लोकगाथाओं की भारतीय परंपरा और राजस्थानी लोकगाथाओं का स्वरूप

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Published on: 24 September 2019

डॉ सतपाल सिंह (Dr Satpal Singh)

डॉ सतपाल सिंह ने हिंदी, राजस्थानी और भूगोल में अपना एम.ए किया है और वह पीएच.डी शोधकर्ता है| उनकी पुस्तक ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’ 2015 में प्रकाशित हुई थी और भारतीय भाषाओं के लोक सर्वेक्षण के राजस्थान संस्करण में राजस्थानी भाषाओं की चार बोलिओं पर हिंदी व अंग्रेजी में शोध प्रकाशित हुआ (2015–16)

लोकगाथाओं के अध्ययन की दृष्टि से भारतीय लोकसाहित्य बेहद महत्त्वपूर्ण है। यहाँ की भाषाओं-संस्कृतप्राकृतपालीअपभ्रंश तथा मध्यकालीन क्षेत्रीय भाषाओं में विपुल परिमाण में लोक ने गाथाओं का सृजन किया जो विविध रूपों में गाई और कही जाती हैं। वेदउपनिषदपुराणबौद्धजैन एवं अन्य दार्शनिक ग्रंथों पर भी इन गाथाओं का प्रभाव देखा जा सकता है। भारतीय लोकगाथाएँ लोक की साहित्यिक अभिव्यक्ति और सुदूर अतीत की परंपरा की संवाहक हैं। इनके तत्व ऋग्वेद की स्तुतियों में भी देखे जा सकते हैं। इसके पश्चात् ब्राहृाण ग्रंथों[1] में भी अनेक गाथाओं को कथा रूप में प्रस्तुत किया गया है। डॉ. सत्येन्द्र भारतीय कथा साहित्य परम्परा पर लिखते हैं कि लोकवार्ता के परम्परा प्राप्त भण्डार में से साहित्य ने कभी कोई सामग्री ग्रहण कीकभी कोई। कभी भगवान विष्णु को महत्व दिया तो कभी शिव को। समय बीतते-बीतते महत्व के बिन्दु बदलते गयेनये भावों के अनुरूप पुरानों को ढालने की चेष्टा की गयी। इन्द्र का जो महत्व हमें वेद में मिलता है वह पुराणों में नहीं मिलता। इस समय तक आते आते गाथा का स्वरूप अधिक पुष्ट होता प्रतीत होता है (सत्येन्द्र 2017: 16667)। इस पर डॉ. सोहनदान चारण लिखते हैं कि प्राचीन आख्यानों, उपाख्यानोंगाथाओं के संकलन का ही नाम ‘पुराण’ माना गया है। पुराण काल से बुद्ध के समय में आते-आते गाथाओं का प्रचलन सवर्साधारण में हो गया। इसके बाद विभिन्न अपभ्रशों और उनसे निकली भारतीय भाषाओं में गाथाओं का सृजन हुआ। इस तरह उपनिषद काल आते-आते इन गाथाओं का स्वरूप परिवर्तित हुआ और उनके कथानक ने नया बाना धारण किया । पुराण युग में इनका स्वरूप अधिक पुष्ट हुआ (चारण 2016: 192)। महाभारत को तो वर्णन प्रधान गाथा का महत्वपूर्ण उदाहरण कहा जा सकता है।  

महात्मा बुद्ध सदैव लोक के निकट रहे और अपने उपदेशों में लोक भाषा का सहारा लिया। उनके समय में गाथाओं का सर्वाधिक प्रचलन आम जन में हुआ। बुद्ध के जीवन से जुड़ी अनेक गाथाएँ पाली भाषा में रचित ‘जातक’ ग्रंथों में संग्रहित की गईं। अपभ्रंश और प्राचीन राजस्थानी भाषा में ‘रासक’ या ‘रासो’ ग्रंथों के रूप में हज़ारों लोकगाथाएँ लोक में प्रचलित हुईं। उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय लोकसाहित्य में लोकगाथाओं का रचाव विपुल मात्रा में हुआ है और यह परंपरा लिखित साहित्य को भी प्रभावित करती रही है।

