छत्तीसगढ़ के बस्तर सम्भाग का अधिकांश भाग धान उत्पादक रहा है। धान का उत्पादन यहाँ बहुत अधिक हुआ करता था। वर्तमान बस्तर अंचल के मैदानी इलाक़ों में धान तथा पहाड़ी इलाक़ों में कोदो (कुटकी), कोसरा आदि मोटे अन्न का उत्पादन होता है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि धान का उत्पादन प्राय: सम्पूर्ण बस्तर अंचल में कमोबेश होता ही है।
इस अंचल में प्रचलित एक लोक महाकाव्य ‘लछमी जगार’ तो धान्य-देवी की ही महागाथा है। इस लोक महाकाव्य जैसा कोई दूसरा लिखित या अलिखित महाकाव्य, जिसमें धान की कथा कही जाती हो, देश में शायद एक ही है (पश्चिमी ओड़िसा में प्रचलित ‘बाली जगार’ को छोड़ कर कहीं प्रचलन में हो, ऐसा ज्ञात नहीं है)। इस अंचल की धान्य-संस्कृति का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उदाहरण इस लोक महाकाव्य को, और इस लोक महाकाव्य के गायन के अवसर को माना जा सकता है। यह अलग बात है कि इस लोक महाकाव्य के अलग-अलग रूप पाये गये हैं किन्तु इसके बावजूद इन लोक महाकाव्यों के केन्द्र में ‘धान’ की ही अद्भुत कथा है। इस महाकाव्य के दो स्थानीय रूप यहाँ प्रस्तुत हैं-
गुरुमाँय सुकदई कोराम द्वारा गायी गयी कथा के अनुसार -
‘लछमी’ यानी धान की माता ‘मेंगइन रानी’ और पिता ‘मेंग राजा’ हैं। मेंग यानी मेघ, यानी वर्षा के देवता। मेंगइन रानी इन्हीं मेंग राजा की पत्नी हैं। बालिखँडपुर के राजा नरायन हठपूर्वक लछमी यानी धान से विवाह करते हैं जबकि पहले से ही उनकी इक्कीस रानियाँ हैं। ये इक्कीस रानियाँ हैं कोदो (कुटकी), कोसरा, साँवा, मँडिया (रागी), हरवाँ (कुल्थी), उड़द, मूँग, राहेड़ (अरहर), सरसों, तिल आदि अन्य दलहनी तथा तिलहनी फसलें। विवाह के बाद इन्हीं इक्कीस रानियों द्वारा सौतन लछमी यानी धान को तरह-तरह के कष्ट दिये जाते हैं ताकि वे नरायन राजा का घर छोड़ कर भाग जायें, किन्तु विभिन्न पशु-पक्षियों द्वारा लछमी यानी धान की सहायता की जाती है और लछमी कुछ दिनों के लिये वहाँ रह पाती हैं। किन्तु अन्तत: इक्कीस रानियाँ अपने षड्यन्त्र में सफल हो ही जाती हैं और लछमी को नरायन राजा का घर त्यागने पर विवश होना पड़ता है। लछमी जब नरायन राजा का घर त्याग कर इन्दरपुर चली जाती हैं तब उनके साथ उनके अनुचर भी चले जाते हैं। वे अनुचर होते हैं इक्कीस रानियों को छोड़ कर शेष समस्त जीव-जन्तु और विविध सामग्री।
इसके फलस्वरूप नरायन राजा के घर में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। नरायन राजा अपनी इक्कीस रानियों से मज़दूरी करने तक के लिये कहते हैं। रानियाँ यह सुन कर गाँव-नगर में जाती हैं और लोगों से काम माँगती हैं किन्तु कोई भी उन्हें कोई काम नहीं देता। थक-हार कर रानियाँ घर वापस होती हैं और नरायन राजा से सारा हाल कह सुनाती हैं। अन्तत: नरायन राजा लछमी की खोज में निकलते हैं और एक अस्पृश्य व्यक्ति से मित्रता कर लछमी की खोज में पाताल-लोक जा पहुँचते हैं। वहाँ कई उपाय करने के बाद वे लछमी को देख पाते हैं और फिर छद्म रूप धर कर