बिहार में राजा सलहेस की लोकगाथा महत्वपूर्ण है और बिहार में जितनी भी लोकगाथाएं है उनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। ऐसा लोग मानते हैं। मेरा दृष्टिकोण कुछ दूसरा है। भारत की जितनी भी लोकगाथाएं हैं, या विश्व की जितनी भी लोकगाथाएं हैं, अगर आप उसे देखेंगे तो हमने जो देखा है, पढ़ा है और हमने जो जानने का प्रयास किया है, वही पाएंगे और ऐसा लगता है कि विश्व की जितनी लोकगाथाएं हैं, उन सभी में राजा सलहेस की लोकगाथा अग्रगणी है, सिरमौर है।
ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि प्रेम की जैसी धुन, जैसा संगीत राजा सलहेस की लोकगाथा में है, वह दुनिया की जितनी लोकधुनें हैं, लोकसंगीत है उनमें नहीं है। उन सभी धुनों के मुकाबले जितनी गहराई राजा सलहेस की लोकधुन में है उसकी जो संवेदना है, प्रेम की जितनी गहरी व्याख्या है, जितनी बेचैनी है, दुनिया के किसी भी लोक साहित्य में, बिहार के किसी लोक साहित्य में या भारत के किसी लोक साहित्य में उतनी बेचैनी, उतनी संवेदना, उतनी गहराई नहीं है।
बिहार में और देश के अन्य भागों में जितनी लोकगाथाएं हैं उन सभी के एक हीरो है, नायक है और नायिका भी है। वह उनके देवता हैं। राजा सलहेस की जो लोकगाथा है, वह जो बहुजन जातियां है, दलित जातियां है खासकर पासवान जाति के जो लोग हैं, तो उनकी जाति से संबंधित लोकगाथा है। ऐसा लोग कहते हैं, समाज के लोग कहते हैं। जो सवर्ण लेखक हैं, सवर्ण चिंतक है, वो वैसा कहते हैं।
लेकिन मेरी स्पष्ट समझ है कि राजा सलहेस की जो गाथा है वह बहुजन की लोकगाथा है। बहुजन में सारे लोग आते हैं। दलित, पिछड़ी, आदिवासी, तमाम जो जातियां हैं, कमाने वाली जाति है, उनके वह हीरो हैं। और, उनकी जो सामाजिक स्थिति है वह क्या है? आज भी छुआछूत है समाज में, उन जातियों के लोग अछूत की बीमारी लगते हैं। लोग सोचते हैं कि उनके यहां पानी पीने पर भी छुआ जाएंगे, भ्रष्ट हो जाएंगे, अधर्म हो जाएगा।
हमारे समाज में जो जातीय व्यवस्था है, उसके चलते आज भी जो दलित जातियां हैं खासकर दुसाध है, चमार है, डोम हैं और जो जातियां हैं, उनकी सामाजिक स्थिति और भी दयनीय है। अब सामाजिक स्थिति दयनीय है, तो उनकी आर्थिक स्थिति भी दयनीय है। आर्थिक स्थिति दयनीय होती है तो राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति भी दयनीय होती है। तो टोटल में, जो लोग राजा सलहेस को मानते हैं, उनके समाज की जनता जो उन्हें अपना हीरो मानती है, नायक मानती है, उनकी सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक स्थिति आज भी बहुत ही पुअर है, कमजोर है।
वास्तव में हमारे जो नायक हैं, अगर उन नायकों को हम आत्मसात करते हैं, उनके जीवन को आत्मसात करते हैं और उनके संघर्ष को लेकर नया सपना गढ़ते हैं, तो हम अपने जीवन को बेहतर और सुंदर बना सकते हैं। हम जितनी भी जिल्लत की जिंदगी है, गरीबी की जिंदगी है, अपमान की जिंदगी है, उसे बदल सकते हैं। जैसे मैं एक एग्जांपल कहता हूं। जाति व्यवस्था पर हमने चर्चा की। लोकगाथा की मलिनिया मालिन जाति की है और राजा सलहेस दुसाध जाति हैं। मलिनिया कहती है, एक गीत है, वह अपनी सखी से कहती है:-
