बस्तर के कुम्हार और मिटटी के बर्तन/Bastar Potters & Clay Vessels

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Published on: 24 August 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन ,भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम ,नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

मृणशिल्पों की दृष्टि से बस्तर छत्तीसगढ का समृद्धतम क्षेत्र है। यहाँ के कुम्हार अपने आप को राणा, नाग, चक्रधारी और पाँड़े कहते हैं। कुम्हार यहाँ के ग्रामीण जीवन और सामाजिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण अंग हैं। यहाँ के लोगों के जीवन के प्रत्येक पक्ष में कुम्हारों की भूमिका अनिवार्य है। दैनिक घरेलू गतिविधियां हों, पूजा अनुष्ठान हों अथवा विवाह संस्कार, यह सभी कुम्हारों द्वारा बनाई वस्तुओं के बिना संपन्न होना संभव नहीं। मैं सन १९८३ से छत्तीसगढ़ और विशेषतः बस्तर क्षेत्र के कुम्हारों के संपर्क में रहा हूँ। अतः पिछले एक लम्बे समय में यहाँ के कुम्हारों के काम और स्थिति में आये बदलाव को अनुभव किया है। पिछले चार दशकों में सबसे बड़ा अंतर तो यह आया है कि पहले बस्तर के कुम्हार केवल स्थानीय लोगों के लिए उनकी आवश्यकता की वस्तुएं बनाते थे। वे अपने ग्राहकों और उनकी ससंकृति को अच्छी तरह समझते थे। उनकी आवश्यकताओं से परिचित थे। पर अब उनके सामने दो ग्राहक समूह हैं। एक स्थानीय और दूसरा स्वदेशी शहरी लोग। अतः कुछ कुम्हार केवल स्थानीय लोगों के लिए काम कर रहे हैं। कुछ कुम्हार केवल शहरी बाजार के लिए काम कर रहे हैं। कुछ कुम्हार ऐसे भी हैं जो मिला-जुला काम  रहे हैं । स्थानीय लोगों के लिए बनाया जाने वाला काम उपयोगी, अनुष्ठानिक और उसमे की जानेवाली सजावट अपेक्षकृत कम होती है। जबकि शहरी बाजार के किये बनाया जाने वाला काम साफ़-सुथरा, चिकना पालिशदार और अलंकृत होता है।

साप्ताहिक हाट बाजार में बेचने हेतु लाये गए मिट्टी के बर्तन 

 

