पंथी नृत्य, Panthi nritya of the Satnamis

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Published on: 13 July 2018

डॉ.अनिल कुमार भतपहरी

सहायक प्राध्यापक, शासकीय बृजलाल वर्मा महाविद्यालय, पलारी , छत्तीसगढ़। निर्गुण संत साहित्य पर शोधकार्य।

 

पंथी नृत्य सतनाम-पंथ का एक आध्यात्मिक और धार्मिक नृत्य होने के साथ-साथ एक अनुष्ठान भी है। सामूहिक अराधना है। यह वाह्य-स्वरूप में मनोरंजन एवं अन्तःस्वरूप में आध्यात्मिक साधना है।

आरंभ में यह भावातिरेक में निमग्न भक्तजनों का आनंदोत्सव में झूमने और थिरकने की क्रिया रही है जो क्रमशः विकसित होकर नृत्य में परिवर्तित हो गई।

छत्तीसगढ़ में सतनाम-पंथ का प्रवर्तन गुरु घासीदास ने 19वीं सदी में किया। उन्होंने समकालीन समय में धर्म-कर्म और समाज में व्याप्त अंधविश्वास, पांखड एवं कुरीतियों के विरुद्ध सदाचार और परस्पर भाईचारे के रूप में सतनाम-पंथ का प्रवर्तन किया। व्यवहारिक स्वरूप में व्यक्तिगत व सामूहिक आचरण के तहत इसे निभाने के लिए उन्होंने नित्य शाम को संध्या आरती, पंगत, संगत और अंगत का आयोजन गांव-गांव रामत, रावटी लगाकर किया। समाज में निरंतर इस व्यवस्था को कायम रखने के लिए साटीदार सूचना संवाहक अधिकारी और भंडारी चंदा-धन एवं अन्य सामग्री के प्रभारी अधिकारी के रूप में नियुक्त किया एवं महंत जो संत-स्वरूप और प्रज्ञावान थे, की नियुक्ति कर अपने सतनाम सप्त सिद्धांत और अनगिनत उपदेशों व अमृतवाणियों का प्रचार-प्रसार करते भारतीय संस्कृति में युगान्तरकारी महाप्रवर्तन किया।

कालांतर में उनका यह महती अभियान सतनाम पंथ के रूप में रेखांकित हुआ, जो कि अवतार वाद एवं जन्म से ऊंच-नीच, जाति वर्ण से पूर्णतः पृथक है। इसलिए इसे धर्म की संज्ञा भी दी जाती है। इस पंथ में गाए जाने वाले गीत पंथी गीत और उन गीतों के धुनों पर भावप्रवण नृत्य पंथी नृत्य के रूप में लोकप्रिय हुए।

 

पंथी नृत्य का उद्भव व विकास

पंथ से संबंधित होने के कारण अनुयायियों के द्वारा किए जाने वाले नृत्य पंथी नृत्य के रूप में प्रचलित हुए। साथ ही इस नृत्य में प्रयुक्त होने वाले गीतों को पंथी गीत के रूप में प्रतिष्ठा हासिल हुई।

पथ का अर्थ मार्ग या रास्ता है, जिस पर चलकर अभिष्ट स्थल तक पहुंच सकें। इसी पथ पर अनुस्वार लगने से वह पंथ हो जाता है। इसका अर्थ हुआ विशिष्ट मार्ग। इस पर व्यक्ति का मन, मत और विचार चलता है और धीरे-धीरे वह परंपरा और विरासत में परिणत होकर संस्कृति के रूप में स्थापित हो जाता है। इसी सतनाम-पंथ की धार्मिक क्रिया व नृत्य ही पंथी नृत्य है।

पंथी नृत्य प्रायः सामूहिक होते हैं। इनकी आदर्श संख्या 15 होती है, जिसमें वादक भी सम्मलित होते हैं। पंथी नृत्य में गायक, मादंरवादक, झांझ वादक, झुमका वादक रहते हैं। स्वतंत्र रूप से 10 नर्तक, 3 वादक, एक गायक व एक नृत्य निर्देशक सीटी मास्टर। इस तरह 15 सदस्य आदर्श माने जाते हैं।

