देवार लोक गाथाओं पर पी.एच.डी. करने वाले श्री सोनऊ राम निर्मलकर से मुश्ताक ख़ान और राकेश तिवारी की बातचीत
मुश्ताक ख़ान (मु.ख़ा.)- आप अपने बारे में कुछ बताएँ।
सोनऊ राम (सो.रा.)- सन् 1990 में उत्तर मध्यक्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, इलाहाबाद द्वारा आयोजित श्रृँखलाबद्ध कार्यक्रम में नारी कथा गायन को लिया गया था जिसमें छत्तीसगढ़ की छ: महिलाओं को बुलाया गया था। जिसमें तीजन बाई, सरूज बाई खाण्डे, रेखा देवार, रेखा जलक्षत्रि, ऋतु वर्मा और मीना साहू। पहला कार्यक्रम हमारा दिल्ली में हुआ जिसके ब्रोशर में छपा था कि देवार लोग अपनी पुरानी परंपरा को छोड़कर अन्य गीतों को गा रहे हैं। उसमें दिया था लोकगाथा के बारे में दसमत ओड़नी, नंगेसर कइना, हीराखान क्षत्रिय, गोपाल राय बिछिया, चंदा ग्वालिन ये बहुत सारे लोक गाथाएँ है। भरथरी है, चंदैनी है ये सब दिया था। तो रेखा को हम इसको पढ़ के सुनाये तो रेखा बोली कि इसको तो हमारे माँ-बाप लोग गाते थे, हमारे मामा लोग गाते थे (येला तो हमर दाई-ददा मन गात रिहिन हमर ममा मन गावत रिहिन किहिस)। तब वहाँ से आने के बाद हमने संकल्प किया की हम इसी के उपर पी.एच.डी. करेंगे। इसके बाद हम इसको खोजना शुरू कर दिये। तो जहाँ-जहाँ भी देवार डेरा थे, वहाँ-वहाँ रेखा को लेकर जाते थे। ये सुनती थीं उनके गीत को उसके बाद हम लोग लिपिबद्ध करते थे, मैं और विजय सिंह, इस प्रकार से हमारा दो-तीन साल में पी.एच.डी. पूरा हुआ।
मु.ख़ा.- तो कितने गीत आपने लिपिबद्ध किये?
सो.रा.- 184 तो देवार गीत हैं और 35 देवार लोक गाथा।
मु.ख़ा.- ये जो देवार लोक गाथा और गीतों में क्या अंतर आप करते हैं?
सो.रा.- गीत माने तीन पंक्तियों का है और गाथा जो लम्बी कहानी है। जो एक रात, दो रात तक लगातार चलता है। दो घंटे, तीन घंटे, चार घंटे, पाँच घंटे का एक ही गाथा।
मु.ख़ा.- ये जो गाथाएँ है, ये देवार जाति से संबंधित हैं या देवार लोग केवल इसको गाते हैं, वो दूसरी जातियों से संबंधित हैं?
सो.रा.- नहीं। देवार जाति का ही गीत है।
मु.ख़ा.- वो गाथाएँ देवार जाति की ही हैं?
सो.रा.- जी। ये लोग जो राजाओं महाराजाओं का जो घटना घटा था जैसे रतनपुर को ले लीजिए महाराजा कल्याण सिंह के दरबार में एक पहलवान था गोपाल राय बिछिया। ये जहाँगीर के जमाने में दिल्ली गया था। ऐसे हीराखान क्षत्रिय, जिसको गोंडों का पूर्वज माना जाता है। उनकी लोक गाथाएँ है। चंदा ग्वालिन एक अहीरिन थी जो कि मुरछा की रहने वाली थी। वो दिल्ली जाती है, उसके रूप-सौंदर्य को देखकर वहाँ का पठान राजा जो है उसको रख लेते है। वहाँ बहुत भारी युद्ध होता है अहीरों का और उनका।
मु.ख़ा.- तो जितनी भी गाथाएँ है, आपने पूरी लिपिबद्ध की हुई हैं?
सो.रा.- जी।
मु.ख़ा.- यानी जो आपने 136-35 गीत बताये, वो किस लिपि किस भाषा में हैं? देवारी में हैं, छत्तीसगढ़ी में हैं?
सो.रा.- छत्तीसगढ़ी भाषा में तो है।
मु.ख़ा.- तो आपको क्या लगा मलतब ये देवार पंरपरा और दूसरी यहाँ पर लोक कथा और गायन परंपराएं है उनसे किस मायने में भिन्न है?
सो.रा.- शैली में।
मु.ख़ा.- जैसे?
सो.रा.- यहाँ का जो छत्तीसगढ़ी लोक गीत है वो अलग टाइप का है। ये पर्वों पर आधारित है, जन्म पर आधारित है, विवाह आधारित है। ये है और वो जो है एक कहानी के रूप में है। उनकी जो भी गीत है वो कहानी और किस्सों के रूप में है। जैसे लक्ष्मणजती को ले लीजिए, कँवलारानी है, अहिमन रानी है, बिलासा केवटिन है, नगेसर कइना है, दसमत ओड़नीन है। कवलापति, लक्ष्मणजती तो कुछ तो नारी प्रधान है और कुछ पुरूष प्रधान है और कुछ आध्यात्म है। आध्यात्म जैसे भरथरी है, श्रवणकुमार है राजा हरिश्चंद्र का कथा है ये सब को ये लोग गाते थे।
मु.ख़ा.- तो ये सब आपने लिपिबद्ध किया है?
