प्रमुख राजस्थानी लोकगाथाओं के कथानक

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Published on: 24 September 2019

डॉ सतपाल सिंह (Dr Satpal Singh)

डॉ सतपाल सिंह ने हिंदी, राजस्थानी और भूगोल में अपना एम.ए किया है और वह पीएच.डी शोधकर्ता है| उनकी पुस्तक ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’ 2015 में प्रकाशित हुई थी और भारतीय भाषाओं के लोक सर्वेक्षण के राजस्थान संस्करण में राजस्थानी भाषाओं की चार बोलिओं पर हिंदी व अंग्रेजी में शोध प्रकाशित हुआ (2015–16)

 

लोकसाहित्य आदिकाल से ही लोकमानस के लिए से अभिव्यक्ति का माध्यम रहा है। यह श्रव्य परंपरा का वह माध्यम है जिसमें ग्राम्य जीवन अपने आपको प्रकट कर सका है। भारतवर्ष लोकसाहित्य की दृष्टि से समृद्ध राष्ट्र रहा है और इसमें लिखित साहित्य के अलावा मौखिक साहित्य की भी विशिष्ट परंपरा रही है। इसके विविध प्राँतों की विभिन्न भाषाओं में लोकगीतोंलोककथाओं और लोकगाथाओं की सम्पदा लोक के कण्ठों में रची-बसी है। 

राजस्थान की प्राँतीय भाषा राजस्थानी में रचे लोकसाहित्य के विविध प्रकार जैसे- लोकगीतलोकगाथाएँ और लोककथाएँ सैकड़ों वर्षों से मौखिक परंपरा के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होते आए हैं। ये लोकगाथाएँ राजस्थान प्राँत ही नहीं अपितु आसपास के अन्य प्राँतों में भी लोकप्रिय हैं। इनके माध्यम से लोक की आध्यात्मिक भावना के साथ-साथ श्रृंगार रसवीर रस आदि भी तुष्ट होते हैं। इन्हें गाने वाली गायक समुदाय परंपरागत व्यवसाय के रूप में इन्हें अपनाये हुए हैं। 

प्रमुख राजस्थानी लोकगाथाओं का विषयगत वर्गीकरण 

लोकगाथाओं के कथानकों में विषयगत विविधता है और इन्हें पौराणिक या भक्तिपरकप्रेमप्रधान तथा वीरता प्रधान गाथाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है। लोकसाहित्य के विशेषज्ञ डॉ. सोहनदान चारण (2016: 223-43) ने प्रमुख राजस्थानी लोकगाथाओं का विषयगत वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया है-

(क)पौराणिक लोकगाथाएँ- स्यावकरण घोड़ौकाला गोरा रौ भारतरामदला री पड़ आदि।

(ख) भक्तिपरक लोकगाथाएँ- गोपीचन्दा-भरथरीरूपांदेबगड़ावतरामदेवजीतेजाजीगोगा गाथापाबूजी री फड़ आदि।

(ग) प्रेमप्रधान लोकगाथाएँ- ढोला-मारूमूमल-महेन्द्रानागजी-नागवन्तीजसमा-ओडण,रामू-चनणा आदि।

(घ) वीरता प्रधान लोकगाथाएँ- बगड़ावतरामदेवजीतेजाजीगोगा गाथापाबूजी री फड़ आदि। इन गाथाओं में लोकदेवताओं की वीरता का चित्रण देखा जा सकता है।

प्रमुख राजस्थानी लोकगाथाओं के कथानक 

राजस्थानी लोकगाथाओं के लोकतात्विक एवं सांस्कृतिक मूल्याँकन को समग्र रूप में समझने हेतु इनके कथानकगायन शैली और संगीत पक्ष को जानना आवश्यक है। इसे दृष्टिगत रखते हुए कुछ प्रमुख राजस्थानी गाथाओं के कथानक एवं गीत आदि राजस्थानी भाषा के मूल स्वरूप में प्रस्तुत करने के साथ ही समुचित हिन्दी अर्थ के साथ निम्नलिखित हैं-

(क) बगड़ावत

राजस्थान तथा समीपवर्ती प्रदेशों में निवास करने वाली गुर्जर समुदाय के आराध्य देव के रूप में देवनारायण जी पूजे जाते हैं। इनकी लोकगाथा ‘बगड़ावत’ नाम से प्रसिद्ध है जो वस्तुतः देवजी के पितामह के नाम के आधार पर है। लोकमान्यताओं के अनुसार देवनारायण का जन्म विक्रमी संवत (वि.सं.) 1243में हुआ था (पातावत 2004: 36)। लोक में प्रचलित गाथा के अनुसार इनके पिता का नाम सवाई भोज था जिनकी पत्नी सेठू की कोख से देवजी का जन्म हुआ था। इनके पिता इनके जन्म से पूर्व ही भिनाय के शासक के साथ हुए युद्ध में अपने भाइयों सहित मारे गए थे। इसके बाद इनकी माता सेठू सुरक्षा की दृष्टि से इनको अपने पीहर मालवा लेकर चली गई थी। युवा होने के बाद देवजी ने भिनाय शासक से अपना प्रतिशोध लिया और गायों को भी मुक्त करवाया। बाद में इन्होंने मेवाड़ में बहुत चमत्कार दिखलाए और प्रतिष्ठा हासिल की। माना जाता है कि भाद्रपद माह की शुक्ल सप्तमी को इनका देहान्त देवमाली नामक स्थान पर हुआ। इनका सम्पूर्ण जीवन चमत्कारों से परिपूर्ण माना जाता है और इन्हें भगवान कृष्ण का अवतार माना जाता है। गाथा में उन्हें अवतार घोषित करते हुए कहा गया है- ‘माला सेरी री डूंगरी में कांकर फाड़ कंबल पांगरियो जिणमें देवनारायण भगवान रो जलम हुयो अर भोज री लुगाई साडू उवां ने झोले में ले लियो।’[1]‘बगड़ावत गाथा’ से रानी जैमती और सवाई भोज के प्रथम मिलन का एक अंश इस प्रकार है जिसमें वे एक-दूसरे की तरफ आकृष्ट हो जाते हैं- 

