हज़ार रूपों, हज़ार सुरों और हज़ार कहानियों वाला संताली वाद्ययंत्र ‘बानाम’

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Published on: 13 July 2020

अश्विनी कुमार पंकज (Ashwini Kumar Pankaj)

अश्विनी कुमार पंकज एक प्रसिद्ध कथाकार, सांस्कृतिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। वह मुख्य रूप से आदिवासी कला-संस्कृति, इतिहास और साहित्य पर लिखते हैं। 'पेनाल्टी कॉर्नर', 'मरंङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा', 'माटी माटी अरकाटी' और 'आदिवासियत' उनकी लोकप्रिय पुस्तकें हैं। वह 14 आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं वाले एक पाक्षिक अखबार ‘जोहार दिसुम ख़बर’ और त्रैमासिक कला पत्रिका ‘रंगवार्ता’ का प्रकाशन-संपादन करते हैं।

दुनिया में वाद्ययंत्रों का इतिहास बहुत पुराना है, उतना ही पुराना जितना कि मानव और उसकी सभ्यता है। लेकिन यह कहना बहुत मुश्किल है कि मनुष्य ने सबसे पहले कौन सा वाद्ययंत्र बनाया और उसका प्रयोग किसके लिए किया। सृष्टिकर्ता के प्रति आभार ज्ञापन के लिएअपनी भावनाओं के संप्रेषण के लिए या फिर व्यक्तिगत और सामूहिक मनोरंजन के लिएयह सवाल अब तक अनुत्तरित है परंतु यह धारणा आम तौर पर स्वीकृत है कि देह को थपथपाने या ताली बजाने से ही ‘वाद्य’ की शुरुआत हुई है।[1] इसकी पुष्टि मुंडा आदिवासी कहावत ‘कजि गे दुरड़सेनगे सुसुनकुमुनि दुमड़’[2] से भी होती है, जिसका अर्थ है- ‘चलना ही नृत्य हैबोलना ही गीत हैदेह को थपथपाना ही संगीत है।’ 

देहरूपी वाद्य से शुरू हुई इस संगीत यात्रा में आगे चलकर कई तरह के वाद्ययंत्रों का विकास हुआ। भीमबैठका व अन्य प्राचीन गुफाओं में मिले शैल-चित्रहड़प्पा के अवशेषसामवेद की ऋचाएँभरतमुनि का नाट्यशास्त्र और अजंता-एलोरा के स्थापत्य भारतीय वाद्ययंत्रों की ऐतिहासिक विकासयात्रा को समझने की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं। इस सांगीतिक इतिहास से पता चलता है कि भारतीय उपमहाद्वीप का मानव समुदाय सभ्यता के आरंभिक काल से ही ठोक-पीट कर (जैसेढोल)फूंक कर (जैसेबाँसुरी)हिलाकर (जैसेघुंघरू) और खींच-रगड़ कर (जैसेइकतारा) बजाये जाने वाले वाद्ययंत्रों के निर्माण एवं वादन में सिद्धहस्त रहा है। इन वाद्ययंत्रों के आदिम रूप और प्रयोग आज भी हमें दुनिया के उन मानव समूहों में सहज ही देखने को मिलता है जिन्हें ‘आदिवासी’ कहा जाता है। समाजशास्त्री और इतिहासकार मानते हैं कि आदिवासी समुदायों के पास वाद्ययंत्रों की एक समृद्ध परंपरा है जिनमें उनका संगीत प्रेम झलकता है। 

भारतीय आदिवासियों की प्राचीन और समृद्ध सांगीतिक परंपरा में ‘बानाम’ एक ऐसा लोकप्रिय वाद्य है जिसकी जोड़ का कोई दूसरा वाद्ययंत्र हमें दुनिया के किसी और दूसरे समाज में नहीं मिलता है। चाहे वह आदिवासी समाज हो या ग़ैर-आदिवासी समाज हो। यानी ‘बानाम’ का प्रचलन सिर्फ और सिर्फ भारत के संताल[3] आदिवासी समुदाय में ही है। जो न केवल प्राचीन है बल्कि हर दृष्टि से अद्भुत हैअनूठा हैबेजोड़ है। 

 

 