गे बहिना गे बहिनाSSS, गे छलियै मलिनिया बेटी
छलियै मलिनिया बेटी, भेली दुसधिनियां SSS
छलियै मलिनिया बेटी, भेली दुसधिनियां SSS
जाति दुसाध पर अंचरवां बन्हलियै, बहिना गे SSS
कि जाति दुसाध पर अंचरवां बन्हलियै SSS
आ तिइयो न बेइमना पियवा, सपनों में ऐले प्रेमी भैया हो SSS
तिइयो न बेइमना पियवा, सपनों में ऐले
कोनक एइ धीरजवा रखबै, मोरंग नगरिया मे प्रेमी भैया हो SSS
ओ कोनक एइ धीरजवा रखबै, मोरंग नगरिया मे SSS
कोनक एइ धीरजवा रखबै, मोरंग नगरिया में बहिना गे SSS
कि चल चल चल गे बहिना SSS जहर के एइ बन में
चल चल चल गे बहिना SSS जहर के एइ बन मे SSS
जहर-माहुर खाकए जइ दिन, दुनिया मे मरबै बहिना गे SSS
गे तिरिया के बध लगतै, सीरी सलहेस पर
एतबे छै अरजिया गे बहिना, ऐतबे छै मिनितिया गे SSS
तो ये जो संदर्भ है, देखिये कैसे प्रेम सारे जात-पात को तोड़ता है, धर्म (बंधन) को तोड़ता है, मजहब (बंधन) को तोड़ता है और हमारे समाज की पुरुषवादी, मर्दवादी आइडोलॉजी को तोड़ता है। कैसे मलिनिया अपनी जाति को तोड़कर (छोड़कर) दूसरे जाति के मर्द से प्रेम करती है, यह महत्वपूर्ण है। हमारा समाज अगर इस चीजों को आत्मसात करें कि प्रेम सब कुछ है और जात पाखंड है, झूठ है, तो हम सुंदर समाज बना सकते हैं।
जब हम स्टूडेंट थे तब हमको ऐसी जानकारी मिली थी कि मणिपद्म एक बहुत बड़े लेखक थे। उन्होंने राजा सलहेस पर पहला महाकाव्य लिखा है, दोहे लिखे हैं। जब हम दिल्ली में थे, तो दिल्ली में एक कवि सम्मेलन था और उसमें सलहेस के एक बहुत बड़े कवि थे, देवेंद्र नाथ सत्यार्थी। वो दुनिया के पहले साहित्यकार थे जिन्होंने भारत में कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक डेढ़ लाख लोकगीतों का संकलन किया था। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम राजा सलहेस पर काम करो तो तुम्हारा जीवन जो है सफल हो जाएगा, क्योंकि दुनिया की सबसे गहरी संवेदना धुन राजा सलहेस की है।
हमने जब काम शुरू किया तो उसी संदर्भ में क्या हुआ कि पहले जो राजा सलहेस पर लिखने वाले प्रमुख रचनाकार थे मणिपद्म जी थे और मणिनाथ मिश्र, ने जो लिखा, वह पुस्तक मैंने खोजी। मणिपद्म की किताब मुझे नहीं मिली, मणिनाथ मिश्र की किताब मिली। मैंने जब उसकी भूमिका पढ़ी। मणिनाथ मिश्र लिखते हैं कि मैं मणिपद्म की रचनाओं के आधार पर लिख रहा हूं। मैंने देखा कि जैसे फुलवारी है माणिकदह है पकड़ियागढ़ है, उसमें उन सबकी जो चौहद्दी बतायी गयी थी, किताब में, वह गलत थी।