जैमती भरी जाजम पे भोजा ने ओळखियो जांणे बाड़ी में केवड़ो फूलियो। 

तारां रे विचे चंदरमा पवास्यो। 

जैमती तो चतराम व्है ज्यूं जीम रेगी। 

आगे पग देवणी आवे न पाछे। 

भोजा री निजर जैमती माथै पड़ी। 

भोजा रे तो होठां रे लगायोड़ो प्यालो हाथ में ई रेग्यो। 

या जमीं फोड़ ने बारे निकळी है कै अंकास फाड़ ने नीचे ऊतरी है। 

है कुणइंदर री अपछरा है कै कोई पाताळ री पदमण। 

इसी गाथा से रैण के राणा से देवजी के युद्ध का एक दृश्य प्रस्तुत है जिसमें सवाई भोज की पुत्री दीपकँवर ने भी बहादुरी दिखाई। यह युद्ध ऐसा था कि देवता भी अपने विमान लेकर इसे देखने पहुंच गए थे- 

आभै चमके बीजळीबादळां में बहग्या बांण

टूटे टोप उड़े खोपड़ी माथां पड़ग्यो मंग

बदनोर रे मांयनेनेवो जी लगाय दिया चकर दंग

बीरदे रावत चढ़ नीकळग्योलीनी ज्वाला हाथ

सूरज उगतां हीज गैही रांणा बांकर री रैंण

पिरथवी चढ़गी परवतां धरहर धूजी रैण

सारी रैण लूटली छोड़ी पाबू री हवेली पिछांण

देसदेस में ओदू पड़यो राणा जी खबर पूंची जांण

चढ़ियो धणी रैण रो पंखड़या छा रह्यो घेरो

आयो राणाजी वीर खेन बदनेरि

दरसण उतरया देवताऊपर सूं उतरिया विमांण। 

लोक में देवजी की बड़ी मान्यता है और इनसे जुड़ा दोहा भी प्रचलित है -

दांतौ बणियौ द्वारकाफरणै बदरीनाथ।

कासी बणियौ केसवाजोधपुर जगनाथ।।

अर्थात् जोधपुर में जगन्नाथदाँता में द्वारकानाथफरणा में बद्रीनाथ और काशी में केसवा के रूप में देवनारायण की प्रतिष्ठा है। इनका मुख्य पूजा स्थल आसींद (भीलवाड़ा) में है जहाँ माघ (जनवरी माह) शुक्ल छठ (मान्यतानुसार इनकी जन्मतिथि) और भाद्रपद (अगस्त माह) शुक्ल सप्तमी को खीर एवं चूरमे का प्रसाद चढ़ाकर इनकी पूजा की जाती है। इनके मुख्य अनुयायी गुर्जर होते हैं, जो ‘देवजी की पड़’ तथा देवजी व बगड़ावतों से संबंधित काव्य ‘बगड़ावत’ आदि के गायन द्वारा इनका यशोगान करते हैं। टोंक तथा हाड़ौती क्षेत्र में भाद्रपद महीने में देवजी के देवरों पर रात-रातभर बगड़ावत गाथा का गायन किया जाता है जिसमें प्रमुख वाद्य यंत्र के रूप में बीनथाळ तथा मांदळ का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा देवजी की बातख्यात व गीत भी लोक में प्रचलित है।

(ख) रामदेवजी 

राजस्थान के साथ-साथ समीपवर्ती राज्यों में पीर और अवतारी लोकदेवता के रूप में पूजे जाने वाले रामदेव का जन्म स्थानीय स्रोतों व जनश्रुतियों के आधार पर वि.सं. 1408की चैत्र सुदी पंचमी (सन् 1352) में तंवरवंशी राजपूत अजमाल व माता मैणादे के घर बाड़मेर के उण्डू काश्मेर नामक गाँव में हुआ था (पातावत 2004: 24)। रामदेवजी पर आधारित लोकगाथा के अनुसार इन्होंने बाल्यावस्था में ही अपने पराक्रम का परिचय देते हुए भैरव नामक अत्याचारी का दमन करके लोगों को उसके आतंक से मुक्त करवाया था। इनका विवाह अमरकोट (अब पाकिस्तान) के दलजी सोढ़ा की सुपुत्री नेतलदे के साथ हुआ। रामदेव ने अपने जीवन में अनेक समाजसुधारक कार्य किए और चमत्कार दिखलाए। लोक में इनके चमत्कारों को ‘बाबै रो परचै’ नाम से जाना जाता है जिनमें पत्नी नेतलदे का अंधापन दूर करनेमक्का के पीरों को अपने स्थान पर बैठे-बैठे कटोरे लाकर देनाअपने मृत भांजे को जीवित करने और समाधि लेने के उपरान्त भी देह रूप में प्रकट होने जैसी बातें प्रचलित हैं। इनके जीवनवृत तथा चमत्कारों को उजागर करने वाली लोकगाथा ‘रामदेवजी रो ब्यावलौ’ नाम से गाई जाती है। यहाँ लोकप्रचलित गाथा ‘रामदेवजी रो ब्यावलौ’ से वह अंश उदाहरणार्थ प्रस्तुत है जिसमें वे अपने भांजे को पुनर्जीवित करते हैं -