चित्र १. आदिवासी कलाकार सोम मुर्मू द्वारा निर्मित ‘बानाम’ (फोटो सौजन्य: घोसालडांगा बिष्णुबाटी आदिबासी ट्रस्ट संग्रहालय, बीरभूम, पश्चिम बंगाल, नवंबर 2018)
चित्र १. आदिवासी कलाकार सोम मुर्मू द्वारा निर्मित ‘बानाम’ (फोटो सौजन्य: घोसालडांगा बिष्णुबाटी आदिबासी ट्रस्ट संग्रहालय, बीरभूम, पश्चिम बंगाल, नवंबर 2018)

बानाम’ संताल आदिवासियों का एक अत्यंत लोकप्रिय वाद्ययंत्र है जो आकार-प्रकार में ‘रावणहत्था’, ‘इकतारा’, ‘सारिंदा’ (सारंगी) या ‘वायलिन’ जैसा है परंतु रूप और ध्वनि में वह इनसे भिन्न होता है। कला और संगीत के इतिहासकार इसे ‘तंतु वाद्य’ (Chordophone) और ‘लोककथात्मक’ (Fiddle like instrument) श्रेणी में रखते हैं। ‘जर्नी ऑफ द बानाम’ के अनुसार, ‘बानाम संतालों का एकमात्र एकतंत्री (Monochord) वाद्य है जो तंतु (तार) वाद्ययंत्र की श्रेणी में आता है। इसे मुलायम लकड़ी के एक टुकड़े से बनाया जाता है जिसका निचला हिस्सा जानवर की खाल से ढँका रहता है। इसे दाहिने हाथ से (बाँस या पतली लकड़ी और घोड़े की पूँछ के बाल से बनी) धनुष के द्वारा बजाया जाता है। बाएँ हाथ की अँगुलियों से ताड़ के रेशे से बने तार को दबाकर ध्वनियाँ और सुर निकाले जाते हैं। बानाम की संगीत लहरियाँ कलाकार द्वारा किये जा रहे कथा गायन या गीतों की मधुर संरचनाओं का अनुसरण करती हैं।’[4]

इस तार-वाद्य का प्रचलन झारखंड में संतालों के अलावा मुंडाहोखड़ियाबिरहोर आदि समुदायों में भी है। जिसे ‘बानाम’ के अतिरिक्त ‘टुइला’, ‘केन्दरा’ और ‘केन्दरा बानाम’ भी कहा जाता है। संताल समुदाय और अन्य आदिवासी समुदायों के बानाम एक ही वर्ग में होने के बावजूद रूप-रंगआकार-प्रकारसुर-ताल आदि सभी मायने में एक-दूसरे से पूरी तरह से भिन्न हैं। जो कलात्मक विविधताकाष्ठ नक्काशीसौंदर्य और अनूठापन संताली बानाम में है वह अन्य आदिवासी बानाम में बिल्कुल नहीं दिखाई पड़ता। अर्थात् संथाली नाबाम अन्य समुदायों के बानामों की अपेक्षा अधिक सजाया हुआ होता है। फिर भी इसकी लोकप्रियता मुंडाखड़िया आदि समुदायों में उतनी ही है जितनी कि संताल आदिवासी समुदाय में। इस संबंध में एक प्रचलित मुंडा लोकगीत इस प्रकार है-

चेतान टोला रेटुइला सुकु चिरे

मियड गतिम रे उमिङ मे

लातार टोला रेकेन्दरा बानाम चिरे

मियड सांगिडरे चिदेन मे[5]

