भारत के आदिवासी समुदाय अपनी तमाम सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ अपनी सांगीतिक परम्पराओं व अनूठे वाद्ययंत्रों के लिए भी जाने जाते हैं। जिस तरह से ‘नगाड़ा’ मुंडाओं की और ‘माँदर’ खड़िया व उराँवों की सांगीतिक विरासत की पहचान है, उसी प्रकार ‘बानाम’ संतालों[1] का एक मुख्य वाद्ययंत्र है। संताल लोग इस लोकप्रिय और प्राचीन तारवाद्य का उपयोग रोज़मर्रा के जीवन और विशेष सांस्कृतिक अवसरों के दौरान करते हैं। विशेषकर अपने पुरखा गीतों, कहानियों, गाथाओं, ऐतिहासिक प्रसंगों और मिथकों के गायन और वाचन के लिए। ‘बानाम’ की संगीत लहरियाँ ही संताली किस्सों, कहानियों और गीतों में जान डालती हैं। या यूँ भी कह सकते हैं कि ‘बानाम’ के वादन के बगैर संताली कथा-गायन बेजान होता है। कथा वाचन और गायन ‘बानाम’ की विशेषता है जो इसे कथात्मक वाद्य बनाती है। पर इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि यह दुनिया का एक ऐसा इकलौता तार वाद्ययंत्र है जिसकी हज़ारों डिजाइने हैं। इसको बजाने वाले जितने हैं, उतनी ही इसकी डिजाइने हैं। यानी हर वादक के पास उसका अपना एक ख़ास डिजाइन वाला निजी ‘बानाम’ होता है जिसकी कोई दूसरी ‘कॉपी’ नहीं होती। यह एक ऐसी विशिष्टता है जो हमें भारत ही नहीं वरन् दुनिया की सांगीतिक परंपरा में उपलब्ध और किसी वाद्ययंत्र में नहीं मिलती।
अनेक रूपों में वेश-भूषा बदल-बदल कर मधुर संगीत लहरियों पर हज़ारों कहानियाँ सुनाने वाला ‘बानाम’ वाद्यों की कैटेगरी में तार-वाद्य के अंतर्गत आता है। कला और संगीत के इतिहासकारों के अनुसार यह संताल आदिवासी वाद्य एशिया के सभी तार वाद्यों का पूर्वज है। ‘इकतारा’, ‘सारंगी’ या ‘वायलिन’ इसके ही अन्य रूप हैं। हालाँकि रूप और ध्वनि में ‘बानाम’ इन सबसे बिल्कुल अलग है। गुलईची (Plumeria sp.) की लकड़ी के एक ही पीस अथवा टुकड़े से बनाये जाने वाले इस वाद्य की आकृति किसी इंसान की तरह होती है। इंसानों की तरह ही इसके आँख, नाक, कान, मुँह, चेहरा, गर्दन, पेट और हाथ-पैर होते हैं।
कलाकार या वादक इसको बच्चे की तरह अपने कंधे से टिकाकर धनुषनुमा ‘रेतावाक्’ (देखें- चित्र 1) से बजाता है। ‘रेतावाक्’ मतलब रेतने वाला। यानी कि ‘बानाम’ के तार को जब कलाकार ‘रेतावाक्’ से रेतता या रगड़ता है तो दिल को बेधने और आनंदित करने वाली ध्वनियाँ निकलती हैं। इन ध्वनियों के निश्चित राग और सुर होते हैं जिनका ज्ञान एक संताल कलाकार परंपरागत रूप से अपने समुदाय से अर्जित करता है। इस अर्थ में ‘बानाम’ जहाँ आदिवासियों की सामूहिक चेतना और परंपरा की आदिम विरासत का निर्वाह करती है, वहीं यह अपने वादक कलाकार के निजी कलात्मक रुचि और सौंदर्यबोध के ज़रिए समकालीन कला-संगीत परंपरा को समृद्ध भी करती है।