कोंडागांव से लगभग ६ किलोमीटर दूर मसौरा ग्राम पंचायत का  कुम्हार पारा  गांव भी मिट्टी के उत्कृष्ट काम के लिए पिछले कुछ वर्षों में बहुत प्रसिद्ध हुआ है। यहाँ कुम्हारों के करीब दो सौ घर हैं। अधिकांश हांडी बर्तन बनाते हैं, पर तीस-पैंतीस कुम्हार मूर्तियां बनाने में भी दक्ष हैं। कुम्हारों की संख्या को देखते हुए स्थानीय प्रशासन भी इनकी सहायता कर रहा है। दो साल पहले कुम्हारों की मिट्टी के पारम्परिक स्रोत, पास ही स्थित मिट्टी की खदान को गांव के कुम्हार समुदाय के लिए संरक्षित कर दिया गया है। इस खदान की काली मिट्टी कुम्हारी काम के लिए बहुत उपुक्त है। कोंडागांव क्षेत्र में हल्बी बोली बहुत प्रचलन में है इसलिए कुम्हार भी हल्बी बोली बोलते हैं। यहाँ के भीखन राणा कुम्हार कहते हैं जगदलपुर की तरफ के कुम्हार भतरी बोली बोलते हैं और नारायण पुर के कुम्हार गोंडी बोलते हैं क्योंकि यही बोलियां उन क्षेत्रों में चलती हैं। वे कहते हैं कोंडागांव के कुम्हार पारा में तो सबसे अधिक कुम्हार रहते हैं ,वहां साथी नाम की एक स्वयं सेवी संस्था मिट्टी के काम को बहुत बढ़ावा देती है। यहाँ के सहदेव कुम्हार बताते हैं, बस्तर में हांडी बनाने वाले कुम्हारों के परिवार मकड़ी, एड़का, नारायणपुर, बयानार, मर्दापाल, सोना बाल,पीपरा, तिंगनपुर, विश्रामपुरी, तारम, बांस कोट, बंजौड़ा, गारा औण्डी, तीगईकोंगा, तारा गांव, देवड़ा, मुण्डा गांव, जगदलपुर, नगरनार, तीर मैटा, डोंगरी गुड़ा, बेनूर, बम्हनी, कोंडगांव, धनौरा, बनया गांव, मुंडा पदर, शामपुर, बेन्द्री और कमेला गांवों में हैं। बस्तर में कुम्हार कुछ तो वे हैं जो यहीं के निवासी है और कुछ कुम्हार वे है जो छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाके से यहाँ आ बसे हैं। यहाँ के निवासी कुम्हार नाइक और कोसरया हैं। करया और ओढ़या छत्तीसगढ़ के अन्य इलाकों से यहाँ आये हैं। इनमे नाइक सबसे ऊंचे समझे जाते हैं ,उसके बाद कोसरया आते हैं। करया और ओढ़या नीचे समझे जाते हैं। नाइक और कोसरया के आपस में रोटी-बेटी के सम्बन्ध होते है, पर ये करया और ओढ़या कुम्हारों के साथ सम्बन्ध नहीं करते। नाइक कुम्हारों की मुख्य आबादी एड़का, बनया गांव और धनौरा में है। बस्तर क्षेत्र में सबसे अधिक आबादी कोसरया कुम्हारों की है जो मिट्टी के बर्तन बनाने में दक्ष  हैं। 

चाक पर काम करते मसौरा, कोंडागांव के सहदेव कुम्हार 

 

बस्तर में मिट्टी के बर्तनों एवं मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध एक अन्य केंद्र है नगरनार  गांव, जगदलपुर से अठारह किलोमीटर पूर्व की ओर उड़ीसा की सीमा पर बसा गांव है। इससे उड़ीसा राज्य की सीमा एक किलोमीटर रह जाती है। नगरनार एक बड़ा गांव है यहां कुम्हारों के लगभग पैंतालीस घर हैं जिनमें से आधिकांश आपस मे रिश्तेदार हैं। इनमें भी दस बारह परिवारों में ही कारीगरी का काम होता है बाकी सभी तो मिट्टी की हांडी आदि बनाने का काम करते हैं। बस्तर का प्रसिद्ध कुम्हार झितरूराम नगरनार गांव का ही था।  सन १९८७ में, झितरूराम, लीमधर और बूटी कुम्हार बहुत ही श्रेष्ठ मूर्तियां बनाते थे।  वर्तमान में झितरूराम मर चुका है, बूटी काम छोड़ चुका है केवल लीमधर और उसके दो भाई मूर्तियां बना रहे हैं ।

 

