यह आलेख कोंडागांव के हरिहर वैष्णव एवं खेम वैष्णव से हुई चर्चा पर आधारित है
बस्तर की धार्मिक-सामाजिक मान्यताएं एवं रीति-रिवाज आदिवासी तथा गैर आदिवासी विश्वासों का एक जटिल मिश्रित रूप हैं। संभवतः यही कारण है कि यहाँ की अधिकांश प्रथाएं समुदायगत न होकर क्षेत्रीय स्वरुप रखती हैं। अधिसंख्य देवी-देवता और अनुष्ठान-त्योहार ऐसे हैं जिन्हें आदिवासी-गैर आदिवासी सभी मानते हैं। इसका एक कारण यह भी रहा है कि यहाँ के राजा गैर आदिवासी थे और प्रजा आदिवासी बहुल। बस्तर की अनेक प्रथाएं ऐसी हैं जो मूलतः आदिवासियों की अपनी परम्पराएं नहीं हैं बल्कि आदिवासियों ने उन्हें इसलिए अपना लिया क्योंकि वह राज घराने में प्रचलित थीं। बस्तर का दशहरा, गोंचा रथ यात्रा और लक्ष्मी जगार अनुष्ठान ऐसी ही कुछ प्रथाएं हैं।
लक्ष्मी जगार अनुष्ठान, दीपावली के उपरांत धान की फसल कटाई के बाद किया जाता है। जन मान्यता है कि यह बस्तर की अपनी प्रथा नहीं है, बल्कि बस्तर राज परिवार ने इसे उड़ीसा से अपनाया था, जो कालांतर में बस्तर के उड़ीसा के सीमावर्ती क्षेत्रों में प्रचलन में आ गया। आज भी यह अनुष्ठान जगदलपुर और कोंडागांव के आस-पास के इलाकों तक सिमित है। इसे उत्साहपूर्वक आयोजित करने वालों में उड़िया भाषी अथवा उड़ीसा से सम्बद्ध भतरा और धाकड़ समुदाय ही अधिक सक्रीय हैं।
लक्ष्मी जगार का यह अनुष्ठान वास्तव में राजा विष्णु और रानी, धान रुपी लक्ष्मी के विवाह का समारोह है, जो सुविधानुसार तीन दिन, पांच दिन और ग्यारह दिन तक चल सकता है। यह अनुष्ठान समूचा गांव मिलकर गांव की देवगुढ़ी में आयोजित करा सकता है अथवा इसे व्यक्तिगत रूप से कोई कृषक अपने घर में करा सकता है। अनुष्ठान के तीन मुख्य घटक हैं:
- जगार अनुष्ठान विधि-विधान, जगार कथागीत जानने वाली एवं धनकुल वाद्य पर उन्हें गाकर अनुष्ठान संपन्न करा सकने वाली महिला पुजारी जिन्हे गुरुमांय कहा जाता है, का आगमन।
- देवस्थापना, अनुष्ठान का विधिवत आरम्भ।
- अंतिन दिन राजा विष्णु की बारात गमन, पूजा स्थल की दीवार पर लक्ष्मी जगार का चित्रांकन एवं राजा-रानी का विवाह और घर वापसी।
जगार अनुष्ठान चार प्रकार के होते हैं जिन्हे पृथक-पृथक अवसरों पर आयोजित किया जाता है, यह हैं लक्ष्मी जगार, बाली जगार, आठें जगार और तीजा जगार। अनुष्ठान का संयोजन इस प्रकार किया जाता है की वह गुरुवार के दिन समाप्त हो। जगार आयोजन के आरम्भ में गुरुमांय के निर्देश पर गृह स्वामिनी अथवा अन्य वरिष्ठ स्त्रियां आयोजन स्थल की दीवार पर, हांडी और सूपा पर हल्दी एवं आल्ता के घोल से हाथों के पंजे छापती हैं इसे 'हाथा देना' कहा जाता है। इसके बाद धनकुल वाद्य और पीढ़े को घेरते हुए चावल के आंटे से चौक पूरा जाता है, जिसे बना लिखना कहते हैं। यह एक प्रकार से शुभ कार्य आरम्भ होने के संकेत हैं।
आकृति 1: जगार अनुष्ठान के समय बनाया जाने वाला चौक जिसे 'बाना ' भी कहते हैं