भावार्थ- 

ऊपर के टोले में टुइला[6] बना रहे हैं

हे प्रिय एक मेरे लिए ला दो

नीचे के टोले में केन्दरा बानाम बना रहे हैं

हे संगी एक मेरे लिए ला दो

झारखंडी संस्कृति के अध्येता डॉ. गिरिधारीराम गौंझु ‘गिरिराज’ के अनुसारसंताली बानाम ‘लकड़ी का मुद्गरनुमा वाद्य यंत्र है जिसका एक भाग पतला और दूसरा भाग मोटा होता है। मोटे भाग के निचले हिस्से को खोखला कर हृदय के आकार का एक छोटा छिद्र कर दिया जाता है। ऊपर का भाग पूरा खुला हुआ होता है जिसे गोह (बड़ी छिपकली) के चमड़े से मढ़ दिया जाता है। पतले भाग में घोड़े के बालों को तार की जगह बाँधा जाता है। उसे चमड़ा से मढ़े भाग के ऊपर से पार करते हुए नीचे बाँध दिया जाता है। चमड़े के ऊपर एक घोड़ी बालों के तार को उठाये रखती है। ऊपर के बंधे भाग को एक रस्सी के बंधे रिंग से इन बालों के तारों को कसते या ढीला करते हैं। पतले भाग को बायें हाथ से पकड़ कर मोटे भाग को वक्ष पर टिका करघोड़े के बालों से बने धनुष से घर्षण कर संगीत निकाला जाता है।’[7]

कौन हैं ‘बानाम’ के कलाकार

बानाम’ के निर्माता और कलाकार संताल लोग हैं। नृतात्विक रूप से संताल लोग आग्नेयवंशी (Proto-Australoid) मुंडा समूह के अंतर्गत आते हैं। भारत में इन आग्नेयवंशी मानव समुदायों को लोकप्रिय आम शब्दावली में ‘आदिवासी’ और संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा गया है। संताल लोग खुद को ‘होड़’ (Human) अथवा ‘होड़ होपोन’ (मनुष्य की संतान) कहते हैं। इनकी भाषा ‘संताली’ है जो ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषाई परिवार के मुंडा समूह की सदस्य है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 2004 में जिन दो भाषाओं को जगह दी गई है उनमें से एक संताली है जिसके बोलने वालों की संख्या लगभग 76 लाख[8] है। इसकी अपनी स्वतंत्र लिपि भी है जिसे ‘ओल चिकि’ कहते हैं परंतु देवनागरीरोमनबंगलाओड़िया और असमिया लिपियों का इस्तेमाल संताल समुदाय बीसवीं सदी के आरंभ से ही करता रहा है। संताल लोग असमझारखंडउड़ीसाछत्तीसगढबिहारत्रिपुरा तथा बंगाल भारतीय राज्यों सहित बाँग्लादेशनेपाल और भूटान में निवास करते हैं।

अन्य आदिवासी समुदायों की तरह ही संताल भी प्रकृति के सहचर हैंश्रमजीवी और कृषक हैंकुशल कारीगर और कलाकार हैंस्वाभिमानी और साहसी योद्धा हैं तथा सामूहिकता और सहअस्तित्व में विश्वास रखते हैं। धार्मिक रूप से इनमें बोंगावाद (आत्मावाद) का प्रचलन है और सर्वोच्च सृष्टिकर्ता के रूप में ये ‘ठाकुरजीव’ को तथा ‘मरड़ बुरू’ (महान पहाड़) को अपना मुख्य आराध्य मानते हैं।[9] विभिन्न गोत्रों (clans) में बँटे हुए संताल समाज में सगोत्रीय विवाह पूर्णतः वर्जित है तथा सामाजिक-धार्मिक जीवन के संचालन के लिए गाँवपरगना और देश स्तरीय ‘माँझी-परगना’ स्वशासन व्यवस्था है। 

धार्मिक-सांस्कृतिक अवसरों और रोजाना के जीवन में संताल आदिवासी मुख्य तौर पर 14 तरह के विभिन्न वाद्यों का प्रयोग करते हैं। कुछ वाद्य पीट कर (जैसे टुमदाटमाकनगाड़ा आदि)कुछ फूंक कर (जैसेबाँसुरीसिंगा)कुछ हिलाकर (जैसेजुनको) और कुछ तार वाद्य (जैसेकेन्दराबानाम) हैं जो रगड़ कर बजाए जाते हैं। इन सभी वाद्ययंत्रों का धार्मिकसांस्कृतिकऐतिहासिक और कलात्मक महत्व है परंतु इनमें ‘बानाम’ सबसे अनूठा है।

