लोकगाथा राजा सलहेस की साहित्यिक विवेचना

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Published on: 04 December 2018

राम श्रेष्ठ दीवाना

जाने-माने दलित चिंतक एवं रंगकर्मी। ग्यारह नाटक, चार लोक कथा संकलन, एक गजल-संग्रह तथा कई रिसर्च पेपर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। दलितों, पिछड़ों अल्पसंख्यकों एवं अनुसूचित जनजातियों के बीच साक्षरता मुहिम में सक्रिय।

चित्र: राजा सलहेस का गहवर , चूनाभट्टी, दरभंगा, 2017. फोटोग्राफर: सुनील कुमार 

 

लोक साहित्य का दूसरा नाम दलित साहित्य है और यह साहित्य दबल, भूखल, नांगट, अबला और शूद्र के आंगन से लेकर उनकी गली कूची, खेत-खलिहान में प्रेम और समानता का साहित्य है।[i] दलित साहित्य पर हिन्दी पट्टी की ख्यातिलब्ध साहित्यिक पत्रिका हंस ने 2004 में एक दलित विशेषांक निकाला था जिसके आवरण पर लिखा था ‘सत्ता-विमर्श एवं दलित’। इस विशेषांक के अथिति संपादक थे अजय नावरिया। अपने अतिथि संपादकीय लेख में अजय नावरिया ने दलित साहित्य पर विस्तार से लिखा, जिसमें उन्होंने एक स्थान पर लिखा कि ‘यह अंतर्राष्ट्रीय चिन्ताओं और समाजशास्त्रीय पड़तालों (इंटरनेशनल कंसर्न एंड सोशियोलॉजिकल इनवेस्टिगेशन) का साहित्य है’।[ii]

 

बहरहाल, जिस तरह समाज दो वर्गों में बंटा हुआ है, उसी तरह साहित्य भी दो वर्गों में बंटा हुआ है। शोषक साहित्य और शूद्रका साहित्य, अर्थात् सवर्ण का साहित्य और शूद्र या अवर्ण का साहित्य। चारों वेद, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण, मनुस्मृति आदि सवर्ण के साहित्य हैं, तो चर्वाक, बुद्ध, करीब, रैदास, पलटू दास, सावित्रीबाई फूले, रामास्वामी पेरियार आदि का साहित्य शूद्रका साहित्य।

 

‘हंस’ के संपादक रहे राजेंद्र यादव ने उसी दलित साहित्य विशेषांक के अपने संपादकीय में लिखा कि ‘पिछड़ों के संगीत, नृत्य और नाटक साहित्य का अपना कोई इतिहास या शास्त्र नहीं है, ये हर रोज विकसित होने वाली परंपराएं हैं। उत्तर भारत में रामायण के बाद सबसे अधिक रूपों और भाषाओं में प्रचलित आल्हा-ऊदल और लोरिक-चंदा, राम-कृष्ण कथाओं से कम लोकप्रिय नहीं हैं। मुल्ला दाऊद के चंदायन से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पुनर्नवा में इस कथा को लिखा है। मगर बहुलांश लोक साहित्य मौखिक ही चला आ रहा है। शिष्ट और शास्त्रीय संस्कृति की एकरस जड़ता से मुक्ति के रूप में लोक का दस्तावेजीकरण और अध्ययन स्वतंत्रता के बाद गंभीरता से किया गया है। जमीन और श्रम से जुड़ी पिछड़ी जातियों को शिष्ट संस्कृति के बीच प्रवेश और स्वीकृति इस ‘लोक’ के माध्यम से मिली। शास्त्र और लोक के बीच द्वन्दात्मक संबंध और नियंत्रित आवाज ही चली चाहे पहले से आती रही हो, शक्ति और ऊर्जा के स्रोत के रूप में इनकी पहचान नयी परिघटना है। हाशिये पर डाले गये सबाल्टर्न इतिहास की तरह। जिस तरह दलित और स्त्रियों का कोई इतिहास नहीं है उसी तरह सवर्ण कुलीन अर्थ में पिछड़ों की न अपनी संस्कृति है, न शास्त्र – उनके पास अपना कहने के लिए भेदास लोक है”।[iii]

