बस्तर के अनुष्ठानिक दिये, Ritual Lamps of Bastar

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Published on: 18 October 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन ,भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम ,नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

बस्तर के अनुष्ठानिक दिये

विभिन्न प्रकार के सुन्दर एवं कलात्मक दीपक बनाने की परंपरा समूचे भारत में देखने को मिलती है। मिट्टी,लोहा,पीतल जैसे भिन्न .भिन्न माध्यमों में बनाए जाने वाले इन दीपकों की एक सुदीर्घ एवं समृद्ध श्रृंखला है। विश्व की अनेक प्राचीन सभ्यताओं के अवशेषों से भांति .भांति के दीपक प्राप्त हुए हैं, सिंधु घाटी की सभ्यता से प्राप्त मातृ देवियों की प्रतिमाओं से सम्बद्ध मिट्टी के अलंकृत दीपक अपने आपमें अनूठे हैं। लोहे एवं पीतल के बने विभिन्न माप,आकार और उपयोग वाले दीपक भारत के सभी अंचलों में लोकप्रिय हैं।आदिवासी बहुल क्षेत्रों में घुमक्कड़ धातु शिल्पियों ने इन्हे बहुत ही कलात्मकता और कल्पनाशीलता से बनाया है। बंगाल,ओडिशा, मध्यप्रदेश तथा वर्तमान छत्तीसगढ़ में लक्ष्मी पूजा के लिए बड़ी मात्रा में लक्ष्मीसार अर्थात लक्ष्मी देवी की प्रतिमा सहित दीपक बनाए जाते हैं।

जिस प्रकार दक्षिण भारत में पीतल एवं कांसे के अद्भुत दीपक बनाये जाते हैं उसी प्रकार छत्तीगढ़, बस्तर के लोहारों ने लोहे के अलंकृत दिये बनाने में आश्चर्यजनक सफलता पायी है। सन १९८० के पहले तक अविभाजित मध्यप्रदेशमें समूचे बस्तर, गोंडवाना और उससे लगे हुए इलाकों में अलंकृत लौह दीपक बनाए जाते थे।भारतभवन,भोपाल के लिए किये गए आदिवासी .लोक कला संग्रह के अभियान में मंडला, रायगढ़ एवं सरगुजा क्षेत्रों के भी अलंकृत लौह दीपक एकत्रित किये गए थे।धीरे .धीरे यह परम्परा अन्य स्थानों से विलुप्त हो गयी वर्तमान में केवल बस्तर क्षेत्र तक ही यह सिमित है।

लामन दिया , बस्तर 

 

छत्तीसगढ़ के अधिकांश आदिवासी समुदायों के लिए विभिन्न प्रकार की प्रतिमाए, उपकरण, आभूषण, कपड़े एवं देवी देवताओं को अर्पित की जा सकने वाली सामाग्री गावं के व्यवसासिक समुदाय बनाते हैं। इस दृष्टि से बस्तर जिले के व्यवसायिक समुदाय लोहार एवं घढ़वा अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यूं तो सारे बस्तर में लोहार फैले हुए है, किन्तु कलात्मक सूझ-बूझ और तकनीकी कौशल की दृष्टि से कोंण्डागांव क्षेत्र के लोहार अत्यन्त उच्च श्रेणी में आते हैं।हालांकि कलाओं के व्यवसायिकरण ने बस्तर के लोहारों को भी प्रभावित किया है और उनकी कला में अतिरिक्त सजावटीपन तथा व्यवसायिक सतहीपन का समावेश हुआ है, किन्तु जो कृतियां वे स्थानीय ग्रामीणों के लिए बनाते हैं वे अब भी उतनी ही ओजपूर्ण होती हैं जैसी कि उनके पूर्वज बनाते थे।

अधिकांश लोहार कहते हैं कि अब तो उनकी बनाई हुई लोहे की कृतियां शहरों में बिकने लगीं हैं, किन्तु पहले वे स्थानीय लोगों के लिए बनाई जाती थीं। शहरों में इनकी बिक्री से ग्रामीण लोहारों को बहुत आर्थिक लाभ हुआ है। साथ ही शहरी ग्रहाकों द्वारा पुरानें ढंग के काम की मांग करने से लोहारों ने अनेक ऐसी पुरानी परंपरागत चीजें भी पुनः बनाना आरम्भ कर दिया है जिन्हे वे भूलते जा रहे थे।