बीनै ल्यावो साथै पहलीपछै आरती लेवां जीयो।

दी आवाज जोर सूं भाणूंमहलां उतर्यो आयो जीयो।

धन-धन होधन रामदेव थारी लीलाकही न जावै जीयो।

थे अवतारी आप जगत मेंदुनियां सारी जांणै जीयो।।

देख हुई बाईसा राजीझट सूं गळै लगायौ जीयो।

करी आरती बाई सा अबमन में खुशी समाई जीयो। 

हुयो ब्यावलौ रामधणी रोखुसियां घर-घर छाई जीयो।

धन-धन हो थारा माता-पिताथारी जग में जोत सवाई जीयो।।

थे हो स्वामीकीरत थारीगजानंद कथ गाई जीयो। 

बेड़ो पार लगाज्यो म्हारोमैं बलिहारी जाऊं जीयो।।

रामदेव ने लोककल्याणकारी कार्य करते हुए जीवन व्यतीत किया और माना जाता है कि भाद्रपद शुक्ला एकादशीसंवत् 1442 (सन् 1385) को रूणेचा नामक गाँव में जीवित समाधि ली(वही, 26)। इस स्थान को अब रामदेवरा कहा जाता है जहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में विशाल मेला भरता है। 

रामदेव ने समाज को जातिवाद से मुक्त करने की दिशा में अनुकरणीय कार्य किया और निम्न समझी जाने वाली जातियों के लोगों को सदैव सम्मान दिया। इन्हें मुस्लिम समाज के लोग ‘रामसा पीर’ के रूप में पूजते हैं। राजस्थान तथा अन्य प्राँतों में इनके ‘थान’ (छोटे मंदिरों) में ‘पगलियों’ (चरण-चिन्ह) की पूजा की जाती है। भाद्रपद माह में धर्मावलम्बी इनकी स्मृति में रात्रि जागरणों का आयोजन करते हैं जिन्हें ‘रामदेवजी का जम्मा’ कहा जाता है। इन जागरणों में कामड़ जाति[2] के लोग तंदूरा वाद्ययंत्र के साथ रामदेवजी के भजन गाते हैं। इस जागरण में कामड़ जाति की स्त्रियाँ भी सम्मिलित होती हैं और प्रसिद्ध ‘तेरहताली’ नृत्य[3] करती हैं। यह नृत्य बैठी अवस्था में किया जाने वाला एकमात्र नृत्य है। रामदेवजी की गाथा पूरे प्रदेश में ‘रामदेवजी रौ ब्यावलौ’ नाम से लोकप्रिय है। इसके अलावा इनकी पड़ या फड़[4] भी प्रसिद्ध है जिसका वाचन पश्चिमी राजस्थान के अनेक स्थानों में होता रहता है। 

(ग) तेजाजी 

तेजाजी राजस्थान में साँपों के देवता और गौरक्षक के रूप में पूजे जाते हैं। डॉ. भवानीसिंह पातावत (2004: 20)के अनुसार इनका जन्म पश्चिमी राजस्थान के नागौर जिले के गाँव खरनाल में माघ माह की सुदी चतुर्दशीवि.सं. 1130 (सन् 1074ई.) को हुआ था । इनके पिता का नाम ताहड़जी तथा माता का नाम रामकुँवरी था। तेजाजी का विवाह बचपन में ही अजमेर के पनेर गाँव की पेमलदे के साथ हुआ था।  

इनकी लोकगाथा के अनुसार ये अपनी पत्नी पेमलदे को लाने के लिए जब पनेर गए हुए थे तो वहाँ की लाछां गूजरी की गायों को मेर नामक जाति के लोग चुराकर ले गए। गूजरी की करूण गाथा सुनकर इन्होंने तत्काल मेर लुटेरों की पीछा किया। इन्हें मार्ग में एक साँप जलता हुआ मिला तो इन्होंने अपनी तलवार से उसे बाहर निकाल दिया। इस पर वह साँप उन्हें डसने पर उतारू हो गया क्योंकि वह अपनी नागिन के वियोग में आत्मदाह कर रहा था। इस पर तेजाजी ने उसे वचन दिया कि वे अपना कार्य पूरा करके उससे डसवाने पुनः आयेगें। इसके बाद तेजाजी ने मेरों से युद्ध करते हुए गायों को मुक्त करवाया और अपना वचन निभाने साँप के पास आये। उनको देखकर सर्प को आश्चर्य हुआ। तेजाजी ने उससे डसने का निवेदन किया। सर्प ने उनको लहूलुहान देखकर मना किया तो तेजाजी ने अपनी जीभ निकालकर उस पर डसने को कहा। इसके बाद सर्पदंश से तेजाजी की मृत्यु हो गई। लोकप्रचलित तेजा गाथा से एक अंश यहाँ प्रस्तुत है जिसमें तेजाजी और सर्प के बीच वार्तालाप हो रही है। तेजाजी वैराग्य भरे शब्दों में साँप से कह रहे हैं -

डोर तो लागी छै रैश्री भगवान सूं,

झूठो सब संसार रै बाबा बासग।

झूठी तो काया रैसाचै रामजी,

सत पै सांई खड़ी छै रैबाबा बासग।।

तेजाजी के भावपूर्ण उद्गारों का सर्प इस प्रकार प्रत्युत्तर देता है -

सत पै ही मरैगो लड़को जाट को,

धन-धन थारा सत नै रैतेजल बेटा।

धनयक तो छै जी रै थारा ग्यान नै,

घर-घर में पुजवा दूं रै तेजल थनैं।।

तेजाजी वचनपालक और गौरक्षक देवता के रूप में पूरे राजस्थान में आदर के साथ पूजे जाते हैं। भाद्रपद (अगस्त) माह में इनके मृत्युस्थल सुरसरा (किशनगढ़)परबतसर (नागौर) और जन्मस्थली खरनाल में विशाल मेले भरते हैं। लोकविश्वास है कि सर्प के काटे व्यक्ति का इलाज इनके थान पर लाने से हो जाता है। राजस्थान के किसान बुवाई के समय ‘तेजा टेर’ गाकर इन्हें श्रृद्धा के साथ याद करते हैं। इनकी गाथा और गीत पश्चिमी राजस्थान तथा हाड़ौती क्षेत्र में बेहद प्रसिद्ध है। इस गाथा को अलगोजेसारंगीथाली और ढोल आदि वाद्ययंत्रों के साथ पूरे राजस्थान में गाया जाता है।

