छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में आभूषण

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Published on: 02 August 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

मानव में अपने शरीर को सजाने, संवारने की नैसर्गिक प्रवृति होती है। अनादिकाल से ही वह अनेक प्रकार के उपादानों से स्वयं को आकर्षक बनाने के प्रयास करता रहा है। स्त्रियों में तो यह प्रवृति और भी तीव्रतर होती है, वे न केवल स्वयं को अधिक सुन्दर देखना चाहती हैं बल्कि अन्यों से अलग भी दिखने की अभिलाषा रखती हैं। प्रत्येक परिवेश में फिर चाहे वह वन्यांचल हो, ग्रामीण अंचल हो अथवा शहरी वातावरण, वे सौंदर्यवर्धक अलंकरणों एवं उपादानों का संधान कर ही लेती हैं। अलंकरणों के प्रति उनका यह लगाव अनेक प्रकार और अनेक रूपों में व्यक्त हुआ है। आंचलिक लोककथाओं और लोकगीतों में स्त्रियों की इस सहज वृति का वर्णन बहुत ही प्रभावशाली ढंग से हुआ है। सदियों से गए जाने वाले इन गीतों में गहनों के प्रति उनकी आसक्ति और अतृप्त अभिलाषाओं की सुन्दर झलक देखने को मिलती है। इन गीतों में नारी श्रृंगार का अथवा उनके यौवन निखार का कोई भी विवरण आभूषणों के बिना अधूरा रहता है। एक छत्तीसगढ़ी स्त्री अपने पारम्परिक आभूषणों के बिना अधूरी मानी जाती है। यह आभूषण उसकी व्यक्तिगत आर्थिक हैसियत ही नहीं सामाजिक प्रतिष्ठा और सांस्कृतिक परिष्कार भी दर्शाते हैं। लोक कवियों ने छत्तीसगढ़ी स्त्री की कल्पना सदा ही उसके गहनों से परिपूर्ण रूप में की है। एक लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी लोकगीत में इसकी अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार हुई है:

 

पहिरे रंग रंग के गहना

थनलहा कौनौ अंग रहेना

कानो पैरी चूरा जोरा

कोना गठिआ कोनो तोरा

कोनो ला घुंघरू बसभाए

छुम-छुमछुम-छुम बाजत जाए

खनर-खनर चूरी बाजे

खुलके ककनी हाथ भिराए

पहिने बाहुंटा और पच्छैटा

जेकर रहित तोख है जेला

बिल्लौरी चूरी हलवाही

रतना पिजुरी और टिकलाही

कोनो छुपयो लाख बढ़ाय

पिजुरी है हरिहर छुपाइ

कोनो चुटवा कोनो पटाही

चांदी के सूता झमकाए

गोदना थानु-थानु गुदवाए

दुलरी, तिलरी, कटवा सोहे

और कदमाहि सुर्रा सोहे

पुटपी और जुग जुगिमाला

रुपतमंगि आपोत बिसाला

पहिरे परहादे ओराही

अंगुरिआ और अँगुराही

खटीला टिटरीदार बिराजे

खिनवा ,तरकी कानन राजे

 

इस लोकगीत में न केवल विभिन्न प्रकार के आभूषणों के नामों का उल्लेख और उससे नारी सौंदर्य पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया गया है बल्कि उनसे उत्पन्न होने वाली संगीतमय ध्वनियों और उनसे उपजे रोमांच को भी रेखांकित किया गया है। गीतकार कहता है तुमने रंग-रंग के गहने पहने हैं, तुम्हारा कोई भी अंग गहनों से खाली नहीं है। तुमने जो पैरी, चूरा, गठिआ, तोरा पहने हैं उनमें लगे घुँघरू छुम-छुम बज रहे हैं। चूड़ियों और ककना की खनर-खनर मधुर ध्वनि मोहक है।बाँहटा और पछेटा पहना है लाल-लाल कांच की चूड़ियां और माथे की टिकली लाख छिपाने पर भी नहीं छिप रही है। गले में चाँदी का बना सूता झमक रहा है और शरीर पर तरह-तरह के गोदना गुदवाए हुए हैं। पहने गए दुलरी, तिलरी और सुर्रा आभूषण शोभा बढ़ा रहे हैं। पोत की लम्बी माला, उँगलियों में अंगूठियां, कान में खिनवां और तरकी पहनी हैं जिनकी शोभा अद्वितीय है।

 

नीचे उल्लेखित एक अन्य लोकगीत में सोने के सूता, चांदी के तोरा,पँहुची, धरखोटा, मुंदरी तथा करधौनी आभूषण का उल्लेख किया गया है।

 

सोने के सूता मंडल जोरा

तोर पांव में खिले हैं चांदी के तोरा

बांह में पहुंची पहिरे सुंदरी

कोउधर कोटा अंगुर मुंदरी

पहिनला गहना देखला दर्पन

तोला खुलके बिराजे चांदी के करधन

 

गीत में कहा गया है, तुम्हारे गले में सोने का बना सूता आकाशगंगा की तरह झिलमिला रहा है। बांह में पँहुची, कानों में धरकोटा और उँगलियों में छल्ले शोभायमान हैं। अब तुम दर्पण में क्यों देख रही हो जब तुमने इतने गहने पहने हुए हैं। चांदी की करधन खूब सज रही है। श्रृंगार के लिए प्रसाधनों के साथ गहने भी पहने हैं।

 

