Dr Bharat Ola (Courtesy: Dr Satpal Singh)

राजस्थानी लोकगाथाओं पे बातचीत

in Interview
Published on: 24 September 2019

डॉ सतपाल सिंह (Dr Satpal Singh)

डॉ सतपाल सिंह ने हिंदी, राजस्थानी और भूगोल में अपना एम.ए किया है और वह पीएच.डी शोधकर्ता है| उनकी पुस्तक ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’ 2015 में प्रकाशित हुई थी और भारतीय भाषाओं के लोक सर्वेक्षण के राजस्थान संस्करण में राजस्थानी भाषाओं की चार बोलिओं पर हिंदी व अंग्रेजी में शोध प्रकाशित हुआ (2015–16)

डाॅ. भरत ओला, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से पुरस्कृत वरिष्ठ राजस्थानी साहित्यकार एवं लोकसाहित्य विशेषज्ञ का साक्षात्कार

डाॅ. सतपाल सिंह: राजस्थान के सामाजिक परिदृश्य में लोक देवी-देवता संस्कृति के प्रादुर्भाव और उसके लोकप्रिय होने के क्या कारण रहे हैं ?

डाॅ. भरत ओला: देखिए, राजस्थान के जितने भी लोकदेवी-देवता हुए हैं, वो उस वक्त में हुए हैं जब पूरा सामन्ती काल था और पूरा समाज जाति व्यवस्था में बंटा हुआ था। जो कमेरा वर्ग था उन्हें धार्मिक क्षेत्रों में जाने की इजाजत नहीं थी, उसी वक्त उच्च वर्ग से कुछ लोग निकलकर आये, जैसे पाबूजी है, गोगाजी है, रामदेवजी हैं, हड़बूजी हैं, मेहाजी हैं, ये सारे के सारे उच्च वर्ग के लोग थे और उन्होंने सामान्य जन में जाति व्यवस्था को, उस धार्मिक पाखण्डता को और ऐसी उन सारी चीजों को नकारने की कोशिश की और आमजन को ये लगा कि ये व्यक्ति हमारी बात कर रहा है, हमें जिस धर्म से च्युत कर दिया गया, उस धर्म में हमें भी जाने का अधिकार है। तो ऐसे वक्त में जब पूरी सामंतशाही हावी थी, उन्होंने मानवता का संदेश दिया और यही कारण है कि वो आमजन के चहेते हो गये और उन्होंने उन मानवों में महामानव के गुण देखे और महामानव के गुण देखने के कारण ही वो मानव से महामानव हो गये, जिसकी वजह से लोक ने उन्हें लोक देवी-देवता का दर्जा दिया।

डाॅ. स.स: समाज ने किन ऐतिहासिक अथवा काल्पनिक किरदारों को लोक देवी-देवता का दर्जा दिया और क्यों ? और ये प्रमुख प्रचलित देवी-देवताओं से किस प्रकार भिन्न हैं ?

डाॅ. भ.अः देखिए, मुझे नहीं लगता कि कोई लोक देवी-देवता काल्पनिक पात्र हैं। सारे के सारे लोक देवी-देवता ऐतिहासिक पात्र हैं। उनका भले ही छोट राजघराने या कोई छोटे सामंत के घर में या छोटे ठिकाने में जन्म हुआहो वे सारे के सारे लोग ऐतिहासिक पात्र हैं और उन सारे के सारे ऐतिहासिक पात्रों ने, जैसा कि मैंने पूर्व में भी कहा है, इन्होंने मानव कल्याण के लिए बहुत कुछ किया और मानव कल्याण करने के कारण लोगों ने३, जैसे कि राजस्थान की धरती वीर प्रसूता भूमि रही है और लोककल्याण की भावना, लोकनुरंज की भावना जब लोगों में दिखी तो हाथोंहाथ लोगों ने इनका अनुसरण करना शुरू किया। जैसे रामदेवजी हैं, रामदेवजी को आप देखिए कि दलित वर्ग में जब पूरे राजस्थान में या कहें कि उस वक्त में जब छुआछूत का बहुत बोलबाला था, मनुष्य और मनुष्य में भेद किया जाता था तो रामदेवजी ऐसे लोगों में उस विचार को लेकर आये कि मनुष्य और मनुष्य में भेद किया जाना उचित नहीं है। उन्होंने जनकल्याण की बात की और मनुष्य-मनुष्य के बीच की खाई को पाटने की कोशिश की। इसलिए लोग उनसे जुड़ते गये।

