जगार: बस्तर के अलिखित लोक महाकाव्य-1, The Oral Epic of Jagar in Bastar-1

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हरिहर वैष्णव

मूलतः कवि एवं कथाकार।
बस्तर वाचिक परम्परा के अध्येयता।
लेखक तथा शोधकर्ता।

 

 

जगार संभवतः ‘जागृति’ या ‘यज्ञ’ शब्द का अपभ्रंश है। यह एक ऐसा लोक महाकाव्य है जिसका पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण स्मृति आधारित है। इसकी विशेषता यह है कि इसका गायन केवल महिलाओं द्वारा ही किया जाता है। जगार की प्रक्रिया में इसकी गायिकाएं, जिन्हें इस क्षेत्र में ‘गुरुमांय’ कहा जाता है, देवताओं का आह्वान करते हुए कुछ मंगल अवसरों पर विभिन्न प्रकार के जगारों का गायन करती हैं। सार्वजनिक धर्मस्थलों पर अब जबकि लगभग सभी धर्मों में पुरुष पुजारियों का ही वर्चस्व है, वहीं छत्तीसगढ़ एवं ओड़िसा के कुछ क्षेत्रों में सिर्फ़ महिला पुजारिनों द्वारा गाया जाने वाला जगार इसका एक अनूठा अपवाद प्रस्तुत करता है।

कहा नहीं जा सकता कि बस्तर अंचल, नगरी-सिहावा और पश्चिमी ओड़िसा के बाहर भी देश या विदेश में कहीं कोई ऐसा अलिखित लोक महाकाव्य है जिसका गायन केवल नारी ही करती हो। किन्तु बस्तर में ऐसा एक अलिखित लोक महाकाव्य अवश्य प्रचलित है जिसका गायन मूलत: नारी ही करती है। अपवाद स्वरूप कुछ पुरुष भी इनमें से दो जगारों (‘तीजा जगार’ और ‘लछमी जगार’) का गायन करते हुए देखे-सुने गये हैं।

इसके अंतर्गत तीन अलिखित लोक महाकाव्य हैं; ‘तीजा जगार’, ‘लछमी जगार’ और ‘बाली जगार’, साथ ही एक खण्डकाव्य है; ‘आठे जगार’ या ‘अस्टमी जगार’। अब ‘बाली जगार’ लुप्त हो चुका है।

बस्तर-ओड़िसा के सीमावर्ती गाँवों की कुछेक जगार गायिकाओं ने ‘बाली जगार’ गायन की बात कही किन्तु उन्हें भी यह जगार अब याद नहीं रह गया है। वर्त्तमान में यह सिर्फ़ पश्चिमी ओड़िसा के नवरंगपुर जिले के गाँव नँदाहाँडी में ही प्रचलन में है।

 

जगार क्या है? 

‘जगार’ का अर्थ कुछ लोग 'जागरण', 'जागृति' या 'चेतना' बताते हैं, तो कुछ लोग 'यज्ञ'। गुरुमांयों, यानी जगार गायिकाओं के अनुसार जगार का अर्थ ‘जग’ यानी ‘यज्ञ’ ही है। 'महायज्ञ', जिसके माध्यम से गुरुमांय देवी-देवताओं का आह्वान करती हैं। उन्हें जगाती हैं और उनकी पूजा-अर्चना करती हैं, उनका गुण-गान करती हैं। उनकी गाथा गाती हैं।

वे कहती हैं :

जगार बल्लो ने जग आय। तेबेय तो हामी ‘जग मँडाउँसे’ नाहले ‘जग मँडालुँसे’ बलुँसे।

जगार कहने का अर्थ यज्ञ है। तभी तो हम ‘यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं’ या (हमने) ‘यज्ञ का आयोजन किया है’ कहते हैं।

यही कारण है कि इन सभी जगारों के गायन के आरम्भ में ही गुरुमायें विभिन्न देवी-देवताओं का आह्वान करती हुई उन्हें जागने और इस यज्ञ में आने का न्योता देती हैं।

 

चारों जगारों का एक-एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है:

