‘बानाम’ दुनिया के सबसे पुराने वाद्ययंत्रों में से एक है जिसका प्रचलन पारंपरिक रूप से संताल[1] आदिवासी समाज आज भी करता है। आदिमकला के स्वरूप वाला यह वाद्ययंत्र आकार-प्रकार में ‘रावणहत्था’, ‘इकतारा’, ‘सारिंदा’ (सारंगी) या ‘वायलिन’ जैसा दिखता है। पर ग़ौर करनेकरने वाली बात है कि आकार-प्रकार में इन वाद्ययंत्रों जैसा ही दिखने के बावजूद अपने रूप-रंग और ध्वनि में यह इन सबसे बहुत भिन्न होता है।

इस एक तार वाले संताल आदिवासी वाद्य की प्रमुख विशेषता यह है कि इसका कोई एक निर्धारित डिजाइन नहीं होता। हर ‘बानाम’ कीडिजाइन अलग होती है। और यही विशेषता ‘बानाम’ को ‘रावणहत्था’, ‘इकतारा’, ‘सारंगी या ‘वायलिन’ से बिल्कुल भिन्न बना देती है। तारवाद्य की श्रेणी में आनेवाले इस तंतु वाद्य में यूं तो आम तौर पर एक ही तार होता है लेकिन कुछ बानाम में दो से चार तारों का भी प्रयोग कियाजाता है।

‘बानाम’ की दूसरी विशेषता यह है कि ये पारंपरिक वाद्ययंत्र संतालों के लोक जीवन, विश्वास और उनके जीवन-मृत्यु के आनुष्ठानिक क्रियाओंसे जुड़ा है। संताल आदिवासियों का विश्वास है कि यह वाद्य उन्हें उस अदृश्य दुनिया से जोड़े रखता है जिसमें पुरखा आत्माएं रहती हैं। इसीलिए‘बानाम’ वाद्य के साथ गाए और सुनाए जाने वाले अधिकांश गीत और कहानियाँ आत्माओं और पूर्वजों से संबंधित होते हैं। लेकिन इसी के साथ-साथ मिथकीय, ऐतिहासिक और नैतिक गीत व कथाएं भी ‘बानाम’ का हिस्सा हैं जिनका उपयोग मनोरंजन के लिए किया जाता है।

आदिकाल से संताल समाज में प्रचलित इस वाद्ययंत्र की तीसरी विशेषता है इसकी अनूठी और आदिम कला-कारीगरी। वास्तव में देखा जाए तोयह वाद्ययंत्र महज एक वाद्ययंत्र नहीं है बल्कि यह काष्ठ-कला की आदिवासी परंपरा और विरासत को सहेजे हुए है। संताल समाज में मौजूदऔर भारत सहित दुनिया के अनेक संग्रहालयों में संरक्षित ‘बानाम’ की सैंकड़ों डिजाइनों में काष्ठ कला और कारीगरी देखते ही बनती है।
‘बानाम’ की चौथी विशेषता है कि यह एक ‘लोककथात्मक’ (Fiddle like instrument) वाद्य है। कला और संगीत के इतिहासकार इसे ‘तंतुवाद्य’ (Chordophone) के साथ-साथ ‘लोककथात्मक’ श्रेणी में भी रखते हैं। इसकी वजह शायद यह है कि मुख्य रूप से ‘बानाम’ की प्रकृतिलोककथात्मक है। यानी इस वाद्ययंत्र के साथ अधिकांशतः लोक कथाओं का गायन और वाचन किया जाता है।

संताली बानाम के इतने प्रकार हैं कि उसके रूपों का वर्गीकरण करना एक मुश्किल काम है। फिर भी कला संग्राहकों और इतिहासकारों ने इसकेतीन रूपों की पहचान की है- 1. ढोडरो बानाम, जो सबसे लोकप्रिय है, 2. फेटा या फेण्टोर बानाम और 3. हुका बानाम। ढोडरो बानाम एक तारका होता है जबकि फेटा या फेण्डोर में एक से अधिक तार (चार तार तक) हो सकते हैं।

परंपरागत बानाम का रूप-रंग और उसकी आकृति किसी स्त्री जैसी होती है। उसकी बनावट में सिर, चेहरा, गला, छाती, पेट और हाथ-पैर सबरहता है। चूंकि यह लकड़ी के एक ही पीस से बनता है इसलिए इस वाद्ययंत्र में कोई जोड़ नहीं होता। न ही इसको बनाने में कांटी, स्क्रू (पेंच) याइस तरह की किसी अन्य चीज की जरूरत पड़ती है।

इस संताल आदिवासी वाद्ययंत्र ‘बानाम’ का निर्माण मुलायम लकड़ी के एक ही टुकड़े से किया जाता है। आम तौर पर यह लकड़ी गुलईची पेड़ (Plumeria sp.) का तना या उसकी मोटी टहनी की होती है। इसके निर्माण की शुरुआत लकड़ी के टुकड़े पर चिन्हा लगाकर उसे चार बराबरभागों में बांट देने से होती है। लकड़ी के इस टुकड़े पर सबसे पहले ‘लाच्’ (पेट) बनाया जाता है। अंडाकार आकृति वाला ‘लाच्’ अंदर सेखोखला रहता है। इसके बाद बानाम की ‘कोराम’ (छाती) बनायी जाती है जिसकी बनावट आयताकार होती है। ‘लाच्’ से जुड़ा हुआ यह भागभी भीतर से खोखला रहता है। तार को रगड़े जाने पर इसी भाग से संगीत लहरियाँ फूटती हैं। इसके बाद ‘होटोक्’ (गर्दन), ‘बोहोक्’ (माथा) और‘लुतुर’ (कान) बनाए जाते हैं। ‘होटोक्’ और ‘बोहोक्’ का कोई तयशुदा साइज निर्धारित नहीं रहता। इन दोनों का साइज इसको बनाने वालेकलाकार की व्यक्तिगत पसंद और उसकी कलात्मक अभिरूचि पर निर्भर करती है।

‘बानाम’ के इन सभी भागों को बनाने के बाद उसके ‘लाच्’ के हिस्से को ‘तोरहोत् हारता’ के चमड़े की खाल से ढंक दिया जाता है। लाच् कोढंकने के लिए पहले मुख्य रूप से ‘तोरहोत् हारता’ यानी गोह (Monster Lizard) की खाल काम में ली जाती थी। लेकिन अब बकरी या दूसरेजानवरों की खाल को काम में ले रहे हैं। फिर बानाम के बीचोंबीच ‘बोहोक्’ से लेकर ‘लाच्’ के निचले हिस्से तक रेशे से बना एक तार ‘तालेसिर’ लगा देते हैं। पारंपरिक ‘ताले सिर’ ताड़ के रेशे से बनाया जाता था पर अब इसकी जगह नायलोन या अन्य तारों का प्रचलन हो गया है।सबसे अंत में इसको रगड़कर बजाने के लिए ‘रेतावाक्’ (रेतने या रगड़ने वाला) बनाने का काम सपंन्न होता है। ‘रेतावाक्’ धनुषनुमा (अगला चित्रदेखें) होता है जिसे बाँस की पतली लचीली टहनी और ‘सादोम चांवार’ (घोड़े की पूंछ का बाल) से बनाया जाता है। अनुपलब्धता की वजह से‘सादोम चांवार’ के लिए भी संताल कलाकारों द्वारा अब नायलोन का इस्तेमाल किया जाने लगा है।

आकार-प्रकार में ढोडरो बानाम सबसे बड़ा और कलात्मकता की दृष्टि से भी सबसे आकर्षक होता है। बानाम को बजाने के लिए कलाकार इसवाद्य को अपने बाएं कंधे पर टिकाता है और दाहिने हाथ से ‘रेतावाक्’ द्वारा इसके तार को रगड़ता है। रगड़ते हुए ही वह अपने बाएं हाथ कीअंगुलियों से तार को दबाता भी रहता है जिससे संगीत लहरियों की सृष्टि होती है। इसका आकार और वजन बहुत कम और संतुलित होता हैजिसके चलते इसे खड़े-खड़े या बैठकर दोनों तरह से बजाना आसान होता है।

बानाम का समग्र आकार स्त्री रूप अर्थात् ‘मातृशक्ति’ के उस आदिम जीवनदर्शन को अभिव्यक्त करता है जो धरती और उसकी ऊर्वरता काप्रतीक है।
[1] ‘बानाम’ के निर्माता और कलाकार संताल या संथाल लोग हैं। नृतात्विक रूप से संताल लोग आग्नेयवंशी (Proto-Australoid) मुंडा समूह के अंतर्गत आते हैं। भारत में इन आग्नेयवंशी मानव समुदायों को लोकप्रिय आम शब्दावली में ‘आदिवासी’ और संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा गया है। संताल लोग खुद को ‘होड़’ (Human) अथवा ‘होड़ होपोन’ (मनुष्य की संतान) कहते हैं। इनकी भाषा ‘संताली’ है जो ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषाई परिवार के मुंडा समूह की सदस्य है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 2004 में जिन दो भाषाओं को जगह दी गई है उनमें से एक संताली है जिसके बोलने वालों की संख्या लगभग 76 लाख है। इसकी अपनी स्वतंत्र लिपि भी है जिसे ‘ओल चिकि’ कहते हैं परंतु देवनागरी, रोमन, बंगला, ओड़िया और असमिया लिपियों का इस्तेमाल संताल समुदाय बीसवीं सदी के आरंभ से ही करता रहा है। संताल लोग असम, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ, बिहार, त्रिपुरा तथा बंगाल भारतीय राज्यों सहित बाँग्लादेश, नेपाल और भूटान में निवास करते हैं।