कहते हैं किसी कलाकार द्वारा बनाई कलाकृतियां उसके व्यक्तित्व का आइना होती हैं। अतः उसके द्वारा सृजित कला संसार को, उस कलाकार के जीवन को जाने बिना समझना दुष्कर है। यह परिस्थितियां ही होती हैं जो कलाकार की सोच और उसकी संवेदनाओं को जागतीं हैं, उन्हें उद्वेलित करतीं हैं और उन्हें व्यक्त करने हेतु उकसाती हैं। जीवन के विभिन्न आयामों में कलाकार की मनः स्थिति भी भिन्न–भिन्न होती है जिसका प्रभाव उसकी कला में परिलक्षित होता रहता है। सोनाबाई की कला को भी उनकी जीवन परिस्थियों से अलग करके नहीं समझा जा सकता।
पारम्परिक रजवार घर जिसमें भित्ति अलंकरण एवं भित्ति चित्र बने हैं।सरगुजा, छत्तीसगढ़। (१९८३)
सोनाबाई का जन्म सरगुजा जिले के गणेशपुर गांव (कैना पारा) में एक रजवार कृषक परिवार में हुआ था। रजवार समुदाय एक गैर आदिवासी कृषक समुदाय है जो आर्थिक रूप से विपिन्न नहीं होते, उनके पास अच्छी–खासी खेती होती है और अपेक्षाकृत बड़े घर होते हैं। रजवार स्त्रियां घरों को बहुत साफ़–सुथरा रखती हैं तथा उन पर छुही मिट्टी (सफ़ेदमिटटी) से लिपाई करती हैं। रजवार लिपाई विशिष्ट प्रकार से की जाती है। सूती कपड़े के टुकड़े को छुही मिट्टी के घोल में डुबाकर उससे दीवार पर पौंछा लगाया जाता है फिर उस पर हाथ की उँगलियों से धारियां खींची जाती हैं।विभिन्न प्रकार से धारियां खींचकर दीवार पर पैटर्न बनाए जाते हैं। लिपाई से पहले गोबर-मिट्टी के गारे से दीवार पर कुछ आकृतियां उकेरी जाती हैं। यह वह गृहसज्जा है जो लगभग प्रत्येक रजवार कन्या करना जानती है। सोनाबाई भी इसमें दक्ष थी। उनके पास भित्ति अलंकरण द्वारा गृह सज्जा की एक पारम्परिक पृष्ठभूमि थी पर इससे आगे की यात्रा उन्होंने स्वयं की प्रतिभा और लगन के बल पर की थी।
पारम्परिक रजवार घर जिसमें भित्ति अलंकरण एवं भित्ति चित्र बने हैं।सरगुजा, छत्तीसगढ़। (१९८३)
यह लगभग सं १९५५ की बात है जब सोनाबाई और होलीराम रजवार का नवविवाहित जोड़ा अपने लिए अपने हाथों से घर बना रहा था। क्या उमंग रही होगी और क्या रोमांच रहा होगा। वे भरा–पूरा घर छोड़कर नई जगह में नए घर में आये थे, जहाँ पति–पत्नी के आलावा साथ में तीसरा प्राणी था उनका छोटा सा बच्चा दरोगाराम। प्रत्येक दिन सुबह होते ही पति होलीराम खेत पर चले गए और बच्चा स्कूल, अब अकेले घर में सोनाबाई क्या करे, कैसे समय काटे? छोटी उम्र और नई बहु, घर गांव के बाहरी किनारे पर, आखिर सोनाबाई क्या करे, कहाँ जाए ? एकाकी सूना घर काटने दौड़ता था।
तब उन्होंने अपने समुदाय के पारम्परिक हुनर को अपना साथी बनाया। नवनिर्मित घर की दीवारों पर मिट्टी और गोबर के गारे से सजावट आरम्भ की। सूने घर की दीवारों पर अपने कल्पना लोक का सृजन आरम्भ किया। अपने आस-पास वह सब बनाना आरम्भ किया जिसे वे वास्तविक दुनिया में अपने इर्द गिर्द देखना चाहती थीं। देखते ही देखते उन्होंने अपने घर-आँगन में मिट्टी से अपनी आकांक्षाओं का संसार रच डाला।
