गुरुमांय: वाचिक परम्परा की संवाहिकाएं, Gurumai: Bearers of Oral Traditions

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Published on: 31 October 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन ,भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम ,नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

 

गुरुमांय: वाचिक परम्परा की संवाहिकाएं

 

आमतौर पर पूजा अनुष्ठानों का संचालन एवं संबंधित कथागायन पुरुष पुजारियों एवं कथा वाचकों द्वारा संपन्न किया जाता है परन्तु महाराष्ट्र के वर्ली आदिवासियों , ओडिशा  और छत्तीसगढ़ के बस्तर के भतरा, परजा एवं हल्बा आदिवासियों के साथ-साथ अन्य गैर आदिवासी जातियों में भी कुछ निश्चित अनुष्ठानों को संपन्न करने का पूर्ण अधिकार स्त्री कथा वाचकों, पुजारिनों  को है, जिन्हें ओडिशा  और छत्तीसगढ़ में गुरुमांय कहा जाता है। महाराष्ट्र के वर्ली आदिवासियों में यह धवलेरी कहलाती हैं, वे कुलदेवताओं एवं पालघट देवी का आव्हान करतीं हैं, कथागीतों का गायन करतीं हैं और विवाह अनुष्ठान संपन्न कराती हैं। जबकि ओडिशा और छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में गुरुमांय, धान रुपी लक्ष्मी और नारायण से सम्बंधित कथागायन करतीं और जगार अनुष्ठान संपन्न कराती हैं।

 

आकृति 1: गुरूमांय बुधनी पटेल और सिरन पटेल, धंकुल वाद्य बाजते हुए, तीजा कथा गाती हुई, कोंडा गांव, बस्तर 

 

 

छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर क्षेत्र की संस्कृति में गुरुमांय वह सम्मान्निय महिला होती है जो विभिन्न जागर अनुष्ठानों  की पूजा और सम्बंधित कथागीतों की सामाजिक विरासत को न केवल जीवित बनाए रखतीं हैं बल्कि उन्हें अगली पीढ़ियों को हस्तांतरित भी करतीं हैं। वे किवदंतियों, कथाओं, गीतों, अनुष्ठानों उनसे सम्बंधित रीति-रिवाजों और अनुष्ठानिक चित्रों की अदभुद जानकर होती हैं। वे किसी भी जाति और वर्ण से हो सकतीं हैं, कुंवारी, विवाहिता, विधवा अथवा परित्यक्ता कोई बंधन नहीं। आवश्यकता है तो केवल अच्छी स्मरणशक्ति और गुरुमांय बनाने की पूर्ण इच्छाशक्ति की। इसके लिए असीम धैर्य और लगन से सबकुछ सीखना होता है। इन कथागीत, आव्हान गीत, किंवदंतियों की कोई पुस्तक नहीं होती, पूर्णतः वाचिक परम्परा का अनुसरण कर कथावस्तु कंठस्थ करनी होती है।

बस्तर और सीमावर्ती ओडिशा क्षेत्र में हल्बी बोली में प्रचलित जगार कथागीतों को लक्खी पुराण कहा जाता है। लक्खी अर्थात लक्ष्मी की कथा का गायन एवं इससे सम्बंधित पूजा अनुष्ठान संपन्न कराना एक पवित्र और पुण्य कर्म है जिसका करना समाज में प्रतिष्ठा का विषय होता है। इसी कारण गुरुमांय भी समाज में प्रतिष्ठित समझी जाती हैं। जगार कथा गायन में अधिकांशतः दो या तीन गुरुमांय एक साथ गायन करतीं हैं। मुख्य गुरुमांय को पाट गुरुमांय या बड़े गुरुमांय कहा जाता है जबकि दूसरी और तीसरी  गुरुमांय चेली गुरुमांय या नानी गुरुमांय कहलाती हैं। आमतौर पर दूसरी गुरुमांय, पहली गुरुमांय की शिष्या होती  है और तीसरी गुरुमांय सीखने की प्रक्रिया में होती है। कथा गायन के समय केवल मुख्य और चेली गुरुमांय ही धनकुल वाद्य को बजाती हैं, तीसरी सहायिका जो अभी कथागायन सीख रही है वह केवल गायन में हिस्सा लेगी पर धनकुल वाद्य नहीं बजा सकेगी, यही तथ्य उसके अभी सीखने के दौर का द्योतक होता है।

 

आकृति 2: गुरूमांय सोमवती बघेल, गुरुमांय गुरुबारी बघेल और गुरुमांय कलावती मरार लक्ष्मी जगार का गायन करते हुए, कोंडा गांव, बस्तर

 

पहले जगार अनुष्ठान का सर्वाधिक  प्रचलन धाकड़ समुदाय में था। माना जाता है कि धाकड़ लोग बस्तर में ओडिशा से आए हैं, वे क्षत्रिय होते हैं। दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी धाकड़ समुदाय के ही होते हैं। क्योंकि जगार का आयोजन इसी समुदाय के लोग अधिक कराते थे अतः गुरुमांय भी धाकड़ समुदाय से होती थीं।धीरे-धीरे जगार का आयोजन  हल्बा, पनारा, तेली, माली, गांडा, पनिका, सूंडी, कलार, केवट, माहरा, घड़वा, कोष्टा, मरार आदि अन्य जातियों में भी लोकप्रिय हो गया तब गुरुमांय भी इन जातियों से बनने लगीं। इन जातियों की सामाजिक स्तिथि में अंतर का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जहाँ धाकड़, क्षत्रिय हैं और दंतेश्वरी का पुजारी पद उन्हें मिला है वहीं हल्बा लोग आदिवसी हैं और गांडा जाति के लोगों की स्तिथि लगभग अछूतों जैसी है, वे नगाड़े पर खाल मढ़ने, नगाड़ा और निशान बाजा बजाने जैसे काम करते हैं। वर्तमान में कोंडा गाँवI

