बस्तर के पारम्परिक मृणशिल्प/Bastar's Terracotta Traditions

in Article
Published on: 09 August 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

मिट्टी से बनाए गए बर्तनों अथवा मूर्तियों को जब आग में पका लिया जाता है, तब वे मृणशिल्प कहलाते हैं। मिट्टी का काम संभवतः विश्व की प्राचीनतम कलाओं में से एक है। आज से लगभग साढ़े ४००० साल पहले, सिंधु घाटी की सभ्यता के समय, भारत में मृणशिल्प कला अपने चरम पर थी। पकाई गयी मिट्टी से बनी, जितनी विविधतापूर्ण एवं तकनिकी रूप से परिपक़्व वस्तुएं वहां से प्राप्त हुई हैं, अन्यत्र दुर्लभ हैं। यह भी एक संयोग ही है कि अनेक वह आकृतियां जो हड़प्पा काल में प्रचलित थीं, आज भी छत्तीसगढ़ और विशेषरूप से बस्तर क्षेत्र में प्रचलन में हैं। यहाँ पोला त्यौहार के अवसर पर बनाई जाने वाली, पहिये-वाली बैल आकृति तो ठीक वैसी ही है जैसी हड़प्पा काल में बनाई जाती थी।

 

बस्तर के मृणशिल्प की विशेषता उनका शैलीगत सुघड़ आकार, अलंकारिक सतह सज्जा और चमकदार पालिश है। यहाँ अधिकांशतः बाघ, हाथी, बैल, घोड़ा एवं बेन्द्री आकृतियां बनाई जाती हैं। विशेष बात यह है कि यह पशु आकृतियां, खिलौने नहीं बल्कि अलौकिक ऊर्जा से परिपूर्ण मिथकीय जीव प्रतीत होते हैं।  

 

 

बस्तर के कुम्हार सदियों से मिट्टी के बर्तन, देवी-देवताओं की प्रतिमाएं तथा मनोतियां पूरी होने पर चढ़ाई जाने वाली पशु आकृतियां बनाते रहे हैं। सन १९६० के पहले तक यह सभी कलाकृतियाँ स्थानीय आदिवासियों एवं ग्रामीणों तक ही सीमित रहीं। बाहरी जगत को उनके सौंदर्य और कलात्मकता की उतनी जानकारी नहीं थी।

 

देश की आजादी के बाद भारत में, जो आदिवासी लोक कलाएं कला जगत में पहले-पहल लोकप्रिय हुईं, उनमें बस्तर क्षेत्र के कलारूप अग्रणि हैं। सन १९६८ में प्रसिद्ध विद्वान् स्टैला क्राम्रिश द्वारा अमेरिका में  'अननोन इंडिया : रिचुअल आर्ट् इन ट्राइब एन्ड विलेज' का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शनी में पहली बार भारतीय ग्रामीण कला का प्रदर्शन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किया गया था। इसमें बस्तर क्षेत्र की कलाकृतियां भी प्रदर्शित थीं।

 

 

इस प्रदर्शनी के बाद बस्तर की शिल्पकला की मांग एकाएक बढ़ गयी जिसका लाभ यहाँ के शिल्पकारों को भी हुआ। उस समय छत्तीसगढ़ राज्य बना नहीं था और बस्तर की शिल्पकला का विक्रय मध्यप्रदेश हस्तशिल्प विकास निगम के माध्यम से मृगनयनी एम्पोरियम द्वारा किया जाता था। 

 

सन १९७० के दशक के आरम्भिक वर्षों से ही बस्तर के कुम्हारों द्वारा बनए  मृणशिल्प की मांग बहुत बढ़ गयी तब मध्यप्रदेश हस्तशिल्प विकास निगम के अधिकारीयों ने स्वयं गांव-गांव जाकर अच्छे मृणशिल्पी कुम्हारों को प्रोत्साहित किया और उन्हें अधिक से अधिक मूर्तियां बनाने के ऑर्डर दिए। उस समय की स्थिति पर सन १९८४ में मेरी चर्चा नगरनार गांव के लीमधर कुम्हार से हुई थी। उस समय वे २५-२६ साल के युवा पर बहुत ही प्रतिभशाली मृणशिल्पी थे। उन्होंने बताया था कि मध्यप्रदेश हेंडीक्राफ्ट  बोर्ड के लिए सामान बनाने से पहले वे और उनके गांव के अन्य कुम्हार केवल बर्तन ही बनाते थे। जो मूर्तियां आदिवासी या स्थानीय लोगों के लिए यह बनाते थे, उन्हें ये पहले से बनाकर नहीं रखते थे, केवल अग्रिम आर्डर पर ही बनाते थे। बोर्ड द्वारा बड़े पैमाने पर मूर्तियां ख़रीदे जाने से  प्रत्येक कुम्हार अपने मन से नई-नई मूर्तियां  बनाने का प्रयास करने लगा और उन्हें बनाकर रखने लगा। पहले मूर्तियों पर इतनी सजावट नहीं होती थी। इसके बाद  मिटटी की मूर्तियां पर अलंकरण का काम बहुत विकसित हो गया।

