घर ही कलाकृति है (१९८६- तुलसी सम्मान के ब्रोशर में प्रकाशित )/The home as art work- republished from 1986 Tulsi Samman brochure)

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Published on: 27 August 2019

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

(सन १९८६ में सोनाबाई रजवार को मध्यप्रदेश सरकार द्वारा तुलसी सम्मान से सम्मानित किया गया। आदिवासी लोक कला के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण सम्मान है। उस समय यह आलेख सम्मान की स्मारिका में प्रकाशित किया गया था।)

 

दीवारों पर उभारदार भित्ति अलंकरण एवं कच्ची मिट्टी के शिल्पों द्वारा अपना घर सजाने में सोनाबाई रजवार का सानी नहीं है। जब हम उनके घर पहुंचे तब वे घरेलू कामों में व्यस्त थी। आंगन के कोने में बच्चे को गोद में लिये चावल बीनने वाली ये सीधी सादी महिला इस इलाके में दूर दूर मशहूर कलाकार होगी ये कोई सोच भी नहीं सकता था। अम्बिकापुर के पास के गांवों में हमें पता लगा कि यहां के गांव फुहपुटरा में दरोगा नाम के लड़के की मां ने अपना घर बहुत ही सुन्दर बना रखा है। उसके बाद ही हम फुहपुटरा आये थे गांव के बाहरी कोने में दरोगा की मां सोनाबाई रजवार की झोपड़ी है। झोपड़ी बाहर से देखने में तो सादा है परन्तु अन्दर कदम रखते ही लगता है जैसे किसी स्वप्नलोक के मायावी संसार में पहुंच गये हों। झोपड़ी की प्रत्येक दीवार और खंबे चित्रकारी, रिलीफ और मूर्तियों से भरी हुई हैं।

सोनाबाई बताती हैं कि वे 10-12 साल की थी जब उनका विवाह हुआ। पति घर में अकेले थे मां–बाप, भाई बहन उनका कोई था नहीं, जब पति खेत पर चले जाते तो उनके लिये सारा दिन घर में अकेले रहना मुश्किल हो जाता। लेकिन उन्होनें अकेलेपन को दूर करने का हल ढूंढ निकाला, बचपन में मिट्टी से खेलने का शोक था। उन्होने उसे ही अपने अकेलेपन का साथी और अपना रचना संसार सिजरने का माध्यम बनाया। उनके रचना संसार में अकेलेपन की पीड़ा से उपजा प्रेम इस सीमा तक व्याप्त है कि उसमें पशु-पक्षी, मनुष्य, पेड़, पोधे, सभी निर्भय होकर आपस में घुल मिल कर रहते हैं। घर में पशुओं के कमरें को छोड़ कर सारे कमरों, गलियारों और आंगन के चारों ओर रिलीफ और भित्तिचित्र बने हैं। आंगन और गलियारे की बीच तीन ओर बहुत ही लयात्मक ज्यामितीय पैटर्नों से जालियां बनाई हैं जिनमें कहीं चिड़ियां, कहीं घोड़ा, कहीं हाथी और कहीं कहीं तो सांप भी सरक रहे हैं। चिड़िया सांप से भयभीत नहीं है बल्कि उससे कुछ कहने को आतुर दिख पड़ती है। किसी जाली में तो मुर्गियां सतर्क खड़ी हैं और काले नाग फन फैलाए अपनी दुम की नोक पर खड़े हैं।

उस बरामदे में जहां लोगों की बैठक जमती है, कृष्ण जी ने अपनी गोपिकाओं के साथ रासलीला रचा रखी है। गाय, बछड़ा और गोपियां जैसे कृष्ण की बांसुरी की तान पर मुग्ध और स्तबध सी खड़ी रह गई हैं। कृष्ण और गोपिकाओं की मूतियों को गुड़ियों की तरह कपड़े और गहने भी पहनाये हैं। आंगन के दूसरे कोने में रसोईघर के बाहर दीवार में दो बच्चों को बैठाया गया है, एक तो मंजीरा बजा रही है और दूसरा कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा है, जैसे मां ने कहा हो कि पढ़ने के बाद ही खाना मिलेगा ।

 

कमरों की बाहरी और भीतरी दीवारों पर हिरण, मयूर, गमले, बेलें, चिड़िया की आकृतियों का सुन्दर चित्रण किया गया है, दरवाज़ों के चारों ओर ज्यामितिक पैटर्नों की सजावट है।