पंथी नृत्य पुरुष प्रधान नृत्य है। यह सतनामियों में बारहों माह प्रतिदिन सायंकालीन जैतखाम व गुरुगद्दी गुड़ी के समक्ष किया जाने वाला अनुष्ठानिक नृत्य है। इसके द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्ष और सामूहिक साधना द्वारा परमानंद की प्राप्ति होती है।

नृत्य करते-करते अपनी अंतिम तीव्रावस्था में नर्तक आत्मलीन हो जाते हैं और नृत्य की समाप्ति पर शांत-चित्त मंडप में ही बैठकर या लेटकर भाव समाधि में आबद्ध हो जाते हैं। गुरुप्रसाद व अमृत जल पाकर कृतार्थ हो जाते हैं।

मांदर की ध्वनी और झांझ, झुमका, मंजीरे की की आवाज उन्हें शीघ्र भाव समाधि की तरफ ले जाते हैं। कहीं-कहीं दर्शक पर देवता चढ़ जाते हैं। इसे सतपुरुष बिराजना कहते हैं। इसे स्थानीय जन देवता चढ़ना भी कहते हैं। जैसे जंवारा और गौरा पूजा में लोग चढ़ जाते हैं और झूमने लगते हैं। पंथी में सतपुरुष बिराजने पर वे जमीन पर लहरा लेते हुए लोटने लगते हैं। भंडारी, महंत उन्हें जैतखाम के समीप ले जाकर अमृतजल देकर नारियल फोड़कर शांति कराते हैं।

आजकल पंथी नृत्य में एकल प्रस्तुतियां भी देखने को मिलती हैं।

 

पंथी नृत्य का स्वरूप

पंथी नृत्य के अनेक प्रकार हैं। भावगत व क्षेत्रगत विभिन्नताओं के कारण इनका सहज निर्धारण किया जा सकता है।

1. भावगतः पंथी गीत की रचना अनेक भावों को लेकर की गई है। इनमें प्रमुखतः आध्यात्म, धर्मोपदेश, लोकाचार, शौर्य पराक्रम एवं चरित-कथा गायन के आधार पर भाव व्यक्त करते हुए नृत्य प्रदर्शन शामिल है।

2. क्षेत्रगतः अलग-अलग परिक्षेत्र में प्रचलित वेशभूषा, भाषा-शैली एवं संगीत वाद्ययंत्रों से प्रदर्शन।

 

प्रमुख पंथी नर्तक दल

पंथी नृत्य दल प्रायः सभी सतनामी ग्रामों में गठित हैं। अनुयायी आरंभ में प्रतिदिन सायंकालीन जैतखाम या सतनाम भवन के समीप एकत्र होकर पंथी नृत्य करते रहे हैं। ख्यातिनाम पंथी नर्तकों में देवदास बंजारे, पुरानिक चेलक, दिलीप बंजारे, करमचंद कोसरिया, प्रेमदास भतपहरी, कनकदास भतपहरी, सी.एल रात्रे, हीराधर बंजारे मालख्रौदा, मनहरण ज्वाले कोरबा, श्रवण कुमार चौकसे कोरबा, रामनाथ रात्रे अकलतरा, सूरज दिवाकर गिधौरी, दिनेश जांगडे़ रायपुर, सुखदेव बंजारे, मिलापदास बंजारे, डॉ. एस.एल. बारले, अमृता बारले भिलाई सहित अनेक नाम हैं जो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं और अनवरत पंथी नृत्य को साध रहे हैं।

