छत्तीसगढ़ के पारम्परिक आभूषण/ Traditional Ornaments of Chhattisgarh

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Published on: 23 August 2018

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प,आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

छत्तीसगढ़ की आदिवासी एवं गैर आदिवसी मिश्रित संस्कृति का प्रभाव यहाँ की देह सज्जा शैली और पहने जाने वाले आभूषणों पर भी परिलक्षित होता है। विभिन्न रंगों की मिट्टी, हल्दी, सिन्दूर और चन्दन के लेपन से लेकर शरीर पर गुदना गुदवाना।  पंखो, कौढ़ियों, रंगीन धागों, रंग-बिरंगे मनकों, घांस और मोरपंखों से बनाये सरल उपादानों के प्रयोग करने के साथ विभिन्न धातुओं से तैयार किये गए गहनों से स्वयं को सजाना यहाँ लोकप्रिय रहा है।

 

छत्तीसगढ़ में आदिवासी एवं गैर आदिवासी समुदायों के लिए आभूषण बनाने का काम सदियों से सुनार, मलार और घढ़वा शिल्पी करते आ रहे हैं। सोने-चांदी जैसी मूल्यवान धातुओं के गहने सुनार बनाते हैं जबकि पीतल और कांसा जैसी सामान्य धातुओं के आभूषण मलार और घढ़वा धातु शिल्पी, धातु ढलाई पद्यति से तैयार करते हैं। सुनारों का काम मुख्यतः ग्रामीण, कस्बाई और नगरीय क्षेत्रों में अधिक है। बस्तर, रायगढ़ और सरगुजा के आंतरिक आदिवासी क्षेत्रों में घड़वा और मलारों के बनाये  पीतल और कांसे के गहने प्रचलन में रहे। पीतल और कांसे के गहने अब भी अपने न्यूनतम स्तर बस्तर में चल रहे हैं, विशेषतौर पर देवी-देवताओं को चढ़ाये जाने वाले और आदिवासियों द्वारा विवाह के समय पहने जाने वाले गहने।

 

एक समय चांपा, रतनपुर, धमधा, दुर्ग, रायगढ़ और आरिंग पारम्परिक छत्तीसगढ़ी गहने बनाने के मत्वपूर्ण केंद्र थे तथा बिलासपुर और राजनंद गांव इनकी बिक्री के बड़े बाजार थे। चांपा में बनी पीतल की चूड़ियां दूर-दूर तक मशहूर थीं।

 

वर्तमान में यह स्थिति बदल चुकी है। नई पीढ़ी की युवतियों की रुचियाँ बदल रहीं हैं। व्हाइट मैटल और  गिलट से बने रेडीमेड गहनों की पहुँच छोटे से छोटे गांवों तक हो गयी है।   

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.