लक्ष्मी जगार अनुष्ठान के अंतिम दिन जब राजा विष्णु की बारात विवाह हेतु धान के खेत की ओर प्रस्थान कर जाती है तब घर के लोग अनुष्ठान स्थल के पीछे वाली दीवार पर लक्ष्मी जगार का चित्रांकन करते हैं। यह चित्रांकन 'गढ़ लिखना' कहलाता है और इसे विवाह उपरांत राजा की बारात के घर वापस आने से पहले पूरा चित्रांकित करना आवश्यक है। सामान्यतः इस चित्रांकन हेतु दो-तीन घंटे का समय मिलता है। चित्र कैसे बनेगा और उसमे कौन-कौन से चरित्र और उपादान चित्रित किये जायेंगे यह निर्देश गुरुमांय देती हैं, पर चित्र कौन बनाएगा इस पर कोई प्रतबंध नहीं होता। आमतौर पर चित्र स्त्रियां बनाती हैं परन्तु कभी-कभी पुरुष भी चित्रण करते हैं। चित्र बनाने का काम एकल या सामूहिक रूप से किया जा सकता है।
आकृति 2: जगार अनुष्ठान के समय दीवार पर बनाया जाने वाला जगार चित्र
चित्रांकन का आरम्भ एक बार्डर द्वारा चौकोर अथवा आयताकार घेरा बनाने से किया जाता है, जिसमें चारों दिशाओं में, मध्य में एक दरवाजा छोड़ा जाता है। यह घेरा 'गढ़' कहलाता है। इसके अंदर लक्ष्मी जगार कथा के मुख्य पात्र एवं सम्बंधित चरित्रों और उपादानों के चित्र बनाये जाते हैं। कहते हैं चित्रांकन हेतु पहले प्राकृतिक एवं वनस्पति रंगों का प्रयोग किया जाता था। उसके बाद कलम से लिखने वाली स्याही की टिकियों और गेरू मिट्टी को पानी में घोलकर रंगों की भांति प्रयोग में लाया जाने लगा। पिछले १० वर्षों में पोस्टर कलर एवं अन्य कई प्रकार के रेडीमेड रंगों का प्रचलन बढ़ गया है।
आकृति 3: जगार अनुष्ठान के समय दीवार पर जगार चित्र बनाते चित्रकार खेम वैष्णव
गढ़ के बार्डर में ज्यामितीय आकारों अथवा फूल-पत्तियों के बेल-बूटों से सज्जा की जाती है। गढ़ पूर्ण होने के बाद उसके मध्य भाग में राजा-रानी अर्थात वष्णु और लक्ष्मी चित्रित किये जाते हैं। इनके साथ झोलू पाइक, जो विष्णु के महामंत्री हैं उनका चित्र बनाया जाता है। पास ही राजा मेघ और मेघिन रानी दर्शाई जातीं हैं। गढ़ के दोनों कोनों में चंद्र-सूर्य तथा ऊपरी भाग में माल्यार्पण करते दो हाथी बनाये जाते हैं। गढ़ के निचले भाग में पाट गुरुमांय और चेली गुरुमांय, गायता पुजारी, बाजा मौहरी वाले, धनकुल वाद्य, धनुष और छिरनी काड़ी, पीढ़ा, कलसा दिया, आरती, रुखा दिया, झांपी, हांडी, सूपा, ढोलगी, गंगार, पेटी आदि अभिप्राय चित्रित किए जाते हैं। चित्र पूर्ण होने पर गुरुमांय उसका अवलोकन करतीं हैं और स्वीकृति देती हैं।
चित्र का स्वरूप सरल, सहज और ज्यामितीय होता है, आकृतियां सदृश्य नहीं प्रतीकात्मक होती हैं। निरूपित किये जाने वाले चरित्र और अभिप्राय रूढ़ होते हैं, पर उनके संयोजन में लोक चित्रकार अपनी कल्पनाशीलता का परिचय भी देते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में लोगों का रुझान जगार आयोजन और उससे सम्बद्ध इन पारम्परिक चित्रों की ओर से कम हुआ है। अब वे पूरा कथाचित्र बनाने के स्थान पर केवल लक्ष्मी चित्र बना लेते हैं, या लक्ष्मी के पेंटिंग वाला कैलेंडर ही टांग लेते हैं। वर्तमान में बस्तर की यह लोक चित्र परंपरा अपने अवसान पर है।
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This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.