देवार समुदाय एवं उनकी कलात्मकता / Devars as a performing community

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Published on: 13 December 2018

सोनऊराम निर्मलकर

लेखक , शोधकर्ता एवं सेवानिवृत व्याख्याता।

                     

 

देवार मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ में रहने वाली एक यायावर जाति है। इनकी उत्पत्ति एवं इतिहास के बारे में कुछ ठीक-ठाक ज्ञात नहीं है पर ये एक ग़रीब परन्तु कलाप्रेमी जाति के रूप में जाने जाते रहे हैं। ये मुख्यतः लोक गाथाओं का गायन करके एवं भीख माँगकर, एक जगह से दूसरी जगह घूमते हुए जीविकोपार्जन करते हैं। हालाँकि अब यह स्थाई निवास बनाकर रहने लगे हैं साथ ही इनके लोक ज्ञान के रूप में उपलब्ध लोक गाथाओं को सहेजने एवं इस कला को इनकी जीविका का साधन बनाने के प्रयास हो रहे हैं। इन प्रयासों के चलते देवारों में आ रहे आर्थिक एवं सामाजिक बदलावों की पड़ताल ही इस लेख की विषय-वस्तु है।

 

देवार डेरा

देवर डेरा , शांति नगर, जिला जांजगीर 

 

सदियों से यहाँ-वहाँ भटकने वाली देवार जाति को अब छत्तीसगढ़ के विभिन्न नगरों के तालाबों, नदियों या खुले मैदानों में अपने डेरे तानकर स्थाई रूप से रहने लगी है। इन्हें देवार डेरा कहा जाता है। रायपुर और दुर्ग के देवार डेरे अपनी मूल और परिवर्तनशील संस्कृति के लिए चर्चा के विषय है लेकिन उनकी ग़रीबी की तस्वीर ज्‍यों की त्‍यों है। इन डेरों के आस-पास कूड़े के ढेर व लावारिस जानवरों का मिलना आम बात है। देवार डेरे की एक और अनूठी पहचान यह है कि देवार अपनी खाने-पीने की वस्तुओं को एक खंभे या बाँस को गाड़कर उस पर टाँग देते हैं, ताकि उसे कोई चुरा नहीं सके, और अक्सर इसकी रखवाली में एक कुत्ता होता है।

 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और वंशावली 

 

देवार अपना संबंध छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास से जोड़ते हैं। छत्तीसगढ़ में जब हैहयवंशी राजाओं का शासन चलता था, तब यही देवार रतनपुर के हैहयवंशी राजाओं के दरबार में गायक-कलाकार के रूप में उनका मनोरंजन करते थे, किंतु उन्नीसवीं सदी के भीषण अकाल ने इस संस्कृति और कला प्रिय जाति को मैदानों और तालाबों के किनारे लाकर पटक दिया। तब से यह जाति यहाँ वहाँ भटक रही है। हैहयवंशी राजाओं के दरबार में गायक रह चुके देवारों के वंशज स्वयं को ठुमरू देवार या सारंगी देवार कहते थे। ठुमरू और सारंगी वास्तव में इस जाति की जीविका के साधन वाद्य हैं।  हीरालाल और  रसेल के अनुसार देवार का आशय देवी पूजक होता है या ‘दीया बार’ यानी दीप जलाने वाला। छत्तीसगढ़ के प्राचीन राजाओं से देवार का संबंध होना डॉक्टर रसेल ने भी स्वीकार किया है।

 

फागू देवर , शांति नगर, जिला जांजगीर 

 

छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक और पुरातन नगरी रतनपुर में अब इक्‍के दुक्‍के देवार परिवार ही हैं, लेकिन इनका मूल संबंध इसी नगरी से रहा है। देवार स्वयं को रतनपुर के गोपाल राय का वंशज बताते हैं। कहा जाता है कि गोपाल राय रतनपुर दरबार का एक प्रसिद्ध मल्ल था जो रतनपुर के राजा कल्याण साय  के जमाने में अकबर के दरबार में   दिल्ली गया था। अमूमन किसी राजा या उसकी समकालीन हस्ती के दरबारों का संबंध रहा हो या नहीं किंतु देवार संस्कृति इस सत्य को जरूर उजागर करती है कि वह एक प्राचीन और भटकी हुई जाति है। उन्नीसवीं सदी में आए भीषण अकाल ने देवारों को न केवल दर-दर का भिखारी बना दिया, वरन अपनी संस्कृति को बदलने की मजबूरी भी इनके सामने आ गई।

 

देवारों की जीविका के साधन

 