लछमी के घर प्रवेश भी पा जाते हैं। भेंट होने पर लछमी अपनी सौतनों द्वारा उन्हें दिये गये कष्टों के विषय में बताती हैं। तब नरायन राजा द्वारा उन्हें वचन दिया जाता है कि आइन्दा किसी के भी द्वारा उन्हें किसी भी तरह का कोई कष्ट नहीं दिया जायेगा। वे उनसे अनुनय करते हैं कि वे वापस चली चलें। नरायन राजा की मनुहार के आगे लछमी हार मान लेती हैं और अपने समस्त अनुचरों सहित नरायन राजा के घर वापस होती हैं। उनके आते ही नरायन राजा का महल धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है। इक्कीस रानियाँ भी लछमी से क्षमा-याचना करती हैं और उनसे वादा करती हैं कि आइन्दा वे उन्हें किसी भी तरह का कष्ट नहीं देंगी।
गुरुमाँय केलमनी द्वारा गायी गयी कथा के अनुसार -
खोरखोसा की गुरुमाँय केलमनी द्वारा गयी गयी ‘लछमी जगार’ की कथा भी इसी तरह है किन्तु इसमें बलराम पर दुःखों के पहाड़ टूट पड़ते हैं। कारण, बलराम के ही कहने पर नरायन राजा ने लछमी का त्याग कर दिया था। बहरहाल, लछमी द्वारा नरायन राजा का महल त्यागने के बाद वहाँ के सभी रहवासियों को भूखे रहना पड़ जाता है। यहाँ तक कि लछमी ग़ुस्से में आ कर नरायन राजा और उनके बड़े भाई बलराम के पलँग तक उठवा लेती हैं और उन दो पलँगों की जगह श्मशान में फेंके गये टूटे-फूटे खाट रखवा देती हैं। उनके जाते ही नौखण्डा राजमहल टूटी-फूटी कुटिया में परिवर्तित हो जाता है। घर में खाने को न तो अन्न होता है और न ही अन्य कोई सामग्री। कपड़े भी तार-तार हो जाते हैं। ऐसे में नरायन राजा और बलराम पर दुखों के पहाड़ टूट पड़ते हैं। वे दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हो जाते हैं।
अन्तत: परिस्थिति ऐसी बनती है कि नरायन राजा और बलराम को भीख माँगने के लिये विवश होना पड़ता है किन्तु उन्हें भीख में दी गयी वस्तु भी या तो हवा में उड़ जाती है या फिर देखते-ही-देखते ग़ायब हो जाती है। यहाँ तक कि सुस्वादु ककड़ी भी बलराम को कड़वी लगती है। अन्त में, जब वे दोनों भाई कई कठिन परीक्षाओं से गुज़रते हैं तब बलराम थक-हार जाते हैं और नरायन राजा से लछमी को वापस ले चलने को कहते हैं। नरायन राजा द्वारा लछमी से विनती की जाती है तब कहीं वे वापस जाने को तैयार होती हैं। उनके वापस होते ही नरायन राजा का राज्य पुन: धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है।
धान का आविर्भाव, उसकी क़िस्मों, एवं उपयोग-
धान का आविर्भाव :
‘लछमी जगार’ के अनुसार आरम्भ में धरती पर धान नहीं था। तब लोग कन्द-मूल-पत्ते अदि खाकर पेट भरते थे। ऐसे में पारबती (पार्वती) रानी को धान का स्मरण हो आया, जो उनके भाई कुबेर के पास था। तब उन्होंने माहादेव (महादेव) से कुबेर राजा के पास से धान माँग लाने के लिये कहा। उनके कहने पर माहादेव राजा कोबेर (कुबेर) राजा से धान माँग कर लाये और पारबती के काका बड़ुँद राजा के घर से सोना-रुपा नामक दो बैल। फिर भिकन्दर की सहायता से उन्होंने जंगल का कुछ हिस्सा साफ कर खेती तैयार की और उसमें धान बोया। जब धान की