बस्तर के लोहारों द्वारा निर्मित अनुष्ठानिक दिये अपनी बनावट में सामान्य दीपकों से अलग और विशिष्ट होते हैं। यह आनुष्ठानिक दिए अनेक प्रकार के होते हैं। उपयोग के अुनसार इन्हे निम्न समूहों में बांटा जा सकता है।

  • दैनिक उपयोग हेतु
  • देवी . देवताओं केअर्पण हेतु
  • जादू-टोना उतारने हेतु   
  • विवाह अनुष्ठान हेतु                       
  • मृतक अनुष्ठान हेतु

 

दैनिक उपयोग के दिये

दैनिक उपयोग में लोहे के बने सादा दिये जलाए जाते हैं इन्हे लामन दिया कहते हैं। इसकी डण्डी लम्बी होती है। यह एक बत्ती का लम्बी छड़ वाला सादा दिया होता है, इसमे कभी-कभी हल्की सजावट भी की जाती है।

लामन दिया

विवाह अनुष्ठान हेतु दिये      

विवाह संस्कार हेतु बनाए जाने वाले दीयों का प्रचलन माड़िया, मुरिया, गौण्ड, भतरा, आदिवासियों में अधिक है। लोहार कहते हैं अब इनका प्रचलन बहुत कम हो गया है वरना 30-35 वर्ष पहले तो इन दीयों के बिना विवाह संस्कार होना अंसभव समझा जाता था।

विवाह संस्कारों के लिए खुंटदिया, दइजदिया और झोपदिया और सुपली दिया प्रयोग में लाया जाता है। खुंटदिया चार-पांच फिट ऊंचा होता है इस में लोहे की एक छड़ के शीर्ष पर लगाई गयी एक चौखट में नौ, ग्यारह, पन्द्रह या इक्कीस दीपक जोड़ दिए जाते हैं। इसमें चाँद, सूरज, आदमी, घोड़ा, हिरन बनाते हैं। इसे विवाह मण्डप के बीच गाड़ा जाता है। खुंटदिया, वर के माता-पिता बनवाते हैं, उनका गोतया लोहार इसे बनाकर वधु के घर लाता है, स्थापित करता है और जलाता है। विवाह के फेरे यहीं संपन्न होते हैं। वर का पिता विवाह के बाद इसे वापस अपने साथ ले आता है। यह वर के घरवालों की पंसद पर निर्भर करता है कि वह किस डिजाइन का खुंटदिया बनवाएं।

खुँट दिया , बस्तर 

 

अन्य समुदायों जैसे कलार, कोष्टा, धाकड़, हलबा, राऊत, पनिका और कुम्हार आदि में बेटी के विवाह के समय वधु के माता-पिता लामनदिया जिसे दइजदिया भी कहते हैं, बनवाते हैं। यह डेढ़ से दो फिट ऊंचा होता है जिसमें मध्यछड़ पर दिये एंव अन्य मोटिफ जोड़ दिए जाते हैं। मुख्य दिया एक या तीन बाती का बनाया जाता है। इसमें चांद-सूरज तथा कुछ मानव एवं पशु आकृतियां भी बनादी जाती हैं।लामनदिया पर अधिक अलंकरण नहीं किया जाता।

विश्वास करतेहैं कि चांद-सूरज के मोटिफ शुभ होते हैं, जिस प्रकार चांद-सूरज दुनिया में उजाला फैलाते हैं उसी प्रकार ये कन्या के जीवन में भी सुख का उजाला फैलाएगें। वर-वधु के माता-पिता बिदाई के समय इसे जला कर वधु को भेंट करते हैं। लामनदिया वधु अपने साथ ससुराल ले जाती है।वहां वह त्योहार एवं विशेष पूजा अनुष्ठान के समय इसे जलाती है। मानव या पशु-पक्षी आकृतियां शोभा के लिए बनाए जाते हैं इनका कोई अन्य अभिप्राय नहीं है।

दइज  दिया , बस्तर 

 

