सन १९८३ में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भरतभावन की स्थापना के साथ ही कुछ विलक्षण एवं अद्भुद प्रतिभा के धनी कलाकारों की खोज हुई जिन्होंने भारत में ही नहीं विश्व भर में अपनी कला की छाप छोड़ी। इनमें सरगुजा जिले की सोनाबाई रजवार भी एक थीं। मैं इस बात से अपने आप को गौरान्वित अनुभव करता हूँ कि सोनाबाई रजवार की खोज मैंने और मेरे दल ने की थी। सोनाबाई और उनका कलाकृतिरूप घर खोज लेना हमारी अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।एक अकस्मात हुई खोज जिसने न केवल सोनाबाई बल्कि समूचे फुहपुटरा गांव और इस इलाके के रजवार समुदाय के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। सोनाबाई के कलाकर्म की एक झलक देखकर ही हम समझ गए थे कि जल्दी ही सोनाबाई और उनका घर भारतीय कलाजगत में महत्वपूर्ण एवं आकर्षण का केंद्र बनने वाले हैं।
यह १२ दिसम्बर सन १९८३ की दोपहर थी जब हम पहली बार सोनाबाई रजवार के घर पंहुचे थे। उसके पहले हम भारत भवन के लिये रायगढ़ जिले में आदिवासी-लोक कला का संग्रह कर रहे थे और आठ दिसम्बर को ही अम्बिकापुर, सरगुजा आये थे। यहां सबसे पहले हमें साहेबाराम कुम्हार का पता लगा। अम्बकपुर से लखनपुर जाने वाली सड़क पर ही मेंड्राकलां गांव के साहेबाराम कुम्हार का घर था। साहेबाराम एक बहुत ही कल्पनाशील और कुशल कुम्हार था वह खपरैल के साथ अनेक आकृतियां जोड़कर विभिन्न आकारों की मूर्तियां बनता था। उससे हमने भारत भवन के लिए बहुत सारी मूर्तियां बनवाई थीं। उन्हींने हमें बताया था कि मेंड्राकलां से थोड़ा आगे लहपटरा गांव से फुहपुटरा गांव का रास्ता जाता है, वहां सोनाबाई रजवार का घर है, उस जैसा सुन्दर घर इस इलाके में किसी का नहीं है, उसे आप जरूर देखो। उसकेबाद ही हम सोनाबाई के घर पहुंचे थे।
सोनाबाई रजवार का घर उसके एवं उसके बाहर खड़े दरोगाराम रजवार (२०१८)
सोनाबाई रजवार के घर का बाहरी आंगन जिसमें भित्ति अलंकरण बने हैं (२०१८)
उस समय फुहपुटरा गांव बहुत ही छोटा और बिखरा हुआ था पक्की तो क्या कच्ची सड़के भी नाम के लिए ही थीं। सोनाबाई का घर गाँव के एक छोर पर अलग-थलग था और बाहर से देखने पर केवल सपाट दीवारें ही दिखती थीं। घर के बाहर खड़ा व्यक्ति सोच भी नहीं सकता था कि इन सपाट दीवारों के अन्दर कलाकृतियों का अचंभित कर देनेवाला संसार छिपा हुआ है। सोनाबाई का घर जैसे उनके व्यक्तित्व का आईना था बाहर से सादा और मौन, धीर-गंभीर परन्तु अंदर से वाचाल और स्वप्निल संसार को समेटे हुए। सोनाबाई को देखकर यह कहना असंभव था कि वे निर्जीव मिट्टी को सजीव कलाकृतियों में रूपांतरित करने की कला में माहिर हैं।
जब हम सोनाबाई के घर में घुसे सबसे पहले मवेशियों का कमरा था, जिसमें धान का पुवाल और गोबर फैला था। उसके बाद छोटा आंगन और उसके बाद एक ओर बैठक, बीच में बड़ा सा आंगन जिसके चारों ओर गलियारा बनाया गया था। गलियारे के पहले कोने में बैठक थी जिसमें सामने ही जाली और एक प्लेटफॉर्म जिसपर कृष्ण, गाय एवं ग्वलिनें आदि की मूर्तियां बानी थीं। गलियारे में चारों ओर जालियां और उन जालियों में जैसे पशु -पक्षियों का अपना संसार बसाया गया था। मिट्टी का ऐसा अद्भुद काम हमने न पहले कभी देखा था और न सुना था।
सोनाबाई रजवार के घर का भीतरी आंगन जिसमें जालियां, मूर्ति शिल्प एवं भित्ति अलंकरण बने हैं (१९८३)
सोनाबाई रजवार के घर का भीतरी आंगन जिसमें जालियां, मूर्ति शिल्प एवं भित्ति अलंकरण बने हैं (१९८३)
