छत्तीसगढ़ की बंजारा शिल्प परम्परा /Banjara craft of Chhattisgarh

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Published on: 13 December 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन ,भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम ,नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

हाट बाजार में बंजारा शिल्प की दुकान , जगदलपुर। २०१८ 

 

बंजारा समुदाय अपनी स्त्रियों के रंग बिरंगे वस्त्रों और चांदी के बने भारी –भरकम गहनों के लिए जाना जाता है। बंजारा स्त्रियां चमकीले लाल , नीले ,पीले कपड़ों पर मोटे सूती धागे से की गयी कशीदाकारी और शीशों के जड़ाव से सजे वस्त्र पहनना पसंद करतीं हैं। राजस्थान और विशेषतः आंध्रप्रदेश ,महाराष्ट्र तथा कर्नाटक के बंजारों में कशीदा और एप्लिक के काम में शीशों के जड़ाव से वस्त्र सज्जा की एक समृद्ध परंपरा है। वे केवल अपने पहनने के वस्त्र ही नहीं अपने पशुओं को सजाने , घरेलू थैले , थैलियों एवं कपड़े से बनी अन्य उपयोगी वस्तुओं पर भी एप्लिक एवं कशीदाकारी करतीं हैं।

बस्तर में जगदलपुर और कोंडागांव के आस –पास विभिन्न गांवों में बंजारा परिवार निवास करते हैं। जगदलपुर से लगभग ३० किलोमीटर दूर तोकापाल के पास इरिकपाल एक छोटा सा गांव है , यहाँ बंजारों के लगभग ७ – ८ परिवार रहते हैं।इनमें से दो बंजारा परिवार बंजारा शिल्पकारी करते हैं। यहाँ जोगा नायक और उनके छोटे भाई पूरा नायक का परिवार शिल्पकारी की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जोगा नायक की पत्नी भिनकी बाई एक कुशल शिल्पी हैं और अपने कला कौशल के लिए दूर –दूर तक प्रसिद्ध भी हैं। सन२००१ से पहले मध्यप्रदेश हस्तशिल्प विकास निगम और अब छत्तीसगढ़ सरकार के उपक्रम शबरी द्वारा उनकी बनाई बंजारा शिल्पकृतियां बेचीं जा रहीं हैं। वे सम्भवतः छत्तीसगढ़ की पहली बंजारा महिला शिल्पी हैं जो अपनी कला का प्रदर्शन शासकीय प्रदर्शनियों में देश के अन्य शहरों में भी कर चुकीं हैं।

 

बंजारा शिल्प की कुशल शिल्पकार भिनकी बंजारा , इरिकपाल , बस्तर, २०१८ 

 

भिनकी बंजारा कहती हैं पहले तो लगभग प्रत्येक बंजारा परिवार में स्त्रियां स्वयं के लिए कशीदाकारी करती थीं , उनके समाज में शादी -ब्याह के लिए यह कपडे आवश्यक थे। आज भी उनके समाज की बड़ी -बूढ़ी औरतें पारम्परिक कशीदाकारी वाले कपड़े और गहने रखे हुए हैं ,कुछ दिन पहले एक सामाजिक समारोह में ४-५ औरतों वह कपड़े और गहने पहन का आई थीं। परन्तु आम तौर पर बंजारा स्त्रियों भी  अन्य जाति की महिलाओं के सामान सामान्य कपड़े पहने लगी हैं। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि बंजारों की अपनी प्राचीन कशीदाकारी परम्परा धीरे -धीरे समाप्ति की और बढ़ रही है। बंजारों की नयी पीढ़ी की लड़कियां इस कला से अनभिज्ञ हो रही हैं। यद्यपि बस्तर में बंजारों की संख्या अच्छी-खासी है परन्तु कुछ गिनी -चुनी बंजारा स्त्रियां ही यह पारम्परिक कशीदाकारी कर पाती हैं। 

 