 

लोक साहित्य एवं कलाओं के खिलाफ ब्राह्मणवादी सोच और साजिशों की कई बानगी मिलती है। देश और दक्षिण के प्रख्यात नाटककार गिरीश कर्नाड के एक वक्तव्य के आलोक में रंगमंच के जाने माने लेखक अजीत राय ने हंस में लिखा कि ‘पिछले दो सौ वर्षों के ब्रिटिशकालीन भारत में रंगमंच, संगीत, नृत्य एवं ललित कलाओं के क्षेत्र में भूमंडलीकरण के असर की विस्तार से चर्चा करते हुए गिरीश कर्नाड ने कहा कि इसका सारा लाभ ब्राह्मण को चला गया। पिछले हजारों सालों से जिन दलित, आदिवासी, अति-पिछड़ी जातियों ने भारतीय संस्कृति की प्रदर्शनकारी एवं ललित कलाओं को बचाए रखा, नए दौर में वे ही इसके लाभ से वंचित कर दी गयीं। 19वीं सदी के नवजागरण के दौरान शहरी बुर्जुआ सवर्ण मध्यमवर्ग ने संस्कृति का नव-ब्राह्मणीकरण ही नहीं किया, अपना वर्चस्व भी स्थापित कर डाला। कर्नाड ने ब्राह्मणवाद की पोल खोलते हुए कहा, ‘महाराष्ट्र में पहली ड्रामा कंपनी 1880 में श्री किर्लोस्कर ने बनायी, उसके सारे सदस्य ब्राह्मण थे। 1880-84 के बीच भारतीय भाषाओं में कालीदास के नाटकों के सर्वाधिक अनुवाद हुए। आज भी रंगमंच पर ब्राह्णणों का ही वर्चस्व है। जिन दलित जातियों ने संस्कृति युग के बाद एक हजार साल से रंगमंच को बचाए रखा, वे बाहर कर दिये गये’।

 

‘मुगल काल के विघटन के बाद भारतीय संगीत का राष्ट्रव्यापी उभार हुआ। उत्तर भारत में कोठेवालियों और दक्षिण भारत में देवदासियों ने संगीत और नृत्य को बचाया। भारत में नृत्य और संगीत हमेशा पिछड़ी दलित जातियों से जुड़ा रहा। 1920 में मद्रास संगीत अकादमी ने संगीत-नृत्य को पिछड़ी-दलित जातियों से मुक्ति (शुद्धि) का आन्दोलन चलाया और ब्राह्मण स्त्रियों को प्रोत्साहित किया गया। इसी अकादमी ने देवदासी नृत्य को नाम दिया ‘भरत-नाट्यम’। रूक्मिणि देवी ने कला-क्षेत्र की स्थापना की जिसमें शिक्षक और छात्र केवल ब्राह्मण होते थे। इस प्रकार कर्नाटक संगीत और भरतनाट्यम को ब्राह्मण कला के रूप में बदल दिया गया। आज भारतीय रंगमंच, चित्रकला, नृत्य संगीत आदि के विश्व बाजार और मुनाफे पर ब्राह्मणों का वर्चस्व स्थापित हो गया है”।[iv]

 