 

 

लीमधर कुम्हार के अनुसार  बस्तर में हैण्डीक्राफट बोर्ड वालों का काम लगभग १९७० के आस-पास  शुरू हुआ था उस समय लीमधर १५-१६ वर्ष के थे।  वे बताते है कि पहले कुम्हारों की दशा  बहुत खराब थी मिट्टी का काम बर्तन बनाने तक सीमित था। इक्का-दुक्का लोंगों के लिए देवी-देवता पर चढ़ाई जाने वाली मूर्ति बनाई जाती थी और वो भी छोटी सी। पर बोर्ड द्वारा  काम खरीदने से काम बहुत बढ गया, कुम्हारों को फुर्सत ही नहीं रही। आज जो भी मूर्तियां  बनाई जाती हैं  उनमें से अधिकांश वही हैं जो पहले भी बनती थीं।  जो कुछ भी कुम्हार नया  बनाते थे वह  पुराने से ही और सोच करके बनाते थे । बोर्ड वाले कभी भी अपनी तरफ से कुछ नहीं सुझाते कि ये चीज बनाओं ये नहीं। वे आकार उसमें से ही पसन्द करते जो कुम्हार स्वेच्छा से बना कर रखते। लीमधर मानते है कि मध्यप्रदेश हेंडीक्राफ्ट बोर्ड उनके लिए बहुत फायदेमन्द रहा उसने उन्हे ज्यादा काम का अवसर दिया। उस समय नगरनार गांव के चन्दनसिंह, धर्नुजय, बुटी, लछीक, लीमधर और झितरूराम अच्छे कारीगर कुम्हार माने जाते थे।

 

 

सन २००० तक बस्तर में नगरनार, एड़का और माकड़ी तीनों गांव मृणशिल्प के श्रेष्ठ केन्द्र माने जाते थे। प्रत्येक स्थान की शेली में मिट्टी के परिवर्तन एवं आकारबोध से जन्य स्थानीय विशेषतायें थीं जो उन्हें एक-दूसरे से भिन्नता प्रदान करती थी। नगरनार में घोडे़ और बैल बहुत ही सुन्दर बनाये जाते थे मूर्तियां छोटी और चमकदार होती थीं। एड़का में शेर एवं हाथी बहुत सुन्दर बनते थे। यहां देवी प्रतिमायें भी अच्छी बनती थीं, जबकि माकड़ी गांव में बनी मूर्तियां खुरदरी और आकार में अपेक्षाकृत बड़ी बनाई जाती थीं।

 

 

आज सन २०१८ में यह स्थीति बदल चुकी है मकड़ी गांव में अब अच्छी मृण्मूर्तियां बनाने वाले कुम्हार नहीं रहे। कोंडागांव एक बड़े मृणशिल्प उत्पादन केंद्र के रूप में उभरा है। इसके साथ ही नारायणपुर और बनया गांव, दंतेवाड़ा के पास कुम्हार राक गांव तथा जगदलपुर के पास देवड़ा गांव में भी अच्छी मृण्मूर्तियां बनाई जा रही हैं।  इस समय मसौरा, कोंडागांव के ६२ वर्षीय सहदेव कुम्हार और उनके दो बेटे भीखन राणा और ईश्वर राणा उत्कृष्ट मृणशिल्पी माने जाते है जिन्होने भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के लिए अनेक मूर्तियां बनाई हैं। इनके अतिरिक्त, ऐड़का गांव में बहादुर कुम्हार और भुवेशचन्द नामी कुम्हार हैं। नगरनार गांव में लीमधर और देवड़ा गांव में सुकालू कुम्हार अच्छा काम कर रहे हैं।

