुष्ठानिक कृत्य होना चाहिए, इत्यादि। सलहेस के गहवर में ऐसी कोई बात नहीं है। इसलिए हम नहीं मान सकते हैं कि वैदिक परंपरा का स्थापन सलहेस के गहवर में हुआ है। क्योंकि सलहेस विशुद्ध अवैदिक पात्र है, यहां वैदिक होने का कोई सवाल ही नहीं होता है। वैदिकता जहां देखने की कोशिश करते हैं, या समझने की कोशिश करते हैं, जहां सलहेस सर्वजातीय लोकदेवता हो गये हैं, सर्वजातीय गाथानायक हो गये हैं। क्योंकि गांव में एक साथ कई जातियों के लोग रहते हैं तो गांव का एक वर्ग सलहेस को पूजता है तो अन्य वर्ग चुपचाप आंख मूंदकर बैठा नहीं रह सकता है। वह किसी न किसी रूप में सहभागिता देता है।

 

कोई भी महान व्यक्तित्व चाहे वह गाथा नायक हो या लोकदेवता हो, उसका एक आभामंडल व्यापक होता है। और इस आभामंडल की व्यापकता के कारण वह विशिष्ट दिखता है। जब विशिष्ट दिखता है तब हम कोशिश करते हैं उसमें सौंदर्य, सौंदर्यवर्धन की विशेषताओं से उसे मंडित करें। सौंदर्यवर्धित क्या है, सौदर्यवर्धित चरित्र की सुंदरता, मुखभंगिमा की भौतिक सुंदरता और तीसरी है चरित्रगत विशेषता। इन्हीं से सौंदर्य खिलता है। सौंदर्य कोई थोपी ही वस्तु नहीं है। यह अंदर से खिला हुआ कमल है जो हम चरित्र के माध्यम से मुखाकृतियों और अन्य स्थानों पर देखते हैं।

 

एक अभिजात्य वर्ग है और एक जनसामान्य है। जनसामान्य को तो यदि कोई नया रचनात्मक कार्य करता है तो उसके लिए एक आदर्श चाहिए, मॉडल। तो उसको आदर्श कहां से मिलेगा, तो अब तक जो अभिजात्यों ने छोड़ा है, चाहे वह काव्य के माध्यम से हो, चाहे वह नृत्य नाट्य के माध्यम से हो, चाहे कलात्मक आदर्श के माध्यम से हो, चाहे अन्य कला माध्यमों से हो। तो उसके माध्यम से हम उसको पकड़ने की कोशिश करते हैं। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि इन चीजों को पकड़ने के लिए आवश्यक क्या है और क्यों है। हम क्यों पकड़ते हैं इन चीजों को।

 

रही बात अपनी मौलिक रचनाधर्मिता, तो कोई महान वैसे नहीं बनता है, वह अपनी रचनाधर्मिता के बल पर ही महान बनता है और इन रचनाधर्मिताओं की उनकी खोज आवश्यक है तब जबकि उसकी महानता को हम स्वीकार करते हैं। आखिर यह क्यों इतना महान हो गया। आखिर इस महानता के लक्षण क्या हैं, इसकी गुणधर्मिता क्या है। तो जो पब्लिक को, लोकमन को आकर्षित कर सके, लोकमन को अपनी ओर खींच सके, ऐसी रचनाधर्मिता का आरोपन उसपर होना चाहिए। इसलिए सलहेस में ऐसे तत्व भर दिये गये हैं या क्रमश: भरते चले गये हैं और आज वह एक  पूर्ण कलश के रूप मे प्रतिष्ठित है देवमंचों पर, देवगृहों में और जनमानस में।

 