नगरनार में भतरी बोली का प्रचलन अधिक है । यहां कुम्हारों की पारंपरकि भाषा भतरी है लेकिन यह लोग हल्बी भी बोल लेते हैं । जो गांव उड़ीसा की सीमा से लगे हैं वहां भतरी भाषा अधिक चलती है, जबकि बस्तर की ओर हल्बी भाषा का प्रचलन अधिक है। लीमधर कुम्हार बताते हैं कि बस्तर क्षेत्र में पांच प्रकार के कुम्हार होते हैं जो क्रमशः घकड़ी, जात, पुरोहित, सुरोहित और राइक कहलाते हैं  इनमें से पुरोहित, सुरोहित तथा राइक एक ही स्तर के कुम्हारों के समूह हैं। जात और घकड़ी नीचे और अलग माने जाते हैं। पुरोहित, सुरोहित ओर राइक कुम्हारों की बस्ती उड़ीसा की सीमा से लगे गांवों में अधिक है तथा घकड़ी और जात कुम्हार बस्तर के भीतरी इलाकों में फैले हैं। पहले इनमें रोटी बेटी का सम्बंध नहीं होता था पर अब जात या घकड़ी लोग इनके गांवों में आने लगे हैं और विवाह सम्बंध भी होने लगे हैं। ये कुम्हार अपने को उड़िया कुम्हारों से अलग मानते हैं। उड़िया कुम्हारों के कुछ घर बस्तर जिले में हैं पर इनके साथ अभी भी रोटी बेटी के सम्बंध नहीं होते हैं। घकड़ी कुम्हारों की बहुतायत दन्तेवाड़ा, भैरमगढ़ तथा चित्रकूट की ओर है जबकि पुरोहित, सुरोहित और राइक लोग उड़ीसा के सीमावर्ती इलाकों में अधिक हैं, इनके गांव हैं सुकमा, कुसयरी और तुमनार ।

 

कुम्हार जाति कैसे बनी इस सम्बंध में लीमधर कुम्हार बताते हैं कि हमारे गांव का पंडित बताता था कि एक बार बृहम्मा जी ने विश्वकर्मा से कहा था कि हन्डी बनाओ अमृत रखने के लिए। जब क्षीर समुद्र का मन्थन हुआ तब अमृत जन्मा, जब अमृत जन्मने लगा तो उसे रखने के लिए कोई वस्तु नहीं थी। जब अमृत रखने की कोई जगह नहीं मिली और वे ढूंढ ढूंढ कर थक गये, तो बृहम्मा ने विश्वाकर्मा को बुलाया और बोले, बाबू रे तू हन्डी बना दे। विश्वकर्मा बोला कि मैं अभी नहीं बना सकूंगा । अभी मेरी शक्ति नहीं है लेकिन फिर भी कोशिश करूंगा। जब तक पूरा सामान नहीं होगा हांडी कैसे बनेगी। तब बृहम्मा ने अपने जनेऊ का धागा कुम्हार को दे दिया जिससे वे बर्तन काटकर चाक से अलग कर सकें। इसके बाद उन्होंने कहा, अब मैंने एक चीज दे दिया दूसरी नहीं दूंगा, तुम विष्णु के पास जाओ। तब विष्णु ने अपना आधा सुदर्शन चक्र कुम्हार को दे दिया जिस पर कुम्हार ने मिटटी की हांडी बनाई। कुम्हार अपने चाक को आधा सुदर्शन इसलिए मानते हैं कि सुदर्शन चक्र तो अपने आप घूमता है और उनका चाक हाथ में घुमाने पर ही घूमता है। 

  

साप्ताहिक हाट बाजार में मिट्टी के बर्तन बेचता कुम्हार 

 

लीमधर कहते हैं यदि कोई कुम्हार चाक चलाना नहीं जानता तो उसका विवाह भी नहीं हो सकता: उसे तो कोई अपनी लड़की भी नहीं देता, कहते हैं जो हांडी भी नही बना सकता वो जिन्दगी कैसे चलायेगा ।

 

कुम्हारों के कई गोत्र भी होते हैं। विवाह असगोत्रीय होते हैं। लीमधर बताते हैं कि उनका गोत्र गोही है, जो जंगल में रहने वाला जन्तु है। यह करीब तीन फुट लम्बा होता है। यह लोग गोही दिखने पर हाथ जोड़ते हैं। इसका दिखना शुभ माना जाता है।

 