सोनाबाई रजवार द्वारा अपने घर की दीवार पर बनाई हिरण की आकृति। (१९८३)
यह बड़ी विलक्षण बात है की सोनाबाई ने अपने घर ने अनेक जालियां बनाई हैं। उस समय का सरगुजा, घनघोर जंगल और ठंडी हवा। गर्मी बहुत कम, हवेलियां अथवा पक्के मकान भी नहीं। आखिर सोनाबाई ने जालियों का ऐसा प्रयोग कहाँ देखा? क्या यह उनकी मौलिक कल्पना थी या किसी बीजमात्र परम्परा का सप्रयास विस्तार, कहना कठिन है। जब वे जीवित थीं तब उनसे पूछ नहीं पाया और सत्य क्या था अब कभी जान नहीं सकूंगा। सरगुजा में कच्चे घरों में भी खिड़कियों अथवा रौशनदानों में सरल जाली बनाई जाती है, यहाँ इन्हें झिंझरी कहा जाता है। परन्तु ऐसी विवरणात्मक और परिष्कृत जालियां जो सोनाबाई ने बनाई थीं वह तो सोच के भी परे हैं।
जालियों से छनकर आती धूप-छाँव का खेल, जालियों से गुजरकर आती हवा का मखमली स्पर्श। जालियों में बसा पशु-पक्षियों और कीड़े-मकोड़ों का संसार। अपने आप से लुका-छिपी, सबको देख सकते हुए अपने आप को छिपाये रखने का रोमांच। आखिर सोनाबाई ने किन संवेगों के वशीभूत होकर इन जालियों का सृजन किया होगा अब कोई नहीं बता सकता, हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।
सोनाबाई रजवार द्वारा बनाई जालियां एवं मूर्तिशिल्प। (१९८३)
सोनाबाई रजवार द्वारा बनाई जालियां एवं मूर्तिशिल्प। (१९८३)
सोनाबाई रजवार द्वारा बनाई जालियां एवं मूर्तिशिल्प। (१९८३)
सोनाबाई रजवार द्वारा बनाई जालियां। (१९८३)
सोनाबाई रजवार द्वारा बनाई जालियां। (१९८३)
यदि हम सोनाबाई की बनाई हुई जालियों को देखें तो वे आदमकद, लगभग सात फिट ऊंचे और आठ फिट चौड़े पैनल हैं। ऐसे अनेक पैनल उन्होंने अपने घर में बनाये थे। इन्हे बनाना एक लम्बी और श्रमसाध्य प्रक्रिया है। पहले बांस की खिपचियों और किसी वृक्ष की पतली, लचीली टहनियों को पतली रस्सी से बांधकर ढाँचा तैयार किया जाता है। गोलाकार जाली बनाने के लिए एक-एक तीली को गोलाकर में बांधना पड़ता है। इसके लिए सम्पूर्ण जाली की पूर्वकल्पना करना आवश्यक है। यह कोई सामान्य कार्य नहीं है इसके लिए असाधारण प्रतिभा की आवश्यकता होती है।
सोनाबाई ने जो जालियां अपने घर में बनाई और जो उन्होंने अन्य स्थानों पर बनाई उनमे बहुत अंतर है। अन्य स्थानों पर बनाई गयी जालियां अधिकांशतः सूनी एवं जाली भर हैं, वे कार्य दक्षता और कौशल की श्रेष्ठता तो दर्शाती हैं पर उनमें जीवन का स्पंदन नहीं है। परन्तु जो जालियां उन्होंने अपने घर में बनाई हैं उनमें तो जैसे जीवन का संगीत है। तरह-तरह की पक्षी आकृतियों के प्रति उंनका मोह प्रत्येक दीवार पर झलकता है। भांति-भांति की चिड़ियों का सजीव मूर्तरूप जो उन्होंने गढ़ा वह अद्वितीय है। संभवतः उन्मुक्त चिड़िया की तरह खुले आकाश में उड़ने की आकांशा कहीं उनके मन में गहरे छिपी हुई थी।
