छत्तीसगढ़ के पारम्परिक खेल

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Published on: 01 August 2018

चन्द्रशेखर चकोर

लोक खेल उन्नायक, शोधकर्ता एवं लेखक, रायपुर, छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ एक कृषि-प्रधान राज्य है। यहाँ के ज़्यादातर लोग गाँवों में निवास करते हैं और अपने जीवन यापन के लिए कृषि पर ही निर्भर होते हैं। मध्य छत्तीसगढ़ से परे उत्तरी छत्तीसगढ़ के पाँच जिले व दक्षिणी छत्तीसगढ़ के छः जिले वन संपदा व पर्वत से घिरे हुए हैं। इसके बावजूद भी इस भूभाग में कृषि बेहतर ढंग से विकसित हुई है। कृषि यहाँ की पहचान है। कृषि के अलावा भिलाई का स्टील प्लांट, बैलाडीला में लोहा, कोरबा में बिजली व देवभोग में हीरा आदि से सबंधित उद्योग भी राष्ट्रीय स्तर पर जाने पहचाने जाते हैं। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति अत्यंत आकर्षक है। विषय जब लोक संस्कृति हो तो यहाँ की विशिष्ट विधाओं में से एक है—पारम्परिक लोक खेल।

 

पारम्परिक लोक खेल वह खेल है जिसकी परम्परा हज़ारों वर्ष पुरानी होती है, जिसके न जन्मदाता का पता होता है और न जन्मभूमि का। उक्त खेल किसी भी पुरस्कार या उपलब्धि की चाह के बिना मात्र खिलाड़ियों के मनोरंजन हेतु खेलते-खेलते एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होते रहे हैं। जिसके लिए न खिलाड़ी शब्द अनिवार्य होता है और न ही प्रशिक्षण। ये खेल सैकड़ों, हज़ारों वर्षों से मानव समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी विकास करते आ रहे हैं। उक्त खेलों में न विशेष नियम होते हैं न विशेष शर्ते। इन्हें हम जन-जन का खेल या ग्रामीण खेल भी कहते हैं। जन साधारण द्वारा सहज रूप से खेले जाने के कारण इनमें सामग्री तथा खिलाड़ियों की संख्या सुनियोजित न होकर त्वरित उपलब्धि के आधार पर तय होती है। लोक खेलों में स्वस्थ मनोरंजन की अनुभूति खिलाड़ियों का लक्ष्य होती है किसी प्रकार का पुरस्कार या उपलब्धि नहीं।

 

 

पारम्परिक लोक खेलों के विशाल स्वरूप को देखें तो स्पष्ट होता है कि छत्तीसगढ़ का बाल्यकाल अत्यधिक समृद्ध रहा है। सरगुजा से सुकमा और राजनांद गांव से रायगढ़ तक जहाँ अनेकों पारम्परिक खेल लुप्त हो गये हैं वहीं सैकड़ों लोक खेल अस्तित्व में आज भी है जो कि टी.वी., विडियो गेम, इन्टरनेट व आधुनिक खेलों के प्रभाव से वंचित दूर-दूर के गाँवों में संरक्षित व पल्लवित हो रहे हैं।

 

छत्तीसगढ़ में मानव जीवन के साथ ही लोक खेलों की परम्परा विकसित हुई है। झाड़ बेंदरा को आदिम युग का खेल मान सकते हैं। इस प्रदेश में जहां अधिकतम लोक खेल, बाल खेल के रूप में प्रचलित है वहीं अधिकाधिक लोक खेलों का स्वरूप सामूहिक है। दलीरा लोक खेलों का प्रचलन बहुत ही कम है। ऐसे लोक खेलों का प्रचलन भी मिलता है जिन्हें एकल या व्यक्तिगत लोक खेल कहा जाता है जैसे—गोटा, भौंरा, उलानबांटी, चरखी, पानालरी।

 

 

लोक साहित्य के दृष्टिकोण से पारम्परिक लोक खेलों के दो रूप प्रचलन में है। 1) दुच्छ लोक खेल जैसे—भिर्री, कुचि, संडउवा, तरोईफूल, फोदा, टेकन, चुरी लुकउल, तथा 2) गीतिक लोक खेल जैसे—भौंरा, धायगोड़, अटकन-मटकन, फुगड़ी, बिरो, पोसम पा, इल्लर-डिल्लर आदि।

 

खेलों के आरंभ की घोषणा, खिलाड़ियों की मानसिकता, उनकी संख्या और सामग्री की उपलब्धता पर निर्भर होती है। पूर्व तैयारी का सदा अभाव बना रहता है। इनमें स्थल के चुनाव को भी विशेष महत्व नहीं दिया जाता है। स्थल के दृष्टिकोण से लोक खेलों को दो श्रेणी में रखा जा सकता है। पहला है आंतरिक पृष्ठभूमि से संबंधित लोक खेल। इस श्रेणी में वे खेल सम्मिलित होते हैं जिनके लिए मैदान की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे लोक खेलों के लिये सीमित किन्तु समतल स्थल ही उत्तम व उपयुक्त होता है। जैसे घर के आँगन, बरामदे, कमरा, चौपाल, चबूतरा आदि। ऐसे ही स्थानों से संबंधित प्रमुख लोक खेल भोटकुल, फुगड़ी, नौ गोटिया, बन्ना, चौसर, पच्चीसा, चुड़ी बिनउल आदि। दूसरा है बाह्य पृष्ठभूमि से संबंधित लोक खेल जिसके लिए मैदान अनिवार्य होता है या फिर गलियों में भागकर खेला जाता है जैसे—संखली, गिल्ली-डंडा, रेस-टीप, संडउवा, गिदिगादा, खिलामार आदि।