बर्तन बनाने के लिए मिट्टी तालाब से खोद कर लाते हैं। नगरनार के बीच स्थित इस तालाब में बरसात में पानी भर जाता है तब गांव के कुम्हारों को मिट्टी की परेशानी हो जाती है। बरसात के बाद पानी कम होने पर कुम्हार सालभर के लिए मिट्टी इक्कठी कर लेते हैं, मिट्टी ढोने का काम बैल गाड़ियों से किया जाता है। इस मिट्टी को हंडी मिट्टी कहते हैं। इसकी उपयोगिता की परीक्षा के लिए मिट्टी के ढेले पर पानी डालते हैं, यदि मिट्टी का ढेला पानी डालते ही पिघल कर बह गया तो यह मिट्टी खराब मानी जायेगी, जबकि पानी डालने पर भी वह कुछ देर नहीं घुला तो वह मिट्टी बर्तन बनाने के लिए अच्छी मानी जाती है ।

    

 बर्तन बनाने  के लिए लायी गयी मिट्टी 

                                                                                                           

बर्तन बनाने के छानी गयी मिट्टी

 

चाक पर बर्तन बनाने के लिए बनाये गए मिट्टी के गोंदे    

 

सबसे पहले मिट्टी से अशुद्धियाँ निकलकर उसे कंकड रहित किया जाता है। यहां यह लोग जिस तालाब से मिट्टी लाते हैं, उसमें पत्थर नहीं हैं। मिट्टी यहां तीन तरह की मिलती है लाल, काली और सफेद। इसमें से लाल मिट्टी बर्तन बनाने के लिए उपयुक्त नहीं है। काली मिट्टी जो करिया मिट्टी और सफेद मिट्टी जो पौंड्रा मिट्टी कहलाती है ,काम के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं । इनमें भी काली मिट्टी शक्तिशाली समझी जाती है और श्रेष्ठ मानी जाती है। बस्तर के कुम्हार मिट्टी तैयार करते समय उसमें रेत मिलाते हैं । रेत मिलाने से मिट्टी की पानी के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और हांडी बनाने में फटती नहीं  है। मिट्टी को तैयार करने का काम औरतें करती हैं। करीब तीस किलो मिट्टी में दस किलो रेत मिलाते हैं, रेत नदी के किनारे वाला और छानकर प्रयोग करते हैं। अन्य स्थानों की अपेक्षा नगरनार के कुम्हारों को मिट्टी बनाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती, क्योंकि मिट्टी तालाब से खोदकर लाई जाती है इसलिए उसे भिगौने या फुलने की जरूरत ही नहीं पड़ती। पहले बांस के एक औजार से मिट्टी की पर्ते काट कर मिट्टी के कंकड निकाले जाते हैं, यह क्रिया मिट्टी चलाना कहलाती है। इसके बाद मिट्टी में रेत मिलाकर उसे पैरों से खूँदते हैं,  इस प्रकार तैयार की गई मिट्टी, निबड़ला मिट्टी कहलाती है ।

बस्तर के कुम्हार चाक लकड़ी का बनाते हैं, यह चाक बैलगाड़ी के पहिये जैसा होता है। इसके बीच का भाग और ताने सर्गी लकड़ी की बनाई जाती हैं, सर्गी लकड़ी सबसे मजबूत मानी जाती है। अधिकांश कुम्हार चाक स्वयं ही तैयार करते हैं परन्तु कुछ कुम्हार बढ़ई से भी बनवा लेते हैं। चाक स्थानीय की भाषा में चाइक कहलाता है, उसकी बाहरी परिधि बांस की खपच्चीयों पर मिट्टी चढ़ा कर बनाई जाती है। थोड़ा सूखने पर इस पर रस्सी लपेटी जाती है ताकि मिट्टी निकल न जाये, फिर एक बार और मिट्टी चढ़ाकर उस पर गोबर मिली मिटटी लीपकर सुखा लिया जाता है। इस प्रकार तैयार चाक का उपयोग में लानें से पहले परीक्षण किया जाता है, इसे धुरी पर घुमाकर देखते हैं। परिधि पर चारों ओर एकसार मिट्टी न चढने से यह चाक समतल नहीं घूमता। तब जहां मिट्टी कम लगी हो वहां और मिट्टी लगाई जाती है और जहां ज्यादा हो वहां से निकाली जाती है। यह क्रिया तब तक दोहराई जाती है तब तक चाक समतल न घूमने लगे। बस्तर में चाक डण्डे की सहायता से नहीं हाथ से पकड़कर घुमाया जाता है। चाक धावड़े की लकड़ी के कीले पर घूमता है। चाक खड़े होकर, झुककर घुमाते हैं और काम बैठकर करते हैं। चाक में किसी देवता का वास नहीं मानते और न ही इसे कोई बलि देते हैं। चाक पर रखा गया मिट्टी का लौंदा औण्डर कहलाता है और चाक पर हाथों द्वारा मिट्टी को आकर देनें की क्रिया धर झीकना कहलाती है ।

