संकट में हैं लाल पड़िया आदिवासी ‘पिंधना’

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सरोज केरकेट्टा (Saroj Kerketta)

सिमडेगा, झारखंड की रहने वाली सरोज केरकेट्टा एक वरिष्ठ आदिवासी लेखिका हैं। आप अपनी मातृभाषा खड़िया के साथ-साथ हिंदी में पिछले 50 सालों से निरंतर लिख रही हैं। झारखंड की आदिवासी कला, साहित्य एवं संस्कृति विषयक आपके कई लेख अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। आप संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सीनियर फेलोशिप अवार्ड से सम्मानित हैं।

झारखंड सांस्कृतिक विविधताओं का प्रदेश है। साल वनों के इस मनोरम प्रदेश में 32 आदिवासी समुदाय रहते हैं। इसके अलावा यहाँ एक अच्छी-खासी सँख्या मूलवासी गैर-आदिवासियों की भी है जिन्हें यहाँ ‘सदान’ कहा जाता है। ये दोनों समूह मिलकर झारखंड की संस्कृति, कला परंपरा और कारीगरी की बहुरँगी दुनिया का निर्माण करते हैं। गैर-आदिवासियों में मलार जाति धातु शिल्प (डोकरा कला) के लिए प्रसिद्ध है तो घासी जाति ढोल, नगाड़ा, माँदर आदि वाद्ययंत्रों के निर्माण के लिए। वहीं आदिवासियों में चिक बड़ाईक, करमाली, लोहरा और महली मुख्य तौर पर कारीगर समुदायों के रूप में जाने जाते हैं। करमाली और लोहरा समुदाय लोहे के कारीगर हैं और ये खेती से लेकर दैनंदिन ज़रूरत के सामानों की पूर्ति करती है। महली लोगों का मुख्य पेशा बाँस की वस्तुएँ बनाना है। जैसे, सूप, दौरी, चटाई इत्यादि। चिक बड़ाइकों का पेशा कपड़े बुनना है। ये मुख्यतया बुनकर समुदाय हैं और स्थानीय संसाधनों का उपयोग करते हुए झारखंड का प्रसिद्ध ‘लाल पड़िया’ कपड़ा बनाते हैं। (Fig.1) हालाँकि झारखंड के उराँव आदिवासी समुदाय भी कपड़ा बुनते हैं, विशेषकर ‘टाना भगत’ संप्रदाय के उराँव, पर वे स्वयं के लिए कपड़ा बुनते हैं, दूसरों के लिए नहीं। आम जनजीवन की ज़रूरत के कपड़ों का निर्माण पारंपरिक रूप से चिक बड़ाईक ही करते हैं।

 

Fig.1. माड़ लगाकर लाल पाड़ के धागे को सुखाया जा रहा है| (सौजन्य: सरोज केरकेट्टा)

 

झारखंड में चिक बड़ाईक, यूँ तो प्रायः सभी क्षेत्र में, यानी हर पंचायत में एक-दो परिवार मिल जाते हैं पर इनकी घनी बसाहट सिर्फ सिमडेगा जिला में मिलती है। इनका पारंपरिक पेशा विभिन्न जरूरतों के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले कपड़े बनाना है। ये कपड़ों के पारंपरिक कारीगर हैं जो सदियों से और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वस्त्र बुनाई एवं निर्माण का काम करते आ रहे हैं। इनके द्वारा निर्मित कपड़े उजले रंग और लाल पाड़ वाले होते हैं। इसीलिए इनको ‘लाल पाड़’ अथवा ‘लाल पड़िया’ लुगा (कपड़ा) कहते हैं। झारखंड के पारंपरिक वस्त्रों के रूप में इसी ‘लाल पड़िया’ कपड़ों की पहचान है। जिनका प्रयोग वृहत्तर झारखंड के आदिवासी समुदायों के साथ-साथ अन्य सभी गैर-आदिवासी समुदाय के लोग आज भी शादी-ब्याह, पर्व-त्यौहार एवं अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक अवसरों पर करते हैं। वृहत्तर झारखंड से आशय झारखंड और उसके सीमावर्ती राज्यों के अन्य आदिवासी इलाकों से है, जो फिलहाल बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा राज्यों के अंग हैं।