गिरीश कर्नाड समेत तमाम दलित चिंतकों की उपरोक्त बातें इस वजह से भी सही जान पड़ती है कि जिन सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाओं के खिलाफ लोक साहित्य की रचना की गयी थी, उसके मूल तत्व अब मलीन दिखते हैं और इसकी एक बड़ी वजह है अगड़ी जातियों द्वारा दलित साहित्य के नाम पर लिखी गयी तथाकथित लोक रचनाएं, जिसमें लोक की मूल आत्मा से ही समझौता कर लिया गया है। इस ‘समझौते और वर्चस्व’ को विचारधारा के स्तर पर चुनौती देना असंभव नहीं है। लोक-साहित्य व लोक-संस्कृति, प्रेम की संवेदना और चर्वाक, बुद्ध, कबीर, पलटूदास, भगता सिंह, फूले, कार्ल मार्क्स और अंबेदकर का दर्शन व सिद्धांत दलितों के द्वारा दी जाने वाली चुनौती के प्रमुख हथियार हो सकते हैं। लोकगाथा राजा सलहेस इस चुनौती का उपादान बन सकता है और यह सहज ही होगा क्योंकि इसमें ब्राह्मणवादी मासनिकता को चुनौती देने वाले सारे तत्व समाविष्ट हैं।

 

यहां एक प्रश्न उभरता है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में ‘ब्राह्मणवाद’ से आशय क्या है? इसे अंबेदकर स्पष्ट करते हैं। उन्होंने लिखा कि ‘ब्राह्मणवाद का मतलब ब्राह्मण जाति की शक्ति, विशेषाधिकारों और लाभों से नहीं है। मेरे मुताबिक ब्राह्मणवाद का अर्थ है स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को नकारेवाला ‘वाद’। इस अर्थ में ब्राह्मणवाद उन सभी लोगों में मौजूद है जो ऊंच-नीच और श्रेष्ठता-निकृष्टता में विश्वास करते हैं और यह केवल उन सब ब्राह्मण जाति विशेष के लोगों तक सीमित नहीं है जिन्होंने इस वाद को जन्म दिया है’।[v] इसके विपरीत लोक साहित्य का आधार मुख्य रूप से मानवीय मूल्य, संवेदनाएं और आपसी प्रेम है। इसी आधार पर दलित साहित्य को प्रेम व संवेदनाओं का साहित्य कहा जाता है और जिसे ‘ब्राह्मणवादी’ साहित्य के खिलाफ ऊंचाई दी जा सकती है, ताकि ब्राह्मणवाद के समक्ष चुनौती प्रस्तुत की जा सके।

 

राजा सलहेस की लोकगाथा उन्हीं दलित साहित्य में सिरमौर है, जिसमें लोकगाथा की सभी विशेषताएं सन्निहित हैं। जैसे, इसका अलिखित महाकाव्यात्मक होना, संगीत प्रधान गेय स्वरूप, धार्मिक संवादों की अल्पता, प्रेम की पराकाष्ठा, और वैदिक-परंपरावादी व्यवस्थों का प्रतिरोध। इसके साथ-साथ राजा सलहेस की महागाथा संवेदना व अनुभूति के स्तर पर करोड़ों दलितों एवं सर्वहारा वर्ग की वर्गीय चेतना का मानवीकरण भी है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और लोक-मनोरंजक भावों के साथ-साथ प्रेम, वियोग, वीर, करुण आदि रसों की प्रधानता देखने को मिलती है। कुछ उदाहरण:

 

प्रेम रस लोकगाथा राजा सलहेस में प्रेम रस की पराकाष्ठा प्रत्यक्ष है। लोकगाथा के नायक हैं सलहेस, उन सभी चारित्रिक विशेषताओं से सुसज्जित जो किसी महानायक में होने चाहिए और उसमें में प्रेम सर्वोपरि है। सलहेस प्रेम के महान पुजारी हैं। मोरंगराज हिमपति की चारों बेटियां- कुसुमा, दौना, रेशमा और फूलवंती उनसे प्रेम करती हैं। पकड़ियागढ़ की राजकुमारी चन्द्रवाती भी उनसे प्रेम करती हैं। हांलाकि, सलहेस का विवाह राजा विराट की बेटी सती सामर से होता है। सती सामर को कहीं-कहीं सती सतवंती भी कहा जाता है। दूसरी तरफ मोरंग की मलिन बहनों ने प्रण किया था कि जबतक परबा पोखरा में सलहेस जांठ नहीं गाड़ते हैं तबतक वो ‘कुमारी’ रहेंगी और सलहेस द्वारा जांठ गाड़े जाने के पश्चात् वे उनसे शादी करेंगी। जब परबा पोखरि में जांठ गाड़ने के लिए यज्ञ शुरू होता है तब सलहेस मोरंग पहुंचते हैं। उस समय चारों मालिन बहनें पलंग पर सो रही थीं। सलहेस उन्हें उठाने का प्रयत्न करते हैं, मगर उनकी नींद नहीं खुलती है। तब सलहेस कहते हैं –