दूसरा जैसे आपने प्रश्न पूछा कि वो अन्य देवी-देवता से किस प्रकार भिन्न हैं, देखिए, समाज में जितने भी े पौराणिक देवी-देवता हैं, उन सबका साहित्य अभिजात्य वर्ग का साहित्य है, उनको लिखने वाले लोग अभिजात्य वर्ग के थे और उनकी भाषा भी संस्कृत थी। सामान्य न तो लोक की भाषा थी न वो लोक के व्यक्ति थे। वो उच्च वर्ग के व्यक्ति थे और उनकी पूजा भी उच्च वर्ग के लोग ही करते थे। ये लोग उन लोगों से थोड़े से बड़े स्तर के व्यक्ति थे और३ ये एक सामान्य धारणा है, मनुष्य का ये स्वभाव है कि जब भी कोई बड़ा व्यक्ति सामान्य व्यक्ति से मिलता है, कुछ आकर के कहता है तो वह अपने आप को सौभाग्यशाली समझता है और उसके साथ जुड़ने की कोशिश करता है, यह मानवीय स्वभाव है। तो जब ऐसे वर्ग के लोग उनके हित की बात करने लगे, ऐसे वर्ग के लोग जाति और समाज में जो वैमनस्य था, उसे दूर करने की बात करने लगे तो लोग उन्हें अपने आराध्य के रूप में पूजने लगे और उनके गीत उन्हीं लोगों द्वारा गाये जाने लगे जिसके कारण से लोकगीत, लोकगाथाएं हमारे सामने आती हैं।

डाॅ. स.सः राजस्थानी संस्कृति में कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जो पूजनीय व सम्मानित माने जाते हैं परन्तु वे लोक देवी-देवता के रूप में नहीं देखे जाते, जैसे रानी पद्मिनी का एक उदाहरण है। ऐसे में किसी को लोक देवी अथवा देवता के रूप में पूजे जाने के क्या संभावित कारण हो सकते हैं ?

डाॅ. भ.अ: देखिए, जैसे आपने रानी पद्मिनी का एक उदाहरण लिया। राजस्थान में एक पद्मिनी ही क्यों, ऐसे अनेक वीर चरित्र पात्र हैं, जैसे रानी हाड़ी हैं, पद्मिनी हैं, पन्नाधाय है, बहुत सारे पात्र हैं जो लोक देवी-देवता के रूप में प्रचलित नहीं हुए। उसका कारण ये रहा कि वो वीरांगनाएं जरूर हैं पर लोक से उनका कोई जुड़ाव नहीं था। वो लोक में मान्य नहीं हैं। जैसे रानी पद्मिनी हैं एउनका क्षेत्र राजा-महाराजाओं तक है, वीरता तक है पर आमजन के साथ उनका कोई संवाद नहीं हुआ, ना कभी वो आमजन से े मिली। हां, वो वीर पूज्या जरूर हैं पर वो लोक देवी-देवता नहीं हैं। जबकि जिन दूसरे लोक देवी-देवताओं की हम बात  कर रहे हैं, वो लोगों के नजदीक के लोग हैं, उनके साथ उठते-बैठते थे और यही कारण है कि उन्होंने लोगों के बीच में रहकर जब जनहित का, जनकल्याण का कार्य किया तो लोगों ने उसे महामानव का रूप दिया और वे लोक देवी-देवता के रूप में ख्याति प्राप्त कर गये।

डाॅ. स.स: लोकगाथाएं इस लोक देवी-देवता संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग हैं। यहां तक कि इन लोकगाथाओं का सामूहिक जैसे मेले हैं, रतजगे हैं, सामूहिक रूप से गाया जाने वाला एक धार्मिक अनुष्ठान हैं। ऐसे में लोक देवी-देवताओं के प्रचलित होने में लोकगाथाओं की भूमिका और इनके सामान्य स्वरूप की हमें जानकारी दें।