 

अपनी बनाई कृतियों पर सोनाबाई का ममत्व भी गजब का है, सारी चीजे इतनी साफ और ताजी दिखती हैं कि लगता है आज ही बनाई गई हैं। सोनाबाई बताती हैं कि वे रिलीफ और मूर्तियां कच्ची मिट्टी की बनाती हैं। जाली और मूतियों का आर्मेचर बांस या किसी अन्य लकड़ी का बनाती हैं फिर उस पर मिट्टी चढ़ा कर आकृति को रूप् दिया जाता है। मूर्ति के लिये गारा वे काली और पीली मिट्टी में धान का भूसा मिलाकर बनाती हैं। इस मिश्रण को तीन चार दिन भिगोकर कूटा जाता है, जिससे सूखने पर यह भुरभुरी नहीं  होने पाती। आकृति के सूखने पर वे उस पर रंगाई करती हैं। सबसे पहले आकृति को छुई मिट्टी सरगुजा के गांवों में सफेद रंग की एक विशेष मिट्टी पाई जाती हैं जो खड़िया जैसी सफेद होती है, से रंगा जाता है फिर उस पर गैरू, पीली मिट्टी, कजली और कभी-कभी नील से रंग भरे जाते हैं। रंग भरने के लिए कपड़े का टुकड़ा पौंछे की तरह वे प्रयोग मे लाती है। इसी प्रकार दीवारों पर बने रिलीफ और चित्रों पर रंगाई की जाती है।

 

सोनाबाई बताती है कि अब उनके परिवार में उनका बेटा दरोगा उसकी पत्नी तथा उसके बच्चे भी हैं। परन्तु अपने एकाकीपन से उपजे इस गुण को उन्होंने छोड़ा नहीं है, यह तो उनकी जिन्दगी में सभी जरूरी कार्यो की तरह जुड़ गया है।

सोनाबाई रजवार के काम को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि लोक और आदिवासी कला में परम्परागत ढर्रे पर काम करते हए भी कलाकार अपनी स्वर्य की कल्पनाशीलता, अभिरूचियों, तकनीकी दक्षता और रूपबोध से उस परम्परागत कला को किस तरह नया अर्थ दे सकता है। कलाकार की सृजन शक्ति, चारों ओर फैली प्रकृति और परम्पराओं के परस्पर अन्तर्द्वन्द से जो नयी सृष्टि जन्म लेती है वहीं इन परम्परागत कलाओं में कलाकार का व्यक्तिगत विशिष्ट योगदान होता है। सोनाबाई ये नहीं बता पाती कि उन्होनें ये आकृतियां क्या सोच कर बनाई, उन आकृतियों को ये रूप् ही क्यों दिया। वे ये भी नहीं बता पाती कि उन्होनं उनकी जातिगत परम्परा में चल रहे रूपाकारों से आगे काम कैसे आरंभ कर पाया, क्या सोच कर किया। वे ये भी नहीं बता पाती कि उनकी बनाई कृतियों में सौन्दर्य के आधार क्या है। इन सभी बातों का उनके पास एक ही जबाब है। हमें क्या पता, हमें तो जो अच्छा लगा कर दिया। लेकिन इसका यह अर्थ लगा लेना कि वे सौन्दर्य और उसके आधारों या बनाये रूपाकारों के पीछे-छिपे मनोवैज्ञानिक तर्को से अनभिज्ञ हैं, गलत ही होगा। हां ये बात अलग है कि वे सब महसूस करती हैं पर कह नहीं पाती।

 

सोनाबाई का काम का तरीका कुछ इस तरह है कि शिल्प अपना आकार बहुत धीरे-धीरे पाते हैं  इसलिए वे एक साथ आठ दस कृतियां गढ़ना शुरू करती हैं और रोजाना प्रत्येक आकृति पर मिट्टी की तीन चार पतली पर्त चढ़ा देती हैं, अगर मोटी पर्त एक साथ चढ़ा दी जाय तो मिट्टी चटक जाती है। आरंभ मे तो सारे पशु एक जैसे, सिर्फ चैपाए ही दिखते हैं। परन्तु धीरे-धीरे उनमें वे चिन्ह उभरना शुरू होते हैं जो उन्हें समीष्टगत से जातिपरक बना देते हैं।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.