(घ) पाबूजी 

लोकनायक पाबूजी का जन्म लोकगाथाओं में पश्चिमी राजस्थान के फलौदी क्षेत्र के ग्राम कोलू (जोधपुर) में 1238ई. और इनका मृत्युकाल 1276ई. माना गया है(वही, 33)। इनके पिता का नाम धांधलजी राठौड़ था। लोकविश्वास के अनुसार पाबूजी का जन्म धांधलजी की अप्सरा पत्नी की कोख से हुआ था। ये बाल्यकाल से ही बड़े पराक्रमी थे और इन्होंने उस अवस्था में अनेक करतब दिखाकर अपनी वीरता का परिचय दिया था। पाबूजी ने उस समय के प्रतापी शासक आना बाघेला के भगौड़े सात थोरी भाइयों को शरण दी थी। ये थोरी भाई सदैव पाबूजी के साथ रहे। 

पाबूजी की लोकगाथा ‘पाबूजी री फड़’ के नाम से लोकप्रिय है। गाथा के अनुसार पाबूजी का विवाह अमरकोट के सूरजमल सोढ़ा की पुत्री फूलमदे के साथ होना तय हुआ। पाबूजी ने विवाह के लिए देवल चारणी से उसकी प्रसिद्ध घोड़ी केसर कालमी माँगी और बदले में उसकी गायों की रक्षा करने का वचन दिया। केसर घोड़ी उस समय बड़ी प्रसिद्ध थी और इसे पाने के लिए बड़े-बड़े सामंत लालायित रहते थे। पाबूजी जिस समय वेदी पर फेरे ले रहे थेठीक उसी समय जायल शासक जींदराव खींचीदेवल चारणी की गायें लूटकर ले गया। कहते हैं कि देवल चारणी चील का रूप धारण करके अमरकोट पहुँची और विवाह-वेदी पर बैठे पाबूजी को गायों की रक्षा करने का वचन याद दिलाया। पाबूजी विवाह के फेरे अधूरे छोड़कर देवल की गायें मुक्त करवाने जायल आये और जींदराव से युद्ध किया। इस युद्ध में पराक्रम दिखलाते हुए पाबूजी ने गायें तो मुक्त करवा लीं पर धोखे के कारण वे इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी पत्नी फूलमदे पाबूजी की देह के साथ सती हुई। 

पाबूजी को लक्ष्मण का अवतारी माना जाता है और लोक में उन्हें ऊँटों के देवता तथा प्लेग रक्षक देवता के रूप में पूजा जाता है। उनका मेला कोलू (तहसील फलौदीजिला जोधपुर)में प्रतिवर्ष भरता है। पाबूजी की लोकगाथा ‘पाबूजी री फड़’ का वाचन पशुपालक थोरी जाति के लोग करते हैं। ये भोपा-भोपी रावणहत्थे वाद्ययंत्र के साथ कपड़े पर बने चित्रों की ओर संकेत करते हुए गायन करते हैं। लोकमान्यता है कि पाबूजी की फड़ का वाचन पशुधन की रक्षा के लिए शुभ होता है। इसके अलावा पाबूजी पर आधारित लोकगीतों की संख्या विपुल मात्रा में है। 

(ङ) ढोला-मारू

यह राजस्थान का जातीय काव्य कहा जाता है जिसका प्रचार-प्रसार राजस्थान के साथ-साथ ब्रज और छत्तीसगढ़ तक है। भोपा-भोपी इसका गायन सारंगी वाद्ययंत्र के साथ करते हैं। राजस्थान में इतनी लोकप्रिय कोई अन्य लोकगाथा नहीं है जितनी ढोला-मारू। प्रो. नरोत्तमदास स्वामी (2010: 5) के अनुसार इस सरस लोककाव्य की ऐतिहासिक महत्ता भी है। उनके अनुसार ढोला अर्थात् साल्हकुंवर और मारवणी ऐतिहासिक पात्र हैं जिनका समय वि.सं. 1000के आसपास ठहरता है। इनकी कथा के ऐतिहासिक पक्ष को लोक ने अपनी कल्पना से सजाया और संवारा तो इस सरस गाथा की रचना हुई। 

इस गाथा की लोकप्रचलित कथावस्तु इस इस प्रकार है- किसी समय मारवाड़ (आधुनिक राजस्थान) के पूगल में पिंगल और नरवर में नल नामक राजा राज्य करते थे। पिंगल राजा के मारवड़ी नामक पुत्री तथा नल राजा के साल्हकुंवर नामक पुत्र था। पूगल में अकाल पड़ा तो राजा पिंगल सपरिवार नरवर में चला गया। इस प्रवास के दौरान राजा पिंगल की रानी साल्हकुँवर के रूप पर रीझ गई और उसने राजा पर जोर डालकर अपनी कन्या मारवणी का विवाह ढोला के साथ करा दिया। उस समय ढोला तीन वर्ष तथा मारवणी डेढ़ वर्ष की थी। छोटी अवस्था होने के कारण मारवणी को उस समय ससुराल नहीं भेजा गया। कुछ समय बाद नरवर में स्थितियाँ ठीक होने के कारण राजा नल सपरिवार वापिस चले गये। इस घटना को अनेक वर्ष बीत गये। राजा नल ने पूगल देश को दूर मानते हुए ढोला का दूसरा विवाह मालवा की राजकुमारी मालवणी के साथ करवा दिया और वे दोनों आनंदपूर्वक रहने लगे। 