इस वाद्य को संताल समुदाय के लोग स्वयं बनाते हैं। यानी जिस संताल को बानाम चाहिए उसे अपना बानाम खुद बनाना पड़ता है। क्योंकि समुदाय में अलग से बानाम बनाने वाले लोग नहीं होते जैसा कि दूसरे वाद्ययंत्रों के निर्माण में हम पाते हैं, जहाँ वाद्ययंत्र बनाता कोई है और उसे बजाता कोई और है। इस प्रकार हर संताल कलाकार जो बानाम बजाता है वही अपने बानाम का निर्माता होता है। हालांकि अब कुछ संताल कलाकार आदिवासी संगीत और कलाप्रेमियों की माँग पर बानाम बनाने और बेचने का काम कर रहे हैं। खासकर शांतिनिकेतन के आसपास के संताल जहाँ विश्वभर से रिसर्चर आया करते हैं। बीसवीं सदी के मध्य तक बानाम बजाने का कार्य पारंपरिक रूप से संताल पुरुष ही किया करते थे परंतु अब संताली महिलाएँ भी इसे बजा रही हैं। 
 

चित्र 2. विभिन्न प्रकार के बानाम. फ़ोटो सौजन्य: डॉ. धनेश्वर माँझी, शांति निकेतन, अक्टूबर 2019.
चित्र 2. विभिन्न प्रकार के बानाम. फ़ोटो सौजन्य: डॉ. धनेश्वर माँझी, शांति निकेतन, अक्टूबर 2019.

 ‘बानाम’ का आकार-प्रकार

बानाम मुख्यतः तीन तरह के होते हैं- ढोडरो बानामफेटा बानाम और हुका बानाम। गुलईची (Plumeria sp.) पेड़ की लकड़ी से बनाए जाने वाले इस वाद्य में आम तौर पर एक तार होता है लेकिन कुछ बानाम में दो से चार तारों का भी प्रयोग किया जाता है। कला संग्राहकों और इतिहासकारों के अनुसार संताली बानाम के इतने प्रकार हैं कि उनका वर्गीकरण मुश्किल है। फिर भी इसके तीन रूपों की पहचान की गई है- 1. ढोडरो बानामजो सबसे लोकप्रिय है, 2. फेटा या फेण्टोर बानाम और 3. हुका बानाम। 

ढोडरो बानाम एक तार वाला है जबकि फेटा या टेण्डोर में एक से अधिक तार (चार तार तक) हो सकते हैं। परंपरागत बानाम की आकृति स्त्रीनुमा इंसान वाली होती है। उसकी बनावट में सिरचेहरागलाछातीपेट और हाथ-पैर सब होता है। यह लकड़ी के एक ही पीस से बनता है इसलिए इसमें कोई जोड़ नहीं होता। इसको बजाने के लिए पहले घोड़े की पूंछ की बाल का इस्तेमाल होता था पर अब प्लास्टिक या तार का प्रयोग करते हैं। बानाम कलाकार इसे छाती से लगाकर वायलिन की तरह बजाया करते हैं। 

तीनों तरह के बानाम में ढोडरो आकार-प्रकार में सबसे बड़ा तो है ही कलात्मकता की दृष्टि से भी यह सबसे सुंदर होता है। ढोडरो बानाम लकड़ी से जबकि हुका बानाम आम तौर पर नारियल के खोल और बाँस से बनाए जाते हैं। बानाम को खड़े-खड़े और बैठकर दोनों तरह से बजाते हैं। बजाते समय बानाम आम तौर पर संगीतकार के कंधे पर टिका होता है। कुछ लोग इसे कंधे पर भी रखकर बजाया जाता हैइसलिए इसका आकार और वजन बेहद सुंतलित रहता है। बानाम का समग्र आकार स्त्री रूप से प्रेरित है जो धरती और ऊर्वरता का प्रतीक है। 

