‘वह छोटानागपुर में रांची नाम के किसी शहर से आया था।...सातवीं क्लास तक पढ़ा भी था। घर में उसके कपड़े बुनने का काम होता था।... खुद सूतों की रंगाई कर लेता था। तानी करने में जितने फुर्तीले उसके हाथ थे, घर में किसी का नहीं था। करघा चलाने की तो बात अलग, नये-नये डिजाइन बनाने में उसका सानी नहीं था। अच्छा खाता-पीता घर था उनका। लेकिन, उसने बतलाया था कि, मिल के कपड़ों के शौक ने देहात वालों तक को करघे के कपड़ों से विमुख कर दिया। उनका धन्धा बैठ गया। मजबूरन उसे रांची छोड़नी पड़ी।’ ... अब ‘वह मशीन हो गया है। बिल्कुल मशीन। न वहां खुली हवा है, न फैला आसमान है, न सब्ज धरती है, न अपना छोटा घर है, न अपना करघा है, न अपना हुनर है। वहां है बंद कारखाना, धुआं, मशीनों और आदमियों का शोर, घुटन, हड्डी-तोड़ काम की थकान और अपने साथियों की गालीगलौज और ऊपर के लोगों की डांट-डपट।’[i]
यह पीड़ादायी आत्मकथन है झारखंड के एक चिक बड़ाईक बुनकर का जिसे आज से पचास साल पहले हिंदी के बहुचर्चित उपन्यासकार डा. द्वारकाप्रसाद ने अपने उपन्यास ‘पहिए’ में चित्रित किया है। जुलिअस नाम का यह हुनरमंद आदिवासी कारीगर आजाद हुए भारत में आई कल-कारखानों और विकास की आंधी से उखड़ कर बंबई जा पहुंचा था।
इस उपन्यास के प्रकाशन के पचास साल बाद 2017 में इसी चिक बड़ाईक बुनकर समाज के एक कपड़े को प्रतीक बनाकर एक कहानी आई है ‘बिरूवार गमछा’। इस कहानी में यह आदिवासी लाल पाड़ वाला गमछा गुजरात के 2002 के सांप्रदायिक दंगों में सैंकड़ों आदिवासियों की जान बचाने में कारगर भूमिका निभाता है। इस कहानी की लेखिका हैं डॉ. रोज केरकेट्टा।
डॉ. रोज केरकेट्टा सिमडेगा, झारखंड की हैं और आदिवासी समाज की एक जानी-मानी लेखिका व सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं। 2017 में छपा इनका एक कहानी संग्रह ‘बिरूवार गमछा तथा अन्य कहानियाँ’ ख़ासा चर्चित है। ‘बिरूवार गमछा’ गोधरा में हुए भयानक सांप्रदायिक की पृष्ठभूमि पर लिखी गई यह एक अद्भुत कहानी है जिसमें दंगे के बीच फंसे झारखंड के आदिवासी अपने परंपरागत कपड़े के कारण बच पाने में सफल रहते हैं। इसी परंपरागत आदिवासी ‘लाल पड़िया’ कपड़े और उसके बुनकरों के संबध में डॉ सरोज केरकेट्टा ने नवंबर 2018 में बात की।
सरोज केरकेट्टा: झारखंड की वस्त्र परंपरा कितनी पुरानी है और इसे कौन लोग बुनते हैं?
रोज केरकेट्टा: कितनी पुरानी है यह कहना तो मुश्किल है। खास कर आदिवासी वस्त्र परंपरा के बारे में। क्योंकि इस पर कोई व्यवस्थित अध्ययन नहीं हुआ है। लेकिन आज हम जिस तरह के कपड़े पहनते हैं, इस तरह के कपड़ों का चलन बहुत पुराना नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ साल। इससे ज्यादा पुराना नहीं। हाँ, कपड़ा बुनने की परंपरा जरूर प्राचीन है। लेकिन तब कपड़े का उत्पादन बहुत न्यूनतम होता था और उपयोग भी कम किया जाता था। पुराने दिनों में आम तौर पर शरीर के कुछ हिस्सों को ढँकने के लिए ही आदिवासी समाज में कपड़ों का उपयोग होता था।
स.के. : लाल पड़िया कपड़े कब से प्रचलन में आए और ये कैसे आदिवासी पहचान का हिस्सा बन गए?
