बस्तर के कुम्हार और उनके बनाये मृणशिल्प/Bastar Terracotta Art

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Published on: 09 August 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

मृणशिल्प की दृष्टि से बस्तर छत्तीसगढ का समृद्धतम क्षेत्र है, यहां मिटटी के बर्तन और देवताओं के अर्पित की जाने वाली प्रतिमायें बहुत ही विविधतापूर्ण बनाये जाती हैं। पिछले कुछ वर्षो में शहरी बाजार में बस्तर के मृणशिल्प की मांग बढ़ जाने के कारण यहां अनेक नये ढंग की आकृतियां बनाइ जाने लगी हैं जो परम्परागत रूप से नहीं बनाई जाती थीं । फिर भी बस्तर के कुम्हार बाजार के दबाव के समक्ष अपने कार्य के स्तर और उसकी परम्परागत परिशुद्धता को बनाए रख पाये हैं ।

 

बस्तर में कुम्हार पांच प्रकार के होते हैं जो क्रमशः घकड़ी, जात, पुरोहित, सुरोहित और राइक कहलाते है । पुरोहित, सुरोहित ओर राइक कुम्हारों की बस्ती उड़ीसा की सीमा से लगे गांवों में अधिक है तथा घकड़ी और जात कुम्हार बस्तर की भीतरी इलाकों में फैले हैं। यदि कोई कुम्हार चाक चलाना नहीं जानता तो उसका विवाह भी नहीं हो सकता, उसे तो कोई अपनी लड़की भी नहीं देता, कहते है जो हांडी भी नही बना सकता वो जिन्दगी कैसे चलायेगा।

 

बस्तर के मृणशिल्प की विशेषता उनका शैलीगत सुघड़ आकार, अलंकारिक सतह सज्जा और चमकदार पालिश है। यहाँ अधिकांशतः बाघ, हाथी, बैल, घोड़ा एवं बेन्द्री आकृतियां बनाई जाती हैं। विशेष बात यह है कि यह पशु आकृतियां, खिलौने नहीं बल्कि अलौकिक ऊर्जा से परिपूर्ण मिथकीय जीव प्रतीत होते हैं। 

 

बस्तर के कुम्हार सदियों से मिट्टी के बर्तन, देवी-देवताओं की प्रतिमाएं तथा मनोतियां पूरी होने पर चढ़ाई जाने वाली पशु आकृतियां बनाते रहे हैं। सन १९६० के पहले तक यह सभी कलाकृतियाँ स्थानिय आदिवासियों एवं ग्रामीणों तक ही सीमित रहीं। बाहरी जगत को उनके सौंदर्य और कलात्मकता की उतनी जानकारी नहीं थी।

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.