यह मनुवादी सोच है, ब्राह्मणी सोच है कि फाइव स्टार होटल में बैठकर जो कुछ भी हमसे कहा गया, उस आधार पर पुस्तक लिख दो। यह गलत है और इसलिये मैंने देखा कि जब तक राजा सलहेस से संबंधित जो जानकारियां है, बिहार और नेपाल में जो कलाकार हैं, वह जो जगह है, ऐतिहासिक धरोहर है, जब आप वहां नहीं जाते हैं, कलाकारों के मन की बात नहीं सुनते हैं और उसे सुनकर जबतक आप उनकी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक और भौतिकवादी व्याख्या नहीं करते हैं, तो आप हिन्दू देवताओं की, हिन्दू धर्म की देवियों की चुंगल में फंसकर राजा सलहेस की पूरी गाथा को बर्बाद कर देते हैं। इसलिए मैंने तमाम पहलू पर शोध करके उनका एनालिसिस किया और पाया कि राजा सलहेस की जो गाथा है, वह एक वैज्ञानिक गाथा है, क्रांतिकारी गाथा है और उस गाथा को लेकर हम समाज को बदल सकते हैं, सुंदर समाज बना सकते हैं और हिन्दुइज्म यानी जो ब्राह्मणी कल्चर है, उसको पस्त कर सकते हैं।
किसी भी चीज की जब आप साहित्यिक विवेचना करेंगे तो पहले तो मैं भारत के संदर्भ में आपको कहूंगा कि 1880 में पहली थियेटर कंपनी की स्थापना हुई थी। उसके संस्थापक थे किर्लोस्कर। 1880 से लेकर 1884 तक कालीदास के नाटक आभिज्ञान शाकुंतलम का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हुआ और मंचन भी हुआ। आप भारत में देखेंगे तो उत्तर भारत में जो कोठेवाली और दक्षिण भारत में जो देवदासी प्रथा थी उसने ही भारतीय गीत और संगीत बचाकर रखा है। आप कल्पना कर सकते हैं कि कोठे पर किसकी बहू बेटियां जाती थी और कौन मंदिर में अपने बेटियों को भगवान के प्रसाद के रूप में चढ़ाते थे। जो दलित पिछड़ों की बहू बेटियां थी उनके साथ ही ऐसा जुल्म अत्याचार होता था। आपको मैं बता दूं कि बाद में, 1920 में मद्रास में संगीत नाटक अकादमी की स्थापना हुई और एक महिला ने की। उसने जो स्कूल खोला, उसमें क्या किया कि भारतीय साहित्य और भारतीय गीत पर, लोकगीत पर जो दलित पिछड़ों का अधिकार था उसको मृत करने के लिए उसमें सारे के सारे ब्राह्मण को भर लिया। कोई और फॉरवर्ड वगैरह कोई नहीं। उन्होंने ही देवदासी प्रथा को भरतनाट्यम के नाम से बाद में लिखा, जाने जाने लगा। तो, आप देखेंगे कि कैसे हमारे चीजों पर इन लोगों ने अधिकार कर लिया।
जब हम राजा सलहेस की बात करेंगे, तो राजा सलहेस में साहित्य की सारी विधाएं, जो नवरस होता है साहित्य में, वह उसमें है। चाहे वह करूणा का हो, प्रेम का हो, घृणा का हो, अदम्य साहस का हो, विदस्थ का हो। माने साहित्य के जितने रस हैं सब। साहित्य, गीत शायरी, संगीत बिना रस का होता नहीं है और रस कहां से आता है, प्रेम से, मोहब्बत से। तो लोक साहित्य या लोकगाथा राजा सलहेस पूरी तरह साहित्य के मापदंड पर खरा उतरता है और यह लोकगाथा सवर्णों की लोकगाथा नहीं है।
मैं उसके बारे में एक बात आपको और स्पष्ट कर दूं। खिरहर में इंद्र पूजा होती थी। हम खिरहर में होस्टल में रहते थे और कन्हैया की नाच पार्टी आती थी वहां। उसमें गंगाराम जोकर होते थे। हम लोग होस्टल में रहते थे तो होस्टल की खिड़की को हटाकर खेत में चले जाते थे नाच देखने के लिये। जब कन्हैया मालिन का पार्ट लेकर आता था और सलहेस के प्रेम में वह जो करूणा करता था और अपने शरीर को मंच पर पटकता था, तो उसके हाथ की चूड़ियां फूट कर दर्शक के बीच में जाती थीं। उसका हाथ लहुलुहान हो जाता था और सारे दर्शक उनके (मालिन) विरह में रोते थे, रात-रात भर रोते थे। हम भी देखकर रोते थे और उसी ने, राजा सलहेस की जो प्रेम की गाथाएं हैं, बाद के दिनों में मुझे साहित्य की दुनिया में धकेल दिया।
इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि राजा सलहेस की लोकगाथा में जो अवतारवाद आया है, पाखंडवाद आता है, अलौकिक घटनाएं आती है, जो लोक साहित्य है, वह आम जन का साहित्य है, दलित पिछड़ों का साहित्य है, गंमेरों का साहित्य है, जो अपनी मेहनत से अपना पेट भरता है उनका साहित्य है। लेकिन, ब्राह्मणों ने क्या किया? जो गुलामी होती है, पहली गुलामी, वह सांस्कृतिक गुलामी होती है। तो हजारों सालों से हम लोगों को जो ब्राह्मणी कल्चर से गुलाम बनाया गया है, उसका पहला प्रभाव है कि लोक साहित्य में भी पाखंडवाद का अलौकिक तत्व आ गया है। दूसरी जो महत्वपूर्ण बात है, वह यह है कि हमारे लोग जिनमें कोई प्रोफेसर है, डॉक्टर है, इंजीनियर है, कलेक्टर है, वैज्ञनिक भी है, वो हनुमान चालीसा का पाठ करेगा। मंदिर में देवता के पास जाकर सिर झुकाएगा और वो दलित पिछड़ों का भाषण भी करेगा। तो हमारे जो पिछड़े दलित समाज के लोग हैं, राजनेता हैं, उनका भी पाखंडवाद है, कि उन लोगों ने आजतक हमारे लोगों को सांस्कृतिक तौर पर आजादी नहीं दिलाई। और तीसरा सवाल है, कि आप देखेंगे कि सलहेस क्या करता है तो मरे लोगों को जिंदा करा देता है, वह भभूत देता है तो जिनको संतान नहीं होता है तो उनको संतान भी हो जाता है। तो इस तरह का पाखंड है। यह सब गलत है, राजा सलहेस की जो लोकगाथा है उसका महत्व कम करने की ब्राह्मणों द्वारा, ब्राह्मणी साहित्य द्वारा एक बहुत बड़ा षडयंत्र है और मैंने अपने रिसर्च ग्रंथ में उसका पर्दाफाश किया है। मैं समझता हूं कि जब तक लोकगाथा को जो अलौकिक तत्व हैं, घटनाएं हैं, पाखंडवाद है, अवतारवाद है, उससे आजादी नहीं मिलेगी तब तक असली लोकगाथा का महत्व समाज में स्थापित नहीं हो सकेगा।
राजा सलहेस की जो लोकगाथा है उसमें आप देखेंगे कि पहले समाज में सामंतवादी व्यवस्था थी, डोली लेने की प्रथा थी। अगर किसी गांव में कोई लड़की दुल्हन बनकर आती थी तो उस गांव में जो जमींदार होता था, वह पहली रात डोली को अपने घर में लाता था और उसके (दुल्हन) साथ बलात्कार करता था। सारी-की-सारी लड़कियां उससे डरकर कांपती थी। उसके खिलाफ कोई बोल नहीं सकता था। तो चोरों बहन मलिनिया सोचती है कि ऐसी बात अगर मेरे हुई, तो जीना धिक्कार है। तो राजा सलहेस ने जमींदारी, डोली लेने की जो प्रथा थी, उसके खिलाफ लड़ा और कई छोटे-छोटे राजाओं को मारकर डोली प्रथा से समाज को आजाद किया। इसी लिए मोरंग राज में जो मालिन चारों बहनें थीं, वो सलहेस से प्रेम करती थीं। और उनका प्रेम देखिये। मोरंग मलिनिया का प्रेम क्या है और प्रेम की व्याख्या वो क्या करती है, सलहेस को पाने के लिए वो क्या-क्या करती है उसका वर्णन मैं आपको बताता हूं। एक बार जब सलहेस से उनकी मुलाकात होती है, तब वो कहती हैं :–
हे सुन सुन पियबा तोरा कहै छी
सुन सुन पियबा तोरा कहै छी
अब हमरा कहलो नहि जाइत अछि।
बिन कहने रहलो नहि जाइत अछि
केकरा कहबै ? के पतियेतै ?
हो, केकरा कहबै ? के पतियेतै ?