भाव समाधी में सिरहा, जिसने बंजारों द्वारा बनाया गया गोंडिन देवी  का सिंगार धारण किया हुआ है। , बस्तर ,२०१८   

 

छत्तीसगढ़ विशेषतः बस्तर के बंजारों ने अपनी पारम्परिक पोशाक और गहनों का पूरी तरह परित्याग कर दिया है। वे अपनी पारम्परिक कशीदाकारी ,एप्लिक एवं शीशे जड़ी सज्जा का उपयोग बस्तर के देवी –देवताओं के लिए वस्त्र बनाने में कर रहे हैं। यह परिवर्तन कब और कैसे आया कोई भी बताने में समर्थ नहीं है परन्तु यह यहाँ एक लम्बे समय से प्रचलन में है।

 

बस्तर के देवी –देवता आरम्भ से ही सिरहा के माध्यम से लोगों से संवाद करते रहे हैं। सिरहा वह व्यक्ति होता है जिस पर देव आता है या चढ़ता है। विश्वास किया जाता है कि जब सिरहा पर देव चढ़ता है तब सिरहा स्वयं कुछ नहीं करता वह उस पर चढ़े देव के बस में होता है और वही करता है जो देव चाहता है। चढ़े हुए देव की सत्यता भी जांची जाती है। उसे कीलों जड़े झूले पर बैठाया जाता है

 

भाव समाधी में सिरहा, जिसने बड़ा देव का सिंगार धारण किया हुआ है। गांव किडी छेपड़ा, बस्तर ,१९८९  

 

यहाँ की अहीर , गोंड , माड़िया और मुरिया समुदायों में विशेषरूप से बंजारा समाज की स्त्रियों द्वारा अप्लीक तकनीक एवं कौढ़ी तथा शीशों  के जड़ाव से बनाये गए वस्त्रों , सूपा , गप्पा , चोली ,लहंगा , ओढ़नी आदि का बहुत महत्त्व है। बस्तर के आदिवासी देवी –देवता तो जैसे बंजारों की बनाई इन वस्तुओं के बिना प्रसन्न हो ही नहीं सकते। बस्तर के सिरहा जिनके माध्यम से यहां देवी –देवता अपने भक्तों से संवाद स्थापित करते हैं और अपने अस्तित्व प्रकट करते हैं , उनकी पहचान और व्यक्तित्व, बंजारों द्वारा बनाये कौढ़ी एवं शीशे जड़ित भड़कीले लाल –नीले वस्त्रों के बिना निस्तेज और प्रभावहीन दिखाई देंगे। यहाँ की देवियां फिर वह बूढ़ीमाई हो ,माउली हो , गोंडिन हो या कोई अन्य , ये सभी सिरहा पर आने के बाद सबसे पहले अपने वस्त्र –सिंगार की मांग करती हैं। उनके यह वस्त्र –सिंगार बंजारा स्त्रियां ही तैयार करतीं हैं। देवियां तो देवियां यहाँ के देव भी इस मामले में पीछे नहीं हैं ,वे भी अपने सिंगार मांगने में कोताही नहीं करते। 

 

भाव समाधी में सिरहा, जिसने गोंडिन देवी  का सिंगार धारण किया हुआ है। गांव विश्रामपुरी , बस्तर ,१९८९  

 

बस्तर के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में अहीर राउत चरवाहे समाज के पुरुष बंजारों द्वारा कौढ़ी एवं मोरपंख की सज्जायुक्त कशीदाकारी से बने वस्त्रों के उपयोग करते हैं। करमा और बायर नर्तक अपने को बंजारों द्वारा बनाये वस्त्रों से अलंकृत करते हैं। बांसगीत गाने वाली मंडलियां और लोककथा गायक भी बंजारों द्वारा  अलंकृत वस्त्र धारण करते हैं।

 