मैं और मेरे साथी, यह घर और उसमें किया गया कलाकर्म देखकर हैरान हो रहे थे और सोनाबाई तथा उनके घर के लोग यह सोच कर परेशान हो रहे थे कि यह कौन पागल-दीवाने लड़के-लड़कियां घर में घुस आये हैं। सर्दी के दिन थे दस बारह दिन में सोनाबाई से मिट्टी की नई कलाकृतियां बनवाना संभव नहीं था अतः जो उस समय घर में बना हुआ लगा था उसी को उठाकर भोपाल ले जाना था। अब समस्या यह थी कि सारा काम कच्ची मिट्टी से बना था जिसे अपने स्थान से निकालना और भोपाल ले जाना टेड़ी खीर था।
उस समय सोनाबाई की आयु कोई ४५ वर्ष तथा उनके बेटे दरोगाराम की आयु ३० रही होगी। जब हम उनके यहाँ गए तब उनके पति घर में नहीं थे। उनका बेटा-बहु और उसके बच्चे घर में थे। जब हमने उनसे कहा कि वे एक बेहद प्रतिभासम्पन्न और अनौखी कलादृष्टि की धनी कलाकार हैं और हम उनके घर में बनी मूर्तियां अपने साथ भोपाल ले जायेंगे तो वे रुआंसी सी हो गयीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे चीजें जिन्हें उन्होंने इतने प्यार और जतन से बनाया है उसे अपने हाथों से किस तरह दीवार से उखाड़ें।
जैसा हमने सोचा था, सोनाबाई द्वारा बनाई कलाकृतियों को समकालीन कलाजगत में उससे अधिक सराहा गया। उसी वर्ष सन १९८३ में, भारत सरकार द्वारा उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें भारत भवन द्वारा आयोजित कलाकार शिविरों में आमंत्रित किया गया जिनमें उन्होंने न केवल उनके घर से उखाड़ कर लाई गयी कलाकृतियों की मरम्मत की बल्कि अनेक नई मूर्तियां भी बनाई। जब सोनाबाई भोपाल आतीं तब उनसे उनकी बीती जिंदगी और उनके कलाकर्म के बारे में बातें करने का अवसर मिलता था। हर बार वे इस बात के लिए मेरा आभार प्रकट करतीं कि हमने उनकी कला को बाहरी दुनिया तक पहुँचाया। उनकी कला गांव से निकलकर सारी दुनियां के सामने आ सकी।
सोनाबाई रजवार के घर का भीतरी गलियारा जिसमें भित्ति अलंकरण बने हैं (२०१८)
सोनाबाई रजवार द्वारा बनाई पक्षी आकृति।
इसके बाद सन १९८६ में मध्यप्रदेश शासन द्वारा लोक आदिवासी कलाओं में गहन योगदान लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च, तुलसी सम्मान से उन्हें सम्मानित किया। यद्यपि उस समय केवल सोनबाई ही नहीं अनेक कलाकारों द्वारा कच्ची मिट्टी से बने भित्तिअलंकारण, भारत भवन लाये गए थे जिनमे बिलासपुर जिले की मिट्ठी बाई द्वारा बनाए गए पैनल भी बहुत कलात्मक और कौशल में श्रेष्ठतापूर्ण थे। परन्तु सोनाबाई का काम एक अजीब सादगी, सहजता तथा संवेदनाओं को ठंडक पहुंचाने वाला एहसास लिए हुए था। उसमे संगीत जैसी लय और पवित्रता थी। सोनाबाई का काम उसके तकनीति कौशल के लिए नहीं उसमे व्याप्त संवेदना के कारण अपनी ओर खींचता था।
उनके साथ मणिपुर की नीलमणि देवी तथा बिहार की गंगा देवी को भी तुलसी सम्मान मिला था। इस अवसर पर इन तीनों महिला कलाकारों के कामों की प्रदर्शनी भी आयोजित की गयी थी। सोनाबाई अपने बेटे दरोगाराम के साथ काफी दिनों तक भोपाल में रहकर इस प्रदर्शनी हेतु कलाकृतियां तैयार कर रहीं थीं। मुझे इन कलाकारों को तुलसी सम्मान दिए जाने के अवसर पर प्रकाशित होने वाले ब्रोशर के लिए आलेख लिखने की जिम्मेवारी दी गयी थी।
मैंने सोनाबाई के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने हेतु उनसे लम्बी बातें कीं। सोनाबाई बातूनी नहीं थीं, केवल सरगुजिहा बोली में अपनी बात कहतीं थी। बातों में दरोगाराम भी बराबर सहभागी रहते थे, उन्हें हमेशा लगता था कि सोनाबाई द्वारा सरगुजिहा में कही गयी बातें मैं पूरी तरह समझ नहीं पाउँगा इसलिए वे बीच-बीच में हिंदी में मुझे समझते चलते थे।