आठे जगार: पुजारी पारा, सोनारपाल, तहसील एवं जिला बस्तर की गुरुमाँय हीरामनी और भानमती द्वारा पहले अध्याय (वन्दना) का एक पद :

अधया-1: सुमरन

सये सरन लखे जुआर

सये सरन लखे जुआर         

कोटी नमस्कार हरि बोल       

कोटी नमस्कार।       

अध्याय-1: वन्दना

सौ-सौ नमन लाखों प्रणाम

सौ-सौ नमन लाखों प्रणाम

कोटि नमस्कार हरि बोल    

कोटि नमस्कार।

 

तीजा जगार: सरगीपाल पारा, कोंडागाँव निवासी गुरुमाँय सुकदई कोराम द्वारा दूसरे अध्याय ‘न्योता’ का एक पद :    

अधया-2: नेवता

सुना आया तुमी जिमिदारिन  

सुन आया तुय गाँवकारिन   

हरि-हरि बोली जागो आया   

राम बोली बयठो            

हरी बोली जागी गले          

राम बोली बले बयठी गले   

घिंवर होमो मयँ देयँ आया   

 राजर होमो देयँ        

 जगार-नेवता देयँ आया        

 मयँ जगार-नेवता देयँ। 

 अध्याय 2 : न्योता

 सुनो माता हे जिमिदारिन

 सुनो माता हे गाँवकारिन

 हरि-हरि बोलती जागो माता

 राम बोलती बैठो

 हरि बोलती जागने पर

 राम बोलती बैठने पर

 घी का होम मैं दूँ हे माता

 राज का होम मैं दूँ

 जगार का न्योता देती माता

 मैं जगार का न्योता देती।

 

लछमी जगार: ग्राम खोरखोसा, तहसील एवं जिला बस्तर निवासी गुरुमाँय केलमनी द्वारा पहले अध्याय (सुमरनी) का एक अंश:    

अधया-1 : सुमरनी

 हरि बोल हरि बोल रामे-रामो 

 हरि बोल हरि बोल रामे-रामो 

 सेई बले सालिगराम परभू    

 सेई बले सिता तो राम        

 हरि-हरि बोली जागयँ परभू  

 मोर राम बोली बयठयँ।   

अध्याय-1 : सुमरनी

हरि बोलो हरि बोलो राम-राम

हरि बोलो हरि बोलो राम-राम

वे तो सालिग्राम प्रभु

वे तो सीता और राम

हरि-हरि बोलते जागें प्रभु

राम बोलते बैठें।

    

बाली जगार: ग्राम नँदाहाँडी, जिला नवरँगपुर, ओड़िसा की गुरुमायनी तुलाबती भतरनी द्वारा पहले अध्याय (देवी-आह्वान) से:

अध्या-1: देबी डाको

 रामो-रामो हरी-हरी जे        

 रामो-रामो जे हरी-हरी       

 धरिलू देबिर नामो बले जे   

 धरिलू देबिर नामो बले

  माँ बलिबी पाठो रानी         

  पाठो रानी तमे मागो जे

  पाठो रानी तमे        

  नाची-नाची आसी जिबार जे  

  डोली-डोली आसी जिबार    

  सुतर तागे जे आसी जिबार   

  मोतिर माले आसी जिबार जे  

  सुतर तागे आसी जिबार

  पाठो रानी तमे बले          

  पाठो रानी जे तमे बले        

  पाठो रानी तमे बले मागो। 

  अध्याय-1 : देवी-आह्वान

  राम-राम हे हरि-हरि

  राम-राम हे हरि-हरि

  लिया देवी का नाम देखो

  लिया देवी का नाम        

  माँ कहूँगी हे पटरानी मैं

  पटरानी तुम हो माता जी

  पटरानी तुम हो

  नाच-नाच कर आना है माता

  हिलते-डोलते आना है

  सूत पर चलते आना है माता

  मोती महल में आना है

  धागे पर चल कर आना है

  पटरानी तुम हो माते

  पटरानी तुम हो

  पटरानी तुम हो हे माता।

 

इन सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि जगार कीन्हीं मंगल अवसरों पर देवताओं को निमंत्रित करने की यज्ञ या जागरण से मिलती-जुलती प्रक्रिया है।