इस प्रकार ‘बानाम’ सिर्फ एक वाद्य नहीं है। बजने पर यह अद्भुत मधुर आदिवासी संगीत है, तो आकार-प्रकार, रूप-रंग और साज-सज्जा में काष्ठकला की बेजोड़ कारीगरी। इसमें लोकविश्वास है, मिथक है, इतिहास है, परंपरा है, कला है, संगीत है, कारीगरी है, कहानियाँ और गीत हैं; और है वह सामुदायिक बोध जो संतालों के जीवन और समाज को सदियों से अटूट बनाए हुए है। वास्तव में ‘बानाम’ संतालों की एक मुकम्मल आध्यात्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक दुनिया है जिसमें वे आनंद से जीते हैं और नई पीढ़ी को भी इसी तरह से जीने के लिए प्रेरित करते हैं। अर्थात् ‘बानाम’ ही वह पुल है जिसके सहारे वे पुरखों द्वारा निर्मित प्राचीन जातीय जीवनदर्शन (आदिवासियत) तक पहुंचते हैं और उसे आत्मसात कर वर्तमान जीवन की विसंगतियों से आनंदपूर्वक जूझते हैं।
यह करामात ‘बानाम’ के द्वारा, जो मात्र एक वाद्ययंत्र है, कैसे होती है इसे समझने के लिए हमें इसकी मिथकीय उत्पत्ति, ऐतिहासिकता और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को जानना जरूरी है। क्योंकि यह जितना कलात्मक, संगीतात्मक और कथात्मक है उतनी ही रोचक है इसकी उत्पत्ति की कहानी। संताल समाज में प्रचलित मिथकों और लोकविश्वास में गुँथी हुई। जो हमें यह बताती हैं कि इंसानी समाज ने ध्वनियों को कहाँ पाया। कहाँ से उसने सुर, लय, ताल और संगीत को सीखा। कैसे उसने बोलना, गाना, बजाना और नाचना सीखा। पीड़ा, दुख और अवसाद का संगीत कैसा होगा और आनंद की सुर और स्वर लहरियाँ कैसी होंगी। अनजानी दुनिया की कल्पनाओं और जाने हुए विश्व को कैसे आप गीतों, कहानियों और संगीत में पिरोएँगे तथा उन्हें किस कुशल कलात्मकता के साथ आने वाली पीढ़ियों को सौपेंगे। यह सब कुछ हमें ‘बानाम’ से जुड़े लोकविश्वास और मिथकीय कहानियाँ बहुत ही सहजता के साथ बताती हैं।
‘बानाम’ के साथ जुड़ी पुरखा कथाएँ और लोक विश्वास
पहली कथा: किसी समय में सात भाई और एक बहन अपने माता-पिता के साथ रहते थे। एक दिन इन आठों भाई-बहनों के माँ-बाप चल बसे। माता-पिता की मृत्यु का ग़म भूलकर सभी भाई-बहन आगे की ज़िंदगी गुज़ारने लगे। एक दिन जब सातों भाई शिकार पर गए थे और बहन घर में शाम के खाने के लिए सब्जी काट रही थी, तो सब्जी काटते हुए बहन की अँगुली कट जाती है। उसकी कटी हुई अँगुली से कुछ ख़ून की बूंदें गिरकर सब्जी में मिल जाती है। रात में जब भाइयों को वह खाने के साथ सब्जी परोसती है तो उन्हें उस दिन की सब्जी बहुत स्वादिष्ठ लगती है। भाई लोगों के पूछने पर कि सब्जी क्यों ज़्यादा स्वादिष्ठ लग रही है बहन अँगुली कटने और सब्जी में ख़ून मिल जाने की बात बताती है। बड़ा भाई सोचता है जब बहन का ख़ून इतना स्वादिष्ठ है तो उसका माँस कितना लज़ीज़ होगा। ऐसा सोचकर वह उसे मारकर खाने की योजना बनाता है। छोटे भाई को छोड़कर कोई उसका विरोध नहीं करता। अंततः सभी छह भाई मिलकर बहन को मार डालते हैं और उसके माँस को सात टुकड़े कर पकाते हैं। पक