लामनदिया प्रत्येक कन्या के विवाह के समय नया बनवाना पड़ता है परन्तु खुंटदिया प्रत्येक बेटे के विवाह के समय नया बनवाना आवश्यक नहीं है। एक ही खुंटदिया का प्रयोग अनेक विवाहों के लिए किया जा सकता है।

लोहार, शनिवार को विवाह के लिए बनाए जाने वाले दिये को बनाना आरंभ नहीं करते, इसे अशुभ माना जाता है। इतवार, बुध एवं मंगलवार इस काम को आरंभ करने हेतु शुभ माने जाते हैं। दिये बनवाने लोग अपने गोतया लोहार के पास ही जाते हैं। यह दिये रेडीमेड बने कभी नहीं खरीदे जाते, आर्डर देकर विशेषरूप से ही बनवाए जाते हैं। कोई सम्पन्न व्यक्ति लोहार को इन्हें बनाने की बनवाई स्वरुप बैल, बकरी भी दे देते हैं।

देवी-देवताओं हेतु दिये 

जोति दिया, देवी-देवताओं से जनसाधारण के कष्टों के निवारण हेतु सिरहा द्वारा,  पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने का एक माध्यम होता है। एक प्रकार से यह दिया किसी तथ्य पर देवी की सहमति अथवा असहमति व्यक्त करने का मौन संकेत देता है। यह एक साधारण दिया है जिसे लटकाने के लिए  एक लम्बी डंडी जुड़ी रहती है। जोति दिया बस्तर में लगभग प्रत्येक घर या गांव के देवस्थान का महत्वपूर्ण अंग होता है। इस दिये की सहायता से गुनिया देवी का आहवान करता है और उससे पूछता है कि घर मालिक परआए संकट, बीमारी का कारण क्या है।गुनिया ,देवस्थान में देवी के आरूप के सामने, दो खूंटे गाड़ता है और उनके मध्य एक रस्सी बांधकर जोति दिये को इससे लटका देता है।अब वह जोति दिये को प्रज्वलित करके देवी से प्रश्न पूछने आरंभ करता है। यदि देवी किसी बात पर सहमत होती है तो दिया स्वतः ही हिलने लगता है। यह इस बात का संकेत है कि देवी ने कष्ट निवारण का यह उपाय ,स्वीकृत कर दिया है तथा पीड़ित व्यक्ति को इस उपाय के अनुसार कार्य करना है।

जोति दिया , बस्तर 

 

जोति दिया का प्रयोग जादू-टोना का असर दूर करने के लिए भी किया जाता है। इसकी सहायता से सिरहा किये गए जादू-टोने का प्रकार एवं उसका वेग, देवी से पूछकर उसके निराकरण के लिए किए जाने वाले आनुष्ठान की स्वीकृति लेता है तथा उसे पूरा कर पीड़ित से जादू-टोना दूर करता है।

सामान्यतः जोति दिया पर किसी भी प्रकार का अलंकरण नही होता।

मृतक संस्कार हेतु दिये

मृतकों के मृत्यु संस्कार पूरे करने हेतु बनाये जाने वाले आनुष्ठानिक दिये, मरनी दिये कहलाते हैं।मरनी दिया का प्रचलन बस्तर के गैर-आदिवासी हिन्दू समुदायों में नही है।इसका प्रचलन माड़िया, मुरिया, गौण्ड आदि आदिवासयिों में अधिक है। मरनी दिया दो फिट से चार फिट तक उंचा बनाया जाता है। इसमें मध्य छड़ के चारों ओर जोडे़ जाने वाले दियों की संख्या सम और विषम दौनों ही हो सकती है। इसमें चांद-सूरज के अभिप्राय बनाना आवश्यक नहीं है। सामान्यतः सज्जा हेतु मानव एवं पशु पक्षी आकृतियां बनाते हैं परन्तु अधिक अलंकरण नहीं करते। मरनी दिया, पुरूष-स्त्रियों दौनों ही के लिए बनाया जा सकता है।सम्पन्न परिवार के प्रतिष्ठित बुजुर्ग की मृत्यु होने पर इसका बनवाया जाना आवश्यक मानते हैं।

मरनी  दिया , बस्तर 

 

