बस्तर अंचल में हरियाली अमावस्या (श्रावण अमावस्या), के साथ ही कृषि-चक्र आरम्भ हो जाता है। इसी के साथ कृषि-सम्बन्धी त्यौहारों और उत्सवों का सिलसिला आरम्भ होता है। यहाँ यह जगार उत्सव के रूप में माने-मनाये जाते हैं। जागर के चार प्रकार होते हैं- आठे जगार, तीजा जगार, लछमी जगार और बाली जगार। जगार धान रुपी लक्ष्मी और नारायण के विवाह से सम्बंधित कथाओं का अनुष्ठान है। यह अनुष्ठान कृषि संस्कृति में धान अवं अन्य अनाजों के मध्य प्रतिस्पर्धा और उनके अन्तर्सम्बन्धों को प्रतिबिंबित करता है।
जगार का अर्थ "जग" यानी "यज्ञ" है। महायज्ञ! जिसके माध्यम से देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। इसके माध्यम से गुरुमांयें उन्हें जगाती हैं और उनकी पूजा-अर्चना करती हैं, उनके गुण-गान करती हैं। उनकी गाथा गाती हैं। यही कारण है कि सभी जगारों के गायन के आरम्भ में ही गुरुमांयें विभिन्न देवी-देवताओं का आह्वान करती हुई उन्हें जागने और इस यज्ञ में आने का न्योता देती हैं।
पहले जगारों का आयोजन प्राय: सामूहिक रूप से हुआ करता था। किन्तु "आठे जगार", "तीजा जगार" और "लछमी जगार" का आयोजन व्यक्तिगत तौर पर भी किया जाता रहा है। "बाली जगार" ही एक ऐसा जगार है, जिसका आयोजन व्यक्तिगत तौर पर होता ही नहीं। जब जगार सामूहिक तौर पर होता है तो उसे "गाँव जगार" भी कहा जाता है। "तीजा जगार" को प्राय: "धनकुल" भी कहा जाता है।
यदि आयोजन सामुदायिक है तो गाँव की देवगुड़ी या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर आयोजित होता है। व्यक्तिगत होने पर आयोजक के घर पर। किन्तु "बाली जगार" की विशेषता यह है कि इसका आयोजन प्राय: गाँव के पुजारी के घर पर ही होता आया है।
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