जाने पर सातवाँ हिस्सा छोटे भाई को देकर उसे भी बहन का माँस खाने के लिए बाध्य किया जाता है पर वो नहीं खाता है। छोटा भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करता था और वह उसकी हत्या से बहुत दुखी था। पर वह अकेला क्या कर सकता था! लिहाजा अपने हिस्से का माँस घर के पिछवाड़े की ज़मीन में गाड़ देता है। बाद में उसी जगह पर एक गुलईची फूल का पेड़ उगता है। हवा चलने पर जिसकी टहनियों और पत्तों से मधुर संगीत सुनाई देती थी। किसी दिन एक संताल आदिवासी जब उस पेड़ के पास से गुजर रहा होता है तो वह उसके मधुर संगीत से आकर्षित होता है। वह उस पेड़ की टहनी को काटकर घर लाता है और उससे जो वाद्य बनाता है वही ‘बानाम’ है।
दूसरी कथा: यह कथा भी पहले वाली कथा जैसी ही है पर इसमें थोड़ा-सा बदलाव है। इस कथा के अनुसार एक जुगी (जोगी) जब जंगल में उसी गुलईची पेड़ के पास से गुजर रहा था, जहाँ छोटे भाई ने अपनी बहन का माँस गाड़ा था, तो जुगी को पेड़ से मधुर संगीत और गाने की आवाज़ सुनाई दी। उन सुर लहरियों से वशीभूत हो जुगी ने गुलईची पेड़ की टहनी से अपने लिए एक बाजा बनाया। फिर उसे बजाते हुए गाँव-गाँव घूमने लगा। घूमते-घूमते एक दिन वह उस गाँव में जा पहुंचा जहाँ लड़की के सभी भाई विवाह कर लेने के बाद अपनी-अपनी पत्नियों के साथ अलग-अलग रह रहे थे। जैसे ही जुगी ने बाजा बजाया, सभी भाई हैरान हो गए और बाजे की धुन पर थिरकने लगे। बाजे से आ रहा संगीत ऐसा था मानो उनकी बहन गा रही हो। भाइयों ने तब वह बाजा जुगी से खरीद लिया। रात में उस बाजे से बहन के रोने की आवाज़ आई। घबराकर बड़े भाई ने वह बाजा दूसरे भाई को दे दिया। जैसे ही रात हुई उस भाई को भी बाजे से बहन के रोने की आवाज़ सुनाई दी। रूलाई इतनी करूण और दिल को चीर देने वाली थी कि अगले दिन उस भाई ने भी तीसरे भाई के यहाँ बाजा पहुँचा दिया। ऐसा ही हर रात दूसरे भाइयों के साथ भी हुआ। अंत में वह बाजा उन्होंने सबसे छोटे भाई को सौंप दिया। उस दिन भी हमेशा की तरह रात हुई। लेकिन उस रात को बहन के रोने की आवाज़ नहीं आई। बाजा रातभर शांत पड़ा रहा। कहते हैं कि वह बाजा आजीवन छोटे भाई के पास ही रहा और रात में कभी भी उससे रोने की आवाज़ फिर नहीं आई। छोटा भाई जब भी उसे बजाता तो उससे निकलते मधुर संगीत से हर कोई आकर्षित होता और अपनी सुध-बुध खोकर नाचने-गाने लगता। मस्ती में डूबकर थिरकने लगता। समूचा माहौल संगीतमय हो जाता। वही बाजा संतालों का पहला ‘बानाम’ है जो आगे चलकर न केवल लोकप्रिय हुआ बल्कि उनके आध्यात्मिक-सांस्कृतिक जीवन का अनिवार्य अंग बना।