ग्रियर्सन ने जो मूल रूप दिया, आज भी सलहेस साहित्य की आधारभूत पूंजी वही है, एक अर्थ में कहा जाए तो। क्योंकि उसने नेपाल तराई के डोम से वह गाथा सुनी थी। अब फिर आप यह देख लीजिए। डोम से सलहेस की गाथा। सलहेस दुसाधों के देवता हैं लेकिन उसका गाथागायक कौन है, डोम है। अब यहीं से हम भिन्नता देखते हैं। कि आखिर सलहेस डोम में कैसे चले गये या डोम उसका गायन क्यों गाने लगा। बहुत सारे लोकगाथाओं के मंथन से यह स्पष्ट हुआ है कि वह जिस जाति का नायक या देवता हो, उसी जाति के लोग गायक हो यह आवश्यक नहीं है। ऐसा सो---क्या नाम है---नरेश पांडे चकोर जो अंगिका साहित्य के पुरोधा हैं, उन्होंने गाथाओं, करीब 20 गाथाओं, को उन्होंने प्रकाशित किया है। आश्चर्य है कि सबसे ज्यादा गाथाएं अंगिका में ही प्रकाशित हुआ है। अंगिका में भी सलहेस की गाथा प्रकाशित है, लेकिन उसका नाम बदला हुआ है। उसका नाम है सलहेस भगत। सलहेस वहां देवता नहीं है, सलहेस वहां भगत है। कितना फर्क मालूम पड़ता है कि मिथिलांचल में सलहेस जहां देवता है, वहां अंगिकांचल में भगत हो जाते हैं।

 

और फिर आपको आश्चर्य होगा कि मणिपद्म ने भी कलेक्ट किया, लेकिन उनकी मूल गाथाएं गायब हैं। क्यों उनकी गाथाएं गायब हैं। मैं छात्र जीवन में उनके यहां गया था और इसी सब जानने के लिए। तो गाथाओं को देखा गया कि सलहेस....मणिपद्म ने क्या किया कि एक चालाकी की, स्पष्ट मैं कहता हूं कि चालाकी की। चालाकी यह की कि सलहेस की गाथा को (खांसने का साउंड) उन्होंने पकड़ा और गाथा को कथा तत्व के आधार लेकर उपन्यास की रचना की। कथा तत्व को लेकर उपन्यास की रचना की। गायिकी को बढ़ावा नहीं दिया। उपन्यास की रचना की। इस तरह से एक प्रवृति चली, गाथाओं के आधार पर साहित्य की रचना। तो सलहेस उपन्यास लिखा मणिपद्म ने। अंगिका में डॉ अमरेंद्र ने सलहेस भगत पर उपन्यास लिखा और सलहेस पर महाकाव्य लिखा मतिराम मिश्र ने। सलहेस पर नाटक लिखा, मैंने भी लिखा और और लोगों ने भी लिखा। इस तरह से नाटक लिखे गये, उपन्यास लिखे गये, कहानियां लिखी गयीं। और बहुत सारी विधाओं में चीजें रची गयीं। यह सब प्रवृति, लेकिन मणिपद्म की यह प्रवृति बहुत दिनों तक नहीं चली।

 

मणिपद्म ने जिस ऊंचाई से गाथानायकों को उठाने की कोशिश की उतनी ऊंचाई तक ले जाने में अन्य उपन्यासकार सफल नहीं हो सके। इन्होंने गाथाओं का विवेचन भी किया है और वह मैथिली लोकगाथा का इतिहास के रूप में प्रकाशित है। एक-एक गाथा पर पांच-पांच छह-छह लेख हैं सभी मिथिला में प्रकाशित है। इस तरह से उन्होंने अपना बयान दिया और बखानबाजी चलती रही। लेकिन ये बखानबाजी कथा साहित्य के रूप में किसी भी अन्य साहित्यकार ने उठाने की हिम्मत नहीं की क्योंकि इनका जो यूटोपियन आदर्श था, वह यूटोपियन आदर्श साहित्य में लाने में साहित्यकार, सभी साहित्यकार असमर्थ थे। तो यही कारण है कि सलहेस, मणिपद्म की गाथा माने मणिद्मम का मैथिली उपन्यास ने जो गरिमा दी वह अन्य लोगों में यह सामर्थ नहीं था, स्पष्ट रूप में कहा जाये तो।

 