रायपुर और दुर्ग जिलों के देवार डेरों में रहने वाले अनेक देवार पुरुष और महिलाओं से बातचीत से पता चलता है के वे अब भीख माँग कर किसी तरह अपना गुजारा कर पाते हैं। उन्नीसवीं सदी के अकाल ने उनके भाग्य में यही लिख दिया है। आज भी बच्चे, बूढ़े और जवान देवारों को भीख माँगनी होती है। लेकिन भीख माँगने का तरीका ज़रूर बदल गया है। जीविका के लिए यह लोग बंदरों का खेल दिखाकर या साँपों को नचाकर कुछ कमा लेते हैं।  किसी भी देवार के लिए यह जीविका का साधन अपने आप में पूर्ण नहीं हैं क्योंकि मनोरंजन के फलस्वरूप बंदरों और साँपों का पेट तो भर जाता है, लेकिन देवारों को भूख का सामना करना पड़ता है। इसलिए अब यह जाति सूअर पालन का व्यवसाय भी करने लगी है।

 सूअर पलने का स्थान , देवर डेरा , शांति नगर, जिला जांजगीर 

 

 

 सूअर , देवर डेरा , शांति नगर, जिला जांजगीर 

 

देवारों के लिए सूअर दुधारू गाय के कम महत्वपूर्ण नहीं होता। सूअर की विष्‍टा को खेती-बाड़ी वाले लोग ₹25 से ₹40 प्रति क्विंटल खरीद लेते हैं। उसी प्रकार सूअर के बाल ₹200 से ₹300 किलो के भाव से बिकते हैं। बंदर नचाना, साँप दिखाना, सुअरों के बाल नोचना और उसकी विष्ठा एकत्र करने का कार्य देवार पुरुष ही करते हैं। देवारी स्त्रियाँ गली-गली घूमकर प्लास्टिक के टूटे जूते-चप्पल लेकर बदले में बच्चे के खिलौने, चाय छलनी, नकली मोती और काँच की मालाएँ देती हैं। टूटी-फूटी चप्पल किसी व्यापारी को देकर यह नगद पैसा प्राप्त कर लेती हैं। कुछ बूढ़े देवार सारंगीनुमा वाद्य रुंजू बजा कर भीख माँग लेते हैं। भीख माँगने वालों को 'जोगी देवार' कहा जाता है।

 

धार्मिक व सांस्कृतिक जीवन- 

भीख माँगकर, साँप और बंदर दिखा कर, सूअर पालकर या मजदूरी कर जीविकोपार्जन करने वाली देवार जाति की संस्कृति, सभ्यता और सामाजिक नियम अपने आप में न केवल ठेठ हैं वरन अनोखे भी हैं। देवारों का ईश्वर में पूर्ण विश्वास है। वे दुल्हादेव, भैरव, महामाया, बूढ़ी माता, शीतला, मारकी माता, घुसाई पुसांई, ठाकुर देव, बूढ़ादेव, भैंसासुर, नारायण देव आदि देवी-देवताओं को मानते हैं।

देवारों का विश्वास है कि डेरे की रक्षा तथा बीमारी, भुखमरी और आपदाओं से रक्षा के लिए देवताओं की पूजा ज़रूरी है। देवार जहाँ भी जाते हैं अपने देवी-देवताओं को साथ ले जाते हैं। वे एक चबूतरानुमा चौकी बनाकर ढक्कनदार टोकरी में अपने देवी-देवताओं को बैठा देते हैं।  महापूर्णिमा को देवार जाति चंद्र के नाम से व्रत भी रखती है और चंद्र की पूजा करती है। देवारों के देवता इनके घरों में ही रहते हैं। नारायण देव के नाम पर सूअर की बलि देने की प्रथा भी इनकी जाति में है।

देवार महिलाएँ गोदने की कला में भी पारंगत होती हैं। विवाह आदि के मौके पर या उससे पहले भी वह यह कार्य करती हैं। विशेष बात यह है कि विवाहित और अविवाहित महिलाओं के गोदने के निशान भी अलग-अलग होते हैं। देवार महिलाएँ विशेष अवसरों पर देवार नृत्य करती हैं।

देवार महिलाएं , देवर डेरा , शांति नगर, जिला जांजगीर  

 

देवार जाति में वैशाख और आषाढ़ में पूजा का विशेष महत्व है। दोनों महीनों में सूअर की बलि देवताओं को दी जाती है। वैशाख में होने वाली पूजा को ‘वैशाख पूजा’ कहते हैं। इस पूजा के समय श्मशान में सफेद मूँगा और ठाकुर देव को भेंट चढ़ती है। सूअर (बधिया) की बलि का तरीका भी अनोखा है। सूअर की नाक और मुँह में लाल कपड़ा ठूँस कर उसका सिर ज़मीन में गाड़ दिया जाता है। इस समय देवार परिवार मिल-जुलकर नारायण और अन्य देवताओं की स्‍तुति करते हैं। यह मान्यता भी है बलि से देवता प्रसन्न रहते हैं। बलि के पूर्व सूअर को मीठी खीर और चावल खिलाया जाता है।

