गोलमगढ़, बिजोलियां के शिवालय के संदर्भ में ए.एल. श्रीवास्तव से बातचीत के अंश

in Interview
Published on: 10 December 2018

श्री ए.एल. श्रीवास्तव

श्री ए.एल. श्रीवास्तव इलाहबाद विश्वविद्यालय के सी.एम.पी. कॉलेज में भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत रहे हैं| श्रीवास्तव जी ने अपने क्षेत्र में 27 पुस्तकें और तकरीबन 600 शोधपत्र देश-विदेश की पत्रिकाओं में प्रकाशित किये| उन्हें अपने अप्रतीम लेखन कार्यों के लिए कई सम्मानों--बिहार सरकार के राजभाषा विभाग, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा 'हजारी प्रसाद द्विवेदी अनुशंसा' एवं 'इश्वरी प्रसाद सृजन' अवार्ड से नवाज़ा गया|

अमेरिका के नार्थ कैरोलिना में इन्हें 'Man of The Year 2003' and 'Man of Achievement Award 2005', और कैंमब्रिज, इंग्लैंड द्वारा 'Outstanding Intellectual of the 20th Century' से सम्मानित किया गया|

ये कानपुर के पंचाल शोध संसथान में 1993-2002 के बीच सचिव, उपाध्यक्ष एवं अध्यक्ष पद पर चुने गए|

डॉ. शिल्पी गुप्ता द्वारा गोलमगढ़, बिजोलियां के शिवालय के संदर्भ में कलामर्मज्ञ श्री ए. एल. श्रीवास्तव से बातचीत के अंश. दिनांक:- 15.10.2017

 

श्री ए. एल. श्रीवास्तव, भिलाई (छत्तीसगढ़) में भारतीय कलामर्मज्ञ हैं| डॉ. शिल्पी गुप्ता द्वारा खोजे गए गोलमगढ़ स्थित शिवालय के सन्दर्भ में इन्होंने खोजकर्ता से बातचीत की| जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं—

 

श्री ए. एल. श्रीवास्तव: आपके राइट-अप, ‘गोलमगढ़, दुनिया का एक अज्ञात एवं अनुपम गुप्त कालीन मंदिर’ में हमको ऐसा लग रहा है कि आप यह मान कर चल रहीं हैं कि जो हमने खोजा है वह गुप्तकालीन है| गुप्तकालीन होने के लिए आप ने उदाहरण दिया कि चौकोर होते थे और कुछ नाम दिया तथा कार्यकाल बताया| मैं आप को यह बताना चाहता हूँ कि इस मंदिर से जो मिला है और जो नाम आपने बताया, उसमें कोई समानता नहीं है| इस चौकोर कमरे की ख़ास बात यह है कि ये पूर्ण रूप से चौकोर है| इसके एक तरफ प्रवेश द्वार है, इसी तरफ एक बरामदा है| एक तरफ कोने पर दो पिलर और दूसरी तरफ भी कोने पर दो पिलर बने हुए हैं और बीच में आने-जाने का रास्ता है| इस में और उस संरचना में समानता कहाँ बैठ रही है? इसलिए हमारा कहना है कि मान कर मत चलिए|

 

एक शब्द और सुन लीजिये, चतुर्दिक शिवलिंग| यह शिवलिंग चतुर्दिक नहीं है| यह चतुर्दिक दर्शनीय शिवलिंग है| चारों दिशाओं का शिवलिंग नहीं है बल्कि चारों दिशाओं में दिखाई पड़ने वाला शिवलिंग है| इसमें थोड़ा अंतर है| आप सोच कर देखिएगा| चतुर्दिक शिवलिंग कहना और चतुर्दिक दर्शनीय शिवलिंग कहना, दोनों में थोड़ा अंतर आ जाता है|

 

चारों दिशाओं में जो यह नीचे वाले पक्खे बने हैं, उनको पक्खा कहना चाहिए, स्तंभ नहीं| ये घट पल्लव, किसी स्तंभ पर नहीं बने हैं| दीवार का एक पख इधर है, एक उधर है और बीच में दरवाजा छूटा हुआ है| हर हालत में यह जो स्ट्रक्चर है, वह स्थापत्य तो है ही, इस के बीच में जो गोला है, जिस पर शिवलिंग को खड़ा किया गया है, वह बीच में गोला ना हो कर चौकोर होता फिर भी स्थापत्य यही होता| देखिये मुझे जो लग रहा है कि यह बनाया गया है और किसी भी हालत में कुषाण काल से आगे जाता नहीं है| इस को कुषाण काल ना कह कर पूर्व गुप्त काल भी कह सकते हैं| अभी तक एक विचारणीय प्रश्न था कि चित्तौड़ एवं कोटा के मध्य किसी गुप्तकालीन स्थापत्य का अभाव कैसे है? इस मंदिर के मिलने से इस का भी समाधान होता है| यह बहुत जोरदार सोच है क्योंकि यह तभी संभव है जब आप इसे गुप्तकालीन मान लेंगे|