इधर मारवणी जब बड़ी हुई तो उसके पिता राजा पिंगल ने ढोला को बुलाने के लिए अनेक दूत भेजे परन्तु मालवणी ने सौतिया डाह वश उन्हें मरवा दिया। एक रात्रि को सोते समय मारवणी को स्वप्न में ढोला के दर्शन हुए और उसकी विरह पीड़ा जाग उठी। उन दिनों नरवर की ओर से घोड़ों का एक सौदागर पूगल में आया हुआ था। उसने राजा पिंगल को ढोला के दूसरे विवाह के बारे में बताया। इस पर राजा पिंगल ने ढाढ़ियों (गायक याचकों) को ढोला तक संदेश पहुँचाने के लिए चुना। ढाढ़ियों ने नरवर में अपने गायन द्वारा ढोला को मोहित कर लिया और रात्रि के समय मांड राग में मारवणी के विरह संदेश उसे गाकर सुनाये। इस पर ढोला विरहव्याकुल हो उठा और उसने मारवणी को लाने का निश्चय किया। उसकी विरहदशा को इस गाथा में भावपूर्ण तरीके से चित्रित किया गया है। एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है जिसमें ढोला मारवणी के देश की दूरी और मिलन में आने वाली बाधाओं को सोचकर व्याकुल हो रहा है-

आडा डूंगर वन घणातांह मिळीजइ केम।

ऊलाळीजई मूंठ भरि मग सींचाणउ जेम।।

इहां सु पंजर मन उहां जइ जाणइला लोइ।

नयणा आढा वींझ वनमनह न आडउ कोइ।।

जिउं मन पसरइ चिहुं दिजइजिम जउ कर पसरंति।

दूरि थकां ही सज्जणांकंठा ग्रहण करंति।।[5]

ढोला को उसकी दूसरी पत्नी मालवणी ने रोकने के अनेक यत्न किए पर अंततः ढोला पूगल चला गया और मारवणी को लेकर नरवर आया। रास्ते में उसे अनेक बाधाएँ आईं पर वह इन सब से पार पाते हुए नरवर सकुशल पहुँच गया। उसके बाद ढोला अपनी दोनों पत्नियों के साथ आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। 

(च) निहालदे-सुलतान 

यह गाथा राजस्थान के साथ ब्रज और हरियाणा में भी अत्यन्त लोकप्रिय है। इसे जोगीढाढ़ी और भाट जैसी गायक याचक जातियाँ सारंगी और ढोलक के साथ गाती हैं। इसका गाथा का लोकप्रचलित संक्षिप्त कथानक इस प्रकार है- सुलतानराजा चकवाबेन का पौत्र और मैनपाल का पुत्र था। बचपन में ब्राहृाण कन्या का कलश फोड़ने पर उसे देश से निष्कासित कर दिया गया। वह ईडर राज्य में पहुँचा जहाँ उसे साहसी युवक मानकर वहाँ के राजा ने राजकुमार फूलकुंवर की सुरक्षा में नियुक्त कर दिया। राजकुमार के साथ उसकी मित्रता हो गई। एक दिन दोनों शिकार खेलते हुए पड़ोसी राज्य केलागढ़ पहुँच गये। निहालदे इस राज्य की राजकुमारी थी। दोनों मित्र इस राज्य के जनाना बाग में पहुँच गए जहाँ राजकुमारी और सुलतान एक-दूसरे को देखकर मुग्ध हो गए। कुछ समय बाद केलागढ़ राजा मघ ने राजकुमारी निहालदे का स्वयंवर आयोजित किया। सुलतान ने मछली का भेद करके निहालदे से विवाह किया। इसके बाद वह ढोला के राज्य नरवर पहुँचा जहाँ उसे लाख टकों की नौकरी पर रखा गया। ईर्ष्यालु लोगों ने ढोला की पत्नी मारवणी और सुलतान के बारे में तरह-तरह की बातें बनाना शुरू कर दिया। सुलतान ने जब यह सुना तो उसने सूर्य को साक्षी मानकर कथन किया कि यदि मेरे और मारवणी के बीच भाई-बहन का रिश्ता है तो इस किले के कंगूरे झुक जाएँ। इस पर कंगूरे झुक गए। उसने मारवणी की पुत्री के विवाह के समय भाई की भूमिका निभाकर भात की रस्म भी निभाई जिसका गाथा में इस प्रकार वर्णन है -

म्है ई कही जूं कीचलगढ़ रो गढ़पति तो जणे मैनपाल रो बाळ गोपाळ

तो जणे पोतो कही जूं और राजा चकवै बैन रो

तो जणे इतरी ओपमां ई म्हारी करजो नाथ

मूंडै सेती झूठ नीं म्हैं बोलतौ तो जणै सभा में बैठनै ई नीं चूकूं दान

रण में जायनै ई पाछौ उलटो नीं बावड़ू तो 

जणे परतिरिया ई समझूं माता रै समतूळ

पांच ई बरस री बेटी म्हारै लागती तो जणे पनरै बरस री समझूं बैन।

इसके बाद सुलतान अपनी पत्नी को लेकर आया जिसमें अनेक बाधाएँ आई। इस लोकगाथा में अनेक उपगाथाएँ हैं। 

उपरोक्त के अलावा गोपीचंद-भरथरीनरसी जी रो मायेरोमूमल-महेन्दरा आदि लोकगाथाएँ भी राजस्थान में लोकप्रिय हैं। स्पष्ट है कि लोकगाथाओं की दृष्टि से राजस्थान समृद्ध प्रदेश है।

