गोलमगढ़, बिजोलियां के शिवालय पर श्री हरफूल सिंह की टिप्पणी के अंश

in Interview
Published on: 10 December 2018

श्री हरफूल सिंह

श्री हरफूल सिंह जी राजस्थान सरकार, जयपुर के संग्रहालय एवं पुरातत्व विभाग में पुरा विशेषज्ञ रहे हैं| एस क्षेत्र में इनका वर्षों का अनुभव रहा है एवं कला और वास्तु के संबंध में कई शोधपत्र प्रकाशित किये हैं|

डॉ. शिल्पी गुप्ता द्वारा खोजे गए गोलमगढ़, बिजोलियां के शिवालय पर पुरातत्व विशेषज्ञ श्री हरफूल सिंह की टिप्पणी के अंश. दिनांक:- 05.12.2017

 

श्री हरफूल सिंह जी, राजस्थान सरकार, जयपुर के संग्रहालय एवं पुरातत्व विभाग में पुरातत्व विशेषज्ञ रहे हैं। इस क्षेत्र में इनका वर्षों का अनुभव रहा है, कला एवं वास्तु के संबंध में कई शोधपत्र प्रकाशित हैं।

 

डॉ. शिल्पी गुप्ता द्वारा खोजे गए गोलमगढ़ स्थित शिवालय के सन्दर्भ में इन्होंने खोजकर्ता से बातचीत की। इन्होंने अपने साक्षात्कार में खासतौर पर इस शिवलिंग को ‘पंचास्य शिवलिंग’ के रूप में माना है तथा शास्त्रों से हटकर विष्णुभाग को पीठिका से ऊपर दिखाने की बात कही है। उन्होंने यहाँ वेदीबंध के अभी पूर्ण तौर पर विकसित नहीं होने की बात कही है। वे इसे राजस्थान का सबसे पुराना सर्वतोभद्र मंदिर मानते हैं। साथ ही, इन्होंने यहाँ पर लघु शिखर भाग होने की भी संभावना व्यक्त की है, हालांकि अभी तक शिखर भाग के कोई वास्तुखंड यहाँ से प्राप्त नहीं हुए अतः यहाँ सपाट छत ही रही होगी। इनके द्वारा गोलमगढ़ शिवालय पर की गयी टिप्पणी के कुछ अंश इस प्रकार हैं—

 

श्री हरफूल सिंह: यह राजस्थान का सबसे पुराना सर्वतोभद्र मंदिर है। इसके बाद आठवीं शताब्दी में, अजयपाल अजमेर में, फिर नौवीं शताब्दी में बाडोली में सर्वतोभद्र मंदिर रहा है।

 

गोलमगढ़ के शिव मंदिर में, गर्भगृह मौजूदा स्थिति में है लेकिन इसके वेदीबंध विकसित नहीं हैं, वेदीबंध के छः में से दो ही भाग— खुर व कुंभ मिलते हैं, जिसमें घट पल्लव हैं। यह मानव निर्मित हैं क्योंकि इसके शुकनास भाग में कोने पर कटाव है, जो प्राकृतिक कटाव नहीं है। कुंभ के ऊपर चार पट्टी है, जिसमें दो के वैकल्पिक शुकनास सादे हैं और दो कटाव लिए हुए हैं। इस प्रकार का स्थापत्य हमें कहीं और देखने को नहीं मिला है।

 

यहाँ शिवलिंग में ‘लिंगों का समूह’ (cluster of phallic) है। एक तरह से ये पंचास्य शिवलिंग है। यह समदिशा के अंदर बना हुआ है, जिसमें तकनीकी कमी यह है कि इसके पार्श्व भाग चपटे हैं, पूर्वी और पश्चिमी भाग अर्द्ध गोलीय (semi circular) है, जो तकनीकी रूप से उचित नहीं समझे जाते पर संभवतः कलाकार ने परिधि व जगह के अनुसार इसको बनाया है।

 

राजस्थान में तो ऐसा दूसरा नहीं है पर ऐसा लिंगों के समूह वाला स्वतंत्र शिवलिंग मथुरा में भी मिला है, मैं इसको शिव के सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्त्पुरूष और ईशान रूप मानता हूँ। शिव-पार्वती विवाह पैनल, भरतपुर संग्रहालय के ऊपरी भाग में इस तरह का शिवलिंग समूह है| मैं इसे पंचास्य शिवलिंग का अंकन मानता हूँ।