 

बस्तर के कुम्हार अनेक प्रकार के बर्तन बनते हैं बनाये जाने वाले प्रमुख बर्तन पानी भरने और खाना बनाने हेतु काम में लाये जाते हैं।

 

मड़की: पानी रखने के काम आती हैं। मड़की का मुंह चैड़ होता है। कोंडगांव की तरफ के लोग मड़की का प्रयोग चावल उबालने के लिए भी करते हैं।

 

मड़की: पानी रखने का बर्तन 

 

घाघरी: पानी रखने के काम आती हैं। घाघरी का मुंह संकरा होता है ताकि इसमें रखा पानी फैले नहीं।

घाघरी:पानी रखने का बर्तन 

 

कनंनजी/कनजी: यह खाना बनाने का बर्तन है  अधिकांशतः इसमें दाल या सब्जी बनाई जाती है।

कनंनजी/कनजी: खाना बनाने का बर्तन

 

टोकसी: यह खाना बनाने हेतु काम में आने वाला बर्तन है, जिसे थोड़ी मात्रा में सब्जी बनाए हेतु प्रयोग में लाया जाता है।

 

परई/फोरई: यह मिटटी की छोटी थाली जैसा बर्तन होता है जो कुछ ढंकने के काम आता है । इसी प्रकार का छोटा बर्तन 'रूखता' कहलाता है ।

परई/फोरई: छोटी थाली जैसा बर्तन 

 

गोर: यह एक बड़ा बर्तन है जो धान या ज्यादा पानी रखने के काम आता है।

 

तैलइ: यह मिट्टी का बना तवा है जिस पर रोटियां सेंकी जाती हैं।

 

सट्ट मटकी: यह महुआ से शराब बनाने के काम आने वाला बर्तन है। इसकी बनावट विशिष्ट होती है। चौड़े पेट वाले इस बर्तन का मूहँ छोटा होता है तथा पेट से एक नली निकली हुई रहती है। इसी नली के माध्यम से महुआ युक्त पानी की भाप साथ जुड़े दूसरे बर्तन में एकत्रित होती है।

 

सट्ट मटकी: महुआ से शराब बनाने के काम आने वाला बर्तन है

 

झांझी मटकी: यह भी बड़े आकार का एक विशेष बर्तन है, जिसका उपयोग महुआ के बीजों को उबालने के लिए किया जाता है। महुआ के बीज से तेल निकालने के लिए उसे पहले उबालना आवश्यक होता है।

झांझी मटकी: चावल उबालने का बर्तन 

 

छत्तीसगढ़ में चावल उबालने का एक विशेष स्थानीय तरीका है। यहाँ के लोग चावल उबालने के लिए पानी में डालने से पहले उन्हें भाप से भपियाते हैं। यह बर्तन इस प्रकार चावल उबालने के भी काम आता है।

 

भांजना: यह बड़े मूँह वाला, बड़े आकार का बर्तन है जिसमें महुआ उबला जाता है।

 

कूप खण्डी/कूप हांडी: यह सामान्य से काफी बड़े आकार की हांडी होती है जिसे चावल से लांदा तैयार करने एवं उसे रखने हेतु प्रयोग में लाया जाता है। लांदा एक प्रकार का नशीला और पौष्टिक पेय है जिसे बस्तर के आदिवासी बड़े चाव से पीते हैं, यह उनकी दैनिक खुराक का मुख्य अंग है।