जेकरा कहबै ? सेहो लतियेयै
एहो, अरही वन में खरही कटलियै
बिन्दा वन बीच बांस कटलियै
हरौति बांस काटि कोरो चिरलियै
चाभ बांस काटि बती बनलियै यौ
यो पाथर काटिकय टाट लगैलियै
गेरूआ बेंत पांजर में जोगेलियै
कोरिला तरकी कान लगैलियै
ले मंगटीका मांग सटलियै यो
यौ जहिना पूनम के जांद बरेयै हय
जहिना पूनम के जांद बरेयै हय
तहिना मलिनियां के ज्योति बरैछै यो
आ एक चुटकि सेनुर बिना SSS
बेइमानी पियबा कैलियै हो SSS
आ एक चुटकि सेनुर बिना SSS
बेइमानी पियबा कैलियैSSS
आ एक चुटकि सेनुर बिना SSS
दगा पियबा देलियै यो SSS
आ एको टा नै आस पियबा
हमरा के पूरलै SSS
एकोटा नै आस पूरलै SSS
मोरंग मलिनिया के यो SSS
ए सुन सुन पियबा तोरा कहै छी
सीलानाथ सिलबती पूजलियै
फूलहर में गिरजा पूजलियै
जनकपुर में जानकी पूजलियै यो SSS
आ दुरगाथान दुरगा के पूजलियै
कपलेसर में बम भोला पूजलियै
कलना में कलेसर पूजलियै यो SSS
ओ अहिल्या थान में अहिल्या पूजलियै
तुलसी चौरा जल ढरालियै
रवि मंगल उपवासे कयलियै
कमला विमला सेहो नहलियै
सिमरिया में डुबकी लगेलियै
हाथी चढ़िकय गऊर पूजलियै
मरीच खोटि जवानी जोगेलियै
काशी प्रयाग तीरथ गेलियै
कमल फूल के अड़क देलियै
आ इन्दर बाबा सं सत करलियै
आ सीरी सलहेसन वर मंगलियै हो SSS
आ तइयो नै बेइमना पियबा दरसन देलियै हो SSS
ओ तइयो नै बेइमना पियबा दरसन देलियै हो SSS
ओ तइयो नै बेइमना पियबा दरसन देलियै हो SSS
हो केकरा लागि बढ़ैब सामी नानी सिर केसिया
केकरा लागि पोसलियै सामी अल्प वयसबा हो SSS
हो हमरा सन-सन छोट सखी सभ, भेलि लड़कोरिया
हमरा एइ कोख में दगिया लगेलियै पियबा हो SSS
ओ हमरा एइ कोख में दगिया लगेलियै
हमरा एइ कोख में दगिया लगेलियै स्वामी हो SSS
आप देखेंगे कि कैसे राजा सलहेस एक तरफ सामंतवाद के खिलाफ, डोली प्रथा के खिलाफ लड़ते हैं और उससे प्रभावित होकर एक साथ कई ल़ड़कियां उनसे प्रेम करती हैं और प्रेम की उनकी संवेदना क्या है।
राजा सलहेस की गाथा में एक संदर्भ है चूहड़मल का। चूहड़मल का कार्यक्षेत्र खास वह क्षेत्र है जो पटना और मोकामा के बीच का है। वहां सामंतवादी व्यवस्था थी, सवर्णों की गुलामी थी। तो गंगा का जो पाट है वह क्षेत्र जमींदारों का था, भूमिहारों का था। चूहड़मल दलित जाति से थे और अहीर थे। वह जिनकी गाय चराता था, उनकी बेटी चूहड़मल से प्रेम करती थी और वह चाहती थी कि उसका प्रेम आगे बढ़े। लेकिन, चूहड़मल ऐसा नहीं चाहता था, वह उनको किसी कारणवश नकारता था। जब वह लड़की असफल हो गयी, तब वह अपने भाई के पास जाती है और वह कैसे उससे चूहड़ के खिलाफ अपनी बात कहती है सुनिये :-
एकिया हो रामा, पिता नमियां, रामजीत सिंह नूए राम
एकिया हो रामा, करत कचहरिया एजी मोकामा ए राम
एकिया हो रामा, जतिया क्षत्रिया भूमिहार ए राम
एकिया हो रामा, अतना बचनियां सूरमा सुनेला ए राम
तेकर जवाब मे चूहड़मल अपन परिचय देते छैत कि
बाप के नइया है के बिहारी राजवंशी जी,
चाचा के नइया सुनि लेहु जी
भइया जे हवे रामा वंशीधर सूरमा जी