प्रमुख राजस्थानी लोकगाथा गोगा गाथा (गोगाजी रौ झेड़ौ) का कथानक सारांश

राजस्थान के पाँच पीरों में से एक गोगाजी पश्चिमी राजस्थान के चुरू जिले में स्थित ददरेवा (राजगढ़) नामक ठिकाने के शासक जेवर चौहान के पुत्र थे। इनकी माता का नाम बाछल था। गोगाजी का जन्म प्रसिद्ध नाथयोगी गोरखनाथ के आशीर्वाद से माना जाता है। गोगाजी के समय के बारे में इतिहासकारों में अनेक मतभेद हैं। कर्नल जेम्स टॉड इन्हें फिरोजशाह तुगलक का समकालीन मानते हैं(2004: 37)। कुछेक इन्हें लोकदेवता पाबूजी का समकालीन मानते हैं। डॉ. भरत ओळा (2015: 11)एवं डॉ. भवानीसिंह पातावत (2004: 17) ने प्रामाणिक शोधों के आधार पर गोगाजी का समय ग्यारहवीं शताब्दी माना है। श्री चन्द्रदान चारण ने ‘गोगाजी चौहान री राजस्थानी गाथा’ (20057-10) में गोगाजी की वंशावली के आधार पर इन्हें महमूद गजनवी का समकालीन माना है। यहाँ यह उल्लेख योग्य तथ्य है कि गोरखनाथ तथा गजनवी का समय भी ग्यारहवीं शताब्दी का रहा है(पातावत 2004: 17-19)।  

डॉ. भरत ओळा लिखते हैं कि ऐतिहासिक पक्ष के अनुसार पिता जेवर चौहान के देहान्त के बाद गोगाजी ददरेवा के शासक बने थे(2015: 9-12)। इनका अपने मौसेरे भाइयों अरजन-सरजन से विवाद चलता था। वे गोगाजी को परास्त करने के अनेक प्रयत्न कर चुके थे पर सफलता नहीं मिली। उन्होंने गोगाजी को हराने के लिए मुस्लिम शासकों की मदद ली और गोगाजी के ठिकाने की गायें घेर ली। इसके बाद हुए युद्ध में गोगाजी के हाथों ये दोनों मौसेरे भाई मारे गये। इस युद्ध में गोगाजी भी वीरगति को प्राप्त हुए। कुछ इतिहासकार (जैसे मनोहर शर्मा एवं डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार आदि)[6]गोगाजी का युद्ध गजनवी के साथ हुआ बताते हैं। उनके अनुसार सोमनाथ मंदिर पर हमला करने जाते समय महमूद गजनवी को गोगाजी ने ललकारा और उसके साथ हुए युद्ध में गोगाजी अपने पुत्रों व अनेक संबंधियों सहित वीरगति को प्राप्त हुए थे। इस युद्ध में गोगाजी के चमत्कार देखकर गजनवी भी आश्चर्यचकित रह गया और उसने गोगाजी को ‘जाहरपीर’ (प्रत्यक्ष चमत्कारी) की उपाधि प्रदान की थी(ओला 2015: 9-12)।   

यह गोगाजी के जीवन से जुड़ा ऐतिहासिक पक्ष है परन्तु लोक में गोगाजी की गाथा का स्वरूप इससे कहीं भिन्न है और उसका कथानक इस प्रकार है- ददरेवा शासक राणा अमरा के पुत्र जेवर चौहान का विवाह बाछल नामक स्त्री से हुआ था और बाछल की बहिन आछल का भी जेवर के परिवार में अन्य पुरूष के साथ विवाह हुआ। लम्बे समय तक बाछल और आछल के कोई संतान नहीं हुई। राजा जेवर ने किसी महात्मा के कहने से ददरेवा में नौलखा बाग लगवाया और कुआँ भी खुदवाया पर उसके बाग में प्रवेश करते ही बाग सूख गया और कूएँ का पानी खारा हो गया। इसके बाद किसी ज्योतिषि के कहने से रानी बाछल ने गुरू गोरखनाथ की आराधना में अपना मन लगाया और गोरखनाथ को योगबल से इसका पता लगा। इसके बाद वे अपने चौदह सौ शिष्यों के साथ ददरेवा आये। उनके आते ही ददरेवा का नौलखा बाग हरा हो गया और कूएँ का पानी मीठा हो गया। जेवर व उनकी पत्नी बाछल ने गोरखनाथ की खूब सेवा की। इससे प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने बाछल को वर मांगने को कहा और नियत समय पर बुलाया। वर के समय बाछल की बहिन आछल उसके वस्त्र पहनकर गोरखनाथ के पास चली गई और उसने दो संतानों के आशीर्वाद के दो जौ के दाने प्राप्त कर लिये। 

इसके बाद गोरखनाथ वहाँ से दूसरे क्षेत्र में चले गये। बाछल को जब हकीकत का पता चला तो वह उनके पीछे गई। इस पर गोरखनाथ ने बाछल को कहा कि अब कुछ नहीं हो सकता। बाछल का विलाप देखकर गोरखनाथ को दया आई और उन्होंने पुनः योगबल से आराधना की और नागलोक से बासग नाग से एक पुत्र मांगकर लाये। गोरखनाथ ने बाछल को संतानप्राप्ति के प्रतीक के रूप में गूगल हवन सामग्री दी और कहा कि तुम्हारा पुत्र अत्यन्त प्रतापी होगा। रानी बाछल इस पर गूगल लेकर अपने घर आई और कुछ सामग्री निःसंतान पुरोहितनी को दी जिससे उसको ‘नरसिंह पांडे’ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ भाग अपनी दासी को दिया जिससे उसको भज्जू कोतवाल पैदा हुआ। बाछल ने गूगल स्वयं ग्रहण करने के बाद बचा हुआ हिस्सा घोड़ी को दिया जिससे गोगाजी का प्रसिद्ध घोड़ा ‘लीलौ’ पैदा हुआ। गोगा गाथा में यह जन्मप्रसंग इस प्रकार गाया जाता है-