लोकगाथा का अर्थ एवं परिभाषा 

लोकसाहित्य की एक जनजीवन से जुड़ी बेहद लोकप्रिय विधा ‘लोकगाथाएँ’ हैं जिनमें माटी की सौंधी महक है। पाश्चात्य साहित्य अथवा अंग्रेजी भाषा में इसे ‘ठंससंक’ (इंससंक) नाम से जाना जाता है जिसका शाब्दिक अभिप्राय ‘लम्बा गीत’ होता है। सोहनदास चारण (2016)व नंदलाल कल्ला(2016) जैसे शोधकर्त्ता इसके विभिन्न नामकरण करते हैं जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -

1. ग्राम गीत

2. नृत्य गीत

3. आख्यान गीत

4. आख्यानक गीत 

5. वीर गाथा या वीर काव्य इत्यादि

उपरोक्त सभी शब्द अंततः ‘लोकगाथा’ के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। अंग्रेजी का शब्द बैलेड’ (BalladयाBallare) या (ठंससंक) लैटिन शब्द ‘ठंससंतम’ से बना है जिसका शाब्दिक अभिप्राय ‘नाचना’ होता है। इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में लोकगाथा की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि लोकगाथा एक ऐसी पद्य शैली है जिसका सृजनकर्ता अज्ञात होता है।[2] इसमें साधारण उपाख्यान का वर्णन होता है जो सरल एवं मौखिक याद रखने की परंपरा के लायक होता है। लोकगाथा में ललित कला जैसी जटिलताएँसूक्ष्मताएँ एवं दुश्वारियाँ नहीं होती हैं। अंग्रेजी के लोकसाहित्य शोधार्थी प्रो. क्रिटीज[3] के अनुसार लोकगाथा एक ऐसा गीत होता है जिसमें कोई कथा कही होती है। इसी प्रकार एफ.बी. गुमेर[4] ने लिखा है कि लोकगाथा गायन के लिए रची एक ऐसी कविता होती है जो सामग्री की दृष्टि से व्यक्ति शून्य होती है और प्रारम्भ से समूह नृत्यों से जुड़ी हुई है पर यह ‘मौखिक परंपरा’ में पलती-पनपती है,इसके गायक साहित्य के प्रभाव से मुक्त होते हैं।[5]  

डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने भोजपुरी लोकसाहित्य पर व्यापक शोध-कार्य किया है। उन्होंने भारतीय लोकसाहित्य के सैद्धान्तिक पक्ष को उजागर करते हुए लोकगाथा की परिभाषा इस प्रकार दी है -‘लोकगाथा वह गाथा या कथा है जो गीतों में कही गई है’ (उपाध्याय 1960: 12)। महाराष्ट्र में लोकगाथा के लिए ‘पवाड़ा’ शब्द प्रचलित है। गुजराती लोकसाहित्य के नामी विद्वान झवेरचंद मेघाणी लोकगाथा को कथागीत’ नाम देते हैं।[6] राजस्थानी के विद्वान सूर्यकरण पारीक ‘बैलेड’ के लिए गीत कथा’ नाम देते हैं।[7] उपरोक्त विद्वानों की परिभाषाओं के अवलोकन से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि लोकगाथा कहीं न कहीं गायन से संबंध रखती है और लोकसाहित्य का काव्य प्रधान रूप है। 

लोकगाथाओं का वर्गीकरण 

लोकसाहित्य के मर्मज्ञ डॉ. नंदलाल कल्ला (2016: 13637) के अनुसार विषयवस्तु की दृष्टि से लोकगाथाओं को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. प्रेमप्रधान लोकगाथाएँ

2. वीरत्व व्यंजक लोकगाथाएँ

3. पौराणिक लोकगाथाएँ

4. भक्तिपरक लोकगाथाएँ

लोकगाथाओं की सामान्य विशेषताएँ

लोकगााथाओं के स्वरूप का विवेचन करने के उपरांत इनकी निम्नांकित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -

1. अज्ञात रचयिता :राजस्थान प्रदेश में मिलने वाली लोकगाथाओं पर किसी व्यक्ति विशेष की छाप नहीं है। इनका रचयिता समस्त समाज है। अपने प्रारंभिक स्वरूप से वर्तमान तक इनमें असंख्य परिवर्तन भी हुए हैं। लोक साहित्य के विद्वान डॉ. सोहनदान चारण (2016: 199)कहते हैं कि लोकगाथा का रचयिता अज्ञात रहता है।