जगदलपुर और कोंडागांव के कुछ पुराने दुकानदार बंजारों की मांग के अनुरूप कपड़े , धागे , शीशे के टुकड़े , कौढ़ियाँ और मोर पंख विक्रय हेतु रखते हैं। चमकीले लाल , नीले ,काले रंग के सदा सूती कपड़े या जिन पर बुंदकियों की छाप हो , इस काम के लिए उपयुक्त माने जाते हैं। सूती मोटा धागा सिलाई , शीशे टांकने और कौढ़ियाँ जड़ने के लिए काम में लाया जाता है। पहले सारा काम हाथ की सिलाई से किया जाता था पर अब सिलाई मशीन का प्रयोग भी किया जाने लगा है। 

 

बनाये जाने वाले प्रमुख उत्पाद हैं -

 

चोली -

 

प्रतीत होता है कि चोली और लहंगा शब्द बस्तर में बंजारों के साथ आया होगा। यह शब्द हल्बी और गोंडी बोली का नहीं है। चोली देवी -देवताओं द्वारा शरीर के ऊपरे भाग में  पहना जाने वाला वस्त्र है। यह अनेक रंग के कपड़ों से बनाई जाती है। प्रत्येक देवी के लिए एक निश्चित रंग की चोली होती है। चोली के रंग से भी लोग देवी को पहचानते हैं। प्रत्येक देवी-गुढी में अन्य अनुष्ठानिक वस्तुओं के साथ देवी के वस्त्र सिंगार भी बांस की एक बड़ी ढक्कनदार टोकरी में रखे रहते हैं। इन्हे  सिरहा पर देवी चढ़ने पर निकाला जाता हैऔर सिरहा पर आई देवी को पहनाया जाता है। यह वस्त्र या तो कोई व्यक्ति मनौती पूर्ण होने पर गुढी में चढ़ाता है अथवा     गांव के लोगों के चंदे से जमा हुए पैसे से खरीदे जाते हैं। 

 

काले और सफ़ेद रंग के कपड़े से बनी चोली , काली कंकालीन  देवी के लिए  बनाई जाती है इसे  गोंडिन देवी भी पहन लेती है। २०१८ 

 

 

लाल -नीले और छींट के कपड़े से बनी यह  चोली , हिंग्लजन माता के लिए  बनाई जाती है इसे बंजारिन माता भी पहन लेती है। २०१८ 

 

 

सादा लाल और लाल पर सफ़ेद बुंदकियाँ छपे  कपड़े से बनी यह  चोली , परदेसिन माता के लिए  बनाई जाती है । २०१८ 

 

सादा लाल और काली छींट के कपड़े से बनी यह  चोली , तेलंगीन माता के लिए  बनाई जाती है । २०१८ 

 

 

चोली किस प्रकार पहनी जाती है ,यह दर्शाते हुए  बंजारा वृद्ध। २०१८ 

 

लहंगा -

 

लहंगा  देवी -देवताओं द्वारा शरीर के निचले भाग में  पहना जाने वाला वस्त्र है। यह अनेक रंग के कपड़ों से बनाया जाता  है। प्रत्येक देवी के लिए एक निश्चित रंग का लहंगा होता है। लहंगे  के रंग से भी लोग देवी को पहचानते हैं। प्रत्येक देवी-गुढी में अन्य अनुष्ठानिक वस्तुओं के साथ देवी के वस्त्र सिंगार भी बांस की एक बड़ी ढक्कनदार टोकरी में रखे रहते हैं। इन्हे  सिरहा पर देवी चढ़ने पर निकाला जाता हैऔर सिरहा पर आई देवी को पहनाया जाता है। यह वस्त्र या तो कोई व्यक्ति मनौती पूर्ण होने पर गुढी में चढ़ाता है अथवा गांव के लोगों के चंदे से जमा हुए पैसे से खरीदे जाते हैं। 

 

परदेसिन माता के लिए बनाया गया लहंगा। २०१८ 

 

 