आम तौर पर पंथी नृत्य सादगी पूर्ण होते हैं। जिस तरह व्यक्ति साधारण दैनिक व्यवहार में यथावत रहते हैं। केवल पावों में पहने खड़ाऊं, जूते-चप्पल उतार कर, सीधे हाथ-पांव पानी से धोकर, खुद को जल से सिक्त कर, शारीरिक व आत्मिक शुद्धिकरण कर सीधे नृत्य दल या नृत्य में प्रविष्ट हो जाते हैं। कंधे पर सततागी धारण करते हैं जो सात कुंवारी धागों का समुच्चय है। सततागी को विवाह के समय फेरे लेते पुरुषों को गुरु संत, महंत भंडारी, साटीदार के समक्ष धारण करवाया जाता है, जिससे वे जीवन निर्वाह करने, समाज, घर-परिवार की जिम्मेदारी निभाने के लिए उपयुक्त माने जाते हैं। इसे सततागी प्रथा कहते हैं। साधारण बोलचाल में इसे मड़वा दुनना भी कहा जाता है। आजकल इसे जनेऊ भी कहा जाता है। पुरुष सततागी व महिलाएं कंठी धारण करते हैं। कुछ पुरुष सततागी धारण करने के कठोर नियम के चलते कंठी धारण कर लेते हैं।

पारंपरिक रूप में पंथी प्रायः अर्धविवृत देह, जिन पर सततागी (जनेऊ), गले में कंठी माला धारण कर माथे पर श्वेत चंदन तिलक लगाए जाते हैं। नीचे कमर से लेकर घुटने तक श्वेत धोती और पांव में घुंघरू बंधे हुए होते हैं।   

पंथीनृत्य में निम्न वाद्ययंत्र होते हैः

1. मांदरः यह प्रमुख आधार वाद्ययंत्र है। पंथी में मांदर वादक और गायक यह दो लोग ही आधार हैं। मांदर मिट्टी के और लकड़ी खासकर आम, पीपल जैसे गोलाकार व अपेक्षाकृत वजन में कम लकड़ी से निर्मित होते हैं। लकड़ी के मादंर ही आजकल अधिक प्रयुक्त होने लगे हैं। क्योंकि ये हल्के होते हैं और परिवहन में सहज भी। धेरे आसन, मुद्रा व पिरामिड बनाने तथा उन पर चढ़कर मांदर वादन, सुविधा-जनक होते हैं। आजकल पंथी नृत्य में यही प्रयुक्त होने लगे हैं। मांदर घोष ध्वनि वाद्ययंत्र है, जिनके दोनों शिराओं पर चमड़े मढ़े होते हैं। ये बद्धी नामक रस्सी से कसे होते हैं। इन्हें बनाने वाले खास जाति को गाड़ा कहते हैं। ये लोग अनेक तरह के वाद्ययंत्र बनाने, बजाने में निपुण होते हैं। यह वाद्ययंत्र भारतीय जनमानस, खासकर छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। चाहे करमा, पंथी,जसगीत, डंडानृत्य, बारनृत्य हो मांदर अनिवार्य है। इनके बिना उक्त नृत्य और गीत की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।

2. झांझः मंजीरे से बड़ा रूप झांझ है। यह कांसा धातु से बने बड़े प्लेट आकार के होते हैं, जिनके बीच से रस्सी फंसाकर दोनों हाथ से परस्पर टकराकर बजाते हैं। इससे निकली ध्वनि की अनुगूंज मन को तरंगित करते हैं। यह एक विशिष्ट ताल वाद्य है। मांदर और झांझ की जुगलबंदी से निकली ध्वनि श्रोताओं को एक अलग दुनिया में प्रविष्ट कराती हैं। केवल झांझ बजाकर चैका आरती भी करते हैं। झांझ चैका में प्रयुक्त होने वाली आधार वाद्ययंत्र हैं, जबकि पंथी का आधार वाद्ययंत्र मांदर हैं। दोनों की संयुक्त ध्वनि से भक्तिमय वातावरण निर्मित होता है।

3. घुंघरूः प्रत्येक पंथी नर्तक पावों में घुंघरू बांधकर नृत्य करते हैं। कदमताल इस तरह मिलाते हैं कि सभी नर्तकों के पावों का संचालन समान हो। पदाधात एक सा हो, ताकि उनसे घुंघरू एक साथ झंकृत हो सकें और उससे निकलने वाली ध्वनि समान हो। घुंघरू पीतल कांसे से बनी छोटे आकार की गोलाकार खोखली आकृति है, जिनके ऊपर रस्सी फंसाने के हूक लगे होते हैं। इन्हें 50 से 100 की संख्या में रस्सी में बांधकर नर्तक के पैरों में बांधे जाते हैं। पांवों की थिरकन की वजह से इनसे निकले स्वर मांदर की ध्वनि के साथ मिलकर सम्मोहन का वातावरण बनाते हैं।