विवाह के अवसर पर भी देवारों में सूअर काटने की प्रथा है। इनकी मान्यता है कि विवाह के समय सूअर का माँस परोसना देवारों की संपन्नता का द्योतक है। अगर किसी देवार की मृत्यु हो जाए तो भी सूअर का वध किया जाकर उन सभी लोगों को माँस वितरण किया जाता है जो लोग शव यात्रा में हिस्सा लेते हैं। यह पाया गया है कि देवार- ईसाई, मुसलमान, चमार, कोष्टा और महार के हाथों का भोजन भी नहीं करते।

 

भूत-प्रेत पर विश्वास-

भूत-प्रेत और टोना-टोटका पर देवारों का अटूट विश्वास होता है। इनसे मुक्ति के लिए देवारों के डेरों में एक देवार बैगा होता है जो मंत्र आदि के द्वारा झाड़-फूँक करता है। देवार चोरी से सख्त घृणा करते हैं। किंतु सम्मोहन शक्ति में अटूट विश्वास करते हैं। कई देवार मोहिनी नामक जड़ी ढूंढते हुए भी देखे जाते हैं इनका विश्वास है कि मोहिनी जड़ी किसी महिला पर फेंक देने से वह सम्मोहित होती है किंतु अपेक्षाकृत सभ्य व आधुनिक देवार इस पर विश्वास नहीं करते।

 

विवाह एवं वैवाहिक जीवन-

इस जाति में तीन प्रकार के विवाह प्रचलित हैं। ये विवाह है ‘बिहाता’ (सहमति से) ‘पैठू’ (किसी लड़की को भगा कर लाना) और बंधौनी (पँचों के आदेश और परामर्श पर)। अगर कोई देवार लड़की किसी अन्य घर में चली जाए तो लड़की का पिता लड़के वालों से पाँच से छः हज़ार रुपये अर्थदंड के रूप में वसूल लेता है। देवारों में  वधु  मूल्य देने की भी प्रथा है। इनमें लड़की का मोल किया जाता है। लड़के वाले एक हज़ार तक लड़की वालों को देते हैं। जब भी लड़की अपने पिता के घर आती है तो उसके माता-पिता उससे भोजन नहीं बनवाते। लड़की अपने लिए भोजन अलग से बनाती है। अगर वर पक्ष के लोग वधू पक्ष के यहां जाते हैं तो अपना भोजन अपने हाथ से बना कर खाते हैं।

 देवार युवती  , देवर डेरा , शांति नगर, जिला जांजगीर  

 

देवारों में विधवा विवाह की प्रथा है, लेकिन इसे चूड़ी पहनाना कहा जाता है पुनः फेरे नहीं पड़ते। अगर कोई देवार किसी बाहरी औरत को अपने डेरे में भगाकर ले आता है तो अन्य देवार उससे रुपया वसूल करते हैं। उसे सहभोज देने के लिए भी मजबूर किया जाता है। यदि देवार डेरे में कोई अन्य जाति का व्यक्ति घुस आए तो इज्ज़त के दावे के रूप में उससे चार-पाँच हज़ार रुपया वसूला जाता है। किसी युवती को देवार पुरुष द्वारा पकड़ लिया जाए तो उस पुरुष से दंड के रूप में माँस का भोज लिया जाता है।

 

देवारों के मृतक संस्कार-  

देवारों में मृतक का अग्नि संस्कार नहीं होता। अलबत्ता शव को ज़मीन में गाड़ा जाता है। इस अवसर पर सूअर की बलि व उसका माँस खिलाने की भी प्रथा है।

 

देवारों में नामकरण-

अंग्रेज और ऑफिसर ये शब्द, किसी पद या जाति के द्योतक होते हुए भी देवारों में नामों के रूप में प्रयुक्त होते हैं। रायपुर के एक देवार डेरा के ‘अंग्रेज’ नामक मुखिया का अपने इस नाम के बारे में कहना है कि, ‘माँ के अनुसार मेरा जन्म अंग्रेजों के ज़माने में हुआ था, इसीलिए मेरा नाम अंग्रेज प्रचलित हो गया’। ऑफिसर नामक व्यक्ति का भी यही तर्क था, ‘मेरी माँ एक ऑफिसर के यहाँ काम करती थी इसलिए मेरा नाम भी ऑफिसर प्रचलित हो गया’।