डाॅ. भ.अ: लोकगाथाओं की बहुत बड़ी भूमिका है क्योंकि जैसा मैंने पहले कहा कि जो पौराणिक गाथाएं थी, उनका साहित्य था, वो अभिजात्य वर्ग का था। चूंकि हर व्यक्ति के भीतर एक रचनात्मकता होती है, उन दलित लोगों को, उन समाज के पिछड़े लोगों को  कभी साहित्य जैसी मुख्यधारा में आने ही नहीं दिया गया। जब उन लोगों को लगा कि हमारे पास भी ऐसे चरित्र हैं जिनका हम गुणगान कर सकते हैं। चूंकि गुणगान करने का उन्हें कभी मौका ही नहीं मिलता था, ना उन्हें मंदिर में जाने की इजाजत थी, ना उनको पूजने की इजाजत थी, ना कुछ और करने की इजाजत थी। जब उन्हंे लगा कि हमारे ही बीच का कोई व्यक्ति उस ऊंचाई को प्राप्त कर रहा है तो उन्होंने उसकी विरुदावली गानी शुरू की, उनकी गाथाएं बनानी शुरू की और इनकी खास बात ये है कि ये लोकगीत और गाथाएं किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं बनाये गये। जैसे किसी एक व्यक्ति ने लोक देवी-देवता की गाथा लिखी तो दूसरे ने उसमें कुछ अपनी तरफ से जोड़ दिया। इस तरह से जितनी भी हमारी लोकगाथाएं हैं, आप देखेगें कि हमारे इस अंचल में गाई जाने वाली लोकगाथा दस-बीस मील बाद थोड़े-बहुत अंतर से बदल जाती है तो सब लोगों ने उसके अंदर कुछ न कुछ अपना जोड़कर उसे एक लोकगाथा का रूप दिया जो लोगों में प्रचलित हो गई और लोगों को यह प्रतीत हुआ कि ये हमारे ही लोगों की गाथाएं हैं और हमारे ही लोगों द्वारा गाई गई हैं।

डाॅ. स.स: बहुत से लोक देवी-देवता किसी जाति विशेष या समुदाय विशेष से जुड़े हुए हैं या उनमें अधिक प्रसिद्ध हैं। इसका क्या कारण है ? इसका कारण हम सामाजिक पृष्ठभूमि में कैसे देख सकते हैं?

डाॅ. भ.अ: देखिए, ऐसा तो नहीं है कि वो एक ही जाति में ज्यादा पूजनीय हैं। जैसे मैंने अभी रामदेवजी का जिक्र किया, वो जाति के पंवार राजपूत थे लेकिन उनकी पूजा दलित वर्ग ने की, उन्हें लोकदेवता के रूप में प्रतिस्थापित दलित वर्ग ने किया। इसी तरह गोगाजी चैहान राजपूत थे लेकिन उनकी पूजा तो सारा कमेरा वर्ग, दलित वर्ग और यहां तक कि दूसरे धर्म के लोग भी, मुस्लिम भी  उन्हेंपूजते हैं। ऐसे ही पाबूजी राठौड़ राजपूत थे लेकिन उनकी पूजा भी थोरियों द्वारा, भोपों द्वारा की जाती है और दूसरे लोग भी करते हैं। दरअसल ये सारे लोग जो हैं, जितने भी राजस्थान के लोक देवी-देवता हैं, उनको पूजने वाले, उनको अपना इष्ट मानने वाले सारे दलित वर्ग के लोग हैं जो समाज से  बहिष्कृत लोग थे और जब उनको लगा कि उनके बीच में बड़ा आदमी आकर उनके हित की बात कर रहा है और जो मार्ग दिखाया गया था ईश्वर प्राप्ति का, अध्यात्म का, पूजा का, जिसमें अभिजात्य वर्ग में या उन पौराणिक देवी-देवता में उनको जाने का अधिकार नहीं था, तो इस वर्ग को लगा कि इनके मार्फत भी हम वो चीजें प्राप्त कर सकते हैं तो लोगों ने उन्हें अपना आराध्य मान लिया और ये चीजें शुरू हो गयी।

डाॅ. स.स: लोकगाथाओं के गायन के कुछ विशेष महीने और मेले आदि के बारे में विशेष जानकारी है तो वो बतायें।