वे बताते थे, सोनाबाई के माता के माता पिता, छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के गणेशपुर गांव में रहते थे। यह गांव, कैना पारा भी कहलाता है। फुहपुटरा गांव जहाँ वे विवाह के उपरांत अपनी ससुराल में आ बसी थीं, गणेशपुर कोई दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर है। सोनाबाई के पिता उद्धराज रजवार और उनकी माँ मनमतिया सामान्य किसान परिवार से थे। इस परिवार में चार बेटियां और तीन बेटे थे। भरा पूरा परिवार था, चारों बेटियां-बाल बाई, सोनाबाई, रैमनिया और सोभली तथा तीन बेटे मुनेश्वर, धनेश्वर और परसादू।
जब सोना बाई की आयु बारह-पंद्रह साल रही होगी तब उनका विवाह फुहपुटरा गांव के होलीराम रजवार से हो गया। होलीराम कुल मिलाकर तीन भाई थे, आरम्भ में उनका सारा परिवार इकठ्ठा ही रहता था। सोना बाई के देवर-जेठ, उनकी जेठानी और बच्चे अदि सभी साथ रहते थे। होलीराम का यह दूसरा विवाह था उनकी पहली पत्नी तराजू गांव की थीं, उन्हें कोई संतान नहीं हुई जिसके कारण घरवालों ने होलीराम का दूसरा विवाह कर दिया। होलीराम की आयु सोनाबाई से १२-१५ वर्ष अधिक थी। होलीराम के सोनाबाई से विवाह के बाद उनकी पहली पत्नी अपने मायके चली गई थीं। विवाह के कुछ समय बाद होलीराम के तीनों भाइयों में बंटवारा हो गया और सभी अलग हो गए। उस समय सोनाबाई के यहाँ उनका बेटा दरोगाराम जन्म ले चुका था।
सोनाबाई रजवार के घर का बाहरी दरवाजा (२०१८)
सोनाबाई और होलीराम ने अपने लिए फुहपुटरा गांव के किनारे स्थित अपने खेतों के पास एक नया घर बनाया। सरगुजा के गांवों में अधिकांशतः कच्चे घर लोग अपने लिए स्वयं ही बना लेते हैं। सारा परिवार और कुटुंब के लोग इसमें हाथ बंटाते हैं। होलीराम के भाइयों और सोना बाई के मायके वालों ने भी नया घर बनाने में परिश्रम किया। पुरुष सदस्य दीवारें और छत आदि बनाते हैं और स्त्रियां लिपाई-पुताई आदि करतीं हैं।
सोनाबाई की आयु उस समय कम ही रही होगी, अपने लिए नया घर बनाने और उसे सबसे अलग बनाने की उमंग में उन्होंने पता नहीं क्या सोचकर घर की दीवारों, खम्बों, दरवाजों तथा आलों को मिट्टी के काम से सजाना शुरू किया होगा। यही समय सोनाबाई के सृजनात्मक जीवन का स्वर्णिम समय साबित हुआ।
दरोगाराम कहते हैं, मेरा जन्म सन १९५३ में हुआ उसके कुछ समय बाद ही हम नए घर में आ गए थे। वे अपने बचपन को याद कर कहते हैं, नानी बहुत ही सरल थीं, उन्हें घर के कामों से फुर्सत ही नहीं मिलती थी। घर की लिपाई-पुताई खूब करतीं थीं पर वे दीवारों पर मिट्टी से भित्ति अलंकरण बनाना नहीं जानती थीं। मैंने अपनी नानी और मौसियों को मिट्टी से कोई मूर्तियां अथवा जाली या दीवार पर अलंकरण करते नहीं देखा। इतना ही नहीं सोना बाई की तीन बहनों और तीनों भाइयों के घर की महिलओं ने इस काम में कोई खास रूचि नहीं दिखाई।
सोनाबाई रजवार के घर का भीतरी गलियारा जिसमें भित्ति अलंकरण बने हैं (२०१८)
सोनाबाई रजवार के घर का भीतरी गलियारा जिसमें भित्ति अलंकरण बने हैं (२०१८)
दरोगाराम कहते हैं उनके दादा-दादी का स्वर्गवास हो चुका था, परिवार में तीन ही लोग थे में, मेरे पिता और मेरी मां सोनाबाई। पिता सुबह से ही खेत पर चले जाते थे, मैं भी स्कूल जाता था, मां घर पर अकेली रह जाती थीं। बीच-बीच में मां भी खेत पर जाती थीं, फसल की निंदाई के लिए। जब धान की रोपाई और फसल कटाई होती थी तब खेत में बहुत सरे मजदूर काम करते थे मजदूरों के लिए नाश्ता-खाना लेकर खेत जाती थीं।