सो.रा.- जी।
मु.ख़ा.- तो जिस समय आपने ये स्टडी शुरू की थी, तो उस समय जो इनकी पुरातन पारंपरिक जो गाने वाले लोग थे उस समय मौजूद थे। तो आपने उनका भी डाक्यूमेंटेशन किया?
सो.रा.- हाँ सब नाम लिखा है उस शोधग्रंथ में।
मु.ख़ा.- कितने आपने ऐसे पारंपरिक गवइये थे जो गाने वाले थे उनको इकठ्ठा किया?
सो.रा.- पाँच-छ: लोग मिले थे।
मु.ख़ा.- और स्त्री पुरूष दोनों देवार जाति के लोग गायन करते थे?
सो.रा.- जी।
मु.ख़ा.- तो यहाँ पर पुरूष लोग हैं या ये नारी, मलतब स्त्री प्रधान लोग हैं?
सो.रा.- गायन में दोनों बराबर हैं सर।
मु.ख़ा.- उसमें कोई भेद नहीं।
सो.रा.- नहीं।
मु.ख़ा.- लेकिन गायकी में भेद है?
सो.रा.- भेद है, पुरूष लोग ज़्यादा हैं।
मु.ख़ा.- तो पुरूषों की गायिकी है और स्त्रियों की गायकी है उसमें कोई भिन्नता है?
सो.रा.- अंतर है सर। लय में अंतर है, गाने के शैली में अंतर है।
मु.ख़ा.- क्या अंतर है मतलब आप कुछ बात सकते है उसमें?
सो.रा.- अब नारी कंठ अलग है पुरूष का आवाज़ ही अलग है। ये ही अंतर है।
मु.ख़ा.- अभी ये परंपरा जारी है, जैसे आपने जब रिसर्च का, शोध का काम किया उस समय पाँच-छ: लोग आपको मिले। तो आज क्या पूरी तरह वो विलुप्त हो गये आ अभी भी कुछ बाकी है।
सो.रा.- बहुत लोग तो मर चुके हैं उसमें से। जैसे हमारा वेदराम देवार था। जिससे हमको बहुत सारे गाथा मिले थे एक ही व्यक्ति के पास। अभी दो साल पहले उनका मृत्यु हो गया। देवपुरी का रहने वाला था। उससे बहुत कुछ मिला हमको।
राकेश तिवारी (रा.ति.)- आपने जो देवार गीत, गाथा जो इकट्ठा किया, संग्रहित है वो रतनपुरिहा देवार से किये हैं या रायपुरिहा देवार से।
सो.रा.- रतनपुरिहा।
रा.ति.- रायपुरिहा उसमें कम है?
सो.रा.- कम है।
मु.ख़ा.- रायपुर की तरफ़ नहीं आये क्या आप लोग?
सो.रा.- नहीं। यहीं मिल गया था न मेरे को पूरा मैटेरियल।
मु.ख़ा.- ये किस युनिवर्सिटी में आपका पी.एच.डी. किया है।
सो.रा.- गुरू घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर से।
मु.ख़ा.- वो प्रकाशित हो गई है क्या आपकी?
सो.रा.- जी संस्कृति विभाग वाले खुद प्रकाशित कराये हैं।
मु.ख़ा.- आपका शोधग्रंथ है, वो प्रकाशित है?
सो.रा.- जी।
मु.ख़ा.- उसकी कोई प्रति मिल सकती है?
सो.रा.- मिल सकता है सर।
मु.ख़ा.- बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
सो.रा.- जी सर।
मु.ख़ा.- वो प्रति आप दीजिए और हम देखते हैं, आपका जो वर्क है उसका इस्तेमाल कैसे हो सकता है।
सो.रा.- जी।
मु.ख़ा.- क्योंकि ये इतना लंबा जो डाक्युमेंटेशन है। ये चंदा लोरिक, भरथरी सब आपने डाक्युमेंट किया हुआ है।
सो.रा.- जी।
मु.ख़ा.- जो देवार लोगों से आपने सीखा। क्या उनका देवार वर्जन आपके पास है?
सो.रा.- जी।
मु.ख़ा.- तो हम लोग आपसे। मेरे पास आपका नंबर है। और आप मेरा नाम ध्यान रखिये मेरा नाम मुश्ताक ख़ान है। तो हम आपसे फोन पर बात करेंगे। और कोशिश करेंगे कि आपने जो जितना मेहनत की है इसके अंदर। उस मेहनत को अच्छी तरह से सामने लायें।
सो.रा.- जी।
रा.ति.- किताब का नाम क्या है उसका?
सो.रा.- देवार की लोक गाथाएँ।
रा.ति.- मुझे दिये थे क्या एक बार जब आये थे?
सो.रा.- हाँ सबको दिया था।
मु.ख़ा.- तो वो कैसे मिल सकता है हमको? अभी कोई प्रति है उसकी?
सो.रा.- हाँ, हाँ है ना। मैं दे दूँगा आपको।
मु.ख़ा.- जी दीजिए।
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