    

आयोजन का स्वरूप:

चारों जगारों का आयोजन प्राय: सामूहिक रूप से हुआ करता था। किन्तु ‘आठे जगार’, ‘तीजा जगार’ और ‘लछमी जगार’ का आयोजन व्यक्तिगत तौर पर भी किया जाता रहा है। ‘बाली जगार’ ही एक ऐसा जगार है, जिसका आयोजन व्यक्तिगत तौर पर होता ही नहीं। कारण, इसमें बहुत अधिक खर्च आता है। तीन महीने तीन दिन यानी 93 दिनों तक चलने वाले इस जगार का आयोजन अभी तक व्यक्तिगत तौर पर होते देखा-सुना नहीं गया है। जब जगार सामूहिक तौर पर होता है तो उसे ‘गाँव जगार’ भी कहा जाता है। ‘तीजा जगार’ को प्राय: ‘धनकुल’ भी कहा जाता है।

यदि आयोजन सामुदायिक है तो गाँव की देवगुड़ी या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर आयोजित होता है। व्यक्तिगत होने पर आयोजक के घर पर। किन्तु ‘बाली जगार’ की विशेषता यह है कि इसका आयोजन प्राय: गाँव के पुजारी के घर पर ही होता आया है।

आयोजन की तैयारी में सबसे पहले, आयोजन से लगभग डेढ़ से दो महीने पहले, जगार गायिका यानी गुरुमांय से सम्पर्क करना पड़ता है। कारण, यदि किसी और ने उनसे पहले ही सम्पर्क कर लिया तो बाद में सम्पर्क करने वाले को निराश होना पड़ सकता है। गुरुमांयें प्राय: दो या अधिकतम तीन होती हैं। पहली यानी मुख्य गुरुमांय को ‘पाट गुरुमांय’ या ‘बड़े गुरुमांय’ कहा जाता है जबकि दूसरी और तीसरी गुरुमांयें ‘चेली गुरुमांय’ या ‘नानी गुरुमांय’ अथवा ‘छोटे गुरुमांय’ कह लाती हैं। यह देखा गया है कि दूसरी गुरुमांय तो पहली गुरुमांय से सीखी हुई होती है किन्तु तीसरी गुरुमांय अभी सीखने की प्रक्रिया से गुजर रही होती है।

‘जगार’, वह चारों में से चाहे जो भी हो, वाद्य-यन्त्र के समस्त उपकरणों एवं पीढ़ा, माची आदि पर चावल के आटे के घोल से ‘हाता’ देना आवश्यक होता है। हाता देने का अर्थ है, हथेली को चावल या चावल और हल्दी के आटे के घोल में डुबा कर उसकी छाप देना। छत्तीसगढ़ी परिवेश में इसे ‘हाँता’ कहते हैं। ‘हाता’ या ‘हाँता’ देने की परम्परा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ और ओड़िसा में कई मंगल प्रसंगों पर रही है।

 

                                                   

                    आकृति 1: धंकुल वाद्य बाजते हुए हरिहर वैष्णव, कोंडा गाँव, बस्तर 

 

जगार गायिकाएँ यानी गुरुमायें:

विस्तृत सर्वेक्षण करने पर यह तथ्य प्रकाश में आया कि गुरुमांय अनेक जातियों जैसे गाँडा, कोस्टा, पनारा, घड़वा, कलार, वैष्णव बैरागी, धाकड़, माहरा, हल्बा, कुर्मी आदि से हैं-

