बस्तर की आदिवासी एवं लोक चित्रकला/Adivasi and Folk Painting in Bastar

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Published on: 09 August 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र अपनी कला विरासत के लिए प्रसिद्ध है। यहां आदिवासी एवं गैर आदिवासी संस्कृति का मिलाजुला अध्भुत आंचलिक स्वरूप देखने को मिलता है। संस्कृति के इस आंचलिक स्वरूप के दर्शन यहाँ की आदिवासी-लोक कलाओं में स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। यहाँ की कला परम्परा में आदिवासी तथा लोक तत्व इतने घुल-मिल गए हैं कि उन्हें पृथक देख पाना संभव प्रतीत नहीं होता। यहाँ के गोंड आदिवासी चित्रकार शिव-पार्वती के चित्र बना रहे हैं और वैष्णव चित्रकार गोंडिन देवी के।

 

अपने परम्परागत स्वरूप में आदिवासी कला, क्षेत्र विशेष के किसी आदिवासी समुदाय द्वारा किया गया कलाकर्म है जो अवसर विशेष से जुड़े अनुष्ठान एवं आवश्यकताओं को सम्पन्न करने हेतु किया जाता है। बस्तर के यदि कुछ विशेष अनुष्ठानिक कलारूपों  को छोड़ दे तो अधिकांश आदिवासी कला समुदायगत होकर भी क्षेत्रीय अथवा आंचलिक प्रतीत होती है। साथ ही हिन्दु समुदाय से बढ़ती निरंतर निकटता से भी अनेक ऐसे मोटिफ जो ग्रामीण लोककलारूपों  मे बनाए जाते थे अब कहीं.कहीं आदिवासी समुदायों में भी प्रचलन में आ गए हैं। मोटिफों का यह आदान प्रदान वास्तव में क्या स्वरूप रखता है कहना मुश्किल है ।

 

पिछले कुछ वर्षो में आदिवासी कला परिदृश्य में भी अभूतपूर्व परिवर्तन आया है। बढ़ती हुई शहरीकरण एवं व्यवसायीकरण की प्रक्रिया से परम्परागत सामाजिक आर्थिक ढांचा टूटा है। आदिवासी कलाओं का एक बहुत बड़ा बाजार देशी, विदेशी शहरों में बना है, अनेक बिचैलिए, व्यापारी एवं डिजायनर अस्तित्व में आए हैं। जिनसे इन कलाओं पर बाजारी दबाव एवं बाहरी हस्ताक्षेप निरन्तर बढ़ता जा रहा है। अब समूह से व्यक्ति का उदय हो रहा है, सामूहिक चेतना में व्यक्तिगत प्रतिभा सामाजिक स्तर पर मान्य होने लगी है। बस्तर की वर्तमान चित्रकला इसी प्रक्रिया का परिणाम है।

 

बस्तर के आदिवासियों में अनुष्ठानिक चित्रों की कोई परम्परा थी नहीं, मुरिया घोटुलों में चित्र बनाये जाने का उल्लेख है पर अब घोटुल व्यवस्था समाप्त हो चुकी है। गैर आदिवासियों में जगार अनुष्ठानिक लोक चित्र बनाने का प्रचलन था जो अब अवसान पर है। इस बीच सन १९७० के आस-पास माड़िया मृतक स्तम्भों पर चित्रकारी की नई पहल आरम्भ हुई है। यहाँ यह तथ्य महत्वपूर्ण है की माड़िया जनजाति द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले इन अनुष्ठानिक मृतक स्तम्भों पर लोहार, बढ़ई या अन्य गैर आदिवासी समुदाय के लोग चित्रकारी कर रहे हैं। इसके साथ ही अनेक मुरिया युवकों ने अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा और पारम्परिक सौंदर्य बोध के बल पर चित्रकारी की बस्तर शैली के विकास के प्रयास किये हैं। इन सभी का विवरण यहाँ प्रस्तुत है।

 

वर्तमान में जो आदिवासी चित्रकार बस्तर में कार्यरत हैं वे हैं—बेलगूर मुरिया, पंडी मुरिया,सगराम मरकाम, विनोद मुरिया, नारायण कोराम, बुधराम मरकाम, संतोष सोरी, बलदेव मुरिया, सरिता मंडावी, मुकेश पुजारी हल्बा,अनिल नेताम, माधव मुरिया और चिरका राम धुर्वा। इनमे चिरका राम माड़िया मृतक स्तम्भ पर चित्रकारी करता है।

 

बस्तर के गैर आदिवासी लोक चित्रकार हैं—खेम वैष्णव, रिंकी वैष्णव, लतिका वैष्णव, महेश विश्वकर्मा, उलेचंद माली और नंदू माली।  

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.