चाँउर कथा/The Rice Story

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Ashok Tiwari

Ashok Tiwari holds a post graduate degree in Anthropology. He has
worked for nearly four decades in ethnographic museums, including a 30-year long tenure at Indira Gandhi Rashtriya Manav Sangrahalaya, Bhopal.

 

 

चाँउर कथा वस्तुतः चाँउर अर्थात चावल या धान के परिप्रेक्ष्य में छत्तीसगढ़ और वहाँ के लोगों के जीवन और संस्कृति की गाथा है। छत्तीसगढ़ एक चावल केन्द्रित संस्कृति की भूमि है और चावल को ही छत्तीसगढ़ी भाषा में चाँउर कहा जाता है।

छत्तीसगढ़ एक धान उत्पादक और चावल उपभोगी राज्य है। यहाँ की संस्कृति अर्थात छत्तीसगढ़ वासियों की सम्पूर्ण जीवन शैली धान और चावल पर ही संधारित होती रही है। इस राज्य में देश के किसी भी क्षेत्र की तुलना में धान की सर्वाधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं। राज्य और यहाँ के निवासियों का जीवन इसी पर आधारित है। जीवन संस्कार के विविध सोपानों के साथ ही छत्तीसगढ़ के लोगों के धर्म और अनुष्ठान, खानपान तथा अर्थ व्यवस्था में भी धान और चावल की ही प्रमुखता सवर्त्र दिखाई देती है। आम तौर पर लोग इसे मात्र एक अन्न के रूप में ही जानते हैं पर छत्तीसगढ़ में यह इसके अलावा भी बहुत कुछ है।

 

चावल का इतिहास

चावल विश्व के 60 प्रतिशत से भी अधिक लोगों का प्रमुख आहार है। धान की उत्पत्ति के संबंध में वैज्ञानिक अभी भी एक धारणा नहीं बना सके हैं। यह कहा जाता है कि धान लगभग लगभग तीन हज़ार ईसा वर्ष पूर्व, एशिया में पाया गया था। धान की प्राप्ति को मानव सभ्यता के विकास क्रम में एक महत्वपूर्ण सोपान माना जाता है। छत्तीसगढ़ अपने धान के उत्पादन के लिए धान का कटोरा भी कहा जाता है।

 

उपयोगिता

छत्तीसगढ़ की ज्ञान परंपराओं में धान के उत्पादन अर्थात उसकी खेती तथा धान के विभिन्न ऊपयोगों के लिए आवश्यक प्रक्रियाओं का विशेष स्थान है। स्वतः धान की खेती भी भूमि के प्रकार, जल की सुविधा और कतिपय समाजों में संबंधित खेती के उपकरण की उपयोगिता के आधार पर कई प्रकार के हैं, जिनमें वर्षा आधारित खेती, सिंचाई सुविधा आधारित खेती, वृक्षों को जलाकर बीज छिड़ककर की जानी वाली अत्यंत प्राचीन और सरल खेती प्रमुख हैं। छत्तीसगढ़ में धान की किस्मों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। हरहुन यानी देर से पकने वाले और पतले धान जिसमें दुबराज, सफरी, बादशाह भोग, विष्णु भोग, जीराफूल, जवांफूल आदि तथा गरहुन अर्थात जल्द पकने वाले मोटे धान जिनमें गुरमटिया, लुचई, पलटू, परेवा आदि सम्मिलित हैं।

Puvaal

 

धान गहाई के बाद प्राप्त पुआल अर्थात पैरा, छत्तीसगढ़ में पशुओं के लिए बारहमासी चारा है और पुआल के नीचे मिलने वाला भूसा जिसे पेरूसी कहा जाता है, घर में दीवार बनाने और छपाई के लिए उपयोग की जाने वाली गीली मिट्टी में मज़बूत पकड़ के लिए मिलाया जाता है। धान को काटने के पश्चात उसे खेत से उठाने के बाद खेत में गिरी हुई बालियों को सीला कहा जाता है। सीला बीनना बच्चों और महिलाओं का प्रिय कार्य है। सीला कोई भी, किसी के भी खेत से एकत्र कर सकता है, और सीला को झाडकर मिलने वाले धान से बीनने वाले अपने लिए इच्छानुसार खरीदी करते हैं। धान की फसल की खलिहान में मींजने के बाद, जब अनाज की पहली खेप घर-घर पहुँचती है, तब घर की कोई महिला, दरवाज़े पर भूमि में पानी डालकर स्वागत करती है जो धान के प्रति सम्मान का सूचक माना जा सकता है।

 