अपने बच्चों के नामकरण के लिहाज से देवार अब आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन इनमें प्रचलित नाम बेहद मनोरंजक हैं जैसे- पुरुष नामों में मेहरबान, पंजाब, बोटरा,  हलका, मस्तान, दारा सिंह, लगेज, पतला, सरदार, अनार, खाजा, नर्सल, मोहरील, सनातन, शीशम, टीपू, जलवा, नौजवान, पतंगा, धड़ाका, आवारा, जनरल, बब्रुवाहन, कौरव, बाला, खजाँची, मनीबैग, दम बाज, ऑफिसर, अंग्रेज, टार्जन, जोकर, किताब आदि सुनाने को मिलते हैं।

महिलाओं के नाम भी अनोखे होते हैं जैसे- कटोरी, डैडी बाई, कुक्कू, घसनिन, लाल बत्ती,  दुकानिन, छुई खदान, टिंगाली, बिस्कुट, गोलंदरी, हलबाईन, सफरी, नागीन, कैची आदि। समय परिवर्तन के साथ देवारों में अब नये नाम भी रखे जाने लगे हैं जैसे पद्मा, इंदिरा, भारती, परीक्षा, माया, रेखा, राधा, गीता, पुष्पा, बसंती, उषा, संगीता आदि।

 

सामुदायिक परिवर्तन  

देवारों की सर्वाधिक सँख्या रायपुर और दुर्ग में है लेकिन रायपुर के देवारों की तुलना में दुर्ग के देवार अधिक साधन-संपन्न एवं आधुनिक हैं। यहाँ की बालाएँ लोक संगीत में जुड़ गई हैं और इनके सांस्कृतिक उत्थान में ‘चंदैनी गोंदा’ के प्रस्तुति कार श्री रामचंद्र देशमुख का सबसे बड़ा योगदान है।

 

श्री रामचंद्र देशमुख देवारों के मानसिक और सांस्कृतिक विकास को एक मिशन मानते हैं। देश में देवार जैसी कलाप्रिय जाति की ओर समाज और सरकार का ध्यान ही नहीं गया। अंततः श्री देशमुख ने देवार संस्कृति को चिंतन का विषय बनाकर उसे मंच पर वाणी दी।

रुंझू वाद्य,देवर डेरा,शांति नगर, जिला जांजगीर  

 

रुंझू वाद्य,देवर डेरा,शांति नगर, जिला जांजगीर  

 

रुंझू वाद्य,देवर डेरा,शांति नगर, जिला जांजगीर  

 

छत्तीसगढ़ के लोक मंचों जैसे चंदैनी गोंदा, नवा बिहान दुर्ग, सोनहा बिहान रायपुर, महासिंह दाउ चंद्राकर, दूध मोंगरा गंडई पंडरिया, दौना पान, नवा अंजोर, नवा अंजोरी, पथरा फूल, माया के फूल, मया के अचरा, जनक ठाकुर की नाच मंडली, रायखेड़ा नाचा पार्टी में देवार बालाओं का भरपूर उपयोग किया गया यानी मंच प्रदान किया गया। न्यू थियेटर स्‍व. हबीब तनवीर ने देवार बाला फिदा बाई, किस्मत बाई, माला और पूनम को अपने लोकनाट्यों में अवसर दिया 

देवार गायक, पठारी जाति गीत/गाथा, हीराखान छतरी गोंडवानी गाते हैं। वासुदेवा जाति के गीत, सरवन गाथा/गीत भी दीवार जाति द्वारा गाया जाता है। जोगी बाबा जाति की गीत भरथरी, गोपीचंद की गीत/गाथा देवार भी गाते हैं। पांडव जाति की गीत/गाथा पंडवानी भी दीवार लोग गाते हैं। परंतु पठारी जोगी वासुदेवा दीवारों के गीत नहीं गाते हैं और जानते भी नहीं हैं।

छत्तीसगढ़ अंचल के सुप्रसिद्ध गायिका, नृत्‍यांगन, देवार बालाएं किस्मत बाई, माला बाई, फिदा बाई, दुखवारिन, कुलवंतिन, रेखा, सुरेखा, कला बाई,  फटिकन बाई, फूल बाई, बसंती पद्मा, निका, सफरी मरकाम, पूनम, पार्वती (पथरिया), मारो (दुर्ग), जयंती, संतरा बाई, घसनिन, थनवारिन, कंचन, फोटो बाई आदि प्रचलित नामों में से हैं।

प्रसिद्ध गाथाकारों में वेदराम देवार (दगोरी), बहोरिक देवार (पकरिया), हीरालाल देवभर (सारंगढ़), गोपाल देवार (सिकोला भाठा), दशरथ देवार (कुकुसदा), बड़कू देवार (मदनपुर) आदि हैं।