प्राथमिक रूप से धान छत्तीसगढ़ में सबसे ज़्यादा मात्र में उगाया जानी वाला अनाज है। इसलिए उसका अन्न के रूप में या खाद्य पदार्थ के तौर पर छत्तीसगढ़ में सवर्त्र प्रचलन है। लोग अपने दिन का प्रत्येक आहार चावल से ही प्राप्त करते हैं। सुबह नाश्ते के रूप में बासी यानी कि रात को पानी में भिगोकर रखा गया भात ग्रहण किया जाता या फिर पेज, पसिया या फिर चावल से बनी अंगाकर रोटी, पान रोटी, चीला, फरा जैसा कुछ नाश्ता। दोपहर के भोजन में भी भात ही खाया जाता है और ऐसे ही रात के भोजन में भी भात ही ग्रहण किया जाता है। गर्मी के दिनों में रात को बोरे जिसे रायगढ़ क्षेत्र में पखाल भी कहा जाता है, खाने का भी प्रचलन है। बोरे तैयार करने के लिए भात को दोपहर में पानी में डुबा दिया जाता है फिर उसे रात को नमक डालकर सब्ज़ी, चटनी आदि के साथ खाया जाता है।
छत्तीसगढ़ के अधिकतर पकवान चावल से ही तैयार किये जाते हैं। इनमें नमकीन भी होते हैं और मीठे भी। भात, खिचड़ी, बोरे, बासी, पेज, पसिया के अलावा चीला, फरा, मुठिया, धुस्का, अंगाकर, पान रोटी, चौंसेला, पीडिया, देहरौरी आदि सामान्य व्यंजन है किंतु लाई, मुर्रा या मुरमुरा और उससे बनने वाले लड्डू और उखरा की भी विशेष लोकप्रियता पूरे राज्य में देखी जाती है। छत्तीसगढ़ में गन्ने के रस के साथ चावल के आटे को पकाकर रसकतरा या रासाऊल नामक मीठा पकवान तैयार किया जाता है, जो गन्ने की पिराई के समय ही बनाया जाता है।
इसके अलावे चावल का उपयोग अन्य अनेक व्यंजनों में द्वितीयक सामग्री के रूप में भी होता है, जैसे यहाँ चावल को पकाने के लिए तीन बार पानी से धोया जाता है, उसमें से तीसरे या दूसरे बार के पानी को जिसे चरोहन कहा जाता है, दाल पकाने तथा सब्जियों में पानी के स्थान में उपयोग किया जाता है। इससे दाल और सब्जियाँ गाढ़ी बनती हैं। दाल को गाढ़ा करने के लिए माड़ का उपयोग भी यदा कदा देखने में आता है। खाजा नामक एक मिष्ठान जो मूलतः गेंहू के मैदे से बनता है, जिसे बनाने के लिए चावल के आटे को घी के साथ मिलाकर लेप तैयार किया जाता है, जो खाजा बनाने की प्रक्रिया में इस्तेमाल होता है। मसाले वाली सब्जियों को बनाने के लिए भीगे चावल को जीरे के साथ घी में भूनकर, पीसकर, पतला घोल बनाकर सब्जी के रस में डालकर उबाल कर पकाया जाता है।
धान की लाई को पानी में भिगोकर, नमक आदि मिलाकर लाई बड़ी बनाई जाती हैं, जिसे सुखाकर, बाद में तेल से तलकर पापड़ की तरह भोजन के समय खाया जाता है। चावल के आटे से पापड़ और करौरी नामक नमकीन भी बनायीं जाती हैं जिन्हें लम्बे समय तक रखा जा सकता है और बाद में तलकर खाया जाता है।
धान्य उत्सव
छत्तीसगढ़ में मार्गशीर्ष अर्थात अगहन महीने में प्रत्येक गुरुवार को लक्ष्मी जी की विशेष पूजा की जाती है जिसके लिए घर आँगन में चावल को भिगोकर, पीसकर, तैयार किये गए घोल से चौक यानी अल्पना बनाई जाती हैं। अग्घन बिरसपत के नाम से ज्ञात इस पूजा में हर गुरुवार को चावल से बने पकवान लक्ष्मी जी को भोग के रूप में अर्पित किए जाते हैं। यथासंभव हर गुरुवार को अलग पकवान, इस पूजा में और दीपावली को लक्ष्मी पूजा में धान की बालियों से बना तोरण नुमा श्रृँगार जिसे झालर या फाता कहा जाता है उसे एक तरह से अप्रत्यक्ष चढ़ावे के रूप में पक्षियों के चारे के रूप में लटका दिया जाता है। हिंदी कैलेंडर के आषाढ़ मास की अमावस्या को हरेली अमावस नामक त्योहार मनाया जाता है जिसमें कृषि उपकरणों की पूजा की जाती है, इसका सीधा संबंध खेती से है, और चूँकि छत्तीसगढ़ में खेती, प्रमुख रूप से धान की होती है, यह त्यौहार धान से सम्बद्ध माना जा सकता है। यहाँ हिंदी कैलेंडर के पौष मास की पूर्णिमा को छेरछेरा पुन्नी के नाम से मनाया जाता है। धान खेती के उस साल के सत्र का तब तक समापन हो गया रहता है और अनाज घर आ गया रहता है, यह त्यौहार उससे जुड़ी खुशी का प्रतीक है जिसमें खासकर बच्चे ‘छेरी के छेरा, माई कोठी के धान ल हेरी के हेरा’ यानी ‘छेरछेरा है, मुख्य कोठी का धान निकाल कर दीजिए’ कहते हुए घर-घर जाते हैं, जहाँ उन्हें उपहार स्वरूप धान दिया जाता है। छत्तीसगढ़ में खमरछठ, जिसे दूसरे क्षेत्रों में हलषष्ठी कहा जाता के व्रत में पसहर नामक एक विशेष चावल ही ग्रहण किया जाता। पसहर का धान बिना जुताई किये हुए, छोटे-छोटे पोखरों में पैदा होती है।