  • सरगीपाल पारा, कोंडागाँव की गुरुमांय सुकदई कोराम, गागरी कोराम, रामदई, सोनारी कोराम, पलारी की गुरुमांयें कमला बघेल, कुम्हारपारा, कोंडागाँव की गुरुमांयें सुकली, गोचा, उर्मिला कोराम, सोमारमती बघेल एवं भागबती तथा रोजगारीपारा कोंडागाँव की सोमारी गाँडा जाति से हैं।
  • सरगीपाल पारा (कोंडागाँव) की ही गुरुमांय कमलबती पनारा (मरार) जाति से हैं।
  • जोंदरापदर (कोंडागाँव) की गुरुमांयें सुकली, गोचा, उर्मिला कोराम, सोमारमती बघेल एवं भागबती तथा रोजगारीपारा कोंडागाँव की सोमारी गाँडा जाति से हैं। तुलाबाई, रामदेई और सुपती, कोस्टा यानी देवांगन समुदाय से हैं।
  • घोड़सोड़ा की गुरुमांय सनमती, भेलवाँपदर पारा (कोंडागाँव) की रैमती तथा उनके भाई छेदीराम बघेल एवं परानी घड़वा जाति के हैं।
  • इसी क्षेत्र के काकड़गाँव नामक गाँव के सुकलू राम पाँडे कलार जाति के हैं।
  • बम्हनी गाँव की आसमती कश्यप मिरगान तथा मड़ानार की जानकी पटेल पनारा जाति की हैं। कोंडागाँव तहसील के मुलमुला गाँव की गुरुमांय मँदनी पटेल भी पनारा जाति की हैं।
  • डोंगरीगुड़ा (कोंडागाँव) की गुरुमांय अम्बिका वैष्णव बैरागी जाति की हैं।
  • जगदलपुर तहसील के खोरखोसा गाँव की गुरुमांय देवला ठाकुर, सरसती ठाकुर, उसाबती ठाकुर और रैमती ठाकुर धाकड़ जाति की हैं जबकि उसी गाँव की लुदरी माहरा जाति की हैं।
  • जगदलपुर तहसील के ही एक गाँव पनारा पारा की गुरुमांय दयाबती पटेल, पनारा तथा तुलाबती, केवट जाति की हैं।
  • जगदलपुर क्षेत्र के बनियागाँव निवासी चैनसिंह कुरमी, कुर्मी जाति के हैं।
  • कोरकोटी (धनोरा) की गुरुमांय कुमारी समरथ हल्बा जनजाति से हैं। साथ ही मड़ानार नामक गाँव की गुरुमांय फगनी बाई समरथ और धीरोबाई भोयर, हल्बा जनजाति की हैं।

 

इस तरह यह तथ्य सामने आता है कि जगार-गायन किसी जाति या समुदाय की व्यक्तिगत अथवा जातिगत विशेषज्ञता नहीं है।

 

गुरुमांयों की निमंत्रण प्रक्रिया:

हल्बी-भतरी परिवेश में आयोजित होने वाले लछमी जगार, तिजा जगार एवं आठे (अस्टमी) जगार और भतरी-देसेया परिवेश में आयोजित होने वाले बाली जगार की गायिकाओं के सामाजिक स्तर में भिन्नता दिखलायी पड़ती है। जहाँ उपर्युक्त तीनों जगारों के आयोजन में प्रमुख भूमिका निभाने वाली गायिकाओं (गुरुमांयों) को आयोजन हेतु निमन्त्रित करने के लिये किसी विशेष औपचारिकता की पूर्ति किये जाने का कोई चलन दिखलायी नहीं पड़ता वहीं बाली जगार के आयोजन में इसकी गायिका (गुरुमांयनी) को निमन्त्रित करने के लिये आयोजकों को उससे तीन बार भेंट करने की औपचारिकता का निर्वाह अनिवार्यत: करना पड़ता है।

पहली बार वे जब मिलते हैं तब वे केवल प्राथमिक बातचीत करते हैं। दूसरी बार की भेंट को ‘सान माँगनी’ (छोटी मँगनी) कहा जाता है तथा तीसरी और अन्तिम भेंट को ‘बोड़ो माँगनी’ (बड़ी मँगनी)। ‘सान माँगनी’ में आयोजकों की ओर से गुरुमांयनी और उसके गाँव के प्रमुख लोगों को मांस-मदिरा अर्पित की जाती है और बाली जगार के आयोजन के लिये उसे निमन्त्रित किया जाता है। इसी समय ‘बोड़ो माँगनी’ की भी तिथि तय हो जाती है। फिर नियत तिथि को ‘बोड़ो माँगनी’ के लिये आयोजक पुन: गुरुमांयनी के पास जाते हैं। इस समय भी उसे और उसके गाँव के प्रमुख लोगों को मांस-मदिरा अर्पित की जाती है और गुरुमांयनी को उसके गायन के एवज में दिये जाने वाले मानदेय की बात भी तय की जाती है।