बानाम’ की उत्पत्ति कथा

शरीर को थपथपा कर आवाज निकालने के क्रम में इंसान ने ‘वाद्य’ की कल्पना की। इसीलिए आदिवासी समाज में यह कहावत ‘चलना ही नृत्य हैबोलना ही गीत है और शरीर को थपकी देना ही बजाना है’ प्रचलित हुई। यानी वाद्य के रूप में इंसान ने सर्वप्रथम अपनी देह को ही काम में लिया। लेकिन जब उसने आजीविका (शिकार) के लिए ‘धनुष’ बनाया तो उससे निकलने वाली ध्वनियों ने संभवतः उसे ‘बानाम’ जैसा वाद्ययंत्र बनाने की प्रेरणा दी। हालाँकि, ‘बानाम’ की उत्पत्ति कथा हमें इस आशय का कोई संकेत नहीं देतीबल्कि एक अलग कहानी सुनाती है। परंतु इतिहासकारों की मान्यता है कि तार वाद्ययंत्रों का अविष्कार ‘धनुष’ से हुआ है।[10] बहरहाल, ‘बानाम’ की उत्पत्ति के संबंध में संताल आदिवासी समुदाय के बीच अनेक लोककथाएँ प्रचलित हैं। सबसे लोकप्रिय कथा इस प्रकार है: 

किसी समय एक संताल दंपत्ति की आठ संताने थीं। सात लड़के और एक लड़की। माता-पिता की मृत्यु के बाद भी ये आठों साथ रहते थे। एक दिन जब सातों भाई शिकार पर गए थे और बहन घर में खाना बनाने की तैयारी कर रही थी। तब सब्जी काटते हुए बहन की अंगुली कट जाती है और खून की बूंदें सब्जी में घुलमिल जाती हैं। लौटकर जब भाई लोग खाना खाते हैं तो उन्हें उस दिन की सब्जी बहुत स्वादिष्ट लगती है। बड़ा भाई इसका कारण पूछता है तो बहन बताती है कि सब्जी में उसका खून मिला हुआ है। बड़ा भाई सोचता है जब बहन का खून इतना स्वादिष्ट है तो उसका माँस कितना लजीज होगा। ऐसा सोचकर वह उसे मारकर खाने की योजना बनाता है। छोटे भाई को छोड़कर कोई उसका विरोध नहीं करता। अंततः छोटे को छोड़कर सभी छह भाई मिलकर बहन को मार डालते हैं। उसके सात टुकड़े कर पकाते हैं। माँस का सातवाँ हिस्सा छोटे भाई को भी खाने के लिए बाध्य किया जाता है पर वो नहीं खाता है। छोटा भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करता था और वह उसकी हत्या और उसके बाद हुई घटना से बहुत दुखी था। लिहाजा अपने हिस्से का माँस छोटा भाई घर के पिछवाड़े की जमीन में गाड़ देता है। बाद में उसी जगह पर एक गुलईची फूल का पौधा/पेड़ उगता है। हवा चलने पर जिसकी टहनियों और पत्तों से मधुर संगीत सुनाई देती। किसी दिन एक संताल आदिवासी जब उस पेड़ के पास से गुजर रहा होता है तो उसे वह मधुर संगीत सुनाई देता है। तब वह उस पेड़ की टहनी को काटकर घर लाता है और उससे जो वाद्य बनाता है वही ‘बानाम’ है।

संताली साहित्य और संस्कृति के युवा अध्येता कालीदास मुर्मू के अनुसार, ‘बानाम की उत्पत्ति को लेकर और भी कहानियाँ हैं जो ज्यादातर बोंगा (आत्माओं) से संबंधित हैं। ऐसी कहानियों में मुख्य रूप से संताल आदिवासियों का धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण संचित है जो समाज का नैतिक मार्गदर्शन तो करता ही हैऐतिहासिक और सांस्कृतिक बोध भी प्रदान करता है।’[11]

भारत की सांगीतिक परंपरा में ‘बानाम’

भारतीय संगीत और वाद्ययंत्रों की परंपरा में ‘बानाम’ का ऐतिहासिक महत्व है। कुछ लोग इसे भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे लोकप्रिय तार-वाद्य ‘सारिंदा’ (सारंगी) का पूर्वज मानते हैं तो कुछ के अनुसार यह सारिंदा श्रेणी का होते हुए भी उससे स्वतंत्र और एक पुरातन आदिवासी वाद्य है। ‘दि ल्यूट्स ऑफ संताल’ नामक शोधपूर्ण आलेख में बेंगट फोशग लिखते हैं, ‘संगीत के दृष्टिकोण सेढोडरो बानाम एक सरल वाद्य है। इसमें आम तौर पर केवल एक स्ट्रिंग होती हैऔर इसकी पुरातन उपस्थिति से किसी को संदेह हो सकता है कि यह सारिंदा का अग्रदूत है। हालांकि इसकी जन्मभूमि भारत नहीं बल्कि मध्य एशिया रही है। सारिंदा जैसी विशिष्टताओं वाला यह वाद्य उस क्षेत्र के आध्यात्मिक व्यक्तियों (Shamans) द्वारा बजाया जाता हैहालाँकि यह उससे काफी अलग है।’[12]