रो.के. : सत्रहवीं-अठ्ठारहवीं सदी में इस इलाके में आए अनेक अंग्रेज अधिकारियों ने अपने सर्वेक्षण में झारखंड-उड़ीसा के सीमावर्ती क्षेत्रों में बसे बुनकर जातियों का विवरण प्रस्तुत किया है जो कपड़े बुनने का काम पारंपरिक तरीके से और स्थानीय संसाधनों एवं देशज तकनीक से किया करते थे। ये बुनकर मुख्य रूप से मुंडा, हो, खड़िया गाँवों में या फिर उसके अगल-बगल रहते थे। अब भी रहते हैं। प्रायः सभी मानवशास्त्री और इतिहासकार जैसे, डाल्टन, रिज़ले आदि मानते हैं कि आदिवासियों ने उनको अपने बीच बसा लिया था। ये कपास से सूत बनाने और उस सूत से कपड़ा बुनने में दक्ष थे। इन लोगों ने आदिवासी जीवन, संस्कृति और दर्शन को आत्मसात कर कपड़ों के डिजाइन की कल्पना की। चूंकि लाल और सफेद रंग का आदिवासी दर्शन में विशेष महत्त्व है, इसलिए सफेद कपड़ों पर लाल रंग के पाड़ को प्रमुखता से जगह मिली।
स.के.: झारखंड के ये पारंपरिक बुनकर लोग कौन हैं?
रो.के. : झारखंड में इन बुनकरों को दो-तीन नामों से जाना जाता है। पान, पाँड़ या चिक बड़ाईक। सिंहभूम के हो आदिवासियों के बीच जो बुनकर हैं उन्हें पान, पनिका और पाँड़ नामों से जाना जाता है। जबकि खूंटी, सिमडेगा और गुमला जिले के मुंडा, खड़िया और उराँव समुदायों के बीच कपड़ा बनाने वाली जाति चिक बड़ाईक के रूप में विख्यात है। पान, पनिका और पाँड़ को झारखंड राज्य में अनुसूचित जाति और चिक बड़ाईकों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। हालांकि चिक बड़ाईकों में पूरी तरह से हिंदू धर्म और संस्कारों का प्रभाव दृष्टिगत होता है। खास करके ‘बड़ गोहड़ी’ (बड़ जात) चिक बड़ाईकों में जो खुद को आर्थिक रूप से विपन्न ‘छोट गोहड़ी’ (छोटी जात) चिक बड़ाईकों की तुलना में ऊँचा समझते हैं। बड़ गोहड़ी बड़ाइकों के रीति-रिवाज तथा अन्य सामाजिक-धार्मिक कार्यों में हिन्दू तत्त्वों की प्रधानता है। इनके धार्मिक संस्कार ब्राह्मणों के द्वारा किए जाते हैं और ये जनेऊ भी पहनते हैं। जबकि छोट गोहड़ी बड़ाईकों में आदिवासी संस्कृति के अनेक तत्त्व बचे हुए हैं। इनके पूजा-पाठ में ब्राह्मण नहीं आते। स्वयं या गाँव के पाहन-ठाकुर से करवाते हैं। आदिवासियों के साथ सरहुल और करमा पूजा मनाते हैं। धार्मिक कार्यों में पशु-बलि और ‘हँड़िया’ (स्थानीय शराब) का उपयोग करते हैं।
स.के. : अभी चिक बड़ाईकों की सामाजिक-आर्थिक अवस्था कैसी है?