काली कंकालीन  देवी के लिए बनाया गया लहंगा  इसे  गोंडिन देवी भी पहन लेती है। २०१८ 

 

 

हिंग्लजन माता के लिए  बनाया गया लहंगा इसे बंजारिन माता भी पहन लेती है। २०१८ 

 

 

लहंगा दर्शाती हुई एक बंजारा शिल्पी। २०१८ 

 

वहाड़ी -

 

वहाड़ी एक प्रकार का चंदोवा है जो देवगुड़ी में देवी -देवताओं की प्रतिमाओं के ऊपर लगाया जाता है। लोग मनौतियां पूरी होने पर इसे चढ़ाते हैं।  

 

 

पारिवारिक देवगुढ़ी  में देवी -देवताओं की प्रतिमाओं के ऊपर लगाई गई वहाड़ी। बस्तर ,१९८९   

 

गप्पा -

 

यह बांस की बनी एक छोटी टोकरी होती है जिसपर कपड़ा चढ़ाकर सिल दिया जाता है। कपड़े पर कौड़ियां और शीशे जढ़कर सज्जा की जाती है। बांस की टोकरी बसोर या पारधी समुदाय के बांसशिल्पी बनाते हैं। जिसे बंजारा लोग खरीदकर उस पर सजावट का कार्य करते हैं। यह गप्पाघसिन माता का सिंगार है।  गप्पाघसिन माता को गोंडिन देवी ,पेंड्राऔंडनी , दुर्पत्ती  माई , झिटकू -मिटकि अदि भी कहते हैं। 

 

 

गप्पा, बांस की बनी एक छोटी टोकरी होती है जिसपर कपड़ा चढ़ाकर सिल दिया जाता है। कपड़े पर कौड़ियां और शीशे जढ़कर सज्जा की जाती है।  यह गप्पाघसिन माता का सिंगार है।  २०१८ 

 

 

फरस गांव की मढ़ई में गप्पा लिए हुए गोंडिन देवी का सिरहा। २०१८ 

 

 

बरकई गांव की मढ़ई में गप्पा लिए हुए गोंडिन देवी का सिरहा। २०१८ 

 

टोपी -

 

टोपी देवी -देवताओं द्वारा सर पर पहना जाने वाला वस्त्र है। यह अनेक रंग के कपड़ों से बनाया जाता  है। प्रत्येक देवी के लिए एक निश्चित रंग की टोपी होती है। प्रत्येक देवी-गुढी में अन्य अनुष्ठानिक वस्तुओं के साथ देवी के वस्त्र सिंगार भी बांस की एक बड़ी ढक्कनदार टोकरी में रखे रहते हैं। इन्हे  सिरहा पर देवी चढ़ने पर निकाला जाता हैऔर सिरहा पर आई देवी को पहनाया जाता है। यह वस्त्र या तो कोई व्यक्ति मनौती पूर्ण होने पर गुढी में चढ़ाता है अथवा गांव के लोगों के चंदे से जमा हुए पैसे से खरीदे जाते हैं। 

 

 

परदेसिन माता के लिए बनाई गई टोपी, बस्तर। २०१८

 

 

सर पर टोपी कैसे पहनी जाती है यह दर्शाते हुए एक बालिका , बस्तर। २०१८ 

 

 

काली कंकालीन माता के लिए बनाई गई टोपी, बस्तर। २०१८ 

 

पटारी -

 

पटारी , माड़िया -मुरिआ नर्तकों द्वारा पहना जाने वाला आभूषण है। इसे बंजारा शिल्पी कपड़े , कौड़ी और शीशों से बनाते हैं। यह कपड़ों  की कई तह को एकसाथ सिल कर बनाई गई एक पट्टी होती है जिससे कौड़ियों की अनेक लड़ियाँ लटके जाती हैं। इसे नर्तक माथे पर बांधते हैं जिससे लड़ियाँ उनके चेहरे के सामने झूलती रहती हैं। 

 

 