झारखंड के आम जनजीवन में तीन प्रकार के पारंपरिक वस्त्रों का प्रचलन है। पहला, पहनने वाले कपड़े। दूसरा, ओढ़ने और बिछाने वाले कपड़े, और तीसरा बहुउद्देशीय इस्तेमाल वाले कपड़े। पहनने वाले कपड़ों को आम तौर पर ‘पिंधना’ कहा जाता है। इन सभी कपड़ों का पाड़ लाल रंग का होता है जो सफेद कपड़े पर बुना जाता है। इसीलिए इन्हें ‘लाल पड़िया’ कपड़ा कहते हैं। इन ‘लाल पड़िया’ कपड़ों में मुख्य हैं औरतों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली साड़ी ‘पिंधना’,और पुरुषों के पहनने का अंगवस्त्र ‘करया’। (Fig. 2) ‘करया’ एक लंबा गमछानुमा कपड़ा है जिसे पुरुष लोग ‘लंगोट’ की तरह पहनते हैं। इसका एक छोर कमर के आगे और दूसरा छोर पीछे की तरफ नीचे घुटने तक झूलता रहता है। ‘करया’ को ‘तोलोंग’ भी कहते हैं। इसके अलावा आम जरूरत के अन्य वस्त्रों में किशोर लड़कियों के लिए ‘लहंगा’, ओढ़ने का चादर ‘बरकी’ और ‘पेछौरी’ तथा ‘गमछा’ है। इन सभी कपड़ों का डिजाइन और पैटर्न भिन्न-भिन्न आदिवासी समुदायों के अनुसार अलग-अलग होता है जो उनकी विशिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को अभिव्यक्त करते हैं।

 

Fig.2. पिंधना - खड़िया साड़ी| (सौजन्य: सरोज केरकेट्टा)

 

लाल रंग के ही ‘पाड़’ क्यों? किसी और रंग के क्यों नहीं जबकि प्रकृति में इतने सारे रंग मौजूद हैं? इस सवाल का कोई संतोषजनक उत्तर चिक बड़ाईक कारीगरों के पास नहीं है। जवाब में वे केवल मुस्कुरा कर रह जाते हैं। सिमडेगा जिले के कोनमेंजरा पंचायत में स्थित धवई पानी गाँव के लगभग 40 वर्षीय चिक बड़ाईक अजय मेहर बहुत सोचने-विचारने के बाद कहते हैं (Fig. 3), ‘लाल रंग बहुत टहक (चटकीला) रंग है। यह एकदम से हमारा ध्यान खींचता है। फिर ये गोरा-काला, सांवला सभी रंग वाले व्यक्ति की देह पर खिलता है। झारखंड के लोगों का रंग काला है और काले रंग पर तो यह विशेष रूप से सजता है।’ बांसजोर (सिमडेगा) की श्रीमती बसमइत मेहर बताती है, ‘जंगल में ढेइरे फूल हय। मुदा परास कर रंग सउब से जुदा। टहक मेरोम। सेहे ले जुन। आउर का...!’ (जंगल में फूल तो बहुत हैं पर पलाश की बात ही सबसे अलग है। यह एकदम सुर्ख लाल होता है। इसीलिए ...और क्या!)। बुचा टोली, झुन्मुर (उड़ीसा) गांव के बुजुर्ग कारीगर श्री विश्राम बड़ाईक हंसते हुए कहते हैं, ‘खून कर रंग से बेस दुनिया में कोय आउर रंग नखे। साइत एहे खातिर पुरखामन इके पसिंद कइर होबयं’ (खून के रंग से बेहतर दुनिया में और कोई रंग नहीं है। शायद इसीलिए पुरखों ने इस रंग को चुना होगा)।

 

Fig.3. अजय मेहर अपने परिवार के साथ| (सौजन्य: सरोज केरकेट्टा)

 

झारखंड की बहुचर्चित आदिवासी लेखिका वंदना टेटे इस सवाल का सटीक जवाब देती हैं। उनके अनुसार, ‘सफेद और लाल रंग आदिवासियों के विश्वास और दर्शन से जुड़ा है। जीवन और मृत्यु का जीवनचक्र इन्हीं दो प्रमुख घटनाओं के बीच घूमता है।(Fig. 4) इसीलिए झारखंड और भारत ही नहीं वरन् दुनिया के सभी आदिवासी समुदाय इन दो रंगों को सबसे अधिक महत्त्व देता है। आप इसको इस बात से भी समझ सकते हैं कि झारखंड के प्रकृतिपूजक आदिवासी, जिन्हें हम आदि धर्मावलंबी ‘सरना’ कहते हैं, उनके धार्मिक झंडे का रंग भी सफेद और लाल है। सरना झंडा सफेद रंग का और आकार में तिकोना होता है जिस पर लाल रंग की धारियां बनी होती हैं। जन्म और मृत्यु सृष्टि का अंतिम सच है जो इन दो रंगों में व्यक्त होता है।’[i]

 

Fig.4. सुंदर मेहर ‘पिंधना’ के लिए माड़ लगे धागे को ओरिया (अलग-अलग कर) रहे हैं |(सौजन्य: सरोज केरकेट्टा)

 