मरनी दिया केवल मृतक की स्मृति के लिए ही बनवाया जाता है इसका कोई अन्य कारण नहीं होता। गौण्ड एवं मुरिया भी इसी तथ्य की पुष्टी करते हैं। मुरिया एवं गौण्ड आदिवासियों  में मृतक के मट्ठ(कब्र) पर मरनी दिया स्थापित करने का रिवाज बहुत लोकप्रिय है। मृतक का भाई या पुत्र और यदि मृतक स्त्री है तो उसका पति या पुत्र इसे बनवाता और स्थापित करवाता है। मरनी दिया, मृतक के नहानी संस्कार के समय जो मृत्यु के सात या नौ दिन बाद किया जाता है, को स्थापित किया जाता है। इस दिन रिश्तेदार, मित्र आमंत्रित किए जाते हैं बकरे की बलि दी जाती है तथा सामूहिक भोज आयोजित किया जाता है। नहानी एक प्रकार का मृत्यु संस्कार है जिसके आयोजन के साथ मृतक के समस्त मृत्यु संस्कार सम्पन्न हो जाते हैं।

नहानी का दिन निश्चित हो जाने पर मृतक के घरवाले लोहार को इसकी सूचना देते हैं और मरनी दिया बना कर श्मशान स्थान पहुंचने को कहते हैं। लोहार निश्चित दिन एवं समय पर मरनी दिया लेकर पहुचता है और वही उसे मट्ठ पर स्थापित करता है। मृतक को  मट्ठ पूर्व-पश्चिम दिशा में बनाते हैं और मरनी दिया पश्चिम की तरफ गाड़ते हैं।

मरनी दिया बनाने एवं स्थापित करने के बदले लोहार को नए वस्त्र, कुछ रूपये, पूरे दिन का खाना-पीना दिया जाता है।

मरनी  दिया , बस्तर 

 

अनेक बार मृतक के घर के लोग बताते हैं कि उनके वंश में किस ढंग का मरनी दिया बनवाया जाता है अतः लोहार वैसा ही बनाते हैं। मृतक के लिए स्थापित मरनी दिया को प्रत्येक त्यौहार पर, परिवार में होने वाले विवाह आदि शुभ अवसर पर, मृतक की बरसी पर और पितरों की वार्षिक पूजा के अवसर पर प्रज्वलित किया जाता है और विश्वास किया जाता है कि इससे उसे परलोक में भी रोशनी और खुशी प्राप्त होगी।

बस्तरके केसकाल क्षेत्र के गांवों में मरनी दिया का प्रचलन बहुतअधिक है।

उपरोक्त सभी प्रकार के अलंकृत दीयों को विभिन्न अभिप्रायों की सज्जा से सुशोभित किया जाता है जो निम्न हैं:-

ककनीः दीपकों का बुनियादी आकर लोहे की पत्तियों से बनाया जाता है।इन लोहे की पत्तियों जिनके एक किनारे पर त्रिभुजाकार कंगूरे काटे जाते हैं, ककनी कहलाते हैं । यह शोभा के लिए बनाए जाते हैं।

पीकड़ पानः पीपल वृक्ष की पत्तियां पीकड़ पान कहलाती हैं।इन्हे झालर के रूप में लटकाया जाता है।इसे पवित्र माना जाता है।

बोरः सूर्य की आकृति बोर कहलाती है। इसे पवित्र माना जाता है।

जोनः चन्द्रमा की आकृति जोन कहलाती है। इसे पवित्र माना जाता है।

बदक,मुर्गी,बकरी,हिरणः इन्हे देवी देवता को बलि दिया जाता है उसी के प्रतीक स्वरूप इन्हें बनाया जाता है।

आदमीः यह दीपक बनवाने वाले का प्रतिनिधित्व करता है।

पुजारीः यह आनुष्ठान संपन्न कराने वाले पुजारी को दर्शाता है।

छत्रः यह देवी को अर्पित किया जाता है तथा उसके वैभव का प्रतीक है।

घोड़ाः यह ग्रामदेवता रावदेव का प्रतीक है।

बन्दरः इन्हे पवित्र माना जाता है।

इनके अतिरिक्त अन्य सजावटी अभिप्राय भी कभी-कभी देखने को मिलते हैं।

 

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.