 

  

आकृति 3: सुखदेई कोराम, सेवानिवृत्त गुरुमांय, कोंडा गांव, बस्तर

 

 

आकृति 4: गुरूमांय सोमवती बघेल, कोंडा गांव, बस्तर

 

 

आकृति 5: गुरुमांय गुरुबारी बघेल, कोंडा गांव, बस्तर

 

 

आकृति 6: गुरुमांय कमलवती मरार, कोंडा गांव, बस्तर

 

 

आकृति 7: गुरुमांय बुधनी पटेल, कोंडा गांव, बस्तर

 

 

आकृति 8: गुरुमांय सिरन पटेल, कोंडा गांव, बस्तर 

 

बस्तर की संस्कृति में गुरुमांयों का एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान यहाँ के पुरातन वाद्य धनकुल का संयोजन एवं उसका वादन है।यह वाद्य जगार और गुरुमांय परंपरा का अभिन्न अंग है।गुरुमांयों के अतिरिक्त न तो कोई इस वाद्य को कोई बजता है और न ही इसकी लय पर गायन करता है।यह वाद्य अपने आप में अद्भुद और चमत्कृत कर देने वाला है। यह पानी भरने के लिए  उपयोग आने वाली मिट्टी की हांडियों, धान फटकने के काम आने वाले सूपा और धनुष जैसे घरेलू उपयोग की वस्तुओं से संयोजित किया जाता है।

 

 

आकृति 9: धंकुल वाद्य और अनुष्ठानिक सामग्रि का चित्रण, कोंडा गांव, बस्तर

 

  

   
   

आकृति 10, 11: धंकुल विद्या के दो प्रमुख तत्व- मिट्टी का मटका; रस्सी का बना आधार जिस पर मटका रखते हैं और बास का सुपा

 

 

 आकृति 12: बांस का सुपा

 

 

   
   

आकृति 13, 14: बांस की छिरनी; धनुष

 

 

आकृति 15: धंकुल वाद्य को संयोजित करती गुरुमांयें

 

 

         
  

आकृति 16, 17: चावल के आटा को गुन कर अनुष्ठान की तैयारी करती गुरुमांय; सुपा पे छपा लागती गुरुमांय 

 

 

आकृति 18: मटके पे छपा लागती गुरुमांय 

 

 

 आकृति 19: अनुष्ठान की  तैयारी करती और धंकुल संयोजित करती गुरुमांयें

 

 

गुरुमांय बनाने हेतु अभ्यास आरम्भ करने की कोई आयु सीमा तय नहीं है और न ही कोई स्थापित गुरु-शिष्य परंपरा है। यह कोई वंशानुगत व्यवसाय भी नहीं है।

 

कोंडागांव की लगभग सत्तर वर्षीय बुजुर्ग गुरुमांय सुकदेई कोरम कहती हैं  कि आज से ५०-६० साल पहले कोंडागांव में कोई गुरुमांय नहीं थी। जब ये १०-१२ साल की आयु की थीं तब इनके पड़ौस में किसी सूंडी के यहाँ जगार अनुष्ठान का आयोजन हुआ। पास के बमनी गांव में एक बूढ़ी गुरुमांय थी उसी को बुलाया गया। इन्हे उसका कथागायन इतना अच्छा लगा कि इन्होंने मन में स्वयं भी गुरुमांय बनाने की ठान ली। इनके परिवार में पहले कभी कोई गुरुमांय नहीं हुआ था। इनसे पहले इनकी बुआ दुआरी और इनकी चाची आयती ने बमनी गांव की गुरुमांय से कथागायन सीखा और अपनी बुआ दुआरी से इन्होने सीखा। इन्हें पूर्ण गुरुमांय बनने में पांच-छह साल लग गए।

 

 किसी गुरुमांय को सभी चारों जगार कथाएं याद हों यह आवश्यक नहीं है। जो जितना जानती है उतना गाती है। प्रत्येक गुरुमांय का कथागायन का अपना ढंग होता है जो इस बात पर निर्भर करता है कि उसने किससे सीखा है। यद्यपि कथागायन की ताल और लय तथा कथावस्तु सामान ही रहती है पर गायन की कड़ियाँ बदल जाती हैं।

 

छत्तीसगढ़ में प्रचलितअन्य कथा गायन परम्पराओं के विपरीत, जगार कथागायन पूर्णतः अनुष्ठानिक स्वाभाव का होता है। इसमें मनोरंजन अथवा लोकरंजन का ध्येय नहीं अपितु अनुष्ठान पूर्ति और देव कृपा ही लक्ष्य होता है। गुरुमांय बिना किसी अभिनय, नृत्य, भाव-भंगिमा प्रदर्शन किये, सहज समाधिस्थ भाव से कथागायन करतीं हैं।

 

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This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.