मानदेय के रूप में उसे तीन से चार हजार रुपये, लगभग दो सौ किलो धान और भिन्न-भिन्न रस्मों के समय एक-एक साड़ी देने की बात तय होती है। इस तरह जहाँ लछमी जगार में लगभग पांच से दस हजार रुपये व्यय होते हैं वहीं तिजा जगार में लगभग चार से छः हजार, आठे जगार में दो से तीन हजार और बाली जगार में 50 हजार से एक लाख रुपये तक का खर्च आ जाता है। बाली जगार की गुरुमांयनी को बाजे-गाजे के साथ स्वागत-सत्कार करते हुए गाँव में लाया जाता है। बाली जगार की गुरुमांयनी पहले से ही लेन-देन की बातें व्यावसायिक स्तर पर तय कर लेती है जबकि लछमी जगार, तीजा जगार और आठे जगार की गुरुमांयें ऐसा नहीं करतीं। वे आयोजकों द्वारा यथाशक्ति की गयी भेंट से ही सन्तुष्ट होती रही हैं।

    

सहभागी:

जगार चाहे सामुदायिक हो या कि व्यक्तिगत, सभी की सहभागिता सुनिश्चित होती है। सभी इन्हें अपना उत्सव या आयोजन मान कर वर्ण, लिंग, भाषा-बोली, रहन-सहन आदि को परे रख कर प्रसन्नता पूर्वक सम्मिलित होते हैं। सभी की भूमिका तय होती है। यदि गुरुमांयें गायन-वादन करती हैं तो गाँयता और पुजारी माटी तथा देवी-देवता के प्रतिनिधि के तौर पर सम्मिलित होते हैं।

गाँव के देवी-देवताओं की उपस्थिति उनके प्रतीकों (डोली या छतर, तराश आदि) के साथ होती है। पनारा या मरार (माली) समुदाय का व्यक्ति छींद नामक पौधे के कोमल तनों से बने चेंडू और महुड़ (मुकुट) के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। लोक संगीतकार नँगारा (नगाड़ा), टुड़बुड़ी, मोहरी (शहनाईनुमा वाद्य) एवं अन्य लोक वाद्यों के साथ शिरकत करते हैं। कुम्हार माटी के बर्तन (हाँडी आदि) और दीपकों के साथ इस आयोजन का हिस्सा बनता है।

पारदी या नाहार समुदाय धनुष, छिरनी-काड़ी और सूपा बना कर देता है। पहले धनुष के लिये सिंयाड़ी नामक लता से बनायी गयी डोरी उपयोग में लायी जाती थी किन्तु समय के साथ हुए परिवर्तन ने इसमें भी बदलाव ला दिया है और अब तो नायलॉन की डोरी भी काम में लायी जाने लगी है। बढ़ई माची यानी मचिया तथा सोली और पायली का निर्माण कर अपना कर्तव्य पूरा करता है। हल्बा (कहीं-कहीं धाकड़) समुदाय लाई-चिवड़ा उपलब्ध कराता है। इस तरह गाँव के अन्य लोग भी किसी न किसी रूप में सहभागी होते हैं। लोक चित्रकार जिसे ‘गड़ लिखतो बिता’ या ‘चितरकार’ अथवा ‘चितरकाल’ कहा जाता है, आयोजन-स्थल पर लोक चित्र बना कर अपने-आप को सौभाग्यशाली मानता है।

 

सामग्री:

इन जगारों में पूजा-सामग्री के रूप में नारियल, अगरबत्ती, धूप, गुड़, लाली, लाल अथवा सफेद कपड़ा, पीढ़ा, दीपक, दीपक जलाने के लिये तेल, फूल, चावल, धान, चावल और हल्दी का पिसान यानी आटा, कलश के लिये प्राय: काँसे का लोटा, आम के पत्ते आदि सामग्री की आवश्यकता होती है।