 

पारम्परिक लोक खेलों में सामग्री को विशेष महत्व नहीं दिया गया है। जिन लोक खेलों में सामग्री की प्रचलन मिलता है वह भी सरलता से उपलब्ध हो जाने वाली सामग्री पर ही केन्द्रित होती है—जैसे कुचि, गोटा, बिल्लस, चूड़ी, पिट्टुल, गिदिगादा, खिलामार, भिर्री, भौंरा, गिल्ली-डंडा, फल्ली, चुहउल, संडउवा आदि।

 

 

टॉस अंग्रेज़ी का शब्द है। जिसकी सार्थकता एवं आवश्यकता को पूर्ण करते हुए छत्तीसगढ़ के पारम्परिक लोक खेलों की वृहत परम्परा में फत्ता शब्द का प्रचलन सदियों से विद्यमान है। इसे पुकाना या पुकई भी कहा जाता है। लोक खेलों में फत्ता के दो रूप मिलते हैं। पहला एकमई फत्ता और दूसरा साफर फत्ता। फत्ता की आवश्यकता प्रत्येक लोक खेल के लिये होता है किन्तु ऐसे भी लोक खेल प्रचलन में है जिसके प्रारंभ में फत्ता की व्यवस्था होती है। फत्ता उस खेल के साथ जुड़ा होता है। फत्ता के बिना यह खेल पूर्ण नहीं होते। ऐसे लोक खेलों से संबंधित फत्ता को एकमई फत्ता कहा जाता है। एकमई फत्ता से संबंधित लोक खेल हैं गिल्ली-डंडा, बांटी, भौंरा व संडउवा। साफर फत्ता अर्थात लोक खेलों में सम्मिलित किये जाने वाले टॉस की प्रक्रिया। किसी भी लोक खेल में, किस खिलाड़ी द्वारा खेल का प्रारंभ हो, इसका निर्णय करने के लिए साफर फत्ता महत्वपूर्ण है। पारम्परिक लोक खेलों में संखली फत्ता, एक हत्थी फत्ता व अंगरी फत्ता के रूप में साफर फत्ता के तीन रूप प्रचलन में मिलते हैं।

 

वर्तमान समय में खेलों के समापन पर सफल खिलाड़ियों को राशि या प्रतीक चिन्ह पुरस्कार के रूप में प्रदान किया जाता है। उक्त पुरस्कार ही खेलों में खिलाड़ियों का लक्ष्य होता है। पुरस्कार का ही पारम्परिक लोक खेलों में पृथक अस्तित्व है, जिसे दाम कहा जाता है। दाम किसी प्रकार की उपलब्धि, राशि या सामग्री नहीं होती बल्कि वह आनंद की अनुभूति प्रदान करने का माध्यम होता है। यह आनंद सफल खिलाड़ी को असफल खिलाड़ी द्वारा प्राप्त होता है। दाम के दो रूप लोक खेलों में मिलते हैं पहला संगेच दाम और दूसरा सांझर दाम।

 

 

पारम्परिक लोक खेलों में कुछ ऐसे हैं जिनमें खेल के साथ ही साथ आनंद की अनुभूति उनके खिलाड़ियों को हो जाती हैं इसके लिए किसी तरह की साधन या माध्यम की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे लोक खेलों के दाम को संगेच दाम कहा जाता है। संगेच दाम के दो रूप झेलार दाम व उरकधारा दाम पारम्परिक लोक खेलों में मिलते हैं, जैसे—भौंरा, फुगड़ी, सोना-चांदी, गिल्ली-डंडा, अल्लग-कूद, फल्ली। ऐसे भी लोक खेल हैं जिसमें आनंद नहीं होता किन्तु खेल समाप्ति पर सफल खिलाड़ियों के लिए पुरस्कार स्वरूप जो दाम की व्यवस्था होती है उसे ही सांझर दाम कहा जाता है, सांझर दाम के दो रूप मिलते हैं: 1) तुवे व 2) ठुठी।

 

छत्तीसगढ़ के पारम्परिक लोक खेलों में गड़ी व दूध-भात शब्द का भी प्रचलन मिलता है। गड़ी मतलब खिलाड़ी या साथी होता है। दूध-भात से तात्पर्य है अयोग्य या अनुभवहीन खिलाड़ी, जिस पर ध्यान नहीं दिया जाता। जिस खिलाड़ी को दूध-भात कहा गया है उसके द्वारा की गयी ग़लती पर ध्यान नहीं दिया जाता। यदि वह खेल उचित खेलता है तो उसका सम्मान किया जाता है। ये खिलाड़ी सिर्फ दाम लेता है, दूध-भात के माध्यम से छोटे या अयोग्य बच्चे बड़ों के साथ खेलकर अनुभव प्राप्त करते हुए पारंगत हो जाते हैं।

 

छत्तीसगढ़ में प्रचलित प्रमुख पारम्परिक लोक खेल—फल्ली, मटकी फोर, बांटी, ईभ्भा, भैंरा, बिल्लस, फोदा, गिदिगादा, खीलामार, गोटा, उलानबांटी, नौगाटिया, परी परवरा, कुकरा-कुकरी आदि हैं।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.