 

सुनु-सुनु मलिनियां तोरा कहैत छी

दिलक बतिया केकरा कहबै SSSS

केकरा कहबै के पतियेतै गे SSSS

जेकरा कहबै सेहो लतियेतै गे SSSS

माता गरभ मे जखने रहियै SSSS

तखने हम इंद्रासन गेलियै SS

इन्दर बाबा सं सत करेलियै SS

तोरे सन कनिया मंगलियै ‘गे’ SSSS

माता गर्भ सं बाहर अयलि

छप्पन कोटि देब के सुमरलि

बर-बर भगति मइसौथा मे कयलि

कमला जी मे डुबकी लगेलि गे SSSS

रवि-मंगल इतवारे कयलिये

सिमरिया जाय गंगा नहलिये

काशी-प्रयाग तीरथ गेलियै

दुरगा थान दुरगा पूजलियै  

कपलेसर में कपिल बाबा पूजलिये गे SSSS

तइओ नै उठैत छै मलिनियां SS मोरंग SS नगरिया SS मे हो SSSS

चलिअऊं SS चलिअऊं SS मलिनियां SS परबा पोखरि के घाट पर SSSS

परबा पोखरि के यज्ञ हम करबै मोरंग नगरिया मे SS हो SSS

मनक ममोलबा पूरतै, मोरंग नगरिया मे हो SSS

सुन-सुन मलनियां तोरा कहैत छी

परेमक बतियां केकरा कहबै?

केयो नै हमर दरद हरि लैतये

तोरा खातिर हम मइसौथा छोड़लि

सती रानिया सं नाता तोड़लि

भाय सहोदर जग मे छूटलै

माय-मंदोदरि के तकदीर फूटलै

लाज-शरण हम सब छोड़ि देलि

तोरा खातिर मोरंग अयलि

राजपाट हमर बुइर गेलै

केहन हमर दुर्दिन भेलै

कनियो ममता हमरा पर करिओ

प्रीरितक रस सं उर हम भरिओ

तखने हम अब जिन्दा रहब

नहि तS मोरंग नगर मे मरब गे SSS 

 

मलिनिया के प्यार में डूबे सलहेस के इस गीत में उनकी आत्मा से निकली संवेदना, प्यार और अनुभूति की जितनी गहराई है उतनी गहराई अन्य लोकगाथा में नहीं दिखती है। मोरंगराज की चारों बहन मलिनियां उनके विरह में जीती-मरती हैं। मालिन जाति में जन्म लेने के बाद भी वह दुसाध सलहेस से प्रेम करती हैं। यह न केवल जाति व्यवस्था के खिलाफ है, बल्कि सामाजिक जड़ता से मुक्ति और समानता का संदेश भी है। यहां मलिनियां के प्रेम की संवदेना सर्वोच्च दिखती है -

 

सुन-सुन पियबा तोरा कहैत छी

आब हमरा कहलो नहि जाइत अछि।

बिनु कहने रहलो नहि जाइत अछि

केकरा कहबै? के पतियेतै?