तीसरी कथा: इस कथा में भी कहानी का पहला भाग ज्यों का त्यों है। सिर्फ बहन को मारने वाले प्रसंग में अंतर है। इस कथा के अनुसार जब बड़ा भाई यह तय कर लेता है कि वह बहन को मार कर खाएगा तो सभी भाई उसका समर्थन करते हैं। पर छोटा भाई जो बहन से सबसे ज़्यादा प्यार करता है वह इसके लिए राज़ी नहीं होता। एक दिन जब बहन एक पेड़ पर फल-फूल तोड़ने के लिए चढ़ी हुई थी तो बड़े भाई ने सोचा यही सही मौका है उसे मारने का। उसने तुरंत बहन को निशाना साध कर तीर चला दिया। लेकिन बहन मरी नहीं। तब बड़े भाई ने दूसरे भाइयों को भी तीर चलाने का हुक्म दिया। सबने एक के बाद एक उस पर तीर चलाए। छोटा भाई चुपचाप आँसू बहाता खड़ा था। बड़े भाई ने उसको धमकाया कि अगर तुमने भी तीर नहीं चलाया तो वो उसे भी मार देगा। लाचार छोटे भाई को भी तीर चलाना पड़ा। इस तरह बड़े भाई ने अपनी बहन को मार डाला। बहन का शरीर सात टुकड़ों में काटकर पकाने के बाद सभी भाइयों ने खाया और छोटे भाई को भी उसका हिस्सा दिया। परंतु छोटा भाई तो भीतर से बहुत दुखी था। उसका हृदय तो प्यारी बहन के लिए विलाप कर रहा था। वह उसे भला कैसे खाता! छोटा भाई अपने हिस्से के माँस को लेकर एक दह (बड़ा तालाब) के किनारे जाकर बैठ गया और दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा। उसकी करुण चीत्कार सुनकर दह के सारे जीव, जैसे-मछली, केकड़ा, कछुआ, सभी बाहर निकलकर आ गए। उससे रोने का कारण पूछने लगे। छोटे भाई ने रोते-रोते सारा किस्सा उन सबको कह सुनाया। सुनने के बाद दह के सभी जीव-जंतु भी दुखी हो उठे। जब वे वापस दह में जाने लगे तो जाते-जाते छोटे भाई से कह गए कि तुम इसे मत खाना। इसे सफेद चींटियों की बांबी के पास दफना देना। छोटे भाई ने उनकी सलाह मानकर वैसा ही किया। बाद में उसी जगह पर सुंदर फूलों वाला गुलईची पेड़ उगा जिससे मधुर संगीत आती थी।[2]
इसके बाद की कथा फिर वही है कि एक जुगी ने जब उस पेड़ को गाते सुना तो...
चौथी कथा: यह कथा उपरोक्त तीनों कथाओं से बिल्कुल भिन्न है। इस कहानी के अनुसार एक संताल बहुत ही बढ़िया ‘बानाम’ वादक था। ऐसा कि उसके जोड़ का कोई और दूसरा नहीं था। इसी कारण लोग उसे ‘बानाम राजा’ कहते थे। उसका पहनावा और वेश भी सामान्य संतालों से अलगथा। वह सिर पर सफेद पगड़ी बाँधता था जिसका सिरा पीठ से नीचे तक झूलता रहता था। कमर से नीचे वह कपड़े को घाघरे की तरह लपेटता। जिससे नाचते समय ऐसी-ऐसी आकर्षक घेरदार लहरें बनतीं कि देखने वालों का मुँह आश्चर्य और आनंद से खुला का खुला रह जाता। उसके ‘बानाम’ के दीवाने सिर्फ इसी दुनिया के लोग नहीं थे। उस दुनिया में भी वह सबको प्यारा था। उस दुनिया मतलब ‘बोंगा’ (आत्मा) लोगों की दुनिया। कहते हैं एक बोंगा की लड़की उस पर ऐसी दीवानी हुई कि बानाम राजा उसका प्रेम अनुरोध नहीं टाल सका।[3] इस प्रेम का परिणाम यह हुआ कि ‘बानाम राजा’ दोनों दुनियाओं के बीच एक मज़बूत कड़ी बन गया।
‘बानाम’ की सांस्कृतिक अवधारणा