पटारी , माड़िया -मुरिआ नर्तकों द्वारा पहना जाने वाला आभूषण है। इसे नर्तक माथे पर बांधते हैं जिससे लड़ियाँ उनके चेहरे के सामने झूलती रहती हैं बस्तर। २०१८  

 

 

पटारी , माड़िया -मुरिआ नर्तकों द्वारा पहना जाने वाला आभूषण है। इसे नर्तक माथे पर बांधते हैं जिससे लड़ियाँ उनके चेहरे के सामने झूलती रहती हैं बस्तर। २०१८  

 

 

पटारी कैसे पहनी जाती है यह दर्शाते हुए एक बालिका , बस्तर। २०१८ 

 

 

कोड़ा -

 

कोड़ा , मोटे सूती धागे से बुनकर तैयार किया जाता है। यह भी देवी - देवताओं का सिंगार है। देवी चढ़ने पर सिरहा ,कोड़ा हाथ में लेकर उससे अपने शरीर पर मारता है। 

 

 

कोड़ा , मोटे सूती धागे से बुनकर तैयार किया जाता है। यह भी देवी - देवताओं का सिंगार है। बस्तर, २०१८  

 

 

चुचनी -

 

यह छोटे बच्चौं के लिए बनाया गया उपादान है। एक कपड़े से बनाई गई नली में गुड़ ,अजवाइन ,अदरक कूट कर भर दिया जाता है। बच्चे इसे मूहँ में डालकर चूसते रहते हैं। इससे उनका स्वास्थ्य अच्छा रहता है।

 

 

चुचनी, बस्तर ,२०१८

 

 

बंडी -

 

यह अहीर ,बांस गीत मंडली के गायकों , नर्तकों के लिए बनाया जाने वाला वस्त्र आभूषण है। जिसे मंडली के सदस्य कपड़ों के ऊपर सज्जा हेतु पहनते हैं। इसे अनेक प्रकार से सजाया जाता है। 

 

 

बंजारा शिल्पियों द्वारा बनाई गई अलंकृत बंडी पहने अहीर ,बांस गीत मंडली के गायक। रायपुर २०१८ 

 

 

बंजारा शिल्पियों द्वारा बनाई गई अलंकृत बंडी पहने अहीर ,बांस गीत मंडली के गायक। रायपुर २०१८ 

 

 

बंजारा शिल्पियों द्वारा बनाई गई अलंकृत बंडी पर बने विभिन्न अभिप्राय। रायपुर २०१८ 

 

 

बंजारा शिल्पियों द्वारा बनाई गई अलंकृत बंडी पर बने विभिन्न अभिप्राय। रायपुर २०१८ 

 

 

बंजारा शिल्पियों द्वारा बनाई गई अलंकृत बंडी पर बने विभिन्न अभिप्राय। रायपुर २०१८ 

 

 

बंजारा शिल्पियों द्वारा बनाई गई अलंकृत बंडी पर बने विभिन्न अभिप्राय। रायपुर २०१८ 

 

 

गौर सींघ शिरस्त्राण -

 

गौर सींघ माड़िया आदिवासी युवक नर्तकों द्वारा सामूहिक नृत्यों के दौरान धारण किये जाने वाले शिरस्त्राणों का आधार बांस का बना होता है। बंजारा शिल्पी जिस पर कपड़ा चढ़ाकर कौड़ी और शीशों से सज्जा कर उसे  तैयार करते  हैं।  इनमें गौर सींघ ,आदिवासी स्वयं लगा लेते हैं। 

 

 

दशहरा उत्सव के अवसर पर गौर सींघ शिरस्त्राण पहने  गौर सींघ माड़िया आदिवासी युवक नर्तक ,बस्तर।  २०१८  

 

 

उत्सव के अवसर पर गौर सींघ शिरस्त्राण पहने  गौर सींघ माड़िया आदिवासी युवक नर्तक ,बस्तर।  २०१८  

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.