जेकरा कहबै, सेहो लतियेतै

अरही वन में खरही कटलियै

बिन्दा वन बीच बांस कटलियै

हरौति बांस काटि कोरो चिरलियै

चाभ बांस काटि बती फारलियै

पाथर काटिकाय टाट लगैलियै

गेरूआ बेंत पांजर मे जोगेलियै

उल्टा मुरली सिरहन रखलियै

कौरिला तरकी कान लगेलियै

ले मंगटीका मांग सटलियै

जहिना पूनम के चांद बरेयै हय

तहिना मलिनियां के ज्योति बरैए हय।

एक चुटकी सेनुर बिनु SSS सामी धोखा देलियै SSS

पियबा हो बिइमनमा SSS SSS

बर-बर आस लगैलियै मोरंग नगरिया मे

एको टा नै आस पियबा SSS

हमरा के पूरलै हो SSS हो SSS

सुन-सुन पियबा तोरा करैत छी

सीलानाथ सिलबती पूजलियै

फूलहर में गिरजा पूजलियै

जनकपुर में जानकी पूजलियै

दुरगाधान दुरगा के पूजलियै

कपिलेसर में कपिल बाबा पूजलियै

कलना में कलेसर पूजलियै

अहिल्या थाना अहिल्या पूजलियै

तुलसी चौरा जल ढारलियै

रवि मंगल उपवास कयलियै

कमला-विमला सेहो नहलियै

सिमरिया में डुबकी लगेलियै SSS

हाथी चढ़िकाय गऊर पूजलियै हो SSS

मरीच-खोटि जवानी जोगेलियै

काशी-प्रयाग तीरथ गेलियै

कमल-फूल चढ़ि अड़क-देलियै

इन्दर बाबा सं सत करलियै

सीरी सलहेस सन वर मंगलियै हो SSS

तइओ नै बेइमनमा पियबा दरसन देलहो हो SSS

केकरा लागि बढैलियै सामी नामी सिर केसिया

केकरा लागि पोसलियै सामी अल्प वयसवा हो SSS

हमरा सन-सन छोट सभी सभ, भेलि लड़िकोरिया

हमरा कुरमुआ सामी, अगिया लगेलियै हो SSS

 

राजा कुलेसर की बेटी चंद्रावती भी सलहेस से प्रेम करती है। राजा सलहेस लोकगाथा में एक स्थान पर दुर्गा प्रेम में डूबी चंद्रावती से कहती है कि बेटी, जिसके नाम पर तुमने अंचरा बांधा है, जिसे पाने के लिए तुमने भक्ति की है, वह सलहेस तुम्हारी फुलवाड़ी में आकर आराम कर रहा है, जाओ और उससे मिलो, उसे अपना बना लो। इस पर चंद्रावती दुर्गा से सलहेस के प्रति अपना प्रेम प्रकट करते हुए कहती है -

 

मैया गेSSS दुरगा SSS

कथी ला गे मैया, हमर मोन पतिअबैत छै SSS

कथी निरमोहिया सामी, अतैय फुलबड़िया मे

तेकरे करनमा मैया SSS हमरा केर बतिबिअऊं SSS गे SSS

मैया गे SSS दुरगा SSS

दिन-राति बाटि जोहलि, पियबा बेइमनमा के SSS

सेहो बेइमनमा पियबा कोना अयलै पकड़िया मे गे SSS

नहि बहैए पूरबा गे मैया SSS नहि बहैए पछिया SSS

बिनु बसात के मैया, अचरा हमर उड़लै गे SSS

ताहि सं त S मोन होइत, सामी अयलै फुलबड़िया मे गे SSS

मैया गे SSS दुरगा SSS

सूखल बीरीछिया मे जल हम ढारबे SSS

जुग-जुग ना मैया SSS लेबऊं हम पकड़िया मे गे SSS

ऐतबे छे अरजिया मैया, एतबे छे मिनितिया गे SSS

 

प्रेम रस का एक और उदाहरण देखिये। सलहेस मलिनियां से शादी नहीं करते हैं तो उनके प्रेम में वह पागल हो जाती है। इस बीच सलहेस के छोटे भाई मोतीराम की शादी बंगाल के तीसीपुर के राजा की बेटी से तय होती है। मोतीराम की शादी के लिए सलहेस अपने भाई-बंधु संग जब तीसीपुर जा रहे होते हैं तब इसकी जानकारी मलिनिया को मिलती है। मलिनिया थलही नदी के घाट पर सलहेस से मिलती है। तब मलिनिया सलहेस से कहती है—