उपरोक्त संताली पुरखा लोक कथाओं और विश्वास के बहुस्तरीय आशय हैं। जो हमें संतालों के आध्यात्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक जीवन, समाज, पर्यावरण और परिवेश को समझाने में सहायक होते हैं। ‘बानाम’ से जुड़ी सभी कहानियों और गीतों में जो ‘मेटाफर’ हैं वे अद्भुत हैं। वे हमें संतालों के कहने, गाने और सांगीतिक परंपरा की उच्च प्रतीकात्मकता तक ले जाते हैं जो उनकी वाचिक कला और साहित्य की कलात्मक विशिष्टता है। यहाँ वर्णित कहानियों में जो प्रतीक आए हैं वो हमें संताली समाज के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अवधारणा को समझने के लिए कई संकेत देते हैं।
जैसे, इंसानी मानव माँस का सेवन इस बात का प्रतीक है कि कोई भी संगीत तब तक मधुर नहीं हो सकता जब तक कि बजाने वाले ने पुरखों की सहजीवी परंपरा और जीवनदर्शन के अनुरूप इंसानियत की ‘आत्मा’ को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर लिया हो। और ‘आत्मा’ भी कैसी? एक संपूर्ण ‘स्त्री’ की जैसी। स्त्री जो ऊर्वरता का प्रतीक है। जन्म देने वाली, पालने वाली और लोरियाँ (गीत) गाने तथा कहानियाँ सुनाने वाली। यह इस बात का भी खुलासा करती है दुनिया को पहला गीत स्त्रियों ने ही दिया और आज भी सबसे ज़्यादा गीत महिलाओं द्वारा ही गाये जाते हैं। इसीलिए ‘बानाम’ का रूप-रंग प्राथमिक तौर एक स्त्री की तरह होता है। दूसरे अर्थों में कहें तो ‘बानाम’ एक स्त्री का आत्मा वाला जीवित वाद्य (इंसान) है, कोई बेजान वस्तु नहीं।
‘बानाम’ से जुड़ी पुरखा लोक कथाओं में जिस ‘जुगी’ का जिक्र आता है संताली विद्वान डी. बड़का किस्कू के अनुसार वह ‘बुआंग’ है।[4] संताल समाज में ‘बुआंग’ वे होते हैं जो एक संताली पर्व ‘दसाई’ के दिनों में ‘बानाम’ बजाते, गाते और नाचते हुए गाँव-गाँव घूमते हैं। घर-घर जाते हैं और उस घर की स्त्री से कुछ अनाज माँगते हैं। फिर अंत में किसी एक घर के भीतर प्रवेश कर जाते हैं और उसके आँगन में नाचते हुए ‘बुआंग’ गीत गाते हैं।
‘बुआंग’ के अलावा डी. बड़का किस्कू और दो तरह के व्यक्तियों के बारे में जानकारी देते हैं। एक है ‘ढोडरो’ और दूसरा है ‘बानाम राजा’।[5] दिलचस्प बात यह है कि ‘बुआंग’ भी एक तरह का तार वाद्य है जो लौकी के सूखे खोल से बनाया जाता है। और ‘ढोडरो’ तो ‘बानाम’ का ही एक लोकप्रिय रूप और नाम है।
संताली लोक विश्वास और जीवनदर्शन के अनुसार ‘बुआंग’, ‘ढोडरो’ और ‘बानाम राजा’ ये तीनों महज़ वाद्य नहीं हैं बल्कि मुकम्मल इंसान हैं जो देखी और अनदेखी दोनों तरह की दुनिया में एक समान आवाजाही करते हैं और संतालों को अपने संगीत व गीत-कथाओं से पुरखा आत्माओं तथा उनकी बनाई नैतिकता से जोड़े रखते हैं। इस संदर्भ में यह गौर करने वाली बात है कि ‘बानाम’ के साथ गाए और सुनाए जाने वाले अधिकांश गीत और कहानियाँ आत्माओं और पूर्वजों से संबंधित होते हैं, जैसे दसाई पर्व या मृत्यु संस्कार के गीत। लेकिन मिथकीय, ऐतिहासिक और नैतिक गीत व कथाएँ भी ‘बानाम’ के साथ अनिवार्य तौर पर संबद्ध होती हैं जिन्हें मनोरंजनात्मक तौर-तरीकों के साथ प्रदर्शित किया जाता है।
