बस्तर के आदिवासियों के निराकार देवी-देवताओं की प्रतिमाएं कब और कैसे बनाई जानी आरम्भ हुई एक विवादास्पद मुद्दा है, परन्तु इनके विकास में यहाँ के प्रस्तर शिल्पी लोहार एवं धातु शिल्पी घढ़वा लोगों का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा है। क्योंकि यह मूर्तियां सामान्यतः के किसी लोहार एवं घढ़वा द्वारा बनवा ली जाती है। सन १९६०-७० के दशक में बस्तर में बाबा बिहारी दास (कंठी वाले बाबा) के बढते हुए प्रभव के साथ-साथ आदिवासियों में हिन्दू देवी-देवताओ को पूजने का चलन बढ़ा। जिसके परिणाम स्वरुप गांव के अधिकतर घरों में तुलसी चौरा और उसके पास पत्थर के बने शिवलिंग, नंदी , गणेश ओर हनुमान की मूतियां दिखाई देने लगीं हैं। यह सभी मूर्तियां पत्थर से बनाई जाती हैं।
देव युगल झिटकू -मिटकी
बूढ़ी माता
शिवलिंग
प्रस्तुत फोटो कोंडागांव के पास स्थित देवगुढ़ी का है जहाँ मिली प्राचीन जैन तीर्थंकर की मूर्तियों को स्थानीय देवी के रूप में पूजा जा रहा है
कुछ समयपूर्व तक पत्थर की मूर्तियां तो केवल आवश्यकता पड़ने पर ही बनवाई जाती थीं । इस कारण इन मूर्तियों में एक तरह का सादापन और सहजता दिखती है । इनमें तकनिकी कौशल की जगह पत्थर की सतह पर स्थन के अनुरूप् आकृतियों के बनाने की कल्पनाशीलता अधिक ध्यान खींचती है । मूर्तियो में देवी-देवतओं का शरीर ठिगना, चेहरा फूला हुआ गोल, सिर पर माड़िया नर्तको द्वारा बांधे जाने वाले पीतल के पट्टे जैसा मुकट, भौरीदार बड़े कान, गले में माला बनाई जाती है। कुछ कारीगर पत्थर की मूर्तियों में घढवाओं द्वारा पीतल में बनाई जाने वाली मूर्तियों की नकल भी करते हैं । इसमें शक नही कि प्रस्तर मूर्तियों की बस्तर में एक विशेष शैली है जो इन्हे अपनी विशिष्ट पहचान देती है । इन मूर्तियों की सतह पर पालिश की भी जाती है और कभी नहीं जाती। पालिश के लिए लाल-कत्थई रंग का पत्थर उपयुक्त माना जाता है। सफ़ेद पत्थर पर कभी भी पालिश नहीं की जाती।
पिछले कुछ वर्षों से बस्तर में शहरी ग्राहकों को बिक्री के लिए बहुत तरह की पत्थर की मूर्तिया बनाई जा रही है । बस्तर गांव, एकटागुढा, जगदलपुर और कोण्डागांव में बहुत से कारीगर इस काम में जुटे हैं। सन १९८० के बाद प्रस्तर शिल्प में संभावनाओं को देखते हुए शासकीय विभागों द्वारा इस शिल्प के प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये गए।
कुछ समय से सीमेंट -कंक्रीट से बनी मूर्तियां भी प्रचलन में आई हैं परन्तु पत्थर की मूर्तियाों की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है।
दंतेश्वरी माता
दंतेश्वरी बस्तर के काकतीय राजाओं की इष्ट कुलदवेी थी है । इस कारण इन्हे राजाघर की देवी माना जाता है । राजपरिवार ने बस्तर की अनेक जमींदारियो के मुख्यालयों में दंतेशवरी के मंदिर स्थापित कराए जिनमे पत्थर की मूतियां स्थापित कराई गयी थीं। इनमें दंतेवाडा स्थित दंतेश्वरी मंदिर सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण है । यंहा बहुत सुंदर और बड़ी प्रस्तर प्रतिमा है । सभी प्रमुख गांवो में इनका मंदिर होता है। बस्तर की प्रमुख देवी है। दशहरे पर निकलने वाले रथ पर इनके नाम का छत्र निकाला जाता है। इन्हे बकरा, मुर्गा, भैंसा आदि बलि दिया जाता है। इनकी प्रतिमा में सिर पर मुकुट धारण किए, चार भुजाओं वाला बनाया जाता है। हाथों में हज़ारी फूल, ढाल, खप्पर, बनाये जाते हैं। देंतेश्वरी माता के साथ में शेर या हाथी बनाया जाता है ।
सीतलामाता
सीतलामाता को चेचक का स्वामी माना जाता है जो गुस्सा होने पर गांव में चेचक की बीमारी लाती है । यह अधिकांश गांवों में सामूहिक रूप से पूजी जाती हैं। वर्ष में एक बार इन्हे बकरा बलि दिया जाता है । इन्हे मूर्ति में दो भुजा या चार भुजा वाला बनाया जाता है । इनके मंदिर में लोहे के त्रिशुल चढाए जाते हैं ।
गोण्डिन माता
ये बस्तर के आदिवासियों की प्रभावशाली और लोकप्रिय देवी है, इन्हे अकेला अथवा इनके पति के साथ बनाया जाता है । इन्हे झिटकू-मिटकी तथा पैंड्राऔण्डनी भी कहा जाता है कहते है गौण्डीन माता का जन्म पैंड्राऔण्ड नामक गांव में एक गौण्ड परिवार में हुआ था । इन्हे गप्पा घसिन माता भी कहा जाता है ।
जब मूतियों में इस देवयुगल को बनाया जाता है तब देव हाथ में टंगिया लिये रहता है और माता बंगल में टोकरी दबाए हाथ में सब्बल पकड़े रहती है ।
बूढ़ी माता : इस माता देवी की मूर्ति में इन्हे दाहिने हाथ में खांडा (तलवार) , बायें हाथ में झुमकी बड़गी ( एक बड़ी लाठी ) जिसके उपरे सिरे पर फूला हुआ गोला बना होता है, बनाया जाता है। इनके सिर पर मुकुट, गले में माला, दोनों कंधों को जोड़ती गोल वहाड़ी बनायी जाती है। इनका स्थान गांव की मातागुढी में होता है। प्रत्येक वर्ष माघ या चैत्र माह में शनि या मंगलवार को इसकी पूजा होती है। लोग स्वत: अपने घर में भी इन्हे पूजते हैं। वे अपने घर के गुढी में भी इसका स्थान बना लेते हैं। किसी भी बीमारी या संकट के समय इसकी मान्यता करते हैं। इसे बकरा, मुर्गा चढ़ाते हैं।
खाण्डा कंकालिन माता: इस देवी की मूर्ति में इनके दो या चार हाथ बनाये जाते हैं , दो से सिर पर रखे खप्पर को पकड़े रहती हैं और दो हाथ में तलवार- ढाल पकड़े बनाया जाता है। कई बार इसे जीभ बाहर निकाले हुए भी बनाया जाता है। हाथ में पकड़ी तलवार विशेष आकार की होने के कारण खाण्डा कहलाती है। इसलिए इसे खण्डा कंकालिन माता भी कहते है। इनका मंदिर भी अलग बनाया जाता है। परन्तु कभी इन्हे घर में भी पूजा जाता है। इनकी पूजा प्रत्येक शनिवार और मंगलवार को की जाती है। बकरा, मेंढ़ा बलि दिया जाता है। चेचक के समय इन्हे विशेष रूप से पूजा जाता है।
मावली माता : प्रतिमा में इसे सिर पर मुकुट, दाये हाथ में ढाल त्रिशूल ,बायें हाथ में खप्पर जिसमें चावल, नारियल , फूल रखने के लिए बनाया जाता है। इसे आसन यानि हाथी पर बैठा या रथ पर बैठा बनाते हैं । दोनों कंधों को जोड़ती वहाड़ी बनाई जाती है। इस देवी का प्रमुख स्थान जगदलपुर में है। गांव की मातागुढी में भी इसका स्थान होता है। कई धनवान लोग इसे अपने घर में भी पूजते हैं । दशहरा में इसकी पूजा होती है। पहले इसे नरबलि दी जाती थी, अब बकरा, मेढक, भैसा आदि बलि देते हैं । गांव से सरे लोग चंदा करके इन्हे दशहरे पर बलि देते हैं । सारे बस्तर की रक्षक देवी मानी जाती है। मावली माता गोंड आदिवासियों की अति प्रमुख मातृदेवी है। इस देवी का वर्त्तमान निवास स्थान मावली पठार में है।आदिवासियों का विश्वास है कि मावली माता दंतेश्वरी देवी की बुआ लगती है और इस कारण उनका स्थान दंतेश्वरी देवी के ऊपर है।
परदेसिन माता: इनकी प्रतिमा में इन्हें सिर पर मुकुट धारण किए हुए, हाथ में खप्पर एवं त्रिशूल लिए बनाया जाता है।
हिंगलाजिन माता : एक हाथ में खीले तथा दूसरे में रक्त भरा खप्पर अथवा प्याला लिए होती है। इनका निवास ग्राम केसरपाल, बैगनगांव तथा कोण्डागांव में माना जाता है।
तेलंगिन माता: देवी के हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे में रक्त खप्पर है। इनका वास केशकाल घाट है।
बंजारन माता: घाघरा और कान में कुण्डल पहने इस देवी के एक हाथ में मयूरपंखी का पंखा तथा दूसरे हाथ में थाली है। इस देवी को बंजारा आदिवासी मानते है, जो चान्दा तथा गोदावरी नदी से जाने वाले पुरातन व्यापारिक मार्ग में कार्यशील रहे हैं।
झिटकु और मिटकी: इस देव युगल के अनेक नाम हैं। इन्हें डोकरा-डोकरी, डोकरी देव, गप्पा घसिन, दुरपत्ती माई, पैंड्राऔण्डनी माता, गौडिन देवी और बूढ़ी माई भी कहा जाता हैं। इनकी प्रतिमा में देवी माता को सिर पर मुकुट धारण किए, कान में खिलंवा पहने, बायें हाथ में सब्बल और टोकरी लिए बनाया जाता हैं। जब इन्हें देव युगल झिटक-मिटकी के रूप में बनाया जाता है, तब इन दोनों को एक दूसरे का हाथ पकड़े बनाया जाता है। झिटकू को सिर पर पगड़ी, दायें हाथ में टंगिया लिए तथा दोनों के बीच में एक त्रिशूल बनाया जाता है। आह्वान के समय जब यह देवी सिरहा पर आती है, तब वह नुकीले त्रिशूल की नोक पर पेट के बल लेट कर फिरकी की तरह घूमता है। यह उसकी सत्यता की पहचान होती है।
किवदंती के अनुसार पैंड्राऔण्ड ग्राम में मिटकि अपने सात भाईयों के साथ रहती थी। वह भाइयों से छोटी थी। उसके विवाह के लिए झिटकु लमसेना, जवाई के रूप में उसके यहां तीन वर्ष तक रह कर घर का कार्य करता रहा। बाद में उनका विवाह हो गया और उन्होंने अपना अलग घर बसाया। एक बार झिटकु और मिटकी के सातों भाइयों ने मिलकर एक बांध बनाया। जब बांध बन गया तब रात को देवी ने सपने में मिटकी के भाइयों से कहा कि तुम मुझे नरबलि दो तभी यह बांध सफल होगा। उन लोगों ने सभी प्रकार के प्रयत्न किये पर उन्हें बलि के लिए आदमी नहीं मिला। तब उन्होंने सोचा कि क्यों न झिटकु को बलि दे दिया जाये। यह सोचकर उन्होंने झिटकु की बलि चढ़ा दिया और उसका शरीर खेत की मेढ पर जमीन में गाड़ दिया।
जब शाम हुई और सातों भाई घर लौट कर गए तो मिटकी ने पूछा उसका पति क्यों नहीं आया। तब भाई बोले कि वे तो तालाब में उसे नहाता छोड़ कर घर चले आये हैं। पर जब रात तक झिटकु नहीं लौटा, तो मिटकि सब्बल और टोकरी लेकर झिटकु को ढूंढने निकली। चांदनी रात थी। उसने देखा कि एक स्थान पर झिटकु की उंगली मिट्टी से बाहर निकली हुई है। तब उसने सब्बल से जमीन खोदी और झिटकु के लाश को बाहर निकाला। झिटकु का अपने भाईयों द्वारा बलि दिए जाने से वह इतनी दुखी हुई की वहीं एक पेड़ से लटक कर फांसी लगाकर उसने आत्महत्या कर ली। तभी से बस्तर में ये देव युगल रूप में पूजे जाने लगे। इसके वंशज आज भी पैंड्राऔण्ड गांव में रहते हैं तथा इन देव पर चढ़ाया गया समस्त धन उन्हें समर्पित किया जाता है। यदि कोई अन्य उस धन का उपयोग करे तो देव उसे सताते है।
ये धन सम्पदा के देवता है। इन्हें सोना, चांदी, रूपया, लोहे का सब्बल, कौढ़ी की टोकरी आदि चढ़ाते हैं। माघ माह में इतवार को इनकी जात्रा की जाती है तथा बकरा, मुर्गा आदि बलि दिया जाता है। झिटकु को सुअर चढ़ाया जाता है। इनका प्रमुख मंदिर पैण्ड्राऔण्ड गांव में है। कुछ लोग घर में भी इन्हे पूजते हैं।
भैरमदेव: यह पुरुष देव है। इसे हाथ में तलवार ढाल लिये खड़ा बनाया जाता है। इसे घुड़सवार नहीं बनाया जाता क्युँकि वह घोड़े पर कभी नहीं बैठता।
राव भंगाराम: इस अश्वरोही पुरुष देवता के एक हाथ में तलवार तथा दूसरे में कभी-कभी ढाल रहती है। केशकाल घाट का उतरी क्षेत्र इसका मुख्य निवास स्थान है।
बस्तर के कुछ देवी-देवता ऐसे है जिनके बारे में कुछ विवरण मिलता है परन्तु इनकी मूर्तियों की कोई विशिष्ठ पहचान नहीं हैं। जिनके घर में अपना देव स्थान होता है वे अपने पूर्वजो से यह तो जान लेते है कि उनके घर में किन-किन देवी-देवताओं का स्थान है परन्तु वे यह नहीं जानते है कि कौन सी मूर्ति किस देवी या देवता की है।
हनुमान: हांलाकि बस्तर के आदिवासी रामायण से उतने परिचित नहीं है परन्तु ग्रामीण और आदिवासियों में हनुमान बहुत पूज्य हैं। गांव के किसी वृक्ष के नीचे या घर के आंगन में तुलसी चैरा के पास हनुमान की मूर्ति देखी जा सकती है। कभी हनुमान के साथ उनकी मां की भी मूर्ति बनाई जाती है ।
शेर: देव गुडी के दरवाजे पर पत्थर से बनी शेर की मूर्तियां रखने का प्रचलन बस्तर काफी पुराना है और लोकप्रिय भी। शेर की यहाँ अनेक प्रकार की मूर्तियां बनाई जाती हैं।आरम्भ में दंतेश्वरी को हाथी पर सवार दर्शाया जाता रहा है। बस्तर की पुरानी धातु मूर्तियों में अधिकांशतः दंतेश्वरी देवी हाथी पर सवार बनाई गयी है। बाद में दंतेश्वरी एवं अन्य देवियों को दुर्गा का ही रूप कल्पित किया होने लगा। इससे देवी दुर्गा का वाहन शेर अन्य देवियों के साथ जुड़ गया। कालांतर में देवस्थानों के बाहर बाघ अथवा शेर बनाने का प्रचलन इतना लोकप्रिय हो गया कि किसी भी देवी-देवता के स्थान में इन्हें बनाया जाने लगा। अनेक स्थानों पर मिट्टी, सीमेंट कंक्रीट अथवा पत्थर से बनी शेर की मूर्तियां देखी जा सकती हैं।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.