डाॅ. भ.अ: जो हमारे लोक देवी-देवता हैं वो सारे भाद्रपद में ही हुए हैं। जैसे रामदेवजी हैं वो भाद्रपद की द्वितीया को हुए हैं। गोगाजी भाद्रपद की नवमी को हुए हैं और तेजाजी दशमी को हुए हैं तो सारे के सारे लोकदेवी-देवता भाद्रपद में ही हुए हैं। इसके पीछे शायद पौराणिक चीजों से जोड़ते हुए ज्यादातर देवी-देवता भाद्रपद में ही हुए हैं और हमारे यहां राजस्थान में कोई भी कारण रहा हो या ये संयोग रहा हो कि उनका जन्म इन्हीं तिथियों के आसपास रहा हो या ये भी हो सकता है कि एक ऐसी परम्परा चल पड़ी हो कि आरम्भ में किसी लोक देवी-देवता का जम्मा-जागरण किसी ने भाद्रपद में लगाया हो और उसकी देखा-देखी दूसरे लोगों ने ही ऐसा करना शुरू कर दिया हो या ऐसा भी हो सकता है कि बारिश की खुशी में लोगों ने अपने लोक देवी-देवताओं को इन दिनों में पूजना स्थापित कर दिया हो लेकिन ये सही है कि पूरे के पूरे राजस्थान में लोक देवी-देवता भले ही वो तेजाजी हों, रामदेवजी हों, गोगाजी हों, उनके सारे के सारे जम्मा-जागरण, मेले, जन्मोसत्व आदि, पूजा-अर्चना आदि भाद्रपद महीने में ही की जाती है।

डाॅ. स.स: प्रत्येक लोकगाथा के सामुदायिक रूप में गाये जाने में कुछ विशेष वाद्ययंत्र जुड़े होते हैं, उनका प्रयोग किया जाता है। इन जो प्रमुख लोकगाथाएं जिनकी हम बात कर रहे हैं, इनके बारे में कुछ बतायें।

डाॅ. भ.अ: आप देखिए कि ये वाद्ययंत्र भी लोक के वाद्ययंत्र हैं। ये वो शास्त्रीय वाद्ययंत्र नहीं हैं। सारे के सारे लोकदेवताओं के वाद्ययंत्र हैं। जैसे रामदेवजी का है, तो रामदेवजी के वाद्ययंत्र में तंदूरा बजाया जाता है। तंदूरे के साथ ढोलक है, मंजीरा है, वो बजाया जाता है। ये सारे के सारे लोकवाद्ययंत्र हैं क्योंकि लोगों को आमोद-प्रमोद के लिए, लोगों को मनोरंजन करने के लिए कुछ न कुछ तो वाद्य चाहिए था तो उनके पास शास्त्रीय वाद्य नहीं थे। ऐसे में उन्होंने वाद्य खुद गढ़े और फिर इनको लोकदेवी-देवताओं की गाथाओं में जोड़ दिया गया। जैसे पाबूजी से जुड़ा लोकवाद्य है रावणहत्था। रावणहत्थे को भोपा जो थोरी होते हैं, वो बजाते हैं और उनकी गाथा गाते हैं। इसी प्रकार हमारे यहां गोगाजी हैं तो गोगाजी का लोकवाद्य डैरूं है। डैरूं एक तरह से ये मानें कि वह शिवजी के डमरू का बड़ा रूप है। तो ये सारे के सारे वाद्ययंत्र लोक के हैं। लोगों ने इन्हें लोक देवी-देवताओं से जोड़कर प्रचलित रागों में गाथाएं गानी शुरू कर दीं।

डाॅ. स.स: जिस प्रकार धार्मिक अनुष्ठानों का कार्य कुछ समुदायों या वर्गों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। क्या उसी प्रकार इन लोकगाथाओं के सामुदायिक रूप से गाये जाने के समय यह किसी समुदाय विशेष तक सीमित होता है और गाने व वाद्य बजाने का कार्य भी अलग-अलग समुदाय या लोग करते हैं ?