तब यह हुआ कि इसका प्रभाव अंगिका क्षेत्र में पड़ा। अंगिका क्षेत्र में आज भी गाथाओं पर आधारित एक से एक उपन्यास आज भी प्रकाशित किये जा रहे हैं। नटुआ दयाल मैथिली की भी गाथा है उस पर उपन्यास लिखे गये, सती बिहुआ पर उपन्यास लिखा गया, डॉ मीरा झा ने लिखा है। इसी तरह से अन्य गाथाओं पर भी, अभी अभी हाल ही में वहां से एक नैना जोगिन पर एक उपन्यास प्रकाश में आया है। उसी क्रम से इधर मिथिलांचल में मैंने गांगो तेलिया पर उपन्यास लिखा है। यह सब लोक चरित्र ही है। लोक चरित्र को आधुनिक साहित्य में ढालने के लिए कुछ न कुछ परिवर्तन लाना ही पड़ेगा। यह परिवर्तन समय की मांग के अनुसार होता है। कि आज समय क्या चाहता है, पाठक क्या चाहता है, समाज क्या चाहता है। साहित्य तो एक मार्गदर्शन का काम करता है। तो मार्गदर्शन का काम करता है तो साहित्य के माध्यम से वैसे ही मार्गदर्शक तत्वों को उपन्यासों में ढालना चाहिए जैसा कि कुछ उपन्यासकारों ने किया है और इसकी संभावना कमी नहीं है, बढ़ी है। आपको हिन्दी में रेशमा चूहड़मल पर भी उपन्यास लिखा गया, महुआ घटवारिन पर लिखा गया इस तरह से बहुत सारे लोक चरित्रों पर उपन्यास आए हैं। तो यह क्या कारण है कि हमारे लोक साहित्य के ये पात्र आज भी उतने ही जीवंत बने हुए हैं जितने जीवंत पहले थे।

 

ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय की डॉ पुष्पम नारायण ने लोकगाथाओं की गायिकी के संबंध में शोध किया है। अब यह गायिकी किस रूप में क्या पारंपरिक रूप में या आधुनिक परिष्कृत रूप में या फिर नयी भंगिमाओं के साथ क्या हो रहा है। कैसेट्स तो नयी भंगिमाएं ही देता है, वह कोई नयी भंगिमा नहीं है और इन भंगिमाओं को गायन शैलियों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि इनकी अपनी गायिकी की परंपरा थी। जिसके मूल रूप को हम संरक्षित नहीं कर पाये लेकिन जहां तक रस का सवाल है हम देखते हैं कि इसमें वीर रस की प्रधानता है, श्रंगार रस की प्रधानता है और करूण रस की प्रधानता है। मुख्यत मेरी दृष्टि में ये तीन रस ही प्रमुख है। जैसे कि अब सुयोंग, भोट राजा का जब मिथिला पर आक्रमण हुआ तब उस समय यहां से जो फौज चली सलहेस के नेतृत्व में वह युद्ध का नगाड़ा बजाते हुए फौज चली। तो उस समय में दिखाई देता है कि मिथिला शांत क्षेत्र ही नहीं, बल्कि जागृत क्षेत्र है। उसमें भी वीर रस की भावना है और वो भी संकट का मुकाबला अपने बल बूते कर सकता है और वह कर दिखाया। इसी तरह से हम देखते हैं कि श्रंगार रस का, श्रंगार रस की प्रधानता हम देखते हैं।

 

श्रंगार रस का प्रसंग हम देखते हैं सलहेस और दौना कुसुमा मालिन के बीच में। क्योंकि दौना कुसुमा मालिन का राजा सलहेस के प्रति प्रेम भाव या श्रंगार रस इस उद्देश्य से परिव्याप्त है कि दोनों एक दूसरे को चाहते हैं, यद्दपि यह प्रेम एकतरफा है, स्पष्ट रूप से एकतरफा है। यानी सलहेस के मन में इन दोनों के प्रति प्रेम का स्पष्ट आकर्षण नहीं है जितना की कुसुमा दौना के मन में सलहेस के प्रति प्रेम की एकनिष्ठता है। वह बारह वर्षो तक सिद्ध खीर लांघती रही सलहेस की प्राप्ति के लिये। यह प्रेम की पराकाष्ठा है कि अपने ईस्ट को पाने के लिए या अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हम किस हद तक जा सकते हैं। इस तरह से जो आदर्श कुसुमा दौना ने दिखाए वह आदर्श सलहेस नहीं दिखा पाये। हां तब उन्होंने कर्तव्य का निष्पादन अवश्य किया कि मिथिला की रक्षा के बाद वह सदेह मालिनी गुफा में पहुंचा और दोनों को धन्यवाद दिया और यह कहा कि राष्ट्र प्रेम सर्वोपरि है। यह एक बड़ी शिक्षा है कि मनुष्य या व्यक्ति से राष्ट्र महान होता है और महान के प्रति अपने को समर्पित करना हमारा एक नैतिक कर्तव्य होता है।