 

उल्टा साड़ी मोरंग मे पेन्हलियै

लट-लट में मोती गूंथलियै

ललका टिकली लिलार मे सटलियै अओ SSS

नाक मे सोने के बुलकी पेन्हलियै

डांर डरकसना सेहो लगेलियै अओ SSS

बारह अशर्फी के माला पेन्हलियै

बाजू बीजोटा सेहो लगलियै

गंगा-जमुनी हंसुलि पेन्हलियै अओ SSS

करा पर के छरा लगैलियै

चानी के अनुपम पायल बजेलियै

अंखिया मे पीरितक सूरमा लगेलियै अओ SSS

चंदन गाछक पऊआ बनेलियै

कांचे सूत सं पलंग भरलियै

पोसल जवानी सामी ला जोगेलियै अओ SSS

फूले बिछौना गे, फूले अछौना SSS

फूले के सेजवा सामी ला निरमेलियै SSS

मेदनी फूल मे गांजा लेटलियै

सोने के चिलम, गे सोने के गिट्ठी

पुरना गोइठां मे आगि सलगेलियै

रेशम के साफी भिजकए रखलियै

सामी लेल पीरितक गांजा लेटलियै

सात दिन गे सात राति के

एक राति सामी लेल निरमेलियै SSS

ऐतेय निरमोहिया दरसन देतै गे SSS

तइओ नहि दरसनमा सामी, हमरा केर देलियै हो SSS

मनक ममोलबा हमरा, मने हरि गेलै हो SSS

एको रती ममता सामी, करिओ अभगलि पर हो SSS

हमरा सन सतबरती रानी, कतऊं नहि पेयबा हो SSS

चुनरी के दाग सामी धोबी घाट छोड़बै हो SSS

दिलक दगिया सामी, कोना क S छोड़बे हो SSS

एकरो हलतिया बतबिअऊं, थलही नदी कें धार पर हो SSS

एतबे छै अरजिया सामी, एतबे छै मिनितिया हो SSS

 

वियोग रस- लोकगाथा राजा सलहेस में वियोग के कई प्रसंग हैं जो मंचन के समय दर्शकों को भाव-विभोर कर देते हैं। उनमें से एक प्रसंग है मोतीराम और सती कुसमी के विवाह का। विवाह के पश्चात् मोतीराम सती कुसमी के साथ महिसौथा लौट रहे थे। तब आधे रास्ते में उन्हे शिकार खेलने का मन करता है। मोतीराम कुसमी से कहते हैं कि ‘हे सती, आप बुधेसर के साथ महिसौथा जाएं, हम शिकार खेलकर चार दिन में महिसौथा लौटेंगे’। मोतीराम की बात सुनकर नवविवाहिता कुसमी के अरमान तड़पने लगते हैं। वह मन-ही-मन कहती है कि मोतीराम के बिना वह महिसौथा में कैसे रहेगी। वियोग की उस वेदना की तीव्रता का वर्णन इस प्रकार है- 

 