फसल पक गयी तब उन्होंने भिकन्दर को धान काटने के लिये कहा। भिकन्दर ने धान काटा और ला कर कोठार में खरही बना कर रख दिया। माहादेव के पूछने पर कि कितना धान हुआ, भिकन्दर ने बताया, "ढाई अँगवा"। यानी बहुत कम। भिकन्दर चूँकि महाकाय था इसीलिये उसके लिये इतना धान कम ही था जबकि सामान्य कद-काठी के व्यक्ति के लिये यह बहुत अधिक था। किन्तु इस बात को माहादेव समझ नहीं पाये और भिकन्दर से कहा कि उन्होंने इतनी कड़ी मेहनत कर खेत तैयार किये, बड़ुँद राजा से बैल माँग कर खेत जोते और कोबेर (कुबेर) राजा से धान का बीज माँग कर धान बोया। उसकी देख-रेख की, किन्तु इसके बावजूद फसल इतनी कम हुई तो भला वे उस फसल का क्या करेंगे? फिर उन्होंने भिकन्दर से उस फसल को जला देने के लिये कहा। माहादेव की आज्ञा पा कर भिकन्दर ने धान की खरही में आग लगा दी। खरही धू-धू कर जल उठी। धान की खरही में लगी आग के कारण उठता धुआँ ऊपरपुर तक जा पहुँचा। तब ऊपरपुर से सभी देवी-देवता दौड़े चले आये। माहादेव ने सब को दौड़ते-भागते आते-जाते देखा तो वे भी उनके पीछे चल पड़े। देखा तो धान की खरही में आग लगी थी। सबने मिल कर आग बुझायी। कोबेर के पूछने पर माहादेव ने पूरी घटना बयान कर दी। तब जितना धान बचा था उनकी स्थिति के अनुसार उनके भिन्न-भिन्न नाम हुए। अधिक जले हुए धान का नाम हुआ मे
हर। थोड़े कम जले धान को पखया धान कहा गया। थोड़ी अच्छी हालत में रहे धान का नाम हुआ बारँगी। अधिक अच्छी स्थिति में रहे धान को चूड़ी, सफरी, टिकी चूड़ी, बासा (बादशाह) भोग, राजा-भोग, लोकटी माछी, तिल सकरी आदि नाम दिये गये। कुबेर राजा ने मँजपुर (मर्त्य लोक) के लोगों को बुलाया और सारा धान ले जाने को कहा। इस तरह धान पूरी पृथ्वी पर व्याप्त हो गया। यानी इस तरह भूलोक पर धान का आविर्भाव हुआ।
धान की पारम्परिक क़िस्में :
धान की बस्तर अंचल में पायी जाने वाली पारम्परिक क़िस्मों के नाम हैं-
पखया
गाड़ाखुटा
मेहर
बासमती
बारँगी
चूड़ी
सफरी
टिकी-चुड़ी
बासा-भोग
राजा-भोग
लोकटी-माछी
तिलसकरी
बावँस-पती
तुलसी-माला
बोदा-बिजा
टेमरू-मुँडी
टाँगन
पँडकी-गुड़ा
पोतोह
पिल कोरमेल
फुल मेछा
भाटा मोकड़ो
भाटा लुचई
भाटा खुजी
भाटा दुबराज
भाटा चुड़ी
भालू दुबराज
भागी
भइँस पाठ
भुरसी
मटको
मलको
मंछा
मारी चुड़ी
मोहा धान
मायट
मोकड़ो
मोतिलुर
माड़िया साटका
मुँदरिया
मद्रास चुड़ी
मछरी पोटी
अलटी बिजो
अलसाँकर
आदन छिलपा
आसन (आसम) चुड़ी
लायची
उमरी चुड़ी
लाल मोकड़ो
लाल बारँगी
लाल हजारी
लाहा गोयँदी
लोक्टी माछी
लायचा
बँडी धान
बयो
बयगनी
बँद परेवाँ
बड़े मोकड़ो
बायले ठगरी
बाँडी लुचई
बाँडी चुड़ी
बायको
बाँस-गठी
बाक्टी चुड़ी
हरदी-गठी
हरदी चूड़ी
धान की आधुनिक या उन्नत क़िस्में :
आई.आर. (IR) 36
एच.एम.टी. (HMT)
सी.आर. धान. (CR) 310
डी.आर.आर. (DRR) धान 45
पूसा सुगंध-5
पूसा बासमती-1121
पूसा-1612
पूसा बासमती-1509
पूसा-1610
धान के प्रकार :
1- पकने की समयावधि की दृष्टि से :