 

 

भीखन राणा कहते है छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वर्तमान में राज्य सरकार के तीन ऑफिस कुम्हारों की मदद कर रहे हैं, ये हैं—छत्तीसगढ़ माटी कला बोर्ड, छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प बोर्ड और छत्तीसगढ़ खादीग्रामोद्योग। यह लोग पूरे भारत में जगह -जगह प्रदर्शनियां लगाते हैं जिनमें हमें अपना सामान बेचने का मौका मिलता है। वे कहते हैं आज कल बड़ी-बड़ी मूर्तियां बनाने का प्रचलन हो गया है पहले गांव वालों की आवश्यकता के लिए छोटा-छोटा ही काम होता था परन्तु आजकल इतनी बड़ी मूर्तियां बनने लगी हैं कि उनके हाथ पैर, और सिर तथा धड़ अलग-अलग बनाकर पकाये जाते हैं, बाद में उन्हें जोड़कर मूर्ति को पूर्ण रूप दिया जाता है। इस प्रकार की मूर्तियां जोड़न मूर्तिया कहलाती हैं। बस्तर में आजकल कुम्हार अनेकों प्रकार की मूर्तियां बनाने लग है पर ये सब आजकल किया जाने वालो नया काम है वहां के आदिवासियों के लिये न तो यह बनाया जाता है और न ही आदिवासियों का इससे कोई सरोकार है। आदिवासियों के लिए तो केवल छोट-छोटे हाथी, घोडे़, शेर, बेन्द्री, बैल और देवी की मूर्तियो की बनाई जाती है। बाकी सारा सामान शहरी खरीदारों के लिए होता है। जैसे आजकल शहरों में गमलों की मांग बहुत है, इसलिए कुम्हार गमले बहुत बनाते हैं ।

 

 

अब २०१८ में लगभग ३५-३६ साल बाद पुनः नगरनार गांव के लीमधर कुम्हार से मुलाकात हुई। अब वे लगभग ६० वर्ष के हो गए हैं, कुम्हारों और उनके बनाये मृणशिल्प  की वर्तमान दशा पर वे कहते हैं कि मिट्टी की मूर्तियों पर अलंकरण का काम अब बहुत विकसीत हो गया है।  यह अलंकरण बांस के औजारों की सहायता से किया जाता है जो खुटनी कहलाते हैं। यह बांस की विभिनन मोटाई की पौंगलियां होती हैं, जिनसे विभिन्न नाप के गोल निशान मिट्टी पर बनाए  जाते हैं। महीन रेखाएं और अलंकरण करने के लिए लकड़ी का साँचा प्रयोग किया जाता है। मिट्टी काटने के लिए लोहे की विशेष छुरी, कढरी काम में लाई जाती है। छोटी मूर्तियां तो ठोस बनाइ जातीं हैं, परन्तु बड़ी मूर्तियां के शरीर के अंग अलग-अलग चाक पर गढ़ कर बनाये जाते हैं, इसलिए वे पोले होते हैं। यदि एक शेर बनाना है तो उसके चारों पैर, धड़ और सर अलग-अलग चाक पर बनाया जायेगाा फिर उन्हें जोड़कर पूरी मूर्ति बनाई जायेगी। फिर इस पर पतली गोल या चपटी पट्टियां चिपका कर अलंकरण किया जाता है। पहले मिट्टी की बत्तियां बनाई जाती हैं।  यदि उन्हे चपटा करना हुआ तो चपटा कर लिया जाता है, फिर खुटनी से इस पर अलग-अलग प्रकार के चिन्हों से सजावट करते है, जिन्हें बाद में कढरी से काट-काट कर मूर्ति की सतह पर चिपका दिया  जाता है।

 

 