 

कलंजा: यह बड़े मूँह वाला, बड़े आकर का बर्तन है जिसमें विवाह अथवा अन्य सामूहिक भोज के लिए बड़ी मात्रा में सब्जी पकाई जाती है। इसका ढक्कन ताता परइ कहलाता है।

 

खप्पर: यह एक अनुष्ठानिक पात्र है जो आयताकार ट्रे जैसा होता है। जब किसी सिरहा पर देव चढ़ता है तब उसकी सच्चाई की परिक्षा के लिए इस पात्र में जलते अंगारे रखकर इसे सिरहा के सर पर रखा जाता है। यदि इससे सिरहा विचलित न हो तो उसपर देव चढ़ने का विश्वास किया जाता है।

 

पूजा अनुष्ठानों में काम आने वाले रूखा दिया 

 

पूजा अनुष्ठानों में धूप जलाने हेतु  दुपौली/आरती दिया 

 

उपरोक्त पात्रों के अतिरिक्त विवाह अनुष्ठानों एवं समारोहों के लिए टुटी कांडी, बैटाण्डि, करसा कोंडी, टुक़िया कुण्डी, रूखी दिया और चरठा दिया आदि पात्र भी बनाये जाते हैं।

मड़की का निरीक्षण करती महिला 

 

विवाह के लिए बनाये जाने वाले बर्तन विशेष होते हैं। विवाह के समय लड़की वाले विवाह मण्डप में रस्सियों द्वारा एक विशेष प्रकार के छोटे-छोटे बर्तन जिन्हें 'बैटाण्डि' कहते हैं, बांधकर लटकाते हैं। इन लटकाए गए बर्तनों संख्या २५ से १०० तक हो सकती है। यह प्रथा सभी जातियों में है। जब लडके वाले वधु को लेकर लौटते हैं तो प्रत्येक बाराती को यह बर्तन दिया जाता है। विवाह के लिए बनाया जाने वाला दूसरा बर्तन है रूखा, यह विवाह मण्डप के बीच रखे जाते हैं और इन पर दिये रखकर जलाये जाते हैं । विवाह मण्डप के बीच में रखा जाने वाला अन्य बर्तन है कुण्डी, यह एक छोटी हांडी होती है जिस पर पांच मुख का दिया रखा जाता है जो 'चरठा' कहलाता है ।

हाट बाजार में मिट्टी के बर्तन खरीदती महिला 

 

सुण्डी या सेटीया, मुरिया, भतरा लोग विवाह के समय कुम्हारों से बहुत सामान लेते हैं। माड़ीया लोगों में विवाह के समय करीब २०० से ३०० हांडी बनवा कर ले जाते हैं क्योंकि विवाह के समय पिया ओर पिलाया जाने वाला नशीला पदार्थ लांदा पीने के लिए हांडी का प्रयोग किया जाता है। विवाह के समय कुम्हारों को बर्तनों के पैसे तो मिलते ही है साथ ही धान, चावल और कपड़ा भी मिल जाता है। विवाह के समय बांधी जाने वाली बैटाण्डि कुम्हार ही बांधता है, उस रस्म के लिए इन्हे एक कपड़ा और हल्दी मिलती है।

 

विवाह के समय किसी भी जाति में कोई मूर्ति नहीं बनवाई जाती सिर्फ सुण्डी जाति के लोग एक २०-२५ दियों वाला रूखा बनवाते हैं जिस पर विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी और अंलकरण बनाये जाते हैं। यह अंलकरण ग्रहाक के कहने पर ही बनाये जाते हैं ।

 

कार्यरत कुम्हार 

 