 

जहाँ तक इस काल में शैली का सवाल है। इस समय विशेष प्रारूप सामने नहीं आया था पर राजस्थान के दर्रा में शिखर विकसित हो चुका था पर यहाँ शिखर के अवशेष देखने में नहीं आए हैं क्योंकि शायद छोटा शिखर रहा है, ऐसा मान कर चल सकते हैं।

 

दूसरा इसमें ऐसा लगता है कि ब्रह्मा-विष्णु-शिव का त्रिभाग मान कर चलते हैं तो इसमें विष्णु भाग प्रदर्शित (exposed) रहा है, वो योनिपट्ट से ढका नहीं है। ये in situ है तो ये मानकर चलना चाहिए कि शास्त्रों के हिसाब से ये यह असाधारण है। गुप्तकालीन शिवलिंगों में यह राजस्थान व भारतीय मूर्तिशिल्प में अनोखा है, ऐसा कोई अंकन भारतीय मूर्ति शिल्प के प्रकाशन में देखने को नहीं मिला। भरतपुर में कुषाणकालीन शिवलिंग में विष्णु भाग नहीं है, ब्रह्मा व सीधे शिव भाग है। ऐसा लगता है कि कला के अंदर कभी-कभी शास्त्रोक्त विधान की जगह स्वतंत्र अंकन कर दिया गया, पूर्णतः शास्त्रोक्त विधान का अनुसरण करने की मानसिकता नहीं रही है।

 

गुप्तकालीन मंदिर से तो समानता की जहाँ तक बात यह है तो यह सर्वतोभद्र है। राजस्थान में ऐसा दूसरा नहीं है। जैसे कि चारचौमा में गर्भगृह, गूढमंडप है। दर्रा में भी गर्भगृह, मंडप है तो इसकी तुलना उनसे नहीं कर सकते हैं। इसका स्थापत्य अलग है, सर्वतोभद्र प्रकार का, जो कि इसके बाद आठवीं शताब्दी में अजमेर में मिलता है। इसको शैवाचार्यों ने ही बनाया होगा, पास में ही कनेर की पुतली है, शैवाचार्यों का प्रधान्य रहा है तो उन्हीं का बनाने में योगदान रहा है।

 

राजस्थान में सरकार की संरक्षण नीतियाँ कागज में तो बहुत अच्छी हैं परन्तु इसका व्यवहारिक पक्ष दुखद है। आज की तारीख में पुरातत्व विभाग में जो संरक्षण (conservation) हो रहे हैं, उसमें स्थापत्यविदों को पुरातत्व की जानकारी नहीं होती, उस पुरातन भवन की तकनीकी जानकारी नहीं होने से वह अटपटे तरीके से जोड़ दी जाती है जो बहुत घातक है। इसका उपाय है कि संरक्षण का काम, जिस एजेंसी को दिया जाए, वो पुरातत्व विभाग के विषयमर्मज्ञों की कमेटी से ही मंजूर होना चाहिए तथा संरक्षण कार्य के दौरान भी महीने में टीम के द्वारा निरीक्षण किया जाना चाहिए, अंत में देखने से बात नहीं बनती, गलतियाँ रह जाती हैं| इस तरह के प्रोजेक्ट, पुरातत्व के विशेषज्ञों से ही पारित होने चाहिए, यह मुख्य मुद्दा है, जिसकी अवहेलना हो रही है।

 

आज की तारीख में जो मरम्मत (restoration) हो रहा है, जैसे हाड़ौती में मैंने देखा है, भरतपुर का पत्थर लगाया जाता है, उसमें साठ constance हैं। जैसे दहलनपुर में बांध है, जहाँ नमी है तो वह पत्थर डेढ़ सौ साल बाद नष्ट (decompose) हो जाएगा इसलिए स्थानीय पत्थर का प्रयोग करने से सही रहता है, वह स्थायी रहता है। गोलमगढ़ में स्थानीय बलुआ पत्थर (sandstone) है जो अच्छी गुणवत्ता वाला स्थायी पत्थर है, जल्दी अपघटित नहीं होता, इसमें पर्यावरण के प्रभाव को सहने की क्षमता होती है।

