वासुदेवा- विलुप्त होती विरासत

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Published on: 29 April 2019

मुश्ताक खान

चित्रकला एवं रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर।
भारत भवन, भोपाल एवं क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली में कार्यानुभव।
हस्तशिल्प, आदिवासी एवं लोक कला पर शोध एवं लेखन।

समय के साथ सामाजिक परिवर्तन अपरिहार्य है। अतीत की कितनी प्रथाएं, रीती रिवाज और मान्यताएं समय के साथ अपना अस्तित्व खो चुकीं अथवा समय के अनुरूप अपना कलेवर बदल कर किसी प्रकार अपने को बनाए रख सकीं कहना कठिन है। अनेक व्यवसाय और समुदाय समयानुकूल न रहने के कारण या तो विलुप्त हो गये या किसी तरह अपने को जीवित बनाए रखने के लिए अंतिम संघर्ष कर रहे हैं। कुछ ऐसा ही एक छत्तीसगढ़ का समुदाय है, वासुदेवा। आज यह समुदाय जनस्मृति में इतना क्षीण हो चुका है की युवा पीढ़ी तो इसके नाम से भी अनभिज्ञ है। 

छत्तीसगढ़ का उत्तर-पूर्वी भाग अनेक घुमक्कड़, धार्मिक एवं लोक आख्यान गायक समुदायों का प्रिय भूभाग रहा है। जोगी, बैरागी, वासुदेवा, देवार और नाथ पंथी जैसे घुमंतू लोक गायक यहाँ सदियों तक सक्रीय रहे हैं। एक समय यह घुमक्कड़ भजनगायक समुदाय न केवल स्थानिय वाचिक परंपरा के भंडार, संरक्षक और प्रसारक थे बल्कि वे अपनी भावी पीढ़ियों को इसे हस्तगत कराकर इसके संवाहक की भूमिका भी निबाहते थे। वे इन क्षेत्रों में चलते फिरते नैतिक मूल्यों के ध्वजारोहि एवं उनके प्रचारकर्ता थे। वे भजनों, लोक कथाओं और आख्यानों के माध्यम से समाज में उच्च नैतिक मूल्यों की विजय गाथा गाकर लोगों के नैतिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान करते थे। देश के विभिन्न अंचलों की वाचिक परम्पराएं उन क्षेत्रों के स्थानिय ज्ञान, दर्शन और अभिव्यक्ति का आकूत भंडार हैं और यह ज्ञान भंडार सदियों से इन्ही समुदायों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचता रहा है। इन घुमक्कड़ गायक समुदायों ने  लिखित-अलिखित कथानकों को स्थानीय बोलियों में सहज ग्राही बनाकर जिस तरह प्रस्तुत किया है वह अद्वितीय है। कथानक की मूल कथा को अक्षुण रखकर स्थानिय बोली में अनुवाद और उसे सरस बनाने हेतु उसमें भजन अथवा गीतों के अंशों का समावेश करने का जो महत्वपूर्ण कार्य इन समुदायों ने किया है वह प्रशंसनिय है। स्वनिर्मित तम्बूरा और सारंगी जैसे सामान्य वाद्यों की संगीत लहरी पर पारम्परिक संयोजित गायकी से वे बहुत ही भक्ति भाव से अपनी प्रस्तुती करते रहे हैं।     

 

परन्तु देश की आज़ादी के बाद और खासतौर से पिछले तीन दशकों यहाँ की समाजिक स्थितियों में भारी बदलाव हुआ है। जनसामान्य का दृष्टिकोण इन भजन एवं कथा गायकों के प्रति बदला है। भोर की बेला में दरवाजे पर अपने परम्परिक वाद्यों और अंदाज में गायन कर दान माँगने वाले यह लोग अब श्रद्धा और भक्ति के पात्र नहीं बल्कि गंदे भिखारी समझे जाने लगे हैं। आम लोगों की दृष्टि में अपने प्रति आये इस बदलाव को इन समुदायों ने भी अनुभव किया है, यही कारण है कि इनकी युवा पीढ़ी इस पैतृक एवं समुदायगत पारम्परिक व्यवसाय का परित्याग कर रही है। वर्तमान में यह समुदाय एक ऐसे दोराहे पर खड़े हैं जहाँ से उनकी नई पीढ़ी को अपना भविष्य चुनना एक चुनौती है। वर्षों भिक्षा-दान पर जीवन यापन करने के कारण इनके पास न तो खेतिहर जमीन है और न ही पूँजी है। औपचारिक शिक्षा का इन समुदायों में नितांत आभाव है। बेरोजगारी और अशिक्षा से अभिशिप्त इनके युवा मजदूरी कर जीवन निर्वाह कर रहे हैं।

