जंगलों के घटने एवं बढ़ते शहरीकरण ने आदिवासियों को ग्रामिण हिन्दू संस्कृति के नजदीक ला दिया और परिणाम स्वरूप आदिवासियों के निराकार देवी-देवता जो अनगढ़ पत्थरों, लकड़ी के टुकड़ों आदि के रूप में पूजे जाते थे उनका स्थान मानवरूप प्रतिमाओं ने ले लिया। शीघ्र ही पीतल, लकड़ी, पत्थर एवं मिट्टी की बनी प्रतिमाएं उनके देवस्थानों में विराजमान हो गई।आदिवासी अपने सामान्य उपयोग की वस्तुएं तो स्वयं बना लेते थे परन्तु उनमें इतनी तकनिकी दक्षता नहीं थी कि वे भट्ठी जलाकर मिट्टी एवं धातु की प्रतिमाएंए आभूषण एवं अन्य उपयोगी वस्तुएं बना सकें। अतः उन्होंने ग्रामीण व्यवसायिक जातियों के शिल्पियों को अपना लिया। यह शिल्पी व्यवसायिक जातियों जैसे लुहार, कुम्हार, धातु शिल्पी, सुनार आदि जनजाति बहुल क्षेत्रों में आदिवासी समाज का अभिन्न अंग बन गई। उन्होंने अपने आदिवासी उपभोक्ताओं के रीति-रिवाज, जीवनदर्शन एवं विश्वदर्शन को पूर्णतः आत्मसात कर लिया। इस प्रकार आदिवासी उपभोक्ताओं एवं व्यवसायिक शिल्पियों के मध्य एक रोचक तथा जीवन्त रिश्ता विकसित हो गया और आदिवासी क्षेत्रों के व्यवसायिक शिल्पी अपने मूल जातिगत विश्वासों एवं अभिरूचियों के साथ-साथ आदिवासी अभिरूचियों एवं जीवन शैली में रम गए। कालान्तर में यह शिल्पी आदिवासी समाज का अभिन्न अंग बन गए। वे आदिवासी मिथकों, किंवदंतियों जादू-टोनों, पूजा अनुष्ठानों से इस तरह जुड़ गए कि उनकी बनाई धातु प्रतिमा, मिट्टी की अनुष्ठानिक मूर्तिया, गहनें आदिवासी कला की अभिव्यक्ति माने जाने लगे और आज उन्हें आदिवासी कला के रूप में ही पहचाना जाता है। वैरियर एल्विन एवं श्रीमती पुपुल जयकर जैसे विद्वानों नें आदिवासी कला के इस पक्ष को भलीभांति समझा और रेखांकित किया है।
आदिवासी ग्रामीण समाज में प्रत्येक आदिवासी कृषक परिवार के इन व्यवसायिक जाति के शिल्पियों से कुटुम्ब संबंध होते हैं जो छत्तीसगढ़ में गोतया सम्बन्ध कहलाते हैं। इनके अंतर्गत कुम्हार वर्ष भर अपने गोतया परिवार को मिट्टी के बरतन एवं अनुष्ठानों हेतु आवश्यक मूर्तिया आदि बनाकर देता है और फसल पकने पर कृषक फसल का एक हिस्सा कुम्हार को देता है। यही व्यवस्था गाव के लुहार एवं धातुशिल्पी के साथ होती है। यह सम्बन्ध पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं। वर्तमान में इस व्यवस्था में कमी आई है परन्तु अब भी यह प्रचलन में है। इस प्रकार के सामाजिक ताने-बाने के चलते भी इन शिल्पियों द्वारा बनाई जाने वाली शिल्प कृतियों को आदिवासी पारम्परिक कला से अलग नहीं किया जा सकता।
वेरियर एल्विन ने मध्य भारत की जन-जातिय संस्कृतियों विशेष, रूप से बस्तर के माडिया एवं मुरिया जन-जातियों की कला एवं संस्कृति की विस्तृत जानकारियां अपनी पुस्तकों में उपलब्ध कराई हैं। विशेष रूप से उनकी पुस्तक ‘ट्राइबल आर्ट ऑफ़ मिडिल इंडिया’ में इस क्षेत्र की आदिवासी कलाओं का सुन्दर विवरण दिया गया है। 1955 में प्रकाशित इस पुस्तक में बस्तर के काष्ठशिल्प, लोह शिल्प, प्रस्तर शिल्प, मृण-शिल्प, कपड़ा बुनाई एवं आभूषण बनाने जैसी कलाओं का सविस्तार उल्लेख किया है।
बस्तर के स्थानिय लेखक प. केदार नाथ ठाकुर ने 'बस्तर भूषण' नामक अपनी पुस्तक में यहां-वहां बस्तर की हस्तकलाओं का प्राथमिक एवं जैसा जहां देखा वैसा विवरण दर्ज किया है । जैसे वे लिखते है बस्तर राज्य के आदि निवासी माड़िया परजा, गदबा और मुरिया लोग गांव के किनारे कुछ दूरी पर एक मकान बनाते है इसमें देव-देवी की मूर्ति रखते है मूर्ति के अभाव में पत्थर रखकर पूजते है, मूर्ति के साथ त्रिशूल गाड़ते है गुढी के सामने दरवाजे में एक बड़ा खम्बा गाड़कर उसमें ध्वजा बांद देते है। सामने में लकड़ी का झूला जिसमे लोहे के कांटे बेतादाद लगे रहते है, बनाकर रखा जाता है।