धान से चावल प्राप्ति की तकनीक

धान से चावल बनाने की छत्तीसगढ़ में प्रचलित समस्त पारंपरिक तकनीकियों को यदि देखा जाए तो यह स्वचालित मशीनी युग के प्रचलन के पहले पूर्णतः हाथों से किया जाने वाला कार्य हुआ करता था, तथा यह अभी भी अनेक ग्रामीण समुदायों और जनजातीय समाजों में प्रचलित है। ढेंकी, मूसर, बाहना कांडी, जांता, सूप, चलनी आदि सब इसी के लिए उपयोग में आने वाली भौतिक सामग्री की वस्तुएं हैं। धान को दलकर, कूटकर, छरकर यूँ तो सीधे ही चावल बना लिया जाता है जिससे प्राप्त चावल को अरवा चावल कहा जाता है। किंतु अनेक क्षेत्रों में उसना चावल खाया जाता है जिसके लिए धान को उसन कर अर्थात उबालकर, सुखाकर, फिर उससे चावल बनाया जाता है जिसे उसना चावल कहा जाता है।

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धान को जाँता जो कि मिट्टी या कुछ इलाकों में लकड़ी से बनाई गई बड़े आकार की चक्की होती है, में दला जाता है या फिर ढेंकी से कूटा जाता है। ढेंकी और मूसल का उपयोग धान को कूटने तथा साथ ही चावल को पॉलिशिंग के लिए भी किया जाता है। धान से भोजन पकाने लायक चावल प्राप्त करने आदि में लगने वाली प्रक्रिया के भी कई चरण हैं जो स्थानीय भाषा में दरना, फ़ूनना, नीमारना, छरना, टोसकना आदि के रूप में विभाजित होते हैं।

 

चावल भोज्य पदार्थ के रूप में

चावल को पकाकर भात बनाने के भी कई तरीके छत्तीसगढ़ में प्रचलित हैं जिसके अंतर्गत चोवा भात बनाने के लिए चावल को धोकर केवल उतनी ही तादाद में पानी में पकाया जाता है जितने में भात तो पूरा पक जाए किंतु उसमें कोई अतिरिक्त माड़ शेष बचे। इसके विपरीत पसाकर भात बनाने के लिए पहले पात्र में अधिक मात्रा में पानी भरकर उसे गरम किया जाता है, गरम हो जाने पर उसमें धोया हुआ चावल डाल कर पकाया जाता है या अधिक मात्रा में पानी के साथ चावल को बर्तन में पकाया जाता, जिसके पक जाने पर उसमें से माड़ को पसाकर यानी निथारकर अलग कर दिया जाता है और पात्र में रह जाता है, पका हुआ चावल। कुछ दशक पहले छत्तीसगढ़ के अधिकतर क्षेत्रों में चावल पकाने के लिए पैना देकर पकाने का तरीका भी प्रचलित था। इसके लिए मिट्टी के बर्तन इस्तेमाल होते थे। मिट्टी के घड़े में पानी लगभग आधा या थोड़ा अधिक भरकर उसके मुँह पर एक अर्धचंद्राकार मिट्टी का पतीलानुमा बर्तन, जिसे पैना कहा जाता और जिसके तले पर छेद होता था, को रखकर उससे घड़े का मुँह ढँक दिया जाता था, ऊपर के छेद वाले पात्र अर्थात पैना में धुला हुआ चावल भर दिया जाता था। घड़े के पानी के उबलने पर ऊपर के बर्तन यानी पैना के छेद को करछुल की मदद से खोलकर पैना में से चावल को घड़े में गिरा दिया जाता था, जिसके पकने पर उसे निथारकर कर माड़ अलगकर पका हुआ भात प्राप्त होता था।

 

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माड़ भी एक भोज्य पदार्थ के रूप में इस्तेमाल होता है जिसे वैसे ही नमक डालकर या फिर उसमें थोड़े से चावल के दाने डालकर पिया जाता है। माड़ को स्थानीय भाषा में पेज या पसिया भी कहा जाता है जो स्वतंत्र रूप से भी लगभग ऊपर लिखे तरीके से तैयार होता है। इसके लिए कम तादाद में चावल और अधिक मात्रा में पानी इस्तेमाल होता है और इसमें से माड़ को निथारकर दाना अलग नहीं किया जाता वरन दाने के साथ ही माड़ को पिया जाता है। चावल से चिवड़ा भी तैयार किया जाता है जो छत्तीसगढ़ के साथ ही पूरे देश में पोहा नामक नाश्ता बनाने के लिए प्रयुक्त होता है।

 