वासुदेवा समुदाय के लोग अपना सम्बन्ध कृष्ण के पिता वासुदेव से जोड़ते हैं। वे कहते है उनके वंशज मथुरा-वृन्दावन से निकले थे और यदुवंशी वासुदेव उनके पूर्वज थे। इस समुदाय के लोग छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में भी फैले हुए हैं। बुंदेलखंड और बघेलखण्ड के इलाकों में इन्हे हरबोले और भटरो बाभन के नाम से भी जाना जाता है। छत्तीसगढ़ में कुछ लोग इन्हे बसदेवा अथवा वसदेवा भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ में इनकी आबादी रायपुर, रायगढ़, महासमुंद और जांजगीर जिलों में है। जांजगीर जिले के अकलतरा ब्लाक के कटघरी गांव में पांच वासुदेवा परिवार बसते हैं। इन्ही में से राम प्रसाद वासुदेवा एक हैं। लगभग पचपन वर्षीय राम प्रसाद अभी भी अपनी पारम्परिक परिपाटियों का पालन कर रहे हैं और वासुदेवा समाज की वंशानुगत भजन गायकी को जीवित बनाये हुए हैं।

राम प्रसाद वासुदेवा बताते हैं उनके समाज के लोग यहाँ मड़वारानी, गांड़ा पाली, नूनेरा, पचपेढ़ी, पिथौड़ा, कोटगढ़ आदि गांवों में रहते हैं। बिलासपुर के शनिचरी इलाके और रायपुर के आमापारा और रामकुंड में भी वासुदेवा रहते हैं। परन्तु अधिकांश वासुदेवा परिवारों की नई पीढ़ी अपने पारम्परिक काम को जारी रखने को उत्सुक नहीं है। जब तक प्रौढ़ और वृद्ध वासुदेवा जीवित हैं तब तक ही यह वाचिक पारम्परिक ज्ञान और भजन गायकी जीवित है, आगे क्या होगा कहना कठिन है।

वे बताते हैं उनके कटघरी गांव में पांच वासुदेवा परिवार हैं और सभी अभी अपने पूर्वजों की थाती को संजोये हुए हैं, उन्ही की रीत पर चल रहे हैं। ये हैं संतोष वासुदेवा, साधू वासुदेवा, बोनो वासुदेवा और बलिप्रसाद वासुदेवा। यूँ तो वासुदेवा वर्ष भर जीवन यापन के लिए अपने और आस-पास के गांवों में घूमते रहते हैं परतुं धान की फसल कटाई के उपरांत, कार्तिक माह से अगले चार माह के लिए विशेषतौर पर माँगतेरी पर जाते हैं। कार्तिक, अगहन, पूस और माघ माह इनके भ्रमण काल होते हैं। इस दौरान वे सपरिवार निकल पड़ते हैं और अपने पुश्तैनी जजमानों के यहाँ जाते हैं। जिन परिवारों के यहाँ उनके पूर्वज वर्षों से जाते रहे हैं वे ही इनके जजमान कहलाते हैं। वे जिस गांव जाते हैं, उसके एक किनारे अपना अस्थाई डेरा बनाते हैं। परिवार के पुरुष एवं स्त्रियां पृथक-पृथक मंडलियां बनाकर जजमानों के यहाँ भजन गायन करते हैं। पुरुष गेरुआ वस्त्र धारणकर, माथे पर बड़ा सा वैष्णव तिलक लगाकर, एक हाथ में मंजीरा और दूसरे हाथ में काठी लिए, उन्हें तालबद्ध तरीके से बजाते हुए गायन करते हैं। स्त्रियां मंजीरा और काठी नहीं बजाती, वे सामान्य ढंग से भजन गायन करती हैं।