रो.के. : बहुत दयनीय है। इनके परंपरागत बुनकरी का पेशा आधुनिक उद्योगों की भेंट चढ़ चुका है। कुछेक परिवारों को छोड़कर शत-प्रतिशत चिक बड़ाईकों ने अब कपड़ा बुनने का पेशा छोड़ दिया। हथकरघे दीमक चाट चुके हैं या फिर छत की बांस-बड़ेरी में बांध कर रखे गए ‘लुंडी-ताना’ (कपड़ा बुनने का एक पारंपरिक उपकरण) को घुन खा रहे हैं। ‘छापा साड़ी’ (मिल प्रिंटेड कपड़े) के उद्योग और बाजार ने इनके पेशे को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया है। घोर आर्थिक अभाव और शिक्षा की कमी के चलते अधिकांश लोग परंपरागत पेशा छोड़ देने के बाद पलायन और दैनिक मजदूरी कर रहे हैं। अच्छी बात यह है कि झारखंड आंदोलन से उपजी चेतना के कारण आदिवासी समाज का ध्यान फिर से अपने पारंपरिक वस्त्रों पर गया है। झारखंड राज्य बन जाने से भी लोगों में लाल पड़िया कपड़ों के प्रति नया आकर्षण जगा है। इससे कई परिवार फिर से अपने पुराने पेशे की ओर लौटे हैं।
स.के. : शायद इसी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को आपने अपनी कहानी ‘बिरूवार गमछा’ में दर्शाया है?
रो.के. : नई आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था आदिवासियों के अनुकूल नहीं है। वहाँ खान-पान, जाति, लिंग और धार्मिक विद्वेष है। इससे देश के अन्य समाजों की तरह आदिवासी समुदाय के लोग भी पीड़ित हैं। उन्हें सांप्रदायिक हिंसा के बीच धकेला जा रहा है। ऐसे में आदिवासियत के सांस्कृतिक मूल्य, जिसका एक बड़ा हिस्सा अत्यंत मानवीय और प्रगतिशील है, ही आदिवासियों को एकजुट कर सकता है। उन्हें बाहरी सांप्रदायिक, सामंती और पूंजीवादी मूल्यों से जूझने में मदद कर सकता है। ये सांस्कृतिक मूल्य हमारे खान-पान और पहनावे तक में अभिव्यक्त होते हैं। इसीलिए जब गुजरात में दंगे होते हैं, जब समूचा समाज हिंसा में उलझा होता है, तब झारखंड से ले जाए गए मजदूर वहाँ खुद को एक बहुत बड़े संकट में घिरा पाते हैं। उन हिंसक परिस्थितियों में उन्हें उनका अपना पारंपरिक गमछा जोड़ने में सहायक बनता है। एक गमछे के सहारे सबलोग एकजुट होकर एक-दूसरे को बचाने में सफल होते हैं। दरअसल बिरूवार गमछा एक प्रतीक है उन सांस्कृतिक मूल्यों का जिसको छोड़ देने पर हम अपना अस्तित्व खो बैठेंगे।
स.के. : चिक बड़ाईकों की कपड़ा बुनने की परंपरा किस तरह की थी और अब कैसी है?
रो.के. : पहले ये लोग खुद से बनाए करघा अथवा ‘लूम’ पर कपड़ा बुनते थे। जो कि बाँस और लकड़ी से बनाते थे। यह लूम बहुत बड़ा नहीं होता है। जिससे इस पर कम चौड़ाई के ही कपड़े बुने जाते हैं। तब के दिनों में कपड़े के सूत के लिए कपास की खेती की जाती थी। घर-घर में कपास का बीज निकालने के लिए ‘रहंटा’ होता था और कपास की धुनाई कर ‘पेंवरी’ बनाया जाता था। सूत कातने का काम मुख्य तौर पर स्त्रियों के जिम्मे रहता। चैली नामक पेड़ के छाल और लकड़ी से सूत की रंगाई की जाती। आदिवासी परिवार तो स्वयं अपना सूत कातते और ज़रूरत के अनुसार उसे बुनने के लिए चिक बड़ाईकों को दे देते। फिर बुने हुए कपड़े की माप के आधार पर उन्हें उनका पारिश्रमिक दे दिया जाता था। जैसे, चावल, दाल आदि। अब स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है। मिल का सूत और रंग वगैरह मिलता है जो बहुत महँगा है। तब भी झारखंड के कुछ चिक बड़ाईक इस बदली हुई परिस्थिति से सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रहे हैं। समाज और सरकार का सहयोग मिले तो सदियों तक सबको कपड़ा देने वाले इन कारीगरों को खुद कपड़े के लिए मोहताज नहीं होना पड़ेगा।