डाॅ. भ.अ: देखिए, ऐसा है कि जो पौराणिक पात्र हैं, उनकी पूजा-अर्चना एक विशेष समुदाय द्वारा ही की जाती रही है और उसके अतिरिक्त किसी भी समुदाय को, किसी भी जाति को, किसी भी दूसरे व्यक्ति को इसकी इजाजत नहीं थी। ये जो लोक देवी-देवता हैं, ये इस तरह का कोई भेद नहीं रखते, ये मानते हैं कि इनकी पूजा कोई भी व्यक्ति कर सकता है लेकिन इतना भी है कि जैसे रामदेवजी की जो पूजा-अर्चना करते हैं या उनके जम्मे-जागरण करते हैं, वो दलित वर्ग में मेघवालों में एक जाति है कामड़ जिसे कामड़िये कहा जाता है, वो ज्यादातर करती है। पाबूजी के जो भोपा हैं, वो थोरी जाति के होते हैं, वो करते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं हैं कि सारे लोक देवी-देवता किसी जाति विशेष से जुड़े हुए हैं। जैसे गोगाजी हैं तो उनकी पूजा कोई भी कर सकता है, हां यह जरूर है कि जो जम्मे-जागरण लगाने वाले लोग हैं, वो लगभग तथाकथित बहिष्कृत जातियों भले ही वो वाल्मीकि हों, भले ही वो मेघवाल हों, भले ही वो थोरी हों, या अन्य जातियों जैसे नायक आदि होते हैं यानि ये सभी कमेरे वर्ग के और पिछड़े दलित लोग ही होते हैं। मोटे रूप में कहें तो लोक देवी-देवताओं के जम्मे-जागरण लगाने वाले शूद्र लोग ही थे तो ज्यादा ठीक रहेगा और उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि ये अपने लोग हैं और अपने लोगों के बारे में अपने ही लोगों के बीच गाथाएं गा रहे हैं। 

डाॅ. स.सः आपने विशेष रूप से गोगा गाथा पर काफी शोध कार्य किया है। आपका इसमें प्रकाशन भी बड़े स्तर पर हो चुका है। गोगा गाथा के प्रचलन क्षेत्र, इसकी गायन शैली, लोक में इस गाथा का महत्व और इसकी विशेषताओं के बारे में हमें जानकारी दें।

डाॅ. भ.अ: देखिए, हमारे यहां गोगाजी पर एक ’झेड़ा’ गाया जाता है। झेड़े को हम झेड़ा भी कह सकते हैं, झोड़ भी कह सकते हैं, झेड़े का मतलब भी गाथा है। झोड़ का मतलब भी लड़ाई है। हमारे यहां इसको ’झोड़’ कहते हैं परन्तु  जैसे ही हम उत्तरप्रदेश की तरफ जाते हैं और उनके यहां के यात्री गोगाजी के स्थल पर आते हैं तो उनके वाहनों के आगे वागड़ पीर लिखा होता है। हमारे क्षेत्र यानि बागड़ के क्षेत्र में जो गाथा प्रचलित है और यूपी में, पंजाब में, बिहार में जो गोगाजी की गाथा गाई जाती है, वो इससे थोड़ी भिन्न है और उसमें उन्हीं बोलियों और भाषाओं का समावेश है जो वहां प्रचलित हैं। झोड़ और झेड़ा यहां की स्थानीय लय है जिसको ध्यान में रखते हुए इस गाथा को गाया जाता है और कमोबेश दूसरी भाषाओं में भी इसी लय को, इसी शैली को अपनाया गया है।

डाॅ. स.स: गायन शैली इसमें कैसे विशिष्ट नजर आती है ?

डाॅ. भ.अ: झेड़े की गायन शैली विशिष्ट है। इसमें एक व्यक्ति पूरी की पूरी गाथा गाता है और उसके सहयोगी बीच-बीच में टेक उठाते हैं। पूरी गायन शैली इस तरह की होती है कि गोगाजी के वाद्ययंत्र डैरूं की थाप के साथ जब वो लोग गाते हैं तो एक प्रकार से वो नाचने लगते हैं और इस नाचने को गोगाजी की छाया चढ़ना कहते हैं यानि वो गाने-बजाने में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि यह एक प्रकार का आनंदमय वातावरण बन जाता है। उन्हें लगता है कि वो अपने देवता की बात अपने मुख से कह रहे हैं। यह एक विशेष शैली है जिसे सुनकर के या गा कर के ही समझा जा सकता है। गोगाजी इस क्षेत्र के दलित वर्ग में प्रचलित और पूजनीक हैं, उतने ही वे मुस्लिमों में भी पूजनीक हैं। वैसे कोई भी लोकदेवता धर्म के दायरे में नहीं बंधे हैं। गोगाजी भी इसी प्रकार के चरित्र वाले लोकदेवता हैं।