सोनाबाई रजवार का घर जिसकी दीवारों पर उनके द्वारा बनाए भित्ति अलंकरण संरक्षित हैं। (२०१८)
सोनाबाई रजवार का घर जिसकी दीवारों पर उनके द्वारा बनाए भित्ति अलंकरण संरक्षित हैं। (२०१८)
सोनाबाई ने कलाकर्म को न तो व्यवसाय के रूप में अपनाया था और न ही नाम कमाने के लिए, वे तो उसे अपनी प्रत्येक साँस में जी रही थीं। एकाकी और सूने घर में एक यही तो उनके जीवन का आधार था। वे जैसे अपने जीवन की सार्थकता मिट्टी के काम में तलाश रही थीं। मिटटी उनकी कला का माध्यम मात्र नहीं थी, बल्कि वह उनकी परम सहेली थी जिसके साथ वे बतियाती थीं, खेलती थीं और अपना सुख-दुःख साझा करतीं थीं। जिसके माध्यम से वे अपनी आकांक्षाएं, अभिलाषाएं, तृप्त और अतृप्त आवेग-संवेग, घुटती उमड़ती भावनाएं अभिव्यक्त करती थीं।
सोनाबाई का कलाकर्म किसी को सम्बोधित करने के लिए नहीं बल्कि वह उनका आत्मालाप है, स्वयं से बात चीत जिसमें वे स्वयं ही कह रही हैं और खुद ही सुन रही हैं। यही उनकी कला में निहित सहजता, सरलता और सच्चाई का मूल है जो उसे हर तरह के बाह्य आडम्बर से मुक्त रखता है।
सोनाबाई रजवार का घर जिसकी दीवारों पर उनके द्वारा बनाए भित्ति अलंकरण संरक्षित हैं। (२०१८)
सोनाबाई रजवार का घर जिसकी दीवारों पर उनके द्वारा बनाए भित्ति अलंकरण संरक्षित हैं। (२०१८)
सोना बाई रजवार की कला में वास्तुशिल्प एवं मूर्तिकला का अद्भुद तालमेल है। उनकी सोच में घर का वास्तुशिल्प और उसकी सजावट हेतु बनाये जाने वाले मूर्ति शिल्प एक दुसरे के पूरक हैं। वे बनाई जाने वाली प्रत्येक आकृति को अपने घर के वास्तुशिल्पीय परिप्रेक्ष्य देखती थीं। वे किसी भी आकृति को घर में कहीं भी रख देने के लिए नहीं बनती थी बल्कि उसे किसी स्थान विशेष के लिए कल्पित करती थीं। यानि किसी सोची समझी जगह के अनुरूप, सोच समझ कर बनाया गया रूपाकार। उनके लिए समूचा घर ही उनका कलाकृति रूप था, वे उसे समग्रता में देखती थीं। यानि घर और उसकी सज्जा हेतु बनाई गई आकृतियां अलग-अलग नहीं हैं वे एकदूसरे के अनुपूरक अंग हैं। उनका सौंदर्य और अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है।
सोनाबाई के काम को देखकर वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला जैसी विभिन्न कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों को बखूबी समझा जा सकता है। सोनाबाई को रूपाकारों में निहित लय एवं सौंदर्य की समझ इतनी गहरी थी कि उन्होंने जो छवियां गढ़ी उनमे विवरण नहीं हैं, लय का सौंदर्य प्रस्फुटित हुआ है।
सोनाबाई के कृतित्व को हम दो चरणों में देख सकते है। पहला चरण सन १९८३ से पहले का, जब वे बाहरी कला जगत के लिए अनजान थीं। जब वे अपने लिए, अपनी सोच के अनुरूप नितांत निजी कारणों से कलाकर्म कर रही थीं। जब कलाकर्म उनके लिए यश और धन अर्जन का माध्यम नहीं जीवन जीने के लिए प्राण वायु समान था।