 वासुदेवा अकेले और दो या तीन सदस्यों की मंडली में गाते हैं। मुख्य गायक एक ही होता है अन्य लोग सहायक के रूप में मुख्य गायक द्वारा गाई गयी पंक्तियों को मात्र दोहराते हैं। राम प्रसाद वासुदेवा कहते हैं बचपन में वे स्वयं भी अपने पिता या बड़े भाई के साथ फेरी के लिए जाते थे। यह एक प्रकार का प्रशिक्षण होता है, साथ गाते-बजाते वे कब मंजीरा और काठी बजाने में दक्ष हो गये पता ही नहीं चला। इसी प्रकार भविष्य का वासुदेवा गायक तैयार होता है। जजमानों से पहचान, गांव-गांव के रास्ते, पारम्परिक कथानक, भजन, कथाएं, गायकी और प्रभवोत्पादक प्रस्तुति यह सब कुछ धीरे-धीरे सीखा जाता है।

Ram Prasad Vasudeva

Image: Ram Prasad Vasudeva/राम प्रसाद वासुदेवा 

 

वासुदेवा गायकी बहुत ही सरल और सहज होती है परन्तु इसमें गायन के साथ गले से निकली जाने वाली एक विशेष ताल, हाथों द्वारा बजाये जा रहे मंजीरा और काठी तथा समूचे शरीर का एक लयबद्ध तरीके से कम्पन बहुत महत्वपूर्ण होता है। एक हाथ से मंजीरा और उसी समय दूसरे हाथ से काठी बजाना एक अद्भुद कार्य है। दौनों की ताल का सामंजस्य तथा गायन करते हुए गले और नाक के मिश्रित प्रयोग से ताल विशेष की ध्वनि उत्पन्न करना, यह सब वासुदेवा गायकी के विशिष्ट पक्ष हैं जो इस गायकी को अलग स्तर प्रदान करते हैं।

Manjira

Image: Manjira/मंजीरा 

 

kathi

Image: Kathi/काठी 

 

Vasudeva Mukuta

Image: Vasudeva Mukuta/वासुदेवा मुकुट 

 

वासुदेवा अधिकांशतः कृष्णावतार अथवा कृष्ण भजन, श्रवण कुमार कथा, राजा कर्ण कथा, राजा मोर ध्वज और राजा हरीशचंद्र की कथा का गायन करते हैं। इनके अतिरिक्त वे अपने जजमानों को दान देने हेतु प्रेरित करने के लिए जोड़वां भजन भी सुनते हैं। जोड़वां भजन तात्कालिक और स्वस्फूर्त होते हैं जिन्हें वासुदेवा गायक उसी समय अपनी कल्पनाशीलता से बना लेते हैं। इन भजनों में जजमान की प्रशंसा और उसके कुल की दान वीरता का वर्णन होता है।   

राम प्रसाद वासुदेवा बताते हैं कुछ वर्षों पहले तक वे सुबह चार बजे मुँहअंधेरे गांव में फेरी के लिए निकल जाते थे। एक घर के बाहर भजन शुरू करते थे तो आस-पास के घर के दरवाजे भजन सुनकर ही खुल जाते थे। लोग धान, दाल, सब्जी आदि जिससे जैसा बनता वैसा दान देते थे। पर अब लोगों को हमारा सुबह-सुबह आना पसंद नहीं रहा, अब हम दिन में फेरी के लिए जाते हैं।

Ram Prasad Vasudeva receiving offering from a woman

Image: Ram Prasad Vasudeva receiving offering from a woman/राम प्रसाद वासुदेवा एक औरत से दान लेते हुए।  

 

उनके स्वयं के दो बेटे हैं राकेश और मुकेश। राकेश वासुदेवा की आयु लगभग बाईस वर्ष है और मुकेश भी उससे दो-तीन वर्ष छोटा है। दौनों ने स्कूल में दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की है और वे अपने पूर्वजों की कला विरासत को आत्मसात करने में कोई रूचि नहीं रखते। उन्होंने अपने पिता से कभी उन कथाओं और भजनों को सीखने या जानने का प्रयास ही नहीं किया जिन्हें उनके पिता और पूर्वज पीढ़ियों से सहेजते और अनुगामी संतानों को सहज हस्तांतरित करते आये थे। वे मजदूरी और नौकरी करना चाहते हैं।

 

This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and archaeology, Government of Chhattisgarh to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.