समूचे छत्तीसगढ़ में वर्षा ऋतु के अंतिम चरण में मनाए जाने वाले नवाखाई उत्सव में धान की नई फसल के चावल को पकाकर देवता को अर्पित किया जाता है। धान से जुड़ी और भी अनेक धार्मिक मान्यताएँ हैं, जैसे कि धान की बोआई शुरू करने के पहले धान के बीज को देवालय में देवता को अर्पित किया जाता है। ऐसे ही धान बोने के अवसर पर सरगुजा क्षेत्र में तो उत्सव ही मनाया जाता है। बायर नामक यह उत्सव बड़े उत्साह के साथ आयोजित होता है। धान की फसल को गाड़ियों में ढोने के लिए बोरे के स्थान पर गोना नामक एक स्थानीय परिवहन हेतु संग्रहण के लिए पटसन की रस्सी से बनी विशेष वस्तु बनायी जाती थी जिसमें 20 खंडी तक धान भरा जा सकता था।
छत्तीसगढ़ में अनाज माप की अलग इकाइयाँ होती थीं जिसमें न्यूनतम इकाई पैली है। एक पैली में एक सेर अर्थात लगभग 900 ग्राम चावल और लगभग 700 ग्राम धान आता है। चार पैली का एक काठा और 20 काठा का एक खंडी। सबसे बड़ी इकाई गाड़ा है, जो 20 खंडी का होता है। जब धान को काठा से मापा जाता है तब अक्सर शुरुआती सँख्या के लिए एक न कहकर, राम शब्द का उच्चारण किया जाता है, और इसी तरह 20वें काठे के लिए बीस न कह कर खंडी या सरा बोला जाता है।
धान से सम्बंधित व्यापार
किसानों के बीच कर्ज़ के रूप में भी धान का लेन-देन हुआ करता था जिसमें ब्याज के तौर पर भी धान ही लिया जाता था। मुद्रा के अधिक प्रचलन के पहले के दिनों में धान बच्चों के लिए पॉकेट मनी भी हुआ करता मसलन बच्चा यदि कोई वस्तु खरीदना चाहता तो उसे कुछ धान दे दिया जाता जिसे वह दुकानदार को देकर बदले में टिकिया, पिपरमिंट, बिस्कुट आदि ले लेता या फिर केंवटिन से धान देकर मुर्रा अर्थात मुरमुरा, भूना चना, मुर्रा का लड्डू आदि ले लेता।
आजकल छत्तीसगढ़ में धान लोककल्याण और राजनीतिक उपयोग का साधन हो गया है। लगभग एक दशक पहले राज्य की सरकार ने गरीबों को मुफ्त में प्रति महीना, प्रति परिवार 35 किलो चावल देना आरम्भ किया जो अभी भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है। धान की सरकारी खरीद, उसके लिए सरकारी समर्थन मूल्य, और उस पर सरकार द्वारा बोनस का भुगतान, लोककल्याण और राजनीति के लिए भी पिछले कुछ दिनों से एक सशक्त साधन के रूप में काम में लिया जा रहा है।
इसके अलावा धान का पुआल छत्तीसगढ़ में ज़रूरत पर रस्सी बनाने के लिए काम लाया जाता है। पुआल से ही अनाज संग्रहित करने कोठी भी बना ली जाती है। धान का छिलका ईंट के भट्ठे में इस्तेमाल किया जाता है और उसके भूसे जिसे छत्तीसगढ़ में कोढ़ा कहा जाता है, का आजकल खाने के तेल बनाने के लिए इस्तेमाल होता है। राइस ब्रान के नाम से बिकने वाले इस तेल ने कम समय में ही अपना अच्छा बाज़ार बना लिया है।
छत्तीसगढ़ में लोगों की जीवन और संस्कृति को अज्ञात युग से पोषित करने वाले धान की छत्तीसगढ़ के गाँवों के बाहर भी महत्वपूर्ण भूमिका है। वह अपने उत्पादक परिवारों के साथ ही कई करोड़ अन्य लोगों का भी उदर पोषण करता है जो उनके आहार का ज़रूरी हिस्सा होता है। धान, धान के व्यापार, राइसमिल, चावल से बने खाद्य पदार्थ बेचने वाले होटल तथा खानपान के अन्य स्थान, राइसब्रान के कारखाने, इसे और इसके अन्य उत्पादों को बेचने वाली दुकाने, ईंट के भठ्ठे तथा ऐसे ही मिलते जुलते व्यवसाय और उद्योग के मालिकों और वहाँ काम करने वाले लोगों के लिए जीवन यापन और धन कमाने का महत्वपूर्ण ज़रिया भी है।
इस तरह छत्तीसगढ़ के गाँव और वहाँ रहने वाले लोग, और ऐसे अन्य लोग जो विभिन्न तरीकों से धान से आजीविका प्राप्त करते हैं, इनके उदाहरण यह दर्शाते हैं कि धान की उपयोगिता के तरीके भले ही अलग-अलग हों, या बदल रहे हों, उसकी महत्ता में कोई कमी नहीं आयी है।