धान को उसके पकने की समयावधि की दृष्टि से शीघ्र पकने वाला धान, मध्यम समयावधि में पकने वाला धान तथा विलम्ब से पकने वाला धान, इस तरह कुल तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है। शीघ्र पकने वाले धान को तुरिया धान कहा जाता है। यह 60 दिनों में पक जाता है। दूसरे प्रकार के धान को मध्यम कहा जाता है और यह 90 दिनों में पक जाता है जबकि तीसरे प्रकार का धान माई कहलाता है और 120 दिनों में पकता है। इस समयावधि को भी बस्तर का जन-मानस ‘लछमी जगार’ की उसी कथा से जोड़ कर देखता है, जिसके अनुसार धानों की भिन्न-भिन्न किस्में हुईं। जो धान ऊपर रह गये थे, वे 60 दिनों में पकने वाले हुए। जो धान बीच में रह गये थे वे 90 दिनों में पकने वाले हुए और जो धान सबसे नीचे रह गये थे वे 120 दिनों में पकने वाले हुए।
2- गुणों की दृष्टि से :
कुछेक धानों में औषधीय गुण पाये जाते हैं तो कुछ धान सुगन्धित होते हैं। औषधीय गुणों वाले धान में ‘मेहर धान’ का मुख्य स्थान है। इसी तरह ‘देव धान’, ‘लोकटी माछी धान’, ‘काला पारा धान’ और ‘बाँवस पती धान’ आदि भी औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते हैं।
3- आकार-प्रकार एवं अन्य दृष्टि से :
कुछ धान आकार में मोटे होते हैं, कुछ पतले और कुछ मध्यम। ‘बाँवस पती’ धान पतला होता है जबकि ‘गाड़ाखुटा’ मोटा और ‘भाटा लुचई मध्यम। ‘बासा-भोग’ (बाशा-भोग या बादशाह-भोग) पतला होता है। कुछ धानों में से किसी में सुगन्ध नहीं होती तो कुछ में होती है। सुगन्धित धानों में ‘बासमती’, ‘दुबराज’ और ‘बाँवस पती’ धान याद आते हैं। इसी तरह कुछ धान लम्बे होते हैं, कुछ छोटे और कुछ मध्यम लम्बाई के। ‘दुबराज’ लम्बा होता है, ‘गाड़ाखुटा’ और ‘सफरी’ मध्यम लम्बाई के होते हैं जबकि ‘बोदा बिजा’ आकार में छोटा होता है।
धान को जब उबाल कर कूटा जाता है तब उससे प्राप्त होने वाला चावल ‘उसना चाउर’ (उबला चावल) कहलाता है जबकि बिना उबाले, कूटे गये धान से निकले चावल को ‘अरवाँ चाउर’ (अरवाँ चावल) कहते हैं। उसना चावल वे लोग खाते हैं जिनके पास खाने को पुराना धान नहीं रह जाता और नये धान का चावल खाने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं रह जाता। सीधे तौर पर कहें तो ग़रीब लोगों के लिये उसना चावल खाना मज़बूरी होती है। प्राय: कृषि से सम्बन्धित चरू नामक एक अनुष्ठान के पूर्व (प्राय: वे लोग जिनके पास पुराना धान नहीं होता, यानी ग़रीब-ग़ुरबा लोगों को) नये धान का सेवन करना होता है, वे धान को उबाल कर उसका चावल निकालते तथा खाते हैं। किन्तु यही एकमात्र कारण हो, ऐसा भी नहीं है। डायबिटीज़ के मरीज़ों को भी उसना चाउर (उबले धान का चावल) खाने की सलाह वैद्यों द्वारा दी जाती है। उसना चाउर खाने के पीछे कुछ अन्य कारण भी हैं। मसलन चावल टूटता नहीं बल्कि साबुत निकलता है। यानी ‘कनकी’ (टूटा चावल) नहीं निकलता। इससे सर्दी-खाँसी नहीं होती जबकि उसी समय यदि अरवाँ चावल खा लिया जाये तो सर्दी-खाँसी होने की आशंका बनी रहती है। यही कारण है कि इसे नवप्रसूता को भी खिलाया जाता है।
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.