देवार छत्तीसगढ़ की एक घुमक्कड़ जाति है। इनका प्रमुख कार्य लोकआख्यानों, कथानकों एवं गीतों का गायन कर जीवकोपार्जन करना है।  वे न केवल इस क्षेत्र की वाचिक परम्परा को जीवित बनाए हैं बल्कि यहाँ की लोक गायन शैलियों को भी संरक्षित किये हुए हैं। गहनों से सजी एक छत्तीसगढ़ी देवार युवती के सौंदर्य का वर्णन एक लोकगीत में इस प्रकार किया गया है:

 

पांवके अंगुरी बिछिया बिराजे

मछरीछाप कलदार

छुन-मुन पांवकी पैरी बाजै

कनिहा हावै लचकदार

चूरी पहिरे बर जाय

हे सियरी दीनानाथ।

सोनहा सुर्रा कान म खिनवा

कान म बारी सोहाय

माथ म टिकली नाक म मुस्की

आँख म काजर लगाय

दसों अंगुरिया दस जोड़ी मुंदरी

भँवरा ही भँवराय

हे सियरी दीनानाथ।

 

गीत में कहा गया है: वह पांव की ऊँगली में बिछिया पहने है, गले में मछलीछाप सिक्कों की माला है, पैरों में पहनी पैरी झुन-मुन बज रही है। उसकी कमर लचकदार है और वह चूड़ियां पहनने जा रही है।

हे श्री दीनानाथ।

 

उसके गले में सोने का बना सुर्रा और कान में खींनवा है, कानों में बालियां सुन्दर लग रही हैं। माथे पर टिकली और नाक में मुस्की है और वह आँखों में काजल लगाए है। उसने दसों उँगलियों में दस जोड़ी अंगूठी पहनी है औ रभँवरे के समान मंडरा रही है।

हे सियरी दीनानाथ।

 

स्त्रियों के रूप श्रृंगार तथा उनकी सुन्दर छटामें आभूषणों के योगदान का बखान लोक कवियों ने अतिश्योक्ति की सीमा तक किया है और छत्तीसगढ़ भी इसका अपवाद नहीं है। यहाँ साधारण स्त्रियों ही नहीं आराध्य देवियां भी आभूषणों की लालसा रखती हैं और उनकी मांग करतीं हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा क्षेत्र के एक बायर नृत्य गीत में इसका बहुत ही मार्मिक वर्णन मिलता है। इस लोकगीत में एक बार शंकरजी, पार्वती से कहते हैं, देखो गावों में बायर नृत्य हो रहा है, चलो हम भी वहां चलते हैं। पार्वती कहती हैं—मेरे पास कपडे-गहने नहीं हैं मैं कैसे बायर नृत्य देखने चल सकती हूँ। मेरे पैरों में पैरी नहीं है, जांघ में जांघिया नहीं है, छाती पर हँसुली नहीं है तो में कैसे बायर नृत्य देखने चलूँ। बांह में बांहटा नहीं है, माथे पर टिकली नहीं है, पैरों में चुटकी नहीं हैतो में कैसे बायर नृत्य देखने चलूँ। हाथों में अंगूठी और चूड़ियां नहीं हैं, पैरों में बिछिया नहीं हैं तो में कैसे बायर नृत्य देखने चलूँ। कानों में तरकी नहीं है, मांग की मंधोति नहीं है तो में कैसे बायर नृत्य देखने चलूँ। लहंगा और लुगड़ा भी नहीं है तो में कैसे बायर नृत्य देखने चलूँ।

 

चलचला-चला गौरा रानी

बायर देखे हो–बायर देखे हो

गोड़ के पैरी नइए

तो का लैके जाबो

जांघ के जांघिया नइए

छाती कर हँसुली नइए

तो का लैके जाबोहो का लैके जाबो

हाथ के बाँहटा नइए

माथ के टिकली नइए

गोड़ के चुटकी नइए

तो का लैके जाबोहो का लैके जाबो

हाथकेमुंदरीनइए

हाथकेचूरीनइए

गोड़केबिछियानइए

तोकालैकेजाबोहोकालैकेजाबो

कान के तरकी नइए

मांग के मंधोति नइए

का लैके जाबोहो का लैके जाबो

लहंगा-लुगरा नइए

का लैके जाबो

 

अन्य प्रादेशिक लोकगीतों की भांति छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में भी इस प्रकार के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं जहाँ एक युवा प्रेमी अपनी प्रेमिका द्वारा पहने गए गहनों का वर्णन करते हुए कह रहा है, तेरी आँखों में काजल सज रहा है और गले में सज रहा है गजरा। मांग में तेरी बिंदिया दमक रही है और हाथों में कंगना। कमर में तेरी करधनी शोभायमान है और नाक में नथनी। बांह में तेरी बांहटा सज रहा है। तेरे कानों में ढार और पैरों में पैजनियां सज रहीं हैं। पैर की उंगलियों में बिछिया हैं और महावर का रंग खिल रहा है।

 

अँखियाँ तोहे कजरा सोहे

गले म सोहे गजरा

मांग तोर  बिंदिया सोहे

हाथ म सोहे कंगना

कमर म करधनिया सोहे

नाक म नथनिया

बांह तोर बाँहटा सोहे ,

काहे धांगना

कान म तोर ढार सोहे

पांव म पैजनियां

अंगुरियों म बिछिया सोहे

पावों में महावर रंगना

 

उपरोक्त लोक गीतों की भांति अन्य अनेक गीतों और काव्यों में इस प्रकार के वर्णन मिलते हैं।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.