सोनाबाई रजवार का घर जिसकी दीवारों पर उनके द्वारा बनाए भित्ति अलंकरण संरक्षित हैं। (२०१८)
सोनाबाई रजवार का घर जिसकी दीवारों पर उनके द्वारा बनाए भित्ति अलंकरण संरक्षित हैं। (२०१८)
दूसरा चरण है सन १९८४ से सन २००७ तक का, जब वे एक सम्मानित और जानी-मानी कलाकार के रूप में स्थापित हो चुकी थीं। देश भर के नामचीन संग्रहालयों और संस्थानों से उन्हें अपनी कला के प्रदर्शन हेतु आमंत्रित किया जा रहा था। अब परिस्थितियां बदल चुकी थीं, कलाकृतियों के सृजन का उद्देश्य एवं परिप्रेक्ष्य बदल गया था। अब एकांत घर में नहीं, खुले मंच पर काम करना था। उन्हें बनाइ जाने वाली कलाकृतियों के प्रति अपना दृष्टिकोण भी बदलना था। अब उन्हें रूपाकार जाने पहचाने स्थान के अनुरूप नहीं, किसी अनजाने स्थान पर प्रदर्शित होने के लिए बनाने थे।
इस चरण में सोना बाई ने अपने काम में अनेक परिवर्तन किये। इस बीच उन्हें काम को लेकर अनेक लोगों के सुझाव और अनुरोध भी मिले। कृतियां बनाने हेतु आवश्यक मिट्टी एवं अन्य सामग्री की किल्लत को देखते हुए, सामग्री में बदलाव करना पड़ा। अपने गांव की मिट्टी के साथ अन्य स्थानों की मिट्टी मिलाकर प्रयोग किये। दीवार के स्थान पर प्लायबोर्ड की सतह पर मिट्टी के अलंकरण बनाए, बांस की खिपचियों के स्थान पर लोहे का तार, गोल जाली बनाने के लिए चूढ़ी का प्रयोग जैसे नए माध्यम अपनाए। फ़ैवीकोल, नारियल की रस्सी, मच्छर जाली आदि का प्रयोग करना सीखा। यह सब बदली हुई परिस्थिति की मांग थी जिसमें अपने को ढालना सोनाबाई के लिए किसी चुनौती से काम न था।
शिल्प संग्रहालय, नई दिल्ली में सोनाबाई रजवार द्वारा बनाई जालियां एवं मूर्तिशिल्प।(२०१८)
शिल्प संग्रहालय, नई दिल्ली में सोनाबाई रजवार द्वारा बनाई जालियां एवं मूर्तिशिल्प। (२०१८)
शिल्प संग्रहालय, नई दिल्ली में सोनाबाई रजवार द्वारा बनाई जालियां एवं मूर्तिशिल्प। (२०१८)
इस सब का प्रभाव सोना बाई के काम पर भी पड़ा। यद्यपि सोनाबाई ने बदली परिस्थितियों के दबाव में अपने काम की श्रेष्ठ्ता से समझौत नहीं किया किन्तु भावनात्मक स्तर पर उनके दृष्टिकोण में हुए परिवर्तन का प्रभाव इस चरण में उनके द्वारा बनाई कलाकृतियों में स्पष्ट परिलक्षित होता है। वे आरम्भ से ही छुही मिटटी का सफ़े, गेरू का भूरा, काजल का काला, पिली मिट्टी का पीला, नील का नीला और बाजार से प्राप्त चूने का हरा रंग प्रयोग करती थीं। पर दूसरे चरण में अल्प मात्रा में ही सही, अन्य रंगों का प्रयोग भी उन्होंने किया है।
जिस प्रकार जनगढ़ सिंह श्याम ने अपनी निजी प्रतिभा से गोंड चित्रकारी को सारे संसार में विख्यात कर दिया उसी प्रकार सोनाबाई रजवार ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से सरगुजा जिले के रजवार समुदाय में प्रचलित मिट्टी की कला को कलाजगत में अमर बना दिया है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.