इस प्रकार ‘बानाम’ दुनिया के अन्य वाद्यों की तरह एक सामान्य वाद्ययंत्र नहीं है। यह न तो सिर्फ ईश्वर की आराधना के लिए और न ही कला के शास्त्रीय प्रदर्शन अथवा आम व ख़ास के मनोरंजन के लिए बजता है या बजाया जाता है। यह तो पुरखा-पूर्वजों और सृष्टिगत आत्माओं के साथ आज की दुनिया की संगति बनी रहे, लोग आत्मानुशासित ढंग से पुरखों के बनाए सहजीवी, सहअस्तित्व और सहभागी जीवनदर्शन पर चलते रहें, इसके लिए बजता और बजाया जाता है। ‘बानाम’ बताता है कि आदिवासियों का हर एक कार्य-व्यवहार प्रकृति के अज्ञात अनंत विश्व से जुड़ा है जिसके साथ वे रहते हैं। वास्तविक अर्थों में ‘बानाम’ की यही संगीतात्मक, कलात्मक, कथात्मक और दार्शनिक-सांस्कृतिक परंपरा है जिसकी विरासत को संताल आदिवासी सदियों से सहेजे हुए हैं।
[1] ‘संताल’, ‘संथाल’ या ‘सांवताल’ लोग प्रजातीय रूप से प्रोटो-ऑस्ट्रोलायड (Proto-Australoid) मानव समूह के अंतर्गत आते हैं। आम शब्दावली में इन्हें ‘आदिवासी’ और संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा जाता है। संताल लोग खुद को ‘होड़’ (Human) अथवा ‘होड़ होपोन’ (मनुष्य की संतान) कहते हैं। इनकी भाषा ‘संताली’ या ‘संथाली’ कहलाती है जो ऑस्ट्रो-एशियाटिक (Austro-Asiatic) भाषाई परिवार के मुंडा समूह की सदस्य है। इनकी अपनी स्वतंत्र लिपि भी है जिसे ‘ओल चिकि’ कहते हैं। संताली भाषा को 2004 में भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है जिसे बोलने वालों की संख्या लगभग 76 लाख है। संताल लोग असम, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बिहार, त्रिपुरा तथा बंगाल जैसे भारतीय राज्यों सहित बांग्लादेश, नेपाल और भूटान में निवास करते हैं। लेख में उल्लिखित अन्य समुदाय- उराँव, खड़िया व मुंडा भी इन्हीं क्षेत्रों व आस-पास निवास करने वाली जनजातियाँ हैं।
[2] धनेश्वर माँझी, संताली लोक कथाओं की दुनिया, प्रथम संस्करण, [रांची (झारखण्ड): प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन, 2010].
[3] Omkar Prasad, Santal Music: A Study in Pattern and Process of Cultural Persistence, (New Delhi: Inter-India Publications, 1985), 100-101.
[4]D. Barka Kisku, The Santal and Their Ancestors, [Dumka (Jharkhand): Hihiri Pipiri, Dudhani-Kurwa, Dumka, 2000], 86-87.
[5] वही, पृ. 86-87.
संदर्भ:
Kisku, D. Barka. The Santal and Their Ancestors. Dumka (Jharkhand): Hihiri Pipiri, Dudhani-Kurwa, Dumka, 2000.
Prasad, Omkar. Santal Music: A Study in Pattern and Process of Cultural Persistence. New Delhi: Inter-India Publications, 1985.
माँझी, धनेश्वर. संताली लोक कथाओं की दुनिया, प्रथम संस्करण. रांची (झारखण्ड): प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन, 2010.