भारतीय संगीत के इतिहासकार बेंगट फोशग से सहमत नहीं है। भारतीय कला-संगीत के अध्येताओं का मानना है कि ‘बानाम’ से ही ‘रावणहत्था’ अथवा ‘सारिंदा’ (सारंगी) का विकास हुआ है जो कि भारत का सबसे पुराना तार-वाद्य है। पं. रामनारायण का स्पष्ट मत है कि ‘सारंगी’ (रावणहत्था) मूल रूप से रावण का अविष्कार है जिसे नया आकार और स्वरूप अमीर खुसरो ने दिया[13]। ‘रावणहत्था’, ‘रावण हस्त वीणा’ अथवा ‘रावणास्त्र’ नामक वाद्य का सर्वप्रथम लिखित उल्लेख हमें 11वीं-12वीं सदी के नान्यदेव कृत ‘भरत भाष्य’ जबकि ‘सारंगी’ का 13वीं सदी के शारंगदेव कृत ‘संगीत रत्नाकर’ में मिलता है।[14] वहीं, 18वीं सदी का ‘राधागोविंद संगीतसार’ (1779-1804) स्पष्ट रूप से कहता है कि ‘रावण हस्त वीणा को लौकिक में सारंगी कहते हैं’।[15] इन सब तथ्यों से पता चलता है कि ‘बानाम’ अत्यंत प्राचीन आदिवासी वाद्य है जिससे ‘सारंगी’ जैसे अनेकों लोकप्रिय तार वाद्ययंत्रों का विकास हुआ।

बानाम’ की विशेषताएँ

बानाम’ उत्पत्तिनिर्माण और प्रयोग सभी दृष्टियों से एक विशिष्ट प्रकार का वाद्य है। संताल आदिवासी समुदाय के धार्मिक विश्वासइतिहास और पुरखा परंपराओं से जुड़े इस वाद्ययंत्र की सबसे बड़ी ख़ासियत है इसकी डिजाइनजो कभी एक जैसी नहीं होती। मतलबजितने भी बानाम संताल समुदाय में मौजूद हैं वे सब एक जैसे नहीं हैं। प्रत्येक बानाम की बनावटउसका रूप-रंग और आकार-प्रकार एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है। क्योंकि हर संताल जो बानाम बजाना चाहता है वह अपना बानाम खुद बनाता है। इसलिए प्रत्येक बानाम की डिजाइन अलग-अलग होती है। इसी विशिष्टता के कारण यह दुनिया का अकेला और ‘बेजोड़’ वाद्ययंत्र हो जाता है जिसकी हज़ारों डिजाइनें एक ही भौगोलिक इलाके में और एक ही समुदाय के भीतर पाई जाती हैं। 

बानाम’ की दूसरी विशिष्टता है इसका कथात्मक वाद्य होना क्योंकि संतालों के बीच इसकी उत्पत्ति के संबंध में तथा इससे जुड़ी अनेक लोककथाएँ प्रचलित हैं। सबसे लोकप्रिय कथा सात भाइयों और एक बहन की है जिसकी अस्थियों से पैदा हुए पेड़ से ‘बानाम’ बनने की कहानी जुड़ी है। संताल लोग जिसका वादन मुख्य रूप से पुरखा कहानियाँमिथकीय गाथाओं और गीतों का गायन के लिए करते हैं। शायद इसी वजह से संगीत के इतिहासकारों ने ‘बानाम’ को लोककथात्मक वर्ग में रखा है। अर्थात् यह एक ऐसा आदिवासी वाद्य है जिसके जन्म की अनेक कहानियाँ तो हैं ही जिसे बजाया भी कहानियाँ सुनाने के लिए जाता है। डॉ. बोड़ो बास्की कहते हैं, ‘बानाम केवल एक वाद्ययंत्र नहीं है जो संगीत सृजित करता है और आनंद देता हैबल्कि यह पूर्वजों और पुरखा आत्माओं के साथ इंसानों को जुड़े रहने के लिए माहौल बनाने में भी इसकी एक महान भूमिका है। इसके साथ जो गीत गाये जाते हैंवे हमें संताल समुदाय के आध्यात्मिक और धार्मिक जीवन के गहरे अर्थ को समझने में मदद करते हैं’।[16]

