माड़िया मृतक स्तम्भों पर चित्रकारी

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Published on: 17 August 2018

माड़िया मृतक स्तम्भों पर चित्रकारी

बस्तर के माड़िया स्वयं बांस के काम के अतिरिक्त कुछ अधिक शिल्पकारी नहीं करते। वे अपने मृत पूर्वजों की स्मृति में बहुत ही कलाकारी युक्त  मृतक स्तम्भ स्थापित करते हैं। आरम्भ में वे एक अनघढ़ शिलाखंड को सीधा खड़ा किया करते थे। बाद में वे इसे लकड़ी का बनाने लगे और इस पर अनेक आकृतियां उत्कीर्ण करवाने लगे। सन १९७० के दशक में यह मृतक स्तम्भ फिर से समतल सतह वाली आयताकार पतली प्रस्तर शिला से बनाया जाने लगा। कुछ लोग इसे सीमेंट कंक्रीट से भी बनाने लगे। अब इस प्रस्तर शिला पर चमकीले रंगों से चित्रकारी की जाने लगी है।

चित्रकारी शुरू होने के आरम्भिक दिनों में, मृतक स्तम्भ पर वही अभिप्राय चित्रित किये जाते थे जो पहले लकड़ी के स्तम्भ पर उत्कीर्ण किये जाते थे। परन्तु धीरे -धीरे नए अभिप्राय चित्रित किये जाने लगे। इन मृतक स्मृति स्तम्भों की चित्रण शैली निश्चित नहीं है।और न इनके चित्रण में एकरूपता है। हाँ, चित्रित किये जाने वाले कुछ अभिप्रयों में समानता अवश्य है। ये चित्रकार न तो किसी एक समुदाय के हैं और न ही इस चित्रण की पूर्व निर्धारित शैली है। यह सभी चित्रकर्म इन चित्रकारों और चित्रकारी करवाने वाले माड़ियाओं के मध्य हुई चर्चा और चित्रकार द्वारा उनके दिए निर्देशों को रूपायित कर देने की क्षमता पर निर्भर करता है। इन स्मृति स्तम्भों पर  मृतक , उसकी पसंद की वस्तुएं ,उसके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएं ,उसकी इच्छाएं , माड़िया जीवन के लिए आवश्यक एवं शुभ वस्तुएं , पशु -पक्षी आदि चित्रित किये जाते हैं। यह आवश्यक नहीं कि यह सब कुछ बनाया ही जाय , अपने बजट के हिसाब से भी लोग काम -ज्यादा चित्रकारी करवाते हैं।

स्मृति स्तम्भों पर  की जाने वाली चित्रकारी में सहजता और तात्कालिकता का आधिक्य है। प्रतीत होता है कि यह चित्रकार  वास्तविक सृष्टि तथा कलासृष्टि के भेद और उनके बुनियादी तत्वों की तार्किक भिन्नता को पूरी तरह समझते  हैं  । वे जानते हैं  कि मछली पानी में रहती है और चिड़िया हवा में उड़ती है, शेर पीला होता है और हाथी काला, परन्तु चित्रों में वे उनके इस सादृश्य के प्रति आग्रह नही रखते । उनके चित्रों में चिड़ियाए मछली और छिपकली एक ही स्थान पर क्रियाशील हो सकती है, शेर हरा हो सकता है और हाथी पीला । चित्र में धनुधारी एक ही हाथ से एक साथ कई बांण चला सकता है, तो कहीं घुड़सवार घोड़े की पीठ पर खड़ा होकर धनुष चलाने में व्यस्त हो सकता है । आकृतियों में सापेक्षिक अनुपात जैसा का तैसा वे नहीं स्वीकारते और यह भी आवश्यक नहीं कि दूरदृश्य लघुता का सामान्य नियम आकृतियों पर लागू हो ।

आदिवासी कला का आदिवासी तत्व उसमें बनाई जाने वाली सदियों पुरानी आकृतियों के पुनरउत्पादन में नहीं बल्कि उस चिंतन प्रणाली में है जो प्रत्येक आदिवासी को उसके सामान्य जीवन के समान्तर एक मिथिकीय जीवन भी प्रदान करती है, जिसमें पेड़, पौधे, पशु-पक्षी आदि उनके पूर्वज, देवता, मित्र, शत्रु ओर न जाने क्या-क्या हैं  । इस प्रकार इन घटकों से उसके सम्बन्ध नितान्त भौतिक न होकर पराभौतिकीय भी होते हैं और जब ये कलाकर इन आकृतियों को चित्रित करते हैं  तब उनका रूपविधान तय करते समय उसके चेतन और अचेतन मन में इन प्राणियां के प्रति जो लौकिक और अलौकिक मान्यतायं है, वह सभी मिलकर इस आकृति का रूप निर्धारित करती है।  जो निश्चित ही वैसा नहीं होता जैसा नागर प्रेक्षक उस प्राणी से नितान्त लौकिक  सम्बन्ध होने के कारण देखता है। यही आदिवासी कला का मूलतत्व है जो नागर कला से उसका अंतर उत्पन्न करता है ।

बस्तर में मृतक स्तम्भों पर चित्रकारी करने वाले चित्रकार बहुत काम हैं। चित्रकोट गांव के चिरकाराम धुर्वा वर्तमान में इस विधा के लोकप्रिय चत्रकार हैं।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh