दैनिक जीवन में धान | Paddy culture in everyday life

in Article
Published on:

हरिहर वैष्णव

मूलतः कवि एवं कथाकार।
बस्तर वाचिक परम्परा के अध्येयता।
लेखक तथा शोधकर्ता।

 

धान एक ऐसा अन्न है, जिसका उपयोग इसके आविर्भाव के साथ ही विभिन्न तरीक़ों से  भिन्न-भिन्न अवसरों पर होता आ रहा है। मोटे तौर पर हम इसके उपयोग को निम्न रूपों में बाँट कर देख सकते हैं :

भोजन के रूप में :
प्रमुखत: इसका उपयोग भोजन के रूप में ही किया जाता है। चावल को जब उबाला जाता है तब इसे बस्तर में (और सम्पूर्ण छत्तीसगढ़, ओड़िसा और बंगाल में भी) ‘भात’ कहा जाता है। बस्तर में भात के कई प्रकार होते हैं। पहला तो सादा भात होता है, जो प्राय: सभी के द्वारा खाया जाता है। दूसरा प्रकार होता है ‘जेवरी भात’। यह सम्भवत: ओड़िसा की देन है। भात को थोड़ा गीला पकाया जाता है और इसमें नमक भी डाल दिया जाता है। प्राय: नये चावल का ‘जेवरी भात’ बहुत ही स्वादिष्ठ होता है। तीसरे रूप को केवल बस्तर में ही अपितु सम्पूर्ण भारत में ‘खिचड़ी’ कहा जाता है। ‘खिचड़ी’ यानी चावल, दाल, हल्दी और नमक मिला कर पकाया गया भोजन। खिचड़ी का सेवन प्राय: पथ्य के रूप में किया जाता रहा है। मूँग दाल की खिचड़ी को प्राथमिकता दी जाती है।

a feast of feast prepared during the Ramnami mela

पेज :  

 
चावल के टूटे दानों (यानी कनकी) से पेज (पेय) बनाया जाता है, जिसे बहुत ही चाव के साथ पिया जाता है। इसे ‘कनकी पेज’ कहा जाता है। किन्तु मँडिया के पेज में साबुत चावल होता है जिसे मँडिया (रागी) के पिसान (आटा) के साथ उबाला जाता है। मँडिया का पेज बहुत ही स्वादिष्ठ और पौष्टिक होता है। साथ ही, गर्मी के दिनों में ठण्डक पहुँचाने वाला भी। ‘मँडिया का पेज’ गीत का भी रसास्वादन करना अप्रासंगिक नहीं होगा। गीत इस तरह है :
 
अटपट है गरमी, लो धूप हुई तेज
ऐसे में भाता है, मँडिया का पेज। 

बड़ा बुरा हाल है, गरमी के मारे
पहुँचाए ठंडक तब, हियरा के द्वारे
आमा की चटनी हो, अमटाया पेज। 

डोकरा हो डोकरी कि, नोनी या नोना 
सभी ढाल लेते हैं, दोने पर दोना
नहीं कोई दूजा ज्यों, मँडिया का पेज। 

घर आये पहुना को, चाय नहीं भाती
पेज भरे दोना को अँखियाँ ललचातीं
जुड़ाता है जियरा को, मँडिया का पेज।

आमट :
बस्तर अंचल की सबसे अधिक प्रिय सब्ज़ी होती है, ‘आमट’। ‘आमट’ यानी छत्तीसगढ़ी में ‘अम्मट’ और हिन्दी में ‘खटाई’। ‘आमट’ के कई प्रकार होते हैं। इन प्रकारों में से प्राय: सभी प्रकारों के ‘आमट’ में चावल के पिसान का घोल डाला जाता है। मांसाहारी लोगों का भी बहुत ही प्रिय होता है आमट, बावजूद इसके कि यह शाकाहार में शामिल है। ‘आमट’ के कुछेक प्रकार यों हैं : चना आमट, मुनगा आमट, सेमी आमट, बाँगाखुला आमट, कुमडा आमट, बोड़ा आमट, फुटू आमट आदि। 

धान लाई :
धान और चावल का उपयोग रोज़ाना के भोजन के अलावा विविध व्यंजनों के रूप में भी होता आ रहा है। सबसे सस्ता व्यंजन होता है, लाई। इसके तीन प्रकार होते हैं–

१.    ‘मुरला लाई’ या ‘मुर्रा लाई’-  ‘मुरला लाई’ में नमक का पानी छिड़का होता है, इसके विषय में कहा जाता है कि इसे अधिक मात्रा में खाने पर खाँसी होने की सम्भावना बनी रहती है। ‘मुरला लाई’ को गुड़ की चाशनी में डुबो कर ‘लाड़ू’ यानी लड्डू बनाया जाता है और व्यंजन के रूप में बहुत ही चाव के साथ खाया जाता है।
२.    ‘चिवड़ी लाई’-  इसमें नमक का पानी नहीं डाला जाता। इसे अधिक मात्रा में खाने से खाँसी की सम्भावना नहीं होती। ‘माहला’ और ‘विहाव’ (विवाह) के अवसर पर भी ‘लाई-चिवड़ा’ परोसने की परम्परा रही है। जबकि ‘मुरला लाई’ के दाने अधिक फूले हुए होते हैं जबकि ‘चिवड़ी लाई’ के दाने अपेक्षाकृत कम।
३.    ‘धान लाई’ या ‘फुला लाई’- ‘धान लाई’ या ‘फुला लाई’ का उपयोग प्राय: मृत्यु-संस्कार में पाया गया है। उदाहरण के रूप में जब शव को अन्तिम संस्कार के लिये श्मशान-घाट ले जाया जा रहा होता है तब अर्थी के सामने रास्ते भर यह लाई बिखेरी जाती है। इसी तरह जब लोग दाह-संस्कार से वापस लौटते हैं तब मृतक के परिजन उन्हें पानी और गुड़ के घोल में यही लाई मिला कर ‘पना-पानी’ के रूप में देते हैं। मानना है कि इस ‘पना-पानी’ से लोगों के पेट की गर्मी शान्त होती है। किन्तु ऐसा नहीं है कि केवल इसी अवसर पर इस लाई का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा सामान्य अवसर पर भी इसका उपयोग गुड़ की चाशनी में मिला कर ‘लाड़ू’ यानी लड्डू बनाने में होता है, जिसे लोग बहुत ही आनन्दपूर्वक खाते-खिलाते हैं। 

गुड़िया खाजा :
बस्तर अंचल के मध्यवर्ती इलाक़ों में एक विशिष्ट व्यंजन बाज़ार का आकर्षण होता है। यह व्यंजन है ‘गुड़िया खाजा’। गुड़ और चावल के आटे से बना ‘गुड़िया खाजा’ दिखने में जलेबी के आकार का होता है और बहुत ही मीठा भी। ‘धाकड़’ समुदाय की महिलाएँ इस व्यंजन को बनाने में पारंगत मानी जाती हैं। किसी समय धारणा थी कि बाज़ार से यदि कोई गुड़िया खाजा खरीद कर बच्चों के लिये नहीं लाये तो उसका बाज़ार जाना ही व्यर्थ हो गया। 
    
चावल का एक और व्यंजन है ‘चिवड़ा’ यानी ‘पोहा’। यह व्यंजन आधे उबले धान को सुखाने के बाद कूट कर बनाया जाता है। मूलत: हल्बा जनजाति की महिलाएँ इस व्यंजन को बनाने के काम से जुड़ी थीं किन्तु इनके साथ-साथ बाद में धाकड़ और केंवट समुदाय की महिलाओं ने भी इसे व्यवसाय के रूप में अपना लिया। चिवड़ा और हल्बा जनजाति के सम्बन्ध को दर्शाता हल्बी भाषा का एक लोक गीत है : 
    आठ मनेया काकड़ा, नौ मनेया डाड़ा
    तरँगी-तरँगी जा रे काकड़ा ‘हलबा’-पारा
    बायले बिती सोए, मुनिस बिता जागे
    अती सुँदर काकड़ा ‘चिवड़ा’ कुटुक लागे
    अती सुँदर काकड़ा ‘लाई’ फोड़ुक लागे। 

अनुवाद : आठ मन का केकड़ा जिसकी दाढ़ें नौ मन की हैं वह सरकता हुआ जाता है ‘हल्बा’ के मोहल्ले। वहाँ उस हल्बा व्यक्ति की पत्नी सो रही है और पति जाग रहा है। तब वह सुन्दर-सा केकड़ा चिवड़ा कूटने और लाई फोड़ने में उस हल्बा व्यक्ति की सहायता करता है।

छत्तीसगढ़ी के एक ‘माता-सेवा गीत’ में भी कुछ इसी तरह की बात आती है : 
    सबो पारा जइबे हो माता खेली-कुदी अइबे
    धाकड़ के पारा झनि जाबे हो माय
    हो मैया, धाकड़िन छोकरी अजब एक सुन्दर
    चिवड़ा म लेत मोहाय हो माय।

अनुवाद : हे माता! तुम सभी मोहल्लों में जाना और खेल-कूद कर आना किन्तु ‘धाकड़’ जाति के मोहल्ले मत जाना। कारण, धाकड़ की बेटी बहुत ही सुन्दर है और वह तुम्हें चिवड़ा दे कर मोह लेगी।

चावल के आटे से ‘गुलगुला भजिया’ भी बनाया जाता है। यह भजिया चावल के आटे में गुड़ मिला कर तेल में तला हुआ होता है। बस्तर अंचल के कुछ परिवारों में, जो छत्तीसगढ़ी परिवेश से यहाँ आ बसे हैं, चावल के आटे से बने ‘चीला’, ‘फरा’ और ‘आरसा’ नामक व्यंजनों की भी उपस्थिति दिखती है। ‘चीला’ चावल के आटे को घोल कर बनाया जाता है। इसके दो प्रकार होते हैं- पहला, नमक मिला ‘नमकीन चीला’ और दूसरा गुड़ मिला ‘मीठा चीला’। इसी तरह ‘फरा’ के भी दो प्रकार होते हैं- पहला, ‘सादा फरा’ और दूसरा ‘दूध फरा’। आरसा एक ही प्रकार का होता है। इसी तरह ओड़िसा से आकर बसे परिवारों के बीच कार्तिक एकादशी के दिन ‘मोडा’ नामक व्यंजन बनाया-खाया जाता है। चावल के गुँथे हुए आटे के भीतर नारियल, गुड़ आदि डाल कर उसे लड्डू का रूप दिया जाता है और भाप में ‘फरा’ की ही तरह पकाया जाता है। 
नरक चौदस के दिन चावल के आटे को उबाल कर उसका दिया बना कर जलाने की भी प्रथा यहाँ के कुछ परिवारों में पायी जाती है। बाद में इस दीये को प्रसाद के रूप में खाया भी जाता रहा है। किन्तु आज के परिवेश में यह परम्परा लगभग लुप्त हो चुकी है। 

कलाकृति के रूप में : 

rice chauk made with wet rice flour

 

पके धान की बालियों को आकर्षक तरीके से गूँथ कर कलात्मक ‘सेला’ बनाया जाता है। ‘सेला’ को दरअसल एक कला कहा जाना चाहिये। इसे बनाना भी हर किसी के वश का नहीं होता। किन्तु यह अवश्य है कि प्रत्येक गाँव में और प्रत्येक दस-पन्द्रह परिवारों में से एक परिवार में कोई-न-कोई ऐसा कलाकार होता ही है जो ‘सेला’ बनाने में पारंगत होता है। ‘सेला’ को प्राय: दरवाज़े के ऊपरी हिस्से में दीवार से लटका दिया जाता है। बाहरी दरवाजे की दीवार पर लटके ‘सेला’ को प्राय: गौरय्या नामक चिड़िया चुग लेती है। 

विवाह के अवसर पर मण्डप में रखी जाने वाली छोटी हण्डियों (जिन्हें कोंडी या टाँडी कहा जाता है) पर धान और हल्दी से रँगे चावल चिपका कर कलात्मक ढंग से सजाया जाता है। चावल के आटे का उपयोग विभिन्न मंगल प्रसंगों पर ‘बाना’ लिखने में, यानी कि ज़मीन पर चित्रांकन करने में भी होता है। इसके दो रूप हैं- पहला, जिसमें केवल चावल के आटे का ही उपयोग होता है। दूसरा, जिसमें चावल और हल्दी के आटे का उपयोग किया जाता है। प्राय: इस विधा में महिलाएँ ही पारंगत होती हैं तथापि कुछेक पुरुष भी ‘बाना’ लिखते (यानी चित्रांकन करते) दिख जाते हैं। 

मंगल प्रसंगों पर चावल के आटे और हल्दी के मिश्रित घोल में दोनों हथेलियाँ डुबो कर उन हथेलियों की छाप दीवारों पर लगायी जाती है। इसे ‘हाता’ कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी परिवेश में इसे ‘हाँथा’ या ‘हाँता’ कहते हैं। इस घोल से ज़मीन और दीवार पर भी चित्रांकन किये जाते हैं। इतना ही नहीं अपितु चावल के आटे के घोल में कटोरी या गिलास का ऊपरी भाग भिगा कर उसकी छाप दियारी पर्व पर गोधन की पीठ पर लगायी जाती है। इसे ‘छापा’ कहा जाता है। यह भी ‘लोकचित्र’ विधा का ही एक प्रकार है। बच्चे की छठी और विवाह के अवसर पर चावल और हल्दी का टीका बच्चे या वर-वधू के माथे पर लगाये जाने की भी परम्परा रही है। यहाँ तक कि मृत्यु संस्कार में भी धान और चावल की उपयोगिता बनी रही है। जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तब उसके सिरहाने एक सूपा में धान रखा जाता है और उस धान के ऊपर जलता हुआ एक दीपक। इसके साथ ही श्मशान में चिता के पास ही उस व्यक्ति का चित्र भी चावल और हल्दी के आटे से बनाया जाता है। इसे भी ‘छापा’ या ‘मरनी-बाधा’ कहा जाता है। 

पुआल का उपयोग विभिन्न उपकरणों के रूप में :
धान तो काम आता ही है, इसका पुआल भी कई प्रकार से उपयोग में लाया जाता है। पुआल को ऐंठ कर ‘बेंट’ बनाया जाता है। ‘बेंट’ का उपयोग तिलहनी या दलहनी फसलों के भण्डारण-उपकरण (पात्र) के रूप में किया जाता है। इस भण्डारण उपकरण को ‘पुटका’ कहा जाता है। ‘बेंट’ के परले सिरे पर आग जला कर इसे ‘होला’ के रूप में भी उपयोग में लाया जाता है। ‘होला’ यानी मशाल। ‘बेंट’ से हाँडी रखने के लिये चकरीनुमा उपकरण बनाया जाता है, जिसे ‘आँयरा’ या ‘बेंडरी’ कहा जाता है। पुआल का एक और उपयोग होता है, ठण्ड के दिनों में बिस्तर के रूप में और ओढ़ने के लिये रजाई के रूप में भी। यद्यपि इस पर सोने या इसे कपड़े में भर कर ओढ़ने पर शरीर का पानी सूख जाने की आशंका रहती है। पुआल को जला कर उससे काला रंग प्राप्त किया जाता है जिसका उपयोग घर-आँगन को लीपने में किया जाता है। 

Puwal, stack of dried rice stalks

 

धान की भूसी का उपयोग विभिन्न प्रयोजनों के लिये :
धान की मिंजाई के समय धान से अलग हुए भूसे का उपयोग निम्न प्रायोजनों के लिये होता है : 
१.    गोबर में मिला कर ‘छेना’ (कंडा) बनाया जाता है।
२.    मिट्टी का घर बनाने के लिये इसे मिट्टी में मिलाया जाता है। 
.    ठण्ड के दिनों में आग तापने के लिये बनायी जाने वाली अँगीठी में उपयोग में लायी जाने वाली मिट्टी में मिलाया जाता है। 
४.    चूल्हा बनाने वाली मिट्टी में भी इसे मिलाया जाता है। इसके अतिरिक्त ‘ढेकी’ या राइस मिल में धान कूटने के दौरान प्राप्त होने वाले भूसे को (जिसे ग्रामीण परिवेश में ‘मुँडी कोंडा’ कहा जाता है) ईंट बनाने वाली मिट्टी में मिलाया जाता है। इसी तरह यह ईंट भट्ठा जलाने यानी ईंधन के रूप में भी उपयोगी होता है। महीन भूसी, जिसे ‘छड़ेया कोंडा’ कहा जाता है, की रोटी बनायी-खायी जाती है। 

धान ‘पोलई’ के रूप में देने की प्रथा रही है। धान की मिंजाई खत्म होने पर गाँव या आसपास के कुछ ऐसे लोग जिनकी अपनी खेती-बाड़ी नहीं होती, दूसरों के घर माँगने जाते हैं तब उन्हें सूपा भर कर धान प्रसन्नतापूर्वक दिया जाता है। इसी तरह ‘धोरई’ (चरवाहा) को भी पहले से तय मात्रा में धान दिया जाता है। 

जब धान का ‘भारा’ (गट्ठा) खेत से उठाया जाता है तब धान के कुछ कण खेत में गिर जाते हैं। इन कणों को गाँव के बच्चे आदि एकत्र करते हैं, जिसे ‘कोरजतो’ कहा जाता है। इस तरह एकत्र धान का उपयोग बच्चे लाई-चिवड़ा लेने के लिये करते हैं।
 
धान से जुड़े धार्मिक अनुष्ठान, पर्व एवं उत्सव :
इस अँचल में धान की कृषि एवं उपज से जुड़े कई त्यौहार, पर्व एवं उत्सव हैं। इनमें से प्रमुख त्यौहारों, पर्वों एवं उत्सवों का उल्लेख निम्नलिखित है- 

अमुस तिहार : सर्वप्रथम हम चर्चा करते हैं अमुस तिहार की। हरियाली अमावस्या के दिन मनाया जाने वाला यह धान की कृषि से सम्बन्धित वर्ष का पहला त्यौहार है। हरियाली का पर्व ‘अमुस तिहार’ यों तो श्रावण मास की अमावस्या के दिन मनाया जाता है किन्तु कुछेक गाँवों में यह त्यौहार इस तिथि के बाद भी मनाया जाता है। सम्भवत: ऐसा इसलिये ताकि एक-दूसरे गाँव के लोग एक-दूसरे के यहाँ इस त्यौहार पर सम्मिलित हो सकें।   

ग्रामीण इस दिन नारियल, अगरबत्ती, फूल तथा सेवा चावल ले कर माता के मन्दिर में जा कर माता की आराधना करते हैं। फिर घर लौट कर अपनी इष्ट देवी तथा ‘डुमा’ की पूजा की जाती है। फिर रसना पौधे की जड़, सतावरी पौधा, पतालकुमडा और केऊकाँदा पहले इष्ट देवी को अर्पित करते हैं फिर गाय-बैलों को खिलाया जाता है ताकि पशु-धन को किसी तरह के रोग न लगें। यदि इष्ट देवी कोई ‘डुमा’ हो तो उसे ‘अमुस कुकड़ी’ के नाम पर काली मुर्गी की बलि चढ़ायी जाती है। गाँव का पुजारी बेंट में आग ले कर गाँव के चारों ओर के लाउड़ों में जा कर राव, डाँड, पाती, कयना देवियों को होम दे कर आराधना करता है एवं कृषक अपने-अपने खेतों में ‘अमुस खुटा’ के प्रतीक-स्वरूप तेन्दू वृक्ष की डाल, सदावरी पौधा एवं भेलवाँ वृक्ष का पत्ता गाड़ते हैं ताकि कृषि-उपज को किसी प्रकार के रोग न लगें। लोक विश्वास है कि इस तरह के अनुष्ठान तथा इन पौधों के संसर्ग से फसल की रोग निरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। 

पोरा : ‘पोरा’ त्यौहार को ‘पोला’ भी कहा जाता है। भादों मास की अमावस्या को मनाये जाने इस त्यौहार के दो दिनों पूर्व महिलाओं द्वारा ‘कमर छठ’ या ‘खमर छठ’ व्रत रखा जाता है। पोरा में बैल के अतिरिक्त हाथी, घोड़ा, बन्दर और चूहे के आकार विशेष रूप से पसंद किये जाते हैं किन्तु विशेष आकर्षण होता है बैल, जिसे ‘नँदेया बैला’ कहा जाता है। इन्हें बनाते हैं मिट्टी शिल्पी यानी कुम्हार। देवी-देवताओं के समक्ष माटी के बैल अर्पित कर पूजा की जाती है। कुछ लोग इस दिन खेतों में भी नँदेया बैला की पूजा करते हैं। किन्तु खेत में होने वाली इस पूजा में महिलाओं की भागीदारी नहीं होती। कारण, मान्यता है कि इस दिन लछमी घर छोड़ जाती हैं। इस समय धान के खेतों में निंदाई चल रही होती है किन्तु पोरा त्यौहार के दिन इसी कारण निंदाई का कार्य बन्द रखा जाता है। 

नवाखानी : धान की नयी फसल खाने से पहले मनाया जाने वाला त्यौहार नवाखानी कहलाता है। अश्विन मास में अलग-अलग परगनों में अलग-अलग दिन यह त्यौहार मनाया जाता है। ‘बाल तिहार’ मनाने के दूसरे दिन नवाखानी मनाते हैं। यह धान्य-देवी की अर्चना का पर्व होता है। प्रत्येक परगन में आने वाले गाँवों में नवाखानी त्यौहार के लिये दिन नियत होता है। कहीं यह त्यौहार बुधवार को तो कहीं मंगलवार या फिर बुधवार को मनाया जाता है। गुरुवार का दिन प्राय: निषिद्ध होता है।  

दियारी : अगहन के महीने से आरम्भ हो कर माघ के महीने तक अलग-अलग तिथियों में प्रत्येक गाँव में मनाया जाने वाला पर्व ‘दियारी’ दीपावली का अपभ्रंश है। वस्तुत: यह गोधन की पूजा के पर्व अन्नकूट का बस्तरिया संस्करण है। दियारी के पहले दिन कई गाँवों में ‘दियारी मँडई’ मनाने की प्रथा है तथा दूसरे दिन ‘दियारी’ मनायी जाती है। पूरे बस्तर में दीपावली को ‘राजा दियारी’ तथा इस ग्रामीण ‘दियारी’ को कुछेक क्षेत्र, विशेषत: फरसगाँव क्षेत्र में ‘तुलसी दियारी’ कहा जाता है।

चरू : फसलों की, विशेषत: धान्य फसल की सुरक्षा हेतु चैत्र मास के अमावस्या को की जाने वाली पूजा को ‘चरू’ कहते हैं। यह त्यौहार फसल कटाई के पहले एवं बाद में मिंजाई के पहले मनाया जाता है। ‘चरू’ मनाये बिना न तो धान की कटाई की जा सकती है और न ही मिंजाई, ऐसी मान्यता है। पूजा में धान की बाली चढ़ायी जाती है। चरू न मनाया गया हो और धान कटाई के लायक हो गया हो तो धान की एक-दो बालियाँ रावदेवी के नाम पर काट कर आदन के पत्ते में लपेट कर रावदेव के स्थान पर टाँग दी जाती है। जब चरू मनाया जाता है तो वही बाली देवता को अर्पित की जाती है। यह त्यौहार पहले ग्राम देवता तथा बाद में ग्राम की सरहद के रावकोट में अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार मनाया जाता है। कहा जाता है कि ‘चरू’ त्यौहार मिट्टी का ‘छठी’ मनाना है।

पिट फोड़नी : चरू त्यौहार के पश्चात् सुविधा के अनुसार ग्राम-प्रमुख ‘पिट फोड़नी’ का दिन निश्चित करते हैं। निश्चित दिन पुजारी नये अरवाँ धान के चावल का आटा देव-स्थान पर ला कर आटे से ‘बाना’ बनाता है। विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर नये धान से चावल के दाने निकाल कर देवी को चढ़ाता है। आटा व घी को मिला कर पीपल के पत्ते में छोटी-छोटी सात रोटियाँ बनाता है एवं देवियों को अर्पित करने के बाद वह रोटी प्रसाद के रूप में ग्रामीणों में बाँट दी जाती है। इस त्यौहार के बाद ही नये धान ‘अरवाँ’ को कूट कर खाते हैं व धान को उबालने के बाद धूप या छाँव में सुखा कर कुटाई करते हैं ।  

कोठार छाँडनी : इसका तात्पर्य है मिंजाई-कार्य समाप्त करने के पश्चात् खलिहान (कोठार) छोड़ना। इसे कई क्षेत्रों में ‘कोठार सारनी’ भी कहा जाता है। प्रति दिन मिंजाई के पश्चात् व पुआल हटाने के पहले पुआल का पुतला पूर्वज (डोकरा देव) के प्रतीक के रूप में बनाया जाता है। प्रतिदिन बनाये गये पुतले सहेज कर रखे जाते हैं। भोजन के पहले डोकरा देव को पत्ते में थोड़ा-सा भात व सब्ज़ी दी जाती है। मिंजाई के बाद कोठार छाँडनी के दिन इन पुतलों को कोठार के मध्य गड़े खूँटे के नीचे क्रम से रख कर होम दिया जाता है एवं मुर्गी व अण्डे की भेंट चढ़ाने के बाद खुशियाँ मनायी जाती हैं। कुछ क्षेत्रों में इस दिन धोरई यानी गाय चरेहा (चरवाहा), मोहोरेया (मोहरी बजाने वाला) तथा कमया (नौकर) को ‘कुढ़ही’ धान दिया जाता है। इसी तरह ‘पोलई’ की भी एक रस्म इसी दिन होती है। इसमें गाँव के उन लोगों को जो कोठार छाँडनी के अवसर पर भेंट-स्वरूप नारियल या कबूतर आदि ले कर जाते हैं, सूपा में धान दिया जाता है। ‘पोलई’ लोहारों को उनके काम के बदले दी जाती है। 

धान से जुड़ी कथाएँ 
धान से जुड़ी कुछेक कथाओं में से अधिसंख्य लोगों द्वारा कही जाने वाली कथा इस प्रकार है : ‘लछमी जगार’ की ‘जमखँदा’ (यम शाखा) वाले रूप में आयी कथा के अनुसार लछमी यानी धान का अधूरा विवाह यमराजा से होता है। कारण, यमराजा की बुआ हैं निरबती रानी, जो लछमी की माता हैं। इस नाते जब यमराजा विवाह-योग्य होते हैं तब उनकी माता ‘जमिन रानी’ यमराजा से विवाह हेतु कन्या की खोज करती हैं किन्तु पूरे ब्रह्माण्ड में कोई भी पिता अपनी पुत्री का विवाह यमराजा से करने को तैयार नहीं होता। तब ‘जमिन रानी’ को अपने भाई बड़ुँद राजा की बेटी लछमी का ध्यान आता है और वे बड़ुँद राजा के पास जा कर अपने बेटे यमराजा के लिये लछमी का हाथ माँगती हैं। लोक में प्रचलित प्रथा के अनुसार मामा की बेटी पर पहला हक़ बुआ के बेटे का होता है। इसी प्रथा के चलते बड़ुँद राजा अपनी बेटी लछमी का विवाह अपने भान्जे यमराजा के साथ करने को तैयार हो जाते हैं। किन्तु यमराजा के दुर्भाग्य से नरायन राजा को इस बात की भनक लग जाती है और वे किसी तरह लछमी को यमराजा से अलग करने में सफल हो जाते हैं। वस्तुत: लछमी को ले कर नरायन राजा और यमराजा के बीच झगड़े की स्थिति बन जाती है। तब लछमी स्वयं को दो भागों में विभक्त कर लेती हैं। चावल के कण वाला हिस्सा नरायन राजा की ओर जाता है और पोला वाला भाग यमराजा के। इस तरह लछमी नरायन राजा के हिस्से में आती हैं। 
    
धान के उपयोग से जुड़े कुछ निषेध : 
गुरुवार का दिन लछमी यानी लक्ष्मी जी का माना जाता है। इसी कारण इस दिन का नाम ‘लखिम्बार’ पड़ा। इस दिन न तो धान बेचा जाता है और न ही कूटा या चावल पीसा जाता। यहाँ तक कि भिखारियों को भी चावल या धान भीख में न देने की परम्परा है। इस दिन ‘आमट’ सब्ज़ी भी नहीं राँधी-खायी जाती। कारण, ‘आमट’ में चावल पीस कर डाला जाता है। यहाँ तक कि मांसाहारी और मदिरा-सेवी लोग भी इस दिन मांस-मदिरा का सेवन नहीं करते। बाल या नाखून काटना भी वर्जित होता है। 
 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.