इसके अतिरिक्त कोंडागाँव जिले के कुछ गाँवों के ‘लछमी जगार’ में धान तथा ‘डुमर-पयली’ (गूलर की लकड़ी से निर्मित ‘पायली’ नामक उपकरण, जिसमें लगभग दो किलोग्राम अन्न की समायत होती है) की आवश्यकता होती है जबकि जगदलपुर जिले के कई गाँवों में धान के साथ-साथ मँडिया नामक अन्न की भी। इसी के अनुरूप ‘डुमर-पयली’ के साथ ही ‘डुमर-सोली’ (गूलर की लकड़ी से निर्मित एक उपकरण जिसमें लगभग आधे किलोग्राम अन्न की समायत होती है) की भी। इसके साथ ही धान, गहूँ (गेहूँ), जोंदरा (भुट्टा), हरवाँ, उड़िद (उड़द), मँडिया, जोंदरी (ज्वार) आदि अन्न से तैयार ‘भोजली’ का भी महत्त्व इन जगारों में होता है।

कुछ लोग केवल धान अथवा केवल गेहूँ की ही भोजली तैयार करते हैं तो कुछ लोग तीन और कुछ पाँच अथवा सात किस्म के अन्न की भोजली बोते हैं। यह सम्बन्धित अन्न की यथासमय उपलब्धता या फिर आयोजक की इच्छा पर निर्भर करता है यानी कि अन्न विशेष की बाध्यता नहीं होती। भोजली वस्तुत: उत्पादकता का प्रतीक है।

 

वाद्य एवं वादन:

‘धनकुल’ नामक वाद्य-यन्त्र के बिना इनमें से किसी भी जगार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह वाद्य-यन्त्र दो धनुष, दो छिरनी काड़ियों (बाँस की विशिष्ट कमचियों), दो बड़ी हाँडियों, और थान फटकने के काम आने वाले दो सूपों के संयोजन से निर्मित होता है। हाँडियों को रखने के लिये धान के पैरा यानी पुआल से बने ‘बेंट’ से निर्मित दो ‘आँयरा’ (जिसे ‘बेंडरी’ भी कहा जाता है) का उपयोग होता है। प्राय: दो मीटर लम्बे धनुष के दाहिने हिस्से में लगभग डेढ़ मीटर पर तकरीबन आठ इंच के हल्के खाँचे कंघी के आकार के बने होते हैं। धनुषों का एक सिरा हाँडी के मुख पर ढँके सूपा पर होता है और दूसरा सिरा नीचे जमीन पर।

गुरुमांयें ‘माचियों’ (मचियों) पर बैठ कर धनुष के लगभग एक तिहाई भाग के पास उसे अपनी बायीं टाँग के नीचे दबा कर रखती हैं और बायें हाथ की तर्जनी उँगली और अँगूठे से धनुष की डोरी (प्रत्यञ्चा) को खींचती तथा दाहिने हाथ से खाँचे पर छिरनी-काड़ी को रगड़ते हुए वादन करती हैं। इससे धनुष की टंकार, हाँडी के ऊपर रखे गये सूपों, हाँडी और छिरनी-काड़ी से ‘घुम्-छर् घुम्-छर्-छर्, घुम्-छर घुम्-छर्-छर्’ का समवेत संगीत नि:सृत होता है।

                                               

                     आकृति 2: गुरूमाई धंकुल वाद्य बाजते हुए, जगार कथा गान कर रही है 

 

चूँकि यह वाद्य-यन्त्र मुख्यत: धनुष और कुला (ओड़िया भाषा में सूपा को कुला कहा जाता है) के संयोजन से बना होता है, इसीलिये इसे ‘धनुकुला’ नाम दिया गया होगा, जो आगे चल कर ‘धनकुल’ हो गया। यह वाद्य तथा इसका संगीत जिसे ‘धनुस्संगीत’ कहा जाना चाहिये, अपने आप में अद्भुत है। हालाँकि यह वाद्य केवल बस्तर अंचल में ही प्रचलित हो, ऐसा भी नहीं है। बस्तर अंचल के कांकेर जिले के पुसवाड़ा और बेंवरती गाँवों में भी यह वाद्य इसी नाम से जाना जाता रहा है। छत्तीसगढ़ के ही नगरी और सिहावा में भी इसका प्रचलन रहा है। पश्चिमी ओड़िसा के नवरंगपुर में यह ‘धनकुल’, बउद, गंजाम और बरगढ़ आदि क्षेत्रों में यह ‘धुनकेली’, ढेणकोइला’ तथा ‘ढणकोइला’ कहलाता है। तमिलनाडु में यह ‘विल्ळु-पट्टु’ के नाम से जाता है और उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर की पहाड़ियों में रहने वाली भुँइयार जनजाति भी ‘पिनाक’ और ‘दरकुन’ नामक धनुष का प्रयोग वाद्य-यन्त्र के रूप में करती है।