पियबा हो बेइमनमा SSS

कोन अपराध कारने हमरा के तिआगलि SSS पियबा हो SSS

बर-बर आस लगेलियै, तीसीपुर बंगाल मे SSS

बारहे बरिस सामी इन्दरासन के पूजलियै SSS

चौहदे बरिस सामी गंगा नहलियै हो SSS

 दसे बरिस सामी तुलसी मे पानि देलियै SSS

 बर-बर भगति कइलै तीसीपुर बंगाल मे SSS

 कनिओ ने दरेग भेलो-कुसमी सतबरती पर SSS

 जइओ-जइओ जइओ सामी चंदन बन शिकरबाकें

 हमरा सं हाथ दोकय, दुनिया मे रहिया

 मेंददी के रंग, मलिनो नहि भेलै

 बिहऊंति के साड़ी बेइमनमा, डांरे मे रहलै SSS

 कोन सुरतिया लयकय SSS मइसौथा मे जेयबै SSS

मैया मंदोदरि के कोना मुंह देखबै SSS

परान हम तेजबै सामी, मइसौथा नगरिया मे SSS

तिरिया के बध लगतौ, जाहि दिन ऐहि दुनिया मे SSS

करजुगे मे सामी SSS नान नहि केयो लैते SSS

जैइओ-जैइओ जैइओ पियबा, चंदन बन शिकरवा के

हमरा सं हाथ धोइहा SSS मइसौथा नगरिया मे SSS

ऐतबे छै अरजिया सामी, ऐतबे छै मिनितियां हो SSS

 

वीर रस- इसी तरह राजा सलहेस गाथा वीर रस के अनेक प्रसंग हैं। सलहेस कई युद्ध लड़ते हैं और कई प्रसंगों में उनकी वीरता का गुणगान है। कुछ प्रसंगों में वीरता को उभारा गया है। जैसे, जब सती सामर से विवाह पश्चात् सलहेस के साथ महिसौथा प्रस्थान करते हैं तो दिन ढलने के बाद बाराती संग सलहेस एक नदी तट पर डेरा डालते हैं। तब मलिनियां जादू के दम पर सलहेस को सुग्गा बनाकर अपने साथ ले जाती हैं। भगवती यह समाचार जिस प्रकार मोतीराम को देती है उसमें वीर रस की स्पष्ट झलक मिलती है-  

 

बेटा रे दलरूआ SSS

जुलुम जाइदिन भेलै बेटा, प्रलय जाइदिन भेलै SSS

विपतिक मोटरिया अयलै, मइसौथा नगरिया मे हो SSS

भैया के हरन कयलको, मोरंग वाली मलिनियां SSS

बर-बर जादूगरिनी लगैत छै, मोरंगवाली मलिनियां SSS

सात अचरा जादू मारिकय, बराती केर मयैलकै SSS

सुग्गा बनाकय रखलकै मोतीराम, सीरी सलहेस के SSS

बरहर सती धरबा जाहिदिन बहैत छे जंगलवा मे SSS

ताहि कछेर पर मोतीराम, पीपर केर बीरिछिया छे SSS

ओहि बीरिछिया पर भैया, सत नाम जपैए छो

बाज पंछी बनिकए जैयऊं, पीपर केर बीरिछिया पर SSS

सोनमा के पिजंरबा लयकय, भगबै जंगलवा सं SSS

तइओ नहि निदरा टूटैत, मोरंगवाली मलिनियां केर

सात अचरा निदिया छीटैत छी, मोरंगवाली मलिनियां प SSS

एतबे छे अरजिया मोतीराम, एतबे छे मिनितया हो SSS

 

राजा सलहेस लोकगाथा भाव प्रधान है यह कहना सर्वथा उचित है। इसमें सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और लोकमनोरंजक भाव तो है ही, यही भाव लोक साहित्य या अनार्य साहित्य का मर्म भी हैं। चूंकि यह शूद्रों का साहित्य है, मजदूरों, किसानों, हरबाहों, चरबाहों, घसबाहों और भैसबाहों अर्थात् मेहनतकश लोगों के दुख-दर्द, उल्लास, वेदना, संवेदना और उनकी संस्कृति का लोक साहित्य है।

 

प्रस्तुति: सुनील कुमार

 

संदर्भ

 


[i] रामश्रेष्ठ दीवाना, 2017, निजी साक्षात्कार, सुनील कुमार, मधुबनी

[ii] अजय नावरिया, ‘अतिथि संपादकीय, हंस, 2004: पृ. 15.

[iii] राजेंद्र यादव, ‘संपादकीय, हंस, 2004: पृ. 6.

[iv] अजीत राय, हंस, अप्रैल 2006, पृ. 77-78

[v] डॉ रमाशंकर आर्य, अम्बेदकरवाद, पृ. 3