 

आज गोलमगढ़ में इतने पत्थर पड़े हैं कि रास्ते का पता नहीं चलता, आपने काम किया है, अगर कोई कला का विद्वान वहाँ जाना चाहे तो पहुँच नहीं सकता है। मुझे तो एक भील से मदद लेनी पड़ी क्योंकि रास्ता दिख नहीं रहा था तो वह ले गया और कहा कि खान वालों ने सारा रास्ता गड़बड़ कर रखा है, खान वाले इसे मिटा भी दे तो क्या मालूम चलेगा। विभाग का अध्यक्ष आज एक नौकरशाह (bureaucrat) है जबकि तकनीकी विशेषज्ञ (technical expert) को अध्यक्ष होना चाहिए तभी उसे स्मारकों से हमदर्दी होती है। वही स्मारकों के अस्तित्व व महत्व को समझ कर संरक्षण देता है। आज राजस्थान के गिने चुने गुप्तकालीन मंदिरों में एक यही सर्वतोभद्र मंदिर बचा है। रंगमहल, दर्रा, चारचौमा के मंदिर खंडित हो चुके हैं, माकनगंज उत्तर गुप्त काल का है। मात्र यही मंदिर पूर्ण रूप में शेष है।

 

गुप्तकाल के रंगमहल की सामग्री इसके समकालीन मानकर चलता हूँ, उसके वास्तुखण्ड, बड़ोपल की सामग्री, जो इटालियन विद्वान टेसीटोरी ने खोजे और जो राजकीय संग्रहालय, बीकानेर में है। परन्तु अनेक भाग जैसे— जाड्यकुंभ, ज्यामितीय अलंकरण (geometrical pattern) स्टोर में भी पड़े हैं।

 

इनसे कह सकते हैं कि रंगमहल में भी मंदिर का अच्छा स्वरूप रहा है, साइट पर शिखर चंद्रिका का भाग पड़ा था, जो यहाँ शिखर की उपस्थिति को बताता है, यहाँ शायद कलाविद् के द्वारा वेदीबंध विकसित हो चुका था, जबकि गोलमगढ़ में नहीं है, ऐसा मेरा मानना है।

 

राजस्थान में शिवलिंग का अभी तक पहला उदाहरण कालीबंगा से मिलता है, उसके बाद शिवलिंग कुषाणकाल में ही मिले हैं। गामड़ी, भरतपुर संग्रहालय में शिवलिंग है। कुषाणकाल से विष्णु-शिवादि भाग मिलते हैं। गामड़ी में भी विष्णु व शिव भाग की स्थिति नहीं है। राजस्थान में कालीबंगा के बाद मूर्तियों के रूप में यक्ष परम्परा, नोह, वीरावई में मिलती है, फिर कुषाणकाल में शिवलिंग मिलते हैं, मंदिर संरचना नहीं। कुषाणकाल के मंदिर संरचना हमारी सीमा से लगे मथुरा, सोंख में मिलते हैं। जहाँ डॉ. हर्डल ने सोंख में ’यू’ आकार के मंदिर की संरचना देखी पर हमारे यहाँ राजस्थान में नहीं है। गोलमगढ़ में घट पल्लव भी विस्तृत (extended) हैं, चौड़े हैं, ये पत्थर की चौड़ाई के अनुसार, द्वार पक्ष को ढकने के लिए हैं, जो इसका व्यवहारिक पक्ष है। ऐसा त्रिशूल युक्त शिवलिंग भी कहीं नहीं है। बिहार, कलकत्ता, उत्तर प्रदेश के कई संग्रहालय मैंने देखें हैं परन्तु ऐसा शिवलिंग पुरातत्व और साहित्य दोनों में देखने को नहीं मिला है। यहाँ त्रिशूल का दंड नहीं है, मैं इसे रजो, तमो, सतोगुण की अवधारणा मानता हूँ, वैसे मैं यहाँ पंचास्य शिवलिंग के रूप में शिव के सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरूष और ईशान का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व (symbolic representation) मानता हूँ।