बस्तर में प्रस्तर शिल्प का अस्तित्व प्राचीन समय से लक्षित होता है। आरम्भ में जब यहाँ के आदिवासी पत्थर को तराशकर उसे कोई रूप देना नही जानते थे या उसे रूप दे पाने के कौशल मे माहिर नही थे तब वे अनघढ़ पत्थरों से ही अनुष्ठान पूरे कर लेते थे। आज भी अनेक गांवों में देवी देवताओं के नाम के पत्थर ही रख दिए गए है। माड़िया आदिवासी अपने परिवार के किसी व्यक्ति के मरने पर उसके नाम का एक प्रस्तर स्तम्भ अथवा बड़ा पत्थर स्थापति कर देते थे। बाद में यह मृतक स्तंभ नक्काशीदार बनाए जाने लगे।
अधिकांश स्थानीय विद्वान् मानते हैं कि, नारायणपाल एवं बारसूर के मंदिरों में किया गया पत्थर का काम बस्तर के बाहर से लाये गए कारीगरों द्वारा किया गया है। बस्तर क्षेत्र में बुद्ध एवं जैन धर्म से सम्बंधित प्रस्तर प्रतिमाओं अवशेष भी मिलते हैं। कोंडागांव के पास मुख्य किनारे स्थित देवी के स्थान में आज भी प्राचीन खंडित किसी जैन तीर्थंकर की प्रतिमा को देवी प्रतिमा मानकर पूजा जा रहा है। यह मूर्तियां किन शिल्पियों ने बनाई किसी को ज्ञात नहीं, इनके वंशज कौन हैं, वे कहाँ गए कुछ ज्ञात नहीं।
समय के साथ कौशल एवं माध्यमों का विकास होता है जिसका प्रभाव उस क्षेत्र की हस्तकलाओं पर भी पड़ता है। बस्तर में मूर्तियों का जन सामान्य में प्रचलन में आना इस क्षेत्र में एक बहुत बड़ा परिवर्तन रहा होगा। बस्तर क्षेत्र के बढ़ई और मुरिया आदिवासी लकड़ी की नक्काशी और मूर्तियां बना रहे थे। पर उन्होंने पत्थर पर नक्काशी का काम नहीं अपनाया था। आज भी कोई मुरिया पत्थर का काम नहीं कर रहा। पिछले अनेक वर्षों से और वर्तमान में भी केवल लोहार जाति के कुछ शिल्पी ही प्रस्तर प्रतिमाएं बना रहे हैं। इन प्रस्तर शिल्पी लोहार परिवारों के सदस्य भी यही बताते हैं कि उनके पुरखे लोहे का काम करते थे, परिवार के लोगों ने कब और कैसे पत्थर का काम आरम्भ कर दिया उन्हें अधिक पता नहीं। सन १९८५ में बस्तर के एकटागुड़ा गांव के जैरम लोहार से इस विषय में काफी चर्चा की थी परन्तु वे भी इसके इतिहास के बारे में अधिक जानकारी नहीं दे सके थे।
पत्थर की मूर्तियां बनाते बस्तर के एकटागुड़ा गांव के लोहार शिल्पी
बस्तर क्षेत्र में प्रस्तर शिल्प के आरम्भ होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि बस्तर गांव के आस-पास के इलाके में एक विशेष प्रकार का बलुआ पत्थर पाया जाता है। सफ़ेद ,हल्के पीले एवं गुलाबी रंग में पाए जाने वाले इस पत्थर का स्वभाव बहुत नरम होता है। इसे किसी धारदार औजार से सरलता से छीला जा सकता है। इसकी तुलना में दंतेवाड़ा क्षेत्र में पाया जाने वाला पत्थर परतदार और कठोर होता है उस पर नक्काशी करना आसान नहीं होता।
बस्तर में पाया जाने वाला विशेष प्रकार का मुलायम पत्थर जिससे मूर्तियां बनाई जाती हैं
पत्थर की अधूरी बनी कुछ मूर्तियां
पत्थर की मूर्तियां बनाने में काम आने वाले औज़ार
पत्थर की मूर्तियां बनाते बस्तर के एकटागुड़ा गांव के लोहार शिल्पी
पत्थर की मूर्तियां बनाते बस्तर के एकटागुड़ा गांव के लोहार शिल्पी
पत्थर की मूर्तियां बनाते बस्तर के एकटागुड़ा गांव के लोहार शिल्पी
बस्तर के एकटागुड़ा गांव के लोहार शिल्पी द्वारा बनाई देवी प्रतिमा
बस्तर में जो पत्थर की मूर्तियां बनाई जा रही हैं उन्हें दो समूहों में रखा जा सकता है। पहला समूह, वह जो जगदपुर से दंतेवाड़ा की ओर के क्षेत्र में माड़िया मृतक स्तम्भों के रूप में देखने को मिलते हैं। दूसरा समूह जो समूचे बस्तर और विशेषरूप से जगदलपुर से कोंडागावं की ओर बढ़ने वाले इलाके में देवी-देवताओं की पत्थर की मूर्तियों के रूप में देखने को मिलता है।
लोहार शिल्पी द्वारा बनाई पत्थर की मूर्तियां
वर्तमान में बस्तर में पत्थर से बनी देवी-देवताओं की मूर्तियों का प्रचलन बढ़ रहा है। देवी मूर्तियों के साथ लाल रंग की चुनरी लगाने का रिवाज बहुत लोकप्रिय हो गया है। अनेक गांवों में पत्थर की मूर्तियां देव गुढी में रखी गई हैं। अधिकांश देव गुढी पक्की मंदिरनुमा बन रहीं हैं।
हाट बाजार में मूर्तियां बेचता लोहार शिल्पी
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.