धान संस्कार

छत्तीसगढ़ की संस्कृति में जीवन के प्रत्येक संस्कार में धान और चावल के उपयोग की अनिवार्यता है। जन्म के बाद शिशु को प्रसव कराने वाली दाई से धान भरे सूप में लिटाकर लेने से लेकर मृत्यु संस्कार में चावल से बने पिंड से पिंड दान तक हर सोपान में चावल की महत्ता है। शिशु जन्म के बाद भी यदि जश्न मनाया गया तो उसे भात खिलाना ही कहा जाता है। प्रसवा को विशेष रूप से पुराने चावल का भात खिलाया जाता है तथा शिशु का अन्नप्राशन भी चावल की खिचड़ी या खीर खिलाकर ही किया जाता है। विवाह में भोजन अर्थात प्रमुखतः भात और चावल के बने पकवान प्रमुखता प्राप्त करते हैं, आजकल समाहित अन्य पकवानों के बावजूद भी। धान के दाने से कलश का श्रृंगार के अतिरिक्त पूजा में चावल का लगातार इस्तेमाल और फेरे के लिए धान की लाई के बगैर विवाह संपन्न नहीं होते। विवाह तथा अन्य संस्कारों, अनुष्ठानों और पूजा इत्यादि के लिए जब भी चौक या माँडना बनाया जाता है तो वह सूखे आटे से बनाया जाता है, और वह आटा हमेंशा चावल का ही होता है। पारंपरिक रूप से छत्तीसगढ़ में सभी भोज निमंत्रण में प्रमुखतः भात ही खिलाया जाता है, और इसे भात या नेवता ही कहा जाता है। यहाँ पर निमंत्रण को भात खाने के नेवता के नाम से ही जाना जाता और सामान्यतः भोजन को ही भात के नाम से संबोधित किया जाता है। यदि कोई, किसी से यह पूछे कि भात खा लिए क्या, तो इसका तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति ने भोजन कर लिया है क्या।

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धन-धान्य

छत्तीसगढ़ में विदाई में बेटी, बहन को गोद भराई जैसी ही ओली भराई की जाती रही है जिसमें उसके आँचल में चावल या धान भरा जाता है। मेंहमानों को भी यदा-कदा बिदा करते हुए उपहार स्वरूप धान या चावल दिए जाते रहे हैं। भिक्षा और दान तो इन्हीं का ही किया जाता रहा है जैसे पंडित को दक्षिणा में धान या चावल देना, साल में एकबार जब जगन्नाथपुरी, बद्रीनाथ के पंडे अपने यजमानों के यहाँ आते तो उन्हें दान के रूप में धान या चावल ही दिया जाता और उन तीर्थों में चढ़ावे के लिए पंडा महाराज से जो संकल्प लेते हैं, उसमें भी धान ही चढ़ाया जाता है। भिक्षुकों और त्यौहारों में नेग करने आने वाले लोगों, जैसे हरियाली अमावस को दरवाज़े की चौखट पर कील ठोकने के लिए आने वाले लोहार, सिर पर मछली पकड़ने की जाल ढकने वाले केवट, कार्तिक मास में पशुओं को सोहइ पहनाने वाले और अन्नकोठी में हाथा देने वाले राउत या अहीर को धान ही दिया जाता रहा है। साल भर सेवा के लिए नियुक्त किये जाने वाले लोगों को जिनमें नाई, राउत या अहीर आदि प्रमुख हैं को भी एवज में धान ही दिया जाता है और ऐसे ही कुम्हार, लोहार, धोबी आदि को भी। अर्थात जजमानी प्रथा के लेनदेन धान से ही हुआ करते थे।

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खेती के काम के लिए काम पर रखे जाने वाले मज़दूरों को भी धान ही दिया जाता है। वार्षिक आधार पर रखे जाने वाले कर्मियों को भी वेतन के रूप में धान ही दिया जाता है जिसके लिए उसे साल भर के लिए उसकी मज़दूरी नियत खंडी धान पर तय की जाती है। साप्ताहिक बाज़ारों में भी जब सौदे के लिए लोग जाते तो या तो सीधे धान के विनिमय में ही खरीदी होती या फिर साथ लाये धान को बाजार में व्यापारी को बेचकर, प्राप्त नगदी से लेनदेन होता। खेती के काम के लिए रखे गए लोगों औऱ मज़दूरों को भी श्रममूल्य के तौर पर धान ही प्राप्त होता था। और बटाई में फ़सल की हिस्सेदारी में धान को ही खेत मालिक और सौंजिया तथा अधिया वालों के बीच बाँटा जाता है। सामाजिक दंड भी अनाज द्वारा लिया जाता था यानी धान के रूप में। उत्सव अनुष्ठान यदि सामुदायिक रूप में आयोजित होते थे तो वहाँ भी चंदे के रूप में अनाज देने का प्रचलन था। मौद्रिक व्यवस्था के जोर के बाद हालाँकि इन सभी में अब नगद राशि ने स्थान बना लिया है पर जाने कब से धान इन सब लोगों की तमाम ज़रूरतों को सीधे निबटा लिया करता था।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.