 

इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति एवं पर्यटन के सन्दर्भ में इस शिवालय की खोज एक विशेष स्थान रखती है| यह सन्देश आप के पर्पस (उद्देश्य) की वजह से भी महत्वपूर्ण हो जाता है| इस स्थान पर सर्ताप नाम के राजा का स्तंभ अभिलिखित पाया गया था| वहाँ पर पूजा शिला प्राकार का उल्लेख मिलता है नागरी में| वी. एस. अग्रवाल ने इसी को ले कर बताया कि मथुरा में एक शिला है, जिस पर एक वृक्ष है जिसे पूजा जाता है| यह मंदिर का एक स्टेज है| जैसे नागरी वाली एक शिला है| वो एक शिला है जिस पर फूल-माला चढ़ाने की बात होती रही होगी| इस के बाद उस के चारों और एक प्राकार बनाया गया होगा| प्राकार बनाने के बाद छत आती है| वी. एस. अग्रवाल ने मथुरा में बताया है कि जो बुद्ध और बोधिसत्व की मूर्तियाँ बनायीं गयीं, उनके ऊपर पहले छत रखे गए|

 

इसके अलावा मथुरा का एक बहुत अच्छा उदाहरण उन्होंने दिया है| वहाँ एक चबूतरा था, जिस के सामने प्रवेश द्वार था| उन्होंने चबूतरे के तीन तरफ गड्ढा बनाया लंबा-लंबा| इन गड्ढों में उन्होंने पत्थर के शिलापट्ट खड़े किये| उन्होंने इन तीनों को जोड़ दिया| अब ये तीन तरफ से दीवार बन गया| उन्होंने ठीक उसी तरह का चौड़ा शिलापट्ट ऊपर से छत की जगह डाल दिया| इसका चित्र भी है हमारी किताब में— भारतीय कलाकृति में| वो जो उन्होंने ऊपर छत लगायी, वह थोड़ी प्रवेश द्वार की ओर निकली हुई है| जो निकला हुआ हिस्सा है, उस में अष्टमंगल बने हुए हैं| ये जैनों के बनाने का तरीका था| उसी तरीके से मथुरा में बनाया गया है| इस के चित्र आप को मेरी किताब भारतीय कलाकृति में मिलेंगे| इस को आप यदि परवर्ती गुप्तकालीन कहेंगी तो ऐसा नहीं है कि महत्व कम हो जायेगा| आप ने एक डिस्कवरी की है| आप ने एक स्ट्रक्चर ढूँढा है यह महत्वपूर्ण बात है| अब यह गुप्त काल का है या कुषाण काल का, वो बाद की बात है| आप का जो मत है कि गोलमगढ़ के इस मंदिर का काल क्या रहा होगा उस के लिए मैंने आप को बताया ही कि पूर्व गुप्त या कुषाण काल कह सकती हैं| यदि आप इस को चौथी या पांचवीं शताब्दी कहेंगी तो यह बिल्कुल नहीं बैठेगा| चौथी-पांचवीं शताब्दी में तो दीवारें आ गयीं हैं, छत आ गया है|

 

डॉ. शिल्पी गुप्ता: आपके अनुसार गुप्त काल में मंदिरों की विशेषता क्या है?

 

श्री ए. एल. श्रीवास्तव: आप के अनुसार तो गुप्त काल में मंदिरों की विशेषता है कि वह चौकोर बनने लगे थे, सपाट बनने लगे थे| यह सारी गुप्त काल की विशेषता नहीं है, प्रारंभिक गुप्त काल की विशेषता है| गुप्त काल में तो बोधगया का मंदिर बना था| ऊपर से नीचे तक खूबसूरत मूर्तियाँ बनी हुई हैं, बकायदा, ऊपर से छत डाला हुआ है| गुप्त काल में देवगढ़ में दशावतार का मंदिर बना हुआ है, देखिये कितना कला संपन्न है| चौड़ा बना हुआ या सपाट बना हुआ के लिए पूर्व गुप्त या कुषाण काल का प्रयोग कर सकते हैं| वहाँ डेट डालने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि चौथी-पांचवीं शताब्दी ठीक बैठेगा नहीं|

 

डॉ. शिल्पी गुप्ता: ऐसा स्ट्रक्चर आप ने कहीं और देखा है? क्या इस मंदिर की तुलना किसी और मंदिर से की जा सकती है? अगर कर सकते हैं तो कैसे कर सकते हैं?