रांची के संजय गांधी मेमोरियल कॉलेज में व्याख्याता डॉ. सावित्री बड़ाईक, जो स्वयं एक चिक बड़ाईक आदिवासी कारीगर परिवार से आती हैं, रंगों के सांस्कृतिक और दार्शनिक पक्षों पर और प्रकाश डालती हैं। वे कहती हैं, ‘रंग आदिम समय से ही हमारे जीवन और सृष्टि संबंधी मान्यताओं से जुड़े हैं। अपने धार्मिक विश्वासों और सांस्कृतिक पहचान को व्यक्त करने के लिए समाज पुरातन समय से रंगों का प्रयोग करता आ रहा है। झारखंड के आदिवासी समाजों की पहचान सफेद और लाल रंग हैं। हमारे पुरखों ने इसी वजह से इन दोनों रंगों का इस्तेमाल कपड़ों में शुरू किया होगा। शायद वे और कोई रंग चुनते तो आदिवासी समाज उन्हें नहीं अपनाता।’[ii]

चिक बड़ाइकों के ‘लाल पड़िया’ कपड़ों की और कई विशिष्टताएँ हैं। जैसे, सभी ‘लाल पाड़’ की डिजाइन एक-सी नहीं होती। मुख्य तौर पर ‘लाल पाड़’ के डिजाइन छः तरह के हैं। पांच डिजाइन खड़िया, मुंडा, हो, संथाल और उराँव आदिवासियों के लिए और छठा झारखंड के मूलवासी समुदाय गैर-आदिवासी सदानों के लिए। डिजाइनों की यह भिन्नता उनके ‘पाड़’ में होती है। खड़िया वस्त्रों के पाड़ में सबसे नीचे वाली धारी चौड़ी और उससे ऊपर की दूसरी धारी उससे थोड़ी कम चौड़ी रहती है। साथ ही ऊपर वाली चौड़ी लाल धारी के बीच में चार सफेद लाइनें होती हैं। जबकि उराँव वस्त्रों में बनाये जाने वाले पाड़ में नीचे चौड़ी लाल धारी और ऊपर में तीन पतली-पतली लाल धारियाँ होती हैं। मुंडा, हो और सँथाल आदिवासियों के वस्त्रों पर बने लाल पाड़ के पैटर्न में भी इसी तरह का बारीक फ़र्क रहता है। इस फ़र्क को आम लोग नहीं पहचान पाते। लेकिन झारखंडी समाज जो सदियों से इसका व्यवहार कर रहा है, लाल पाड़ के पैटर्न और डिजाइन को देखकर सहज ही जान जाता है कि ये खड़िया, कपड़ा है या कि उरांव कपड़ा।

लाल पाड़ की डिजाइन और पैटर्न में आम तौर कोई बड़ा बदलाव अभी तक नहीं हुआ है। ये सदियों से आदिवासी समुदाय की परंपरा का निर्वाह करते आ रहे हैं। किंतु 1850 के बाद, जब झारखंड में ईसाई मिशनरियों का आगमन हुआ, और बड़ी संख्या में आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपनाया, तो वस्त्रों में भी यह धार्मिक बदलाव परिलक्षित हुआ। बांसजोर, सिमडेगा के तपेश मेहर के अनुसार पहले वे लोग आदिवासी वस्त्रों में सिर्फ लाल रंग का ही पाड़ बनाया करते थे। परंतु अब ईसाई और गैर-ईसाई आदिवासियों के लिए लाल रंग के ही दो अलग-अलग शेड्स का इस्तेमाल किया जाता है। मूल लाल रंग सरना (प्रकृति पूजक) धर्मावलंबी आदिवासियों के लिए और गहरा लाल अथवा कत्थई रंग ईसाई मतावलंबी आदिवासियों के लिए। श्री मेहर कहते हैं, ‘यह बदलाव धार्मिक भिन्नता के कारण आया है। इसलिए परिवर्तन केवल रंग में हुआ है। मूल डिजाइन में नहीं। क्योंकि चाहे वे ईसाई हों या कि प्रकृति पूजक, दोनों की मूल संस्कृति एक ही है। इसलिए हमने डिजाइन में कोई बदलाव नहीं किया है।’

प्रख्यात आदिवासी साहित्यकार, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी डॉ. रोज करेकेट्टा कहती हैं, ‘सबकुछ समाज की मान्यताओं से जुड़ा है। और जब मान्यताओं में परिवर्तन आता है तो वह जीवन के सभी आयामों पर भी अपना असर छोड़ता है। लाल पड़िया आदिवासी वस्त्रों के रंग में आया बदलाव भी धार्मिक विश्वास के बदलने से संबंधित है। जब आदिवासी बदलेंगे तो उनकी हर चीज में बदलाव दिखेगा। कपड़ों के मामले में आज की युवा पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से ज्यादा सजग है। इसलिए अब तो यहां के पारंपरिक कपड़ों के डिजाइन भी बदल रहे हैं। डिजाइन में परिवर्तन का एक मुख्य कारण पारंपरिक पेशे को बचाये रखने के लिए भी है।’[iii]