जतिया दूधवंशी हमार जी
(दूधवंशी माने यादव, दूध देने वाला)
जतिया दूधवंशी हमार जी
हमार जे नइया चूहड़मल दूध वंशिया जी
सुनि लेहु वचन हमार जी
इसके बाद फिर वह लड़की कहती है कि मेरे साथ यह क्या-क्या जुर्म किया है
गइली तो रानी माता लाली फुलबड़िया जी
तुरत रहली चम्पा फूल जी
तहंवा तो रहले रामा चूहड़मल सूरमवाजी
धईले बहियां बोले लागल बात जी
हमरा इजतिया माता चहले बिगाड़े के
तोड़ दिहले चोलिया के बन्द जी
चोलिया और सरिया फारी हमर देली
आ भागि अइली धरम बचाय जी
एहन दुरगतिया मोर कइले चूहड़मल जी
कहां तक करी हम बयान जी।
माने झूठा आरोप कैसे उस पर लगता है फिर जमींदार इनके (चूहड़मल के) भाई को बाप को सबको जेल में बंद कर देता है। जमींदार पहले (चूहड़मल के) बाप को बुलाता है और कहता है:-
तोहरे बेटा हबै चहड़मल शूरमा जी
नाहि मानत हुकूम हमार जी
आधि रात खोले गोरू मोकामा टंड़िया जी
केकरा हुकूम लेई जाय जी
मारि दो दिहे रामा मुंडेखान पैठान जी
मारि दिहले रामजीत गड़ेर जी
ऐसन जुलुम करे तोहर बेटनवां जी
जुलुम मचलबे वहीं ठाम जी
रेशमा के संग तो कइले दिलगिया जी
इज्जत लिहले हमार जी
फारि तो दिहले रामा साड़ी और चोलिया जी
नाहीं कइले हमरो ख्याल जी
कइसे जइह बेटी पुतोहिया बगिया
तोरा बेटा करे उत्पात जी
एकर करनने हम तोहके बोलवले जी
किया तोर भइल बा गुमान जी
केकरा के बले चूहड़मल करे उत्पात जी
मोहि देहु बताय जी
करबो निरवंश हम दूधिया वंशिया जी
सुनि लेहु बचन हमार जी
तोहरा के करबो हम आजु जेहल खनवां जी
देखबो हम चूहड़मल के तोरे गुमान जी
और उनके बाप को और भाई को जेल में बंद कर देता है और
अतना तो सुनत राजा हमरो बचनियां जी
बोले बचनिया खिसियाय जी
सुनत-सुनत राजा तोहरे बचनिया जी
धिरिक है जियल तोहार जी
क्षत्री के कोखिया तू लिहल जनमिया जी
डूब मर पनिया मे जाय जी
जाति के दुसधवा तोहार कइलसि दुरगतिया जी
अइले देखवे यांह मुंह हमार जी
आ मुंह पर पोतिह अपने करखिया जी
चलि जाहु अंखिया से ओट जी
चूहड़मल अपने बाप को भाई को जेल तोड़कर आजाद कराता है और राजा को मारता है। वह पूरे मोकामा टाल को सामंती दुर्ग से आजाद कराता है। तो सलहेस की जो गाथा है वह पूरा वीर रस से भरा हुआ है।
अभी तक लोक साहित्य पर जो काम हुआ है, उसमें हमारे लोगों ने बहुत कम काम किया है। जिसकी गाथा है, दलित पिछड़ों की गाथा है, वहां लेखक तो हैं नहीं, रचनाकार है नहीं, इस वजह से काम नगण्य हुआ है। सारे काम तो सवर्ण राइटर्स ने किया है। तो गाथा में जो उनकी (दलितों की) जो पीड़ा है उनकी जो संवेदना है उनका जो जीवन संघर्ष है, उस पर काम नहीं किया है और अगर थोड़ा बहुत किया है तो मुक्ति का रास्ता दिखाया है और उसे अवतारवाद से जोड़ दिया है कि तुम ऐसा करोगे, ऐसी पूजा करोगे तो तुम्हें यह फल मिलेगा। फलाना जगह जाओगे, मंदिर में पूजा करोगे तो ये हो जाएगा। उन्होंने सलहेस को भी गहवर से मंदिर में स्थापित कर दिया। जो दलित पिछड़ों के रहने का जो एक ठिकाना होता है, वह गहवर हुआ। वो आज के तारीख में सलहेस को और दलित-पिछड़ों के जो नायक हैं उनको गहवर से निकालकर मंदिर में ले जाना चाहते हैं और मंदिर हिन्दू धर्म के पाप का कारखाना है, अधर्म का कारखाना है।