2. मंगलाचरण :लोकगाथाओं के प्रस्तुतिकरण के समय प्रत्येक गाथा के आरंभ में मंगलाचरण का विधान होता है जिसमें सर्वप्रथम गणेश वंदना के उपरांत देवी-देवताओं की स्तुति की जाती है। कुछ गाथाओं में हिन्दू देवों की स्तुति के साथ मुस्लिम पीर-पैगम्बरों की भी स्तुति की गई है। यह दोनों संस्कृतियों के संयोग का उदाहरण है। प्रसिद्ध लोकगाथा बगड़ावत’ के आरंभ का मंगलाचरण पद प्रस्तुत है जिसमें भगवान गणेश की स्तुति के साथ शिव-पार्वती और हनुमान की आराधना की गई है -

पैली विनायक सिंवरजोच्यार भुजाधारी।

रिध सिध नारीथारे मूसे री जसवारी।। 

बिघन विनायक सिंवरजोपौरस ने अगनि रो हड़मान। 

रिध सिधि भोळानाथ ने सिंवरजो पारवती रो नाथ।।[8]

3. लोक वाद्य की संगत :राजस्थानी लोकगाथाओं में गाथा प्रस्तुतिकरण के समय लोक वाद्यों का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक गाथा के साथ लोकवाद्य जुड़ा होता है जो उसकी विशिष्ट पहचान होता है। वाद्यों का प्रयोग गाथा के साथ संगीत का विधान करने के लिए होता है। जैसे पाबूजी की गाथा के साथ ‘रावण हत्था’रामदेवजी की गाथा के साथ ‘तंदूरा’गोगाजी की गाथा के साथ ‘डेरूं’ और बगड़ावत गाथा के साथ ‘थाली’ आदि वाद्ययंत्रों की संगत जुड़ी होती है। 

4. स्थानीय रंगत :राजस्थान प्रदेश की अधिकांश गाथाओं के नायक स्थानीय हैं और इन गाथाओं के कथानक में स्थानीय परिवेश की पूरी-पूरी छाप है। यहाँ के रहन-सहनरीति-रिवाजखान-पानवेशभूषा आदि का वर्णन इन गाथाओं में दृष्टिगोचर होता है। इसके साथ ही यहाँ की प्रकृति तथा जीव-जन्तुओं का भी वर्णन इनमें देखा जा सकता है। प्रसिद्ध लोकगाथा 'ढोला-मारु’ में गाथा के नायक ढोला और नायिका मारवणी के संवाद में राजस्थान के ग्रीष्मकाल का वर्णन इस प्रकार मिलता है -

थळ तत्तालू सांमुहीदाझोला परियाह। 

म्हांकउ कहियउ जउ करउ घरि बइठा रहियाह।।[9]

5. गद्य-पद्य का मिश्रण :राजस्थानी लोकगाथाओं में गीतांशों के साथ गद्य का भी प्रयोग मिलता है। ये गद्य खंड गीतों में वर्णित कथा को जोड़ने की कड़ी का कार्य करते हैं। हालांकि गाथाओं में गद्य कम ही होता है और इसकी प्रमुख घटनाएँ गेय रूप में वर्णित होती हैं। 

6. संदिग्ध ऐतिहासिकता :अनेक राजस्थानी लोकगाथाओं के नायक ऐतिहासिक रूप से इस प्रदेश में जन्मे थे और उनका ऐतिहासिक महत्व भी है। इन सभी के जीवन पर लोक ने गाथाएँ निर्मित की हैं पर इनके वास्तविक जीवन और गाथा के कथानक में काफ़ी परिवर्तन मिलता है। ऐतिहासिक नायकों पर लोकप्रचलित अनेक गाथाओं में कल्पना का बड़ा हिस्सा भी जुड़ गया है। लोकगाथाओं की संदिग्ध ऐतिहासिकता पर लोकसाहित्य के मर्मज्ञ डॉ. नंदलाल कल्ला लिखते हैं - ‘लोकगाथा के गायकों के लिए ‘इतिहास’ साध्य नहीं हैवह तो साधन है। उनका मुख्य लक्ष्य तो लोकमानस को रिझाना होता है(2001: 131)।’ 

7. प्रेरणा-स्त्रोत वाक्य :राजस्थानी लोकगाथाओं में अनेक के कथानकों में ऐसा प्रसंग भी मिलता है जहाँ नायक किसी एक कथन अथवा वाक्य के कारण किसी कार्य को अपना ध्येय बना लेता है और उसे पूरा करने के लिए प्राणपन से यत्न करता है। ये वाक्य नायक के लिए किसी ‘प्रेरणा-स्त्रोत वाक्य’