पहले कपड़े ज़रूरत थे। खुद को मौसम से बचाये रखने और अपनी सांस्कृतिक पहचान को अभिव्यक्त करने के लिए। लेकिन सत्ररहवीं शताब्दी के बाद औद्योगिकरण की जबरदस्त प्रक्रिया चली। इसकी चपेट में सबसे पहले वस्त्र आया। दुनिया भर में औपनिवेशिक शासकों ने कपड़े के बड़े-बड़े मिल स्थापित किए। जिससे ज़रूरत के लिय बुना जाने वाला कपड़ा ‘वस्त्र उद्योग’ बन गया। कपड़े बाज़ार और फैशन की चीज़ हो गए। वस्त्रों का पारंपरिक पेशा, कताई-बुनाई की स्थानीय व देशज कलाएँ और कारीगरी को इस फैशन के बाज़ार ने निगल लिया। झारखंड के चिक बड़ाइकों की वस्त्र कला परंपरा भी इसका अपवाद नहीं है। राज्य के अधिकांश चिक बड़ाईक परिवार अपने इस पारंपरिक पेशे को त्याग चुके हैं। खनन, बड़े बाँध, वनों की अंधाधुंध कटाई और औद्योगिकरण तथा अन्य विकासीय परियोजनाओं से होने वाले आदिवासियों के विस्थापन और पलायन ने चिक बड़ाइकों की वस्त्र बुनाई परंपरा को बुरी तरह प्रभावित किया है। समय-समय पर सरकार कुछ घोषणाएँ ज़रूर करती है पर वे अपर्याप्त साबित हुई हैं।

तेतइर टोली, टुकुपानी (सिमडेगा) के श्री गंगाधर बड़ाईक(Fig. 5) जो काफी पहले अपने इस परंपरागत पेशे को छोड़ चुके हैं, पीड़ा भरी आवाज में कहते हैं, ‘अपनी कारीगरी, अपना हुनर छोड़कर कोई और पेशा करना ग़ुलामी जैसा है। लेकिन क्या करें? मिल के सस्ते कपड़े आ गए हैं। समाज बदल गया है। नये लोग हमारे कपड़े नहीं पहनना चाहते।’ बानो प्रखंड के जराकेल गांव के सुधन बड़ाईक और उनके बच्चे भी अब ये काम नहीं करते। आसपास के क़स्बाई और शहरी इलाकों में दैनिक मजदूरी कर के अपना परिवार पालते हैं। श्री सुधन बड़ाईक कहते हैं, ‘झारखंड सरकार अगर हमलोगों पर ध्यान देती तो हम अपना पेशा बचा सकते हैं। पर हम कारीगर जातियों पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है।’

 

Fig.5. गंगाधर बड़ाईक अपनी पत्नी के साथ | (सौजन्य: सरोज केरकेट्टा)

लेकिन जराकेल के ही तपेश मेहर अभी भी बुनाई के अपने परंपरागत पेशे में डटे हुए हैं। उनका कहना है, ‘परेशानी तो बहुत है और स्थिति भी खूब निराशा वाली है। पर पलायन करने से अच्छा है कि हम यही काम करें और अपने गाँव-घर में ही रहें। ऐसे कपड़ों की माँग कम है पर बिल्कुल नहीं है, ये बोलना ठीक नहीं है। हमारे जैसे कारीगरों के लिए परिस्थितियाँ एकदम अच्छी नहीं हैं। बाज़ार के कपड़ों का मार भी हम लोगों पर है। तब भी ‘लाल पाड़’ वाले कपड़े केवल हम ही समाज को दे सकते हैं। बाज़ार तो आदिवासियों की संस्कृति और परंपरा को मिटाने पर तुला है। हमारा कपड़ा सिर्फ़ कपड़ा नहीं है। आदिवासी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। जब तक आदिवासी लोग अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखेंगे चिक बड़ाइकों की ‘लाल पड़िया’ भी बची रहेगी।’

उनकी यह आशावादिता हमें आश्वस्त करती है कि झारखंड के आदिवासियों की यह लाल पड़िया वस्त्र कला परंपरा आसानी से नहीं मरेगी। भले ही ये आज के दौर में विलोपीकरण के संकट से अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए जूझ रही है, पर आदिवासी जीजिविषा व संघर्ष तथा कुछ और सरकारी मदद से इन कलाओं के जीवित बने रहने की उम्मीद की जा सकती है।

 

[i] लेखिका की डॉ. वन्दना टेटे से हुई बातचीत के अनुसार

[ii] लेखिका की डॉ. सावित्री बड़ाईक से हुई बातचीत के अनुसार

[iii] लेखिका की डॉ. रोज केरकेट्टा से हुई बातचीत के अनुसार