तो आप जो सोच रहे हैं, वह निश्चित तौर पर सवर्ण रचनाकार हैं, उन्होंने तमाम तरह की कुरीतियां को इसमें घुसेड़ा है। दलित पिछड़ा जो साहित्यकार है उसके साहित्य का सौंदर्यशास्त्र क्या होगा? हम समझते हैं कि अगर लोक साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को आपको जानना है तो जब तक आप महात्मा फूले और सावित्री बाई का जो साहित्य है, उनकी कविता है उसको नहीं जानेंगे तो दलित के साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को नहीं जानियेगा। अंबेदकर की जो बाइस पत्रिकाएं हैं उनको आप नहीं जानेंगे, तो आप नहीं जानेंगे दलित के साहित्य का दर्यशास्त्र क्या होता है। अभी मुख्य धारा का जो साहित्य है उसका सौंदर्यशास्त्र तुलसीदास के रामचरितमानस पर आधारित है और मैं इसको नेगलेक्ट करता हूं, मैं नकारता हूं। हमारा, दलित-पिछड़ों का जो सौंदर्य साहित्य है, सौंदर्यशास्त्र है वह निकलता है कबीर से, रैदास से। वह बुद्ध से होते हुए साबित्री बाई तक जाता है।
कबीर की एक पंक्ति है कि कबिरा खड़ा बजार में लिये लकुटिया हाथ, जो घर जारे आपना चलो हमारे साथ । कबीर कहते हैं कि हम चौराहे पर खड़े हैं, बाजार में खड़े हैं और हाथ में लुत्ती है आग है। हम अपने स्वार्थ रूपी घर को अपने हाथ से जलाते हैं। हमारा जो स्वार्थ है, बेइमानी-शैतानी का, लूट की, झूठ बोलने का जो स्वार्थ है। तो वह स्वार्थ रूपी जो हमारा घर है उसमें हमने आग लगा दिया है। अपने से फूंक दिया है अपने घर को और जो मेरे साथ जाएगा उसको पहले मेरे जैसा ही होना पड़ेगा।
तो आपका जो सवाल है कि लोक साहित्य में स्वाभिमान है, लेकिन लोक साहित्य को लिखने वाले दलित साहित्यकार भी जब लिखते हैं, तो वह समझौता करते हैं, सरेंडर बोलते हैं तो निश्चित तौर पर उसका मतलब है कबीर की संवेदना उन साहित्यकारों में नहीं है। रैदास की संवेदना उन साहित्यकारों में नहीं है। हमारे देश की जो श्रवण संस्कृति रही है, यहां पर वैदिक अवैदिक दो संस्कृति है, हम लोग अवैदिक संस्कृति के संतान हैं। हम लोग श्रवण संस्कृति के संतान हैं, हम लोग अनार्य संस्कृति के संतान हैं। श्रवण संस्कृति की हमारे देश में जो परंपरा रही है, उसें कबीर हैं, रैदास हैं, महात्मा फूले हैं, सावित्रि बाई हैं। तो वे तमाम लोग श्रवण संस्कृति को भूल कर कुछ ही दिनों में दुनिया की सारी सुख सुविधाएं और पूरा मान-सम्मान यश और अवार्ड पा लेना चाहता है।
यही कारण है कि हमारे साहित्यकार, दलित पिछड़ा साहित्यकार भी सरेंडर बोलता है, झुक जाता है और अपने स्वाभिमान को बेच देता है। तब बेचने के बाद क्या होता है ? उनका साहित्य, उनकी रचना सब कूड़ादान की तरह होता है, वह कालजयी नहीं होता है। कालजयी रचनाकार वही बन सकता है जो कबीर के जैसा खड़ा हो, अपने घर में आग लगा दे।