मूर्तियां यहां लाल रंग की  पकाई  जाती  हैं। मूर्तियों  केा पकाने पर वे काली  हो जाये ये बात अलग है पर वे काली बनायी नहीं जातीं। मूर्तियां बनाकर पहले दो तीन घण्ट छांव में सुखाइ जाती हैं  फिर उन्हे धूप में रखा जाता है। यदि मूर्तियां बनाकर सीधे धूप में रख दी  जायें  तो वह फट जाती  हैं। इसके बाद नदी से लाई गइ लाल मिटटी जिसे खरा कहते हैं  से मूर्तियां रंगी  जाती  हैं।  नगरनार गांव के कुम्हार यह मिटटी बस्कली नदी से लाते हैं । इस मिट्टी को कूटकर एक घघरी में घोल कर १५ दिन तक छाया में रखते  हैं,  फिर इसे निथार कर नीचे का रेतीला भाग अलग इक्कठा कर लेते हैं और उपर का घी जैसा चिकना पेस्ट अलग निकाल लेते हैं । इस घोल को घूप में नहीं रखते, नही तो यह खराब हो जाता है। अब निथार कर निकाले गये उपर वाले घोल को किसी बर्तन में लेकर आग पर गर्म करते हैं।  जब यह घोल गोंद जैसा गाढ़ा हो जाता है तब उसे आग से उतार कर  ठण्डा कर लेते हैं। जिन मूर्तियों  को रंगना है पहले उस पर एक बार नीचे वाला रेतीला घोल लगाते हैं।  यह लेप सूखने पर पुनः  दो बार इस घोल का लेप  लगाया जाता है। इस प्रकार रंगाई करने से पकने के बाद मूर्तियों  पर बहुत अच्छी पालिश हो जाती है।

 

 

सहदेव कुम्हार कहते हैं, बस्तर में पारम्परिक रूप से आदिवासियों के लिए देवी-देवताओं की मृण्मूर्तियाँ बहुत ही कम बनाई जाती रही हैं, परन्तु कुछ हिन्दू ग्रामीण यह मूर्तियाँ अपने लिए व्यक्तिगत तौर पर बनवा लेते हैं। यहाँ देवी देवताओं को अर्पित की जाने वाली पशु मूर्तियां बहुत बनाई जाती हैं। यह चढ़ावा आदिवासी और गैर-आदिवासी सामान रूप से चढ़ाते हैं। विभिन्न देवी-देवताओं को भिन्न-भिन्न मूर्तियां चढ़ाई जाती हैं। सहदेव कुम्हार कहते हैं जात्रा के समय देवी-देवताओं को चढ़ाई जाने वाली मूर्तियां लोग बाजार से नहीं खरीदते,  वे इन्हे अपने गोतया कुम्हार से लेते हैं। जात्रा के लिए जिसे मूर्तियों की आवश्यकता होती है वह अपने गोतया कुम्हार के घर जाकर उससे वांछित मूर्तियां बनाने का अनुरोध करते हैं और यथा समय उन्हें कुम्हार के घर से ले जाते हैं। इन मूर्तियों की कीमत रुपये-पैसे में नहीं दी जाती, बल्कि कुम्हार को उपहार स्वरुप अनाज दिया जाता है। देवी की मूर्ति बनवाकर जात्रा के समय स्थापित की जाती है, बाकी मूर्तियां मान्यता पूरी होने पर जात्रा के समय चढ़ाई जाती है। ये जात्रा बारहों महीने चलती रहती हैं। केवल कुछ ही कुम्हार है जो देवी की मूर्ति बना पाते हैं।

 

 

नगरनार गांव के लीमधर के अनुसार, जब भैरम देवता से कोई मान्यता पूरी होती है तो उसे मिटटी का शेर या घोड़ा चढ़ाते है। यह चढ़ाने का दिन कोई त्योहार ही होता है जैसे देव उठनी जात्रा आदि। इस समय बकरे की बलि भी दी जाती है यह काम वह व्यक्ति स्वयं करता है जिसकी मनौती पूर्ण होती है, किसी ओझा गुनिया को बुलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

 

 

कोई लोग बाघडूमा मानते हैं तो उसे भी शेर की मूर्ति चढाई जाती है। बाघडूमा किसी झाड़ के नीचे बनाया गया देवस्थान होता है जिसमे कोई पत्थर या मिटटी का डूमा बना होता है। कोई-कोई लोग पत्थर या मिट्टी की बाघ की मूर्ति बनवाकर भी रख लेते हैं। यह सभी देव किसी जाति विशेष के नहीं होते,  किसी भी जाति का व्यक्ति इन्हें मानता है। बाघडूमा मुरिया जनजाति के लोगों में अधिक लोकप्रिय है ।

 

माउली देवी जिस गांव में भी होती है, वहां गांव के सारे लोग इसे मानते हैं। इनके स्थान पर एक खम्बा गड़ा रहता है। माउली देवी को भी शेर और घोड़े चढ़ाये जाते हैं ।