दरोगाराम बताते हैं जब वह छोटे बच्चे ही थे तब उनके गांव में, महादेव डाँढ़ नामक स्थान पर एक नागा साधु रहते थे। वे निर्वस्त्र रहते बस जाड़ों में चादर लपेट लेते थे। होलीराम उनके बड़े भक्त थे, उन्होंने ही साधू के लिए कुटिया बनवाई थी। होलीराम और सोनाबाई उनकी बड़ी लगन से सेवा करते थे। साधू महात्मा के लिए अधिकांशतः खाना सोनाबाई ही लेकर जाती थीं। वह साधू लगभग २० वर्ष उनके गांव में रहे, उसकी सांगत में ही होलीराम गांजा पीने लगे थे। सन १९७७ में फुहपुटरा में एक बहुत बड़ा संत समागम और मानस यज्ञ का आयोजन हुआ था।यह आयोजन शहडोल के घनश्याम दस महंत ने किया था, सैकड़ों साधू इस गांव में एकत्रित हुए थे। उसके प्रभाव से गांव के लोग भी अछूते नहीं रहे। सोनाबाई भी बढ़-चढ़ कर इस आयोजन में भाग ले रहीं थीं।
सोनाबाई कहती थीं जब वे गणेशपुर से फ़ुहपुटरा आने के बाद उनका जीवन काफी एकाकी हो गया था। दरोगाराम गोदी में था और घर में कोई अन्य स्त्री थी नहीं। अगले १२-१५ साल ऐसे ही गुजरे, जब दरोगाराम बड़ा हुआ और उसका विवाह किया तब घर में एक अन्य स्त्री का आगमन हुआ। वे एकाकी और कठिन दिन थे बिना किसी जरूरी काम के घर से निकलना ही नहीं होता था। नया घर बनाया था इसलिए अकेलेपन में उसे ही सजाना शुरू कर दिया। मिट्टी से काम करने का अनुभव था पर इतना विवरणात्मक काम नहीं जानती थी।
सोनाबाई रजवार के घर का भीतरी गलियारा जिसमें जालियां बनी हैं (२०१८)
सोनाबाई कहती थीं, यह घर एक दिन में तैयार नहीं हुआ बरसों की मेहनत का परिणाम है। कच्ची मिट्टी के बने काम की देखभाल बहुत करनी पड़ती है। जब शुरू किया था तब ज्यादा कुछ सोचा नहीं था पर बाद में सोच-सोचकर बनती थी। सोनाबाई के पति होलीराम घर में हो रही सजावट को देखते और खुश होते थे पर उनकी स्वयं की इसमें कोई रूचि नहीं थी।
मिट्टी-गोबर के गरे से लगभग सभी ग्रामीण स्त्रियां अपना घर लीपती-पोतती और उसे भूमि एवं भित्ति चित्रों समय-समय पर सजती हैं, परन्तु सोनाबाई ने इस साधारण सी कला को जिस ऊँचाई पर पहुंचाया वह अद्वितीय है। वे घर की दीवारों में विभिन्न आकारों की जालियां और पशु-पक्षी तथा मानव आकृतियां उकेरती थी। अपनी सहज सृजनशीलता और कौशल से, वे अपने घर को सपनों का कल्पनालोक बना देतीं थी।
सन १९९० तक सोनाबाई रजवार का नाम प्रसिद्द हो चुका था और उनकी कला की ख्याति समूचे विश्व में फ़ैल चुकी थी तब कुछ विदेशी विद्वानों ने उनके कलाकर्म पर पुस्तकें लिखी तथा फिल्म भी बनाई। उन्होंने सोनाबाई को अपने पति द्वारा प्रताड़ित महिला के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने सोनाबाई की छवि एक अबला ग्रामीण भारतीय नारी की बनाई जो दुखिया और पराधीन थी। परन्तु सोनाबाई का जीवन एक समय एकाकी था, पराधीन और बेचारगीपूर्ण नहीं। उनकी सृजनात्मकता के उजागर होने में उनका एकाकीपन सहायक हुआ। उनकी कला किसी दुःख अथवा त्रास से उपजी कला नहीं बल्कि समय की बहुलता को सार्थक बनाने के प्रयास का परिणाम है।
सन २००७ में सोनाबाई का स्वर्गवास हुआ, छत्तीसगढ़ शासन द्वारा सन २०१५ में उनकी स्मृति में उनके गांव फुहपुटरा में एक संग्रहालय भवन बनवाया गया। छत्तीसगढ़ में किसी कलाकार की स्मृति में स्थापित किया गया यह पहला संग्रहालय है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.