बस्तर अंचल के ही भिन्न-भिन्न क्षेत्र में इस वाद्य के प्रत्येक उपकरण को भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। प्राय: धनुष को ‘धनकुल डाँडी’, प्रत्यञ्चा को ‘झिकन डोरी’, सूपा को ‘ढाकन सूपा’, हाँडी को ‘घुमरा हाँडी’, धान के पुआल को ऐंठ कर बनाये गये बेंट (रस्सा) से तैयार उपकरण (जिन पर हाँडियाँ तिरछी रखी जाती हैं) को ‘बेंडरी’ या ‘आँयरा’, बाँस की कमची को ‘छिरनी-काड़ी’ या ‘छिरनी’ और मचियों को ‘बैठक माची’ आदि कहा जाता है।      

                   

प्रायोजन :

इन सभी जगारों का एक ही प्रयोजन होता है। और वह प्रयोजन है, सम्बन्धित देवी-देवता अथवा ईश्वर की पूजा-अर्चना और पूजा-अर्चना से उन्हें प्रसन्न कर मनवांछित फल-प्राप्ति का उपक्रम। हर एक जगार के अपने विशिष्ट प्रायोजन भी हो सकते हैं, मसलन –

 

‘आठे जगार’ का प्रयोजन है श्रीकृष्णचरित के एक काल-खण्ड विशेष का गायन-श्रवण और पूजा-अर्चना ताकि किरिस्ना (भगवान श्रीकृष्ण) की कृपा लोगों पर बनी रहे। यों तो आदिवासी संस्कृति या जन-जीवन में श्रीकृष्ण की कहीं कोई चर्चा सुनने को नहीं मिलती फिर भी जनजातीय जीवन या संस्कृति से इतर लोक जीवन में श्रीकृष्ण के जीवन-चरित के गायन-श्रवण का आयोजन भी अपने आप में कम महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता। दरअसल ‘आठे जगार’ या ‘अस्टमी जगार’ का अर्थ है, अन्याय पर न्याय की विजय-गाथा का गायन-श्रवण।

 

इसी तरह ‘तीजा जगार’ का प्रयोजन होता है, कुँआरी (क्वाँरी) कन्याओं द्वारा मनवांछित पति की कामना; विवाहिताओं द्वारा अपने सुहाग की रक्षा और निस्संतान स्त्री द्वारा सन्तान-प्राप्ति की मनोकामना।

 

‘लछमी जगार’ का सम्बन्ध जुड़ता है धान्य-देवी की अभ्यर्थना से। उनके आह्वान से और उत्पादकता से। अनुत्पादकता से उत्पादकता की ओर बढ़ने की प्रकिया से। इस जगार का सम्बन्ध जुड़ता है मोटे अनाजों (मँडिया, कोदो, कुटकी, सावाँ आदि इक्कीस किस्म के अनाजों, जिसमें दलहनी और तिलहनी उपज भी सम्मिलित हैं) और धान के बीच के संघर्ष से, जिसमें धान को स्थापित होने देने में पग-पग पर मोटे अनाजों द्वारा व्यवधान पैदा किया जाता है। धान्य-देवी अर्थात् लछमी (लक्ष्मी) को उपर्युक्त इक्कीस अनाजों (जिन्हें इस जगार में इक्कीस रानियाँ कहा गया है) द्वारा असहनीय कष्ट देने और उन कष्टों को भोगते हुए भी अपना स्थान बनाने की अद्भुत महागाथा है, ‘लछमी जगार’।

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.