 

नगरनार गांव में माघ महीने में मढ़ई आयोजित होती है, उस अवसर पर कंकालिनी देवी पर भी मिटटी के घोडे़ चढाये जाते हैं। देवी के मन्दिरों में उसी देवी की मूर्ति चढाते हैं  जिस नाम की देवी उस मन्दिर में विराजमान है। कभी इन पर बैल, घौड़, हाथी भी चढ़ाते हैं  इस प्रकार की मूर्तियों के मन्दिरों में ढेर इक्कठा हो जाते हैं। देवी की मूर्ति की कोई आकृति निश्चित नहीं है: सभी कुम्हार इसका रूप् और अलंकरण अपने मन से ही करते हैं। सारे कुम्हारों की बनाई देवी अलग-अलग ढंग की होती है।

 

खोड़िया देवता पर बैल आदि की मूर्तियों को चढ़ायां जाता है । 

 

बस्तर की प्रसिद्ध बेन्द्री की मूर्ति हल्बा, भतरा और मुरिया जनजाति की गृह देवी, मढ़िया देवी को, नवा त्योहार के अवसर पर चढ़ाई जाती है। यह मूर्ति केवल मढ़िया देवी पर ही चढ़ा सकते हैं, अन्य देवताओं पर इसे नहीं चढ़ाते। इसे माढ़िया देवी का प्रतीक मानते हैं।

 

कोंडागांव के सहदेव कुम्हार कहते हैं, लोग विभिन्न देवी-देवताओं से मनौतियां मानते हैं और उनके पूरा होने पर उन्हें मृण्मूर्तियां अर्पित करते हैं। हमारे क्षेत्र में नयाखानी त्यौहार पर सभी देवी-देवताओं को नया अन्न और बैल की मृण्मूर्तियां चढ़ाई जाती हैं।नयाखानी जात्रा को भादों जात्रा भी कहते हैं, यह अमावस मनाई जाती है। 

 

माघ महीने में माघ जात्रा के समय बूढ़ी माता पर शेर और हाथी की मूर्तियां चढ़ाई जाती हैं। हमारे मसौरा गांव के बीच में बूढ़ी और माउली माता स्थान है। 

 

राव देव, फसल का रक्षक देवता है, कटाई के बाद उसके स्थान पर घोड़े की मूर्तियां अर्पित की जाती हैं।

 

हमारे यहाँ बूढ़ा देव पर बैल, बूढ़ी माता पर हाथी, माउली माता पर शेर, राव देव पर घोड़ा और माड़ित देवी या डोकरी देवी पर बेन्द्री की मूर्ती चढ़ाते हैं।

 

यहां प्रत्येक घर के भी अपने-अपने देवता होते हैं जो केवल उस घर के ही लोग जान सकते हैं अन्य लोग उनके बारे मे कुछ नहीं जानते। सामान्यतः लोग अपने घर और अपने गांव के ही देवी देवता मानते हैं। इनके गांव में जलनी, भण्डारिन, तेलंगीन, कंकालीन, पीलाबाई, भवरिया नाम की देवियां मानी जाती हैं । ये सभी देवी एक ही होती हैं परन्तु इनके नाम अलग अलग हैं इनके मन्दिर भी अलग-अलग होते हैं । इनके स्थान पर कोई पत्थर लगा देता है तो कोई मूर्ति भी लगा रखता है। कोई तो इनका मन्दिर जिसे गुढ़ी  कहते हैं, बनवाता है और कोई किसी झाड़ के नीचे ही स्थापित कर देता है। इनके स्थान पर लाल और सफेद कपड़ों  का झण्डा लगाया जाता है।  

 

वर्तमान में बस्तर के घढ़वा धातु शिल्प एवं लोहारों के बनाये लौहशिल्प की बाजार में अधिक मांग है। कुम्हारों द्वारा बनाये मृणशिल्प उतने नहीं बिक रहे जितना कि कुम्हार उम्मीद करते हैं। शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने भी कुम्हारी काम पर प्रभाव डाला है। कुम्हारों के जो बच्चे पढ़-लिख गए हैं वे अपना पैतृक व्यवसाय करना नहीं चाहते। अगली पीढ़ी मिट्टी में हाथ गंदे करना नहीं चाहती।

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.