इस अनूठे पुरातन आदिवासी वाद्य का महत्व न केवल संताल लोक विश्वास और लोकगीत-संगीत तथा कथागायन की दृष्टि से है बल्कि यह आदिवासी काष्ठकला और नक्काशी की भी एक बेजोड़ जीवित परंपरा है। संपूर्ण इंसानी देह का आकार और रूप-रंग वाले ‘बानाम’ पर की जाने वाली नक्काशी आदिवासी काष्ठकला और कारीगरी का अद्भुत नमूना है जो हम किसी और अन्य वाद्ययंत्र में नहीं पाते। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है डिजाइनगत भिन्नता। आंतरिक ढाँचा एक जैसा होने के बावजूद प्रत्येक बानाम की डिजाइन अलग होती है जो उसके निर्माता की निजी कलात्मक रुचि और सौंदर्यबोध को प्रदर्शित करती है। परंपरागत रूप से बानाम पर इंसानी चेहरेउनकी एकल और सामूहिक मूर्तियाँजानवरोंपक्षियों के चित्र और कभी-कभी बोंगाओं (आत्माओं) की अमूर्त आकृतियों को उकेरा जाता है। परंतु आजकल नये और पेशेवर कलाकार समकालीन जीवन से संबंधित दृश्यों को भी चित्रित कर रहे हैं। ‘बानाम’ पर की गई नक्काशी बहुत स्पष्टचोखी और कलात्मक होती है जिसे इसके कलाकार-कारीगर अत्यंत दक्षता के साथ गढ़ते हैं। इसके सतह की सजावट के लिए बनाये गये ज्यामितीय रूपांकन और पैटर्न संतालों के सौंदर्यबोध और कलाप्रियता को पूरी खूबसूरती और भव्यता के साथ प्रदर्शित करते हैं। 

बाईसवीं सदी में ‘बानाम’ का भविष्य

बानाम’ नामक यह अनूठा तार-संगीत वाद्य न केवल संताल आदिवासी समुदाय की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण अंग है बल्कि यह भारतीय सांगीतिक परंपरा का भी सबसे प्राचीनतम धरोहर है। हालांकिनगरीय संस्कृति के अतिक्रमण के फलस्वरूप पिछले कुछ वर्षों के दौरान इसके निर्माण और उपयोग में भारी गिरावट आई है। जिससे इसके विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। बानाम परंपरा को बचाये रखने की कोशिशों में लगे बोड़ो बास्की कहते हैं, ‘पुराने ग्रामीण जिन्होंने हमारे पारंपरिक ज्ञान को आत्मसात किया है और आम तौर पर बानाम बनाते व बजाते रहे हैंवे अब इस कौशल और ज्ञान को युवा पीढ़ी के बीच हस्तांतरित और प्रसारित करने में असमर्थ हैं। आजकल की युवा पीढ़ी ज्यादातर स्कूली पाठ पढ़ने में व्यस्त रहते हैं जिसकी वजह से उन्हें अपने गाँव के बुजुर्ग लोगों के साथ बैठने और उनसे सीखने का समय बहुत कम मिल पाता है। एक अन्य कारण युवा पीढ़ी का बॉलीवुड और मनोरंजन के अन्य आधुनिक स्रोतों के तेज़ संगीत के प्रति बढ़ता हुआ आकर्षण है’।[17]

विश्व भारतीशांति निकेतन के संताली भाषा विभाग के प्राध्यापक डॉ. धनेश्वर माँझी ‘बानाम’ संगीत परंपरा में तेजी से हो रहे क्षरण के लिए ‘गैर-आदिवासी शिक्षासंस्कृतिशहरीकरण और पॉपुलर मनोरंजन उद्योग’[18] के आक्रामक दबाव को जिम्मेदार मानते हैं। डॉ. माँझी स्वीकार करते हैं कि अब यह कला संकट में है पर वे यह भी कहना नहीं भूलते कि ‘बानाम सिर्फ एक वाद्य नहीं है। यह संताल समाज की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक चेतना तथा सामाजिक-सांस्कृतिक अस्तित्व को बनाये रखने का सबसे महत्वपूर्ण पुरखा ज्ञान परंपरा और कौशल है।