 

श्री ए. एल. श्रीवास्तव: मेरे ख्याल से तो मैंने ऐसा मंदिर नहीं देखा| संभवतः इसकी तुलना किसी और के साथ करना उचित नहीं होगा| मैंने कुछ किताबें पलटीं हैं तो उनमें ऐसा कुछ दिखा तो है पर सटीकता से कहना मुश्किल है| यह जो स्ट्रक्चर है, वह कम्पलीट बना नहीं है| कोई संत वहाँ कुछ दिनों तक रहा होगा और इस बीच उसके भक्त आते होंगे तो ऐसे मान्यता मिलने की वजह से वहाँ पूजा होने लगी होगी| इनमें सब से आस-पास समानतारखता हुआ अगर कोई है तो वह साँची वाला है|

 

डॉ. शिल्पी गुप्ता: इस प्रतिमा को देख कर आप को यह शासकीय निर्माण लगता है या फिर किसी व्यक्ति के द्वारा निजी तौर पर बनवाया गया होगा?

 

श्री ए. एल. श्रीवास्तव: मेरे अनुसार यह काम किसी शिव भक्त या सन्यासी का रहा होगा| कोई सन्यासी बहुत दिनों से वहाँ रहता आया होगा| उसके लिए भक्त गण आने लगे होंगे| वहीं आस-पास चट्टानों को देख कर यह मूर्ति बनाने का ख्याल आया होगा और जब सन्यासी ने आज्ञा दी होगी तो लोगों ने मदद की| मेरे ख्याल से जिस सन्यासी के पास में पैसा रहा होगा उसने किसी शिल्पकार से यह मूर्ति बनवाई होगी तो उसमें कुछ बुरा तो है नहीं| जिन सन्यासियों के पास भक्तों के दान से पैसे आ जाते हैं वह मंदिर तो बनवा ही सकते हैं|

 

डॉ. शिल्पी गुप्ता: शिवलिंग की आकृति, लिंग या त्रिशूल को देख कर ऐसे किसी अन्य शिवलिंग की याद आती है, जिस से हम इसकी तुलना कर सकें?  

 

श्री ए. एल. श्रीवास्तव: मैंने तो ऐसा नहीं देखा कि जिस में इस शिवलिंग की किसी और शिवलिंग से तुलना कर सकें| शिवलिंग मैंने बहुत देखे हैं पर इस तरह का नहीं देखा है|

 

डॉ. शिल्पी गुप्ता: भारत के इन धरोहरों का संरक्षण के बारे में आप की क्या राय है? क्या सरकार की नीतियाँ तथा व्यवस्था इस दिशा में काफी हैं?

 

श्री ए. एल. श्रीवास्तव: मैंने तो यह बताया है कि जब तक हर प्रकार से सरकार को सूचित ना किया जाए, सरकार कुछ नहीं करती है| हर तरह से, राज्य सरकारों तक को सूचना पहुंचानी चाहिए और उसे बताना चाहिए कि अगर इनका रखरखाव सही तरीके से होगा तो इन क्षेत्रों में पर्यटन का महत्व कितना बढ़ जाएगा|

 

डॉ. शिल्पी गुप्ता: यहाँ त्रिशूल बनाने का क्या मतलब है?

 

श्री ए. एल. श्रीवास्तव: इस विषय में मैंने कहीं पढ़ा नहीं है अभी तक| मेरी जो समझ में आता है, वो यह है कि जिस सन्यासी ने यह मंदिर बनवाया होगा उसने किसी पंडित को बुला कर इसके लिए संपर्क या चर्चा नहीं की होगी| उसे जिस तरह से समझ में आया होगा, उसने उसी तरह से बनवाया होगा| वह शिव भक्त था तो यहाँ कोई और आकृति जैसे गोल या चौकोर बनाने की जगह उसने त्रिशूल की आकृति बनवाई होगी कि लोग समझ जायेंगे कि यह शिव की निशानी है| ऐसा हो सकता है वर्ना नीचे वाली जो रेखाएं हैं वो क्या इंगित करती हैं यह हम भी नहीं समझ पाए| ऊपर वाला तो शिवलिंग है और त्रिशूल भी बना हुआ है| उसकी रूप-रेखा बिल्कुल वैसे ही है| आप एक बार किताब खोल कर देखिएगा कि हो सकता है घट पल्लव कहीं बी.सी. में बने हों| यह कहना कि घट पल्लव केवल गुप्त काल में बने थे उचित नहीं होगा| गुप्तकालीन होने के लिए कोई साक्ष्य होना चाहिए| कुछ ना कुछ तो स्ट्रक्चर में होना चाहिए| यह आप ज़रूर कह सकती हैं जो मैंने कहा कि कुषाण कालीन या फिर पूर्व गुप्त कालीन| पूर्व गुप्त कालीन कहने से वह समय बिल्कुल वही होगा कि गुप्त काल का प्रारंभ हुआ हो या कुषाण काल का अंत हो रहा हो| यहाँ मैंने ऐसी कोई रेखा या आकृति नहीं देखी, जिसे पकड़ कर कहा जा सके कि यह गुप्तकालीन है| मुझे ऐसा इसमें कुछ नहीं दिखा जिसकी वजह से इसे गुप्तकालीन कहा जा सके| आप ने जहाँ गुप्तकालीन लिखा है, उसकी जगह प्राग् लगा दें तो यह उचित हो जाएगा|