बर्तन यहां लाल रंग के बनाये जाते हैं। बर्तन बनाकर पहले छांव में सुखायेे जाते हैं फिर उन्हे धूप में रखा जाता है। यदि बर्तन बनाकर सीधे धूप में रख दिये जाये तो वह फट जाते हैं। इसके बाद नदी से लाई गइ लाल मिटटी जिसे खरा कहते हैं, से बर्तन रंगे जाते हैं। नगरनार गांव के कुम्हार यह मिटटी बस्कली नदी से लाते हैं। इस मिटटी को कूटकर एक घघरी में घोलकर १५ दिन तक रखते हैं फिर इसे निथार कर नीचे का रेतीला भाग अलग इक्कठा कर लेते हैं और उपर का घोल अलग निकाल लेते हैं । इस घोल को घूप में नहीं रखते नही तो यह खराब हो जाता है। अब निथार कर निकाले गये उपर वाले घोल को किसी बर्तन में लेकर आग पर गर्म करते हैं जब यह घोल गोंद जैसी गाढ़ी हो जाती है तब उसे उतार ठण्डा कर लेते हैं । जिन बर्तनों को रंगना है पहले उस पर एक बार नीचे वाला रेतीला घोल लगाते हैं, फिर सूखने पर दो बार आग पर पकाया घोल लगाया जाता है इस प्रकार रंगाई करने से पकने के बाद बर्तन पर बहुत अच्छी पालिश हो जाती है। इस पालिश में यदि तेल का जरा सा भी अंश मिल गया तो यह खराब हो जाती है ।

 

     

     

बर्तन पर पालिश हो जाने के बाद प्रत्येक कुम्हार उस पर सफेद खड़ी मिटटी से अपना पहचान चिन्ह बना देता है, जैसे लीमधर बर्तन के मुंह और गर्दन पर एक एक सफेद धारी बनाते हैं। यह एक प्रकार से किसी कुम्हार परिवार के हस्ताक्षर चिन्ह होते हैं, जिनसे यह पहचाना जा सकता है की यह बर्तन किस कुम्हार परिवार ने बनाया है।

 

हाट बाजार में मिट्टी के बर्तन की दुकान 

 

लीमधर कुम्हार बताते हैं कि पुराने समय में मिटटी के बर्तनों पर भी बहुत अलंकरण किया जाता था परन्तु आजकल यह प्रथा खत्म हो रही है।

 

बर्तन पकाने की भटटी अबा कहलाती है। यह समतल  होती है किसी प्रकार का गड्ढा नहीं बनाया जाता। बर्तन पकाने के लिए इसमें पहले लकड़ी के छोटे-छोटे टुकडे़ बिछाते हैं। फिर इसके ऊपर फूटे हुए मिट्टी के बर्तनों के खपरे रखते हैं। अब इसके ऊपर बनाई हुई हांडीयां उल्टी करके जमाई जाती हैं। नीचे बड़े बर्तन और उपर छोटे रखे जाते हैं। अब चारों ओर  किनारों पर लकड़ी के टुकड़े जमा दिये जाते हैं। फिर सभी को धान के पैरे से ढक कर इसे, तालाब से लाया गया कीचड़ (जिसे चिखला कहते हैं) से लीप दिया जाता है। फिर इसे आग लगा दी जाती है। अधिकांशतः भट्टी शाम के समय पकाते हैं। सुबह तक बर्तन पक जाते हैं और भट्टी ठंडी हो जाती है। अब पके हुए बर्तन भट्टी से निकाल लिए जाते हैं।

 

मिट्टी के बर्तन पकने के लिए बनाई गई भट्टी 

 

बेचने के लिए तैयार बर्तन कांवड पर लाद कर आदमी या औरतें अपने आस पास के गांवों में ले जाते हैं। कुछ लोग घर से ही बर्तन खरीद कर ले जाते हैं। हाट बाजारों में बर्तन बेच कर भी ये कुछ पैसा कमा लेते हैं। गांवों में जाकर बेचने पर इन्हे धान और चावल भी मिल जाता है । सबसे अधिक बिकने वाला बर्तन हांडी है और सारे कुम्हार इसे सबसे अधिक बनाते हैं।

 

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.