सात दशक से ज्यादा का जीवन गुजार चुके जमशेदपुर के प्रधान हेम्ब्रम[19] जो बानाम को नई पीढ़ी के बीच लोकप्रिय बनाने में लगे हुए हैंबोलते हैं, ‘मेरी खुद की पाँच बेटियों ने इसे नहीं सीखा। लेकिन अब हम इसे विलुप्त होने से बचाने के लिए युवा लड़कियों को इसको सिखा रहे हैं। उन्हें यह परंपरागत वाद्ययंत्र बजाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। हम नहीं चाहते कि बानाम संग्रहालय में प्रदर्शन की एक वस्तु बनकर रह जाए।’

 


[1] Sachs, 1940, p. 26.

[2] Topno, 2004, p. 16.

[3] इन्हें ही ‘संथाल या ‘सांवताल’ भी कहा जाता है व इनकी भाषा को ‘संथाली’।

[4] Journey  of the  Banam2015, p. 16-17.

[5] Topno, 2004, p. 21-22.

[6] टुइला भी ‘बानाम’ वर्ग का ही एक वाद्ययंत्र है।

[7] आदिवासी (साप्ताहिक), 2015, पृ. 6.

[8] भारतीय जनगणना, 2011.

[9] Kisku2000p. 124-25.

[10] Sachs, 1940, p. 25-27.

[11]कालीदास मुर्मू घाटशिलापश्चिमी सिंहभूम से एक युवा संताली संस्कृतिकर्मी हैं। यह बात इन्होंने लेखक से व्यक्तिगत साक्षात्कार के दौरान कही। 

[12] Bengt Fosshag, The Lutes of the SANTAL, http://www.bengtfosshag.de/santal/.

[13] डॉ. मिश्र, 2005, पृ. 115 से उद्धृत

[14] महाडिक, 1994, पृ. 157 उद्धृत।

[15] वही, पृ. 157 से उद्धृत।

[16] Baski, 2019, p. 8.

[17] वहीपृ. 11.

[18] यह बात इन्होंने लेखक से व्यक्तिगत साक्षात्कार के दौरान कही।

[19] प्रधान हेम्ब्रमटाटा कंपनी के सेवानिवृत कर्मचारी और बानाम कलाकार एवं प्रशिक्षक हैं जो अपने गुरुजी के. एस. टुडू और हमउम्र मित्र सालखन सोरेन के साथ मिलकर इस कला परंपरा को बचाने-बढ़ाने में लगे हुए हैं। तीनों झारखंड के करनडीहजमशेदपुर में रहते हैं। ये बातें इन्होंने लेखक से व्यक्तिगत साक्षात्कार के दौरान कहीं।

संदर्भ सूची:-

Baski, Boro. Banam : One of the ancient musical instruments of the Santals. Birbhum (West Bengal): Ghosaldanga Bishnubati Adibasi Trust, 2019.

Kisku, D. Barka. The Santal and Their Ancestors. Dumka (Jharkhand): Hihiri Pipiri, Dudhani-Kurwa, Dumka, 2000.

Museum Rietberg. Journey of the Banam. New Delhi: Zurich and National Museum, 2015.

Sachs, Curt. The History of Musical Instruments. New York: W. W. Norton & Company, 1940.

Topno, Sem. Musical Culture of the Munda Tribe. New Delhi: Concept Publishing Company, 2004.

गौंझू, गिरिधारीराम. ‘कोमल, करुण प्रकृति का संगीत’, आदिवासी (साप्ताहिक) अंक-5 (जून 2015): 6-10.

महाडिकप्रकाश. भारतीय संगीत के तन्त्रीवाद्यमध्यप्रदेशहिंदी ग्रंथ अकादमी1994.

मिश्रलालमणि. भारतीय संगीत वाद्यतृतीय संस्करण. नई दिल्लीभारतीय ज्ञानपीठ2005.