4. झुमकाः पंथी नृत्य में प्रयुक्त चौथा वाद्ययंत्र झुमका है। यह पीतल या स्टील से बना होता है। इसकी पोली पर स्टील के छर्रे भरे हुए होते हैं। यह एक लकड़ी के डंडे से बंधा होता है और दोनों हाथ से हिलाने पर इसमें खनखनाहट की ध्वनि उत्पन्न होती है। इसे श्रवण करने पर आनंद की प्राप्ति होती है। कुशल नर्तक बीच में केवल झुमका के साथ बिना मादर, झांझ के पदाधात की ताल और घुंघरू व झुमका की संयुक्त ध्वनि से नृत्य कर भाव-विभोर होते हैं। बीच-बीच में इस तरह के अनुप्रयोग पंथी दलों में होते हैं। इस तरह देखें तो पंथी मांदर और दोनों हाथ के ताली के साथ शुरू हुई। उसमे झांझ और झुमका जुड़ गए। साथ ही और नर्तक पांवों में घुंघरू बांधने लगे। महज ये चार वाद्ययंत्र ही पंथी के आधार वाद्ययंत्र के रूप में प्रचलन में रहे हैं। धीरे से इसमें चिकारा, हारमोनियम और बेन्जो भी सम्मलित होने लगे हैं। आजकल इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों का सर्वाधिक उपयोग होने लगा है।

 

पंथी आयोजन की तिथि व समय

पंथी नृत्य सतनाम पंथ में एक अराधना या इबादत की तरह है। अतः इनका आयोजन प्रायः प्रतिदिन है। किसी की मौत होने, या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में इसका आयोजन नहीं होता। बारिश के दिनों में भी यदा-कदा गायन व वादन के कार्यक्रम चलते रहते हैं।

कलान्तर में पंथी नृत्य गुरु घासीदास जयंती एवं अन्य गुरुओं की जयंती व पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित तो होते ही हैं। साथ ही शादी-विवाह में भी पंथी नृत्य के मनोहारी प्रदर्शन होते हैं।

आजकल अनेक जगहों पर गुरु पर्व या लोकोत्सव एवं शासकीय आयोजनों में भी पंथी नृत्य का आयोजन होने लगा है। करीब 10 से 15 मिनट (इस अवधि में एक भजन गाए जाते हैं) की प्रस्तुति से पूरा माहौल भक्तिमय हो जाता है और उत्साह-उमंग दर्शकों, श्रोताओं में छा जाता है।

पंथी में निरंतर नवाचार हो रहे हैं। अनेक वादयंत्रों के अनुप्रयोग और तेजी से भावयुक्त बनते-बिगड़ते आसन, आकृतियां दर्शनीय होते हैं। इनका अनुकरण देश के अनेक लोकनृत्यों पर भी होने लगा है। पंथी का प्रभाव भारतीय लोक नृत्यों पर आसानी से देखने को मिलता है। यही इसकी लोकप्रियता का उच्चतम स्तर है। पंथी का भविष्य उज्ज्वल है। प्रदर्शन भी भव्यतम और वैश्विक रिकार्ड के स्तर पर होने लगे। हालांकि, इन सबके बीच, सादगी और आध्यात्मिक व परमानंद की भाव से युक्त श्रद्धा-भक्ति का यह नृत्य, जो आराधना और अनुष्ठान जैसा था, धीरे-धीरे तिरोहित होने लगा हैं। पंथी में उक्त भाव-भक्ति व श्रद्धा आस्था में आधुनिकता की वजह से क्षरण हो रहा है। उनका संरक्षण आवश्यक है। अन्यथा यह केवल प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह जाएगी।  

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.