 

अब रह गयी करूणा की बात। यह तो गाथा के उत्तरार्ध में आता है। जब सलहेस शुद्ध रूप से राजा के रूप में स्थापित हो जाते हैं राजा मतलब लोकदेवता, तो उनका दृष्टिकोण लोककल्याण हो जाता है और लोककल्याण की दृष्टि लेकर चलने वाले व्यक्ति की आंखों में करूणा होगी, आचरण में करूणा होगी क्योंकि तभी वह लोककल्याण की बात सोच सकता है या कर सकता है। इसलिए सलहेस गाथा का अंत करुणामय है और इस करुणा का संदेश मणिपद्म को मेरे खयाल बुद्ध की करुणा से मिला है, बुद्ध और महावीर की करुणा से मिला है क्योंकि यह करुणा कोई अलग से न तो आयी हुई है और न तो आयातित न ही थोपी हुई वस्तु है बल्कि इसी वृत्ति की उपज है, इसी मानवधर्म की उपज है जिसमें अहिंसा को परमोधर्म की संज्ञा दी गयी है।

 

मणिपद्म का तो ऐसा उद्देश्य नहीं था। उन्होंने तो सिर्फ कथा तत्व को लेकर आधुनिक परिवेश के अनुसार लोककल्याण की दृष्टि से लोकचरित्रों को बांधने की कोशिश की है। लेकिन उनका कभी यह उद्देश्य नहीं था कि इससे लोकगाथाओं की अस्मिता पर कोई सवाल आवे या उसके अस्तित्व पर कोई ऊंगली उठे या उसके खंडन मंडन की बात पैदा हो। तो ऐसी स्थिति में...रचनाकार तो स्वतंत्र होता है। जब तक वह कल्पना का सहारा नहीं लेगा तब तक उसमें ताजगी नहीं आएगी। सिर्फ रूढ़ीगत लेखन से ताजगी नहीं आ सकती है। रूढ़ीगत लेखन को दलितों ने भी शुरू किया है, जिसे दलित लेखन के नाम से कहा जाने लगा है। लेकिन उन्हें भी आदर्श चाहिए, तो उन्होंने अभी तक जो आदर्श साहित्य में आ रहा है उसी को अपनाया। तो क्या आप उसको अंधानुकरण मानेंगे, नहीं। कि उनके पास कोई आदर्श ही नहीं है। उनके लेखन का कोई आदर्श ही नहीं है कि जिसको आधार मानकर के उस शैली को वह एडॉप्ट करे, या उसके चरित्र को वह उस ढंग से विन्यास करे।

 

तो दलित लेखन भी एक तरह से जो समझिये कि घुल मिलकर के अस्पष्ट ही होता जा रहा है। दलित लेखन में यद्यपि आज ताजगी आयी है, लोग अपने ढंग से सोचने लगे हैं और कुछ की गयी गलतियों के मार्जन का भी प्रयास का साहस भी किया है। लेकिन इतने से काम नहीं चलेगा। दलितों को थोड़ा और स्पष्ट होना होगा अपनी अस्मिता की रक्षा के लिये, अपनी आवाज को सही ढंग से प्रस्तुत करने के लिये, अपने ढंग से आना होगा। यदि सलहेस को ही उठाना है तो दलित अभी भाषा में उठावे, दलित अपने दृष्टिकोण से उठावें, दलित अपने समाज की स्थिति को उठावें।