जन्म होया राणै गाजन्म होया मैं वारी जन्म होया रे।

गूगा का जनम होया रे 

जनम्या रे मंडली का राव

जनम होया गूगै का जनम होया रे।।

अे नीं दोड़ौ-दोड़ौ रूपा बांदी मैं वारी

दोड़ौ नीं दोड़ौ अे रूपा बांदिया

अे जी राजा जेवर बाळै जनम लिया जी

आपणै महलां सूं बांदी चाली मैं वारी

आपणै महलां सूं बांदी चाली मैं वारी

अे नीं चली आवै ओ सुंदर दाई गी पोळ 

सोवै कै जागै सुन्दर दाई गी पोळ

सोवै कै जागै सुंदर दाई जी ओ

अे जी दाई बाई राजा जेवर घर चालो जी ओ

राजा जेवर कै बाळै जलम लिया जी रे हां

आंखां आंधीजीभां तोतळी मैं वारी

कानां सूं दाई नै सुणता नांय

हाथ-पगां सूं दाई पांगळी जी रे हां

अे नीं लहंगा पहर्या गुजरात का मैं वारी

ओढ्या ओ दिखणी गा चीर

महलां सूं दाइ चालगी जी रे

हाथ लठोरी ले ली जी बांस गी जी रे हां

अे नीं चली आवै बजारो-बजार

अजी रूड़ती-पड़ती दाई आयगी जी रे हां

पहली पैड़ी पर दाई पग धर्या मैं वारी 

खुल गयी पगलां गी टूंट

परचा लगावै गूगा राव।

दूजी पैड़ी पर पग धर्या मैं वारी 

खुली गयी मुखड़ै गी जबान 

हां रे खुल गयी मुखड़ै गी जबान।

परचा लगावै गूगा लाडला रे हां।।

तीजी पैड़ी पर पग धर्या मैं वारी

खुल गई कानां गी डाट

हां रे खुल गई कानां गी डाट।

परचा लगावै गूगा लाडला रै हां।।

अे नीं सोनल करद मंगालिया दाई नै

सोनल करद मंगाय लिया।

अे नीं लिया हो गूगै गा नाळा छील

जी ओ गूगै का नाळा छील।

अे नीं नहाय लिया गूगा राणा।

नहाय लिया जी रे हां

अे नीं कूंडै जी ओ घालो मोहर पचास-

सोनै सपारी रिपिया डेढ़ सै जी रे हां

सखियां मंगळ गाय री मैं वारी

अे नीं महलां में बाजै सोनल थाळ

मंगळस गावै सहेलियां जी रे 

दानज देइयै घर गै बामणां रै

देणा जी गऊओं का दान 

अे नीं देणा जी गऊओं का दान।

दानज देइयै घर के चारणां जी रे

देणां सवरण का दान

दानज देइयै घर के ढोलिया जी

देणां जी घोड़ला गा दान

अे नीं सवाई-बधाई जायर की हो रही जी।।

युवा होने के बाद गोगाजी का विवाह राजा सिंझा की पुत्री सरियलदे के साथ हुआ। अपने पिता के देहान्त के बाद गोगाजी ददरेवा के शासक बने। शासक बनने के बाद उनका अपने मौसेरे भाइयों अरजन-सरजन (लोकप्रचलित शब्द ‘जोड़ा’ अर्थात् जुड़वाँ) के साथ विवाद चलने लगा। एक दिन दोनों भाइयों ने गोगाजी की पत्नी सरियल का अपमान किया। उसने अपनी सास बाछल से उक्त बात कही। इसके बाद गोगाजी का अपने मौसेरे भाइयों से युद्ध हुआ और गोगाजी ने उनको मार दिया। दोनों पर विजय-प्रतीक के रूप में गोगाजी उनके सिर थाल में सजाकर महल में प्रविष्ट हो रहे थे तभी उनकी माता बाछल ने अपनी बहिन के पुत्रों के शीश पहचान लिए। इसके बाद वे विलाप करने लगी और क्रोध में गोगाजी को बारह वर्षों का देशनिकाला दे दिया। इसके बाद गोगाजी ददरेवा छोड़कर अपने गुरू गोरखनाथ की तपोभूमि गोरखटीला क्षेत्र (वर्तमान गोगामेड़ी ग्रामहनुमानगढ़) के बीहड़ में आ गए। 

समय बीतने के उपरान्त गोगाजी चोरी-छुपे रात्रि में अपनी पत्नी से मिलने ददरेवा के महलों में भी जाने लगे। एक पर्व के अवसर पर गोगाजी की पत्नी ने श्रृंगारिक वेशभूषा धारण कर रखी थी जिसे देखकर गोगाजी की माता बाछल ने उसे टोका। लोकलज्जा के कारण गोगाजी की पत्नी ने उनके आते रहने का खुलासा कर दिया। इस पर माता बाछल ने गोगा के पत्नी से मिलने के उपरान्त प्रस्थान करते समय घोड़े की लगाम पकड़कर रोका और उनसे रहने का आग्रह किया। गोगाजी अपनी माता की तरफ पीठ करके बैठ गये और माता से घोड़े की लगाम छोड़ने का निवेदन किया पर बाछल ने लगाम नहीं छोड़ी। अनेक प्रयत्न करने के उपरांत गोगाजी माता के हाथ से लगाम छुड़वाकर वहाँ से निकल कर अपनी आश्रयस्थली गोरखटीला वापिस आ गए। यहाँ आकर उन्होंने गुरू गोरखनाथ का आह्वान किया और वचनभंग के प्रायश्चित के रूप में धरती में समा जाने की इच्छा जाहिर की। इस पर गोरखनाथ प्रकट हुए और इस क्षेत्र की बारह मील भूमि को इस लायक माना। इसके बाद गोगाजी ने धरती से अपने भीतर समा लेने का आग्रह किया और वे घोड़े समेत धरती के भीतर समा गए। उनकी पत्नी धरती पर शेष रहे उनके वस्त्रों के साथ सती हो गयी। यह प्रसंग गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

धरती माता तूं बड़ी

म्हनै तूं दे दे बराड़

जाओ थे मक्का पढो रे कलमा

हिन्दू रा होवो मुसळमान

पांचू तो पीर भेळा होयग्या

गोगै नै कलमा पढाय

लीलो तो घोड़ो हिणकतो आवै

पातळियो असवार

फाटी तो धरती दिया रे बराड़ा

गोगो धरत समाय।

उक्त लोकगाथा में गोगाजी की ऐतिहासिकता के साथ अनेक काल्पनिक प्रसंग जुड़ गए हैं जो प्रत्येक लोकप्रिय पुरूष के कथानक में होना स्वाभाविक है। श्रद्धा और आस्था के कारण गोगाजी की गाथा के साथ नाना प्रकार के अंश मिलते हैं और इन्हीं प्रसंगों को समेटे यह गाथा राजस्थान के साथ-साथ हरियाणापश्चिमी उत्तरप्रदेशदिल्लीपंजाबमध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश के भागों तक गाई जाती है। इन क्षेत्रों से श्रद्धालु यह गाथा गाते हुए गोगाजी की मेड़ी (मन्दिर) गोगामेड़ी (हनुमानगढ़) और ददरेवा (चुरु) स्थित ‘शीशमेड़ी’ तक भाद्रपद (अगस्त) की दोनों अष्टमी व नवमी तिथि को आते हैं। इसके अलावा राजस्थान व समीपवर्ती राज्यों के गाँवों में गोगाजी की मेड़ी (मंदिर) देखे जा सकते हैं। इन पर समय-समय विशेषकर भाद्रपद (अगस्त) माह में गोगाजी के रात्रि जागरण आयोजित होते हैं जिनमें गोगाजी की लोकगाथा ‘गोगाजी रो झेड़ो’ का गायन होता है। यह गाथा अत्यन्त मनमोहक है और इसे सुनकर श्रोता भावविभोर हो जाते हैं। अनेक श्रोताओं को तो गाथा के भावों के अनुरूप ‘भाव’ (स्थानीय शब्द घोट) आ जाते हैं जिसे वे नाचकर व लोहे की बनी सांकल आदि खाकर प्रकट भी करते हैं। गोगाजी की विशेष आराधना भाद्रपद माह की सुदी नवमी को की जाती है जिस दिन दूध को जमाया नहीं जाता है और उनके नाम को समर्पित करते हुए घरों में खीर आदि बनाई जाती है। किसान भी बुवाई के समय लोकदेवता गोगाजी के नाम की राखड़ी (रक्षासूत्र) हल पर बांधते हैं और उन्हें सांपों आदि से रक्षा करने वाला देवता मानते हैं। गोगाजी साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रतीक के रूप में राजस्थान के साथ-साथ समीपवर्ती प्रांतों में भी पूजे जाते हैं।

 


[1]  बगड़ावत गाथा के सभी पद सोहनदास चारण  (2016) से उद्धृत् हैं

[2] कामड़ जाति राजस्थान के दलित वर्ग में गिनी जाने वाली मेघवाल जाति का एक भाग होती है जो बाबा रामदेव के अनुयायी होते हैं। ये जाति लोकदेवता बाबा रामदेव के रात्रि जागरण आदि में गायन और नृत्य के लिए पश्चिमी राजस्थान में बेहद लोकप्रिय है।

[3] तेरहताळी नृत्य को बाबा रामदेव के रात्रि जागरण के समय कामड़ जाति की स्त्रियों द्वारा हाथों-पैरों में घुँघरू तथा मंजीरों के साथ किया जाता है। यह नृत्य बैठी अवस्था में किया जाने वाला एकमात्र नृत्य है। समय के साथ इसमें सिर पर मटके उठाकर झूमने जैसी कलाएँ भी जुड़ गई हैं। 

[4] फड़/पड़ लोकगाथाओं का चित्रांकन है जो जूट अथवा टाट के कपड़े पर बनाई जाती है और इसका रंग बेहद आकर्षक होता है। पड़/ फड़: फड़ वाचनगायन तथा नृत्य का मेल है। इसमें कपड़े पर बने चित्रों की विभिन्न मुद्राओं की तरफ संकेत करते हुए संगीत के साथ नृत्य किया जाता है। राजस्थान में पाबूजी की फड़,देवनारायण जी फड़ तथा रामदेवजी की फड़ प्रसिद्ध है। 

[5] स्वामी, 2010, पृ. 56 से उद्धृत्

[6]  पातावत,2004, पृ. 39से उद्धृत्

संदर्भ ग्रंथ सूची: -

ओलाभरत. गोगा गाथाप्रथम संस्करण. चुरू (राजस्थान): एकता प्रकाशन, 2015.

चारणचन्द्रदान. गोगाजी चैहान री राजस्थानी गाथाप्रथम संस्करणजोधपुर (राज.): राजस्थानी ग्रंथागार, 2005

चारणसोहनदान. राजस्थानी लोकसाहित्य का सैद्धान्तिक विवेचनद्वितीय संस्करणजोधपुर (राज.): राजस्थानी ग्रंथागार, 2016.

टॉड, जेम्स. राजस्थान का इतिहासतृतीय संस्करण. जयपुर (राज.): श्याम प्रकाशन, 2004

पातावतभवानीसिंह. आस्था रौ उजास, प्रथम संस्करण.चैपासनीजोधपुर (राज.): परमवीर, 2004.

भारद्वाज, शांति. राजस्थानी संस्कृति एवं परंपराएँप्रथम संस्करण. कोटा (राज.): वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, 2005.

स्वामीनरोत्तमदास. ढोला-मारू रा दूहाचतुर्थ संस्करण.जोधपुर (राज.): राजस्थानी ग्रंथागार, 2010.