बस्तर के लौहशिल्प का पारम्परिक रूप ,Traditional Iron Craft of Bastar

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Published on: 30 September 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन ,भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम ,नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

बस्तर के लौहशिल्प का स्वरूप अत्यंत आदिम एवं प्राचीन है । यहां के लोहार बताते हैं कि इनका प्रचलन कब और कैसे हुआ यह वह नहीं जानते परन्तु अनेक पीढियों से उनके यहां इस प्रकार की लौह  कलाकृतियां बनाई जाती रही हैं जिनका आदिवासी जीवन एवं विश्वासों से गहरा संबध है । डॉ वैरियर एल्विन ने अपनी पुस्तकों में बस्तर के लौहशिल्प का वर्णन किया है तथा इसके पुरातन चरित्र को रेखांकित किया है। बस्तर के आदिवासियों  में प्रथा है कि वे लड़की को विवाह में एक विशेष प्रकार का दिया, जिसे ‘दइज दिया‘ कहा जाता है, जरूर देते हैं । मान्यता है कि जिस प्रकार यह दिया अन्धकार दूर करता है उसी प्रकार लड़की के जीवन से दुख का अंधकार दूर होगा और खुशियों का उजाला फैलेगा । वे पुत्र के विवाह के अवसर पर विवाह मण्डप में , गाड़ने हेतु खुंट-दिया बनवाते हैं तथा मन्नते पूरी होने पर देवी-देवताओं को अर्पित करने हेतु अनेक डिजाइनों के सुन्दर दिये भी बनाये जाते हैं जो माता-दिया कहे जाते हैं । गौण्ड एवं मुरिया आदिवासियों में मृतकों  की कब्रों पर अलंकृत दिए स्थापित करने की भी परंपरा है । 
कुछ वर्ष पूर्व तक बस्तर के लोहार लोह अयस्क से स्वयं लोहा निकाल कर प्रयोग में लाते थे । अब जंगल से लकड़ी और कोयला मिलने में कठिनाई होने के कारण अधिकांश लोहार बाजार से खरीदा हुआ नया-पुराना लोहा प्रयुक्त करने लगे हैं । वे कृषि उपकरण, शिकार हेतु विभिन्न आकृतियों वाले बाण, टंगिया, जादू टोने हेतु विशेष कीले, देवी-देवताओं पर चढाई जाने वाली पशु आकृतियों एवं हथियारों के अतिरिक्त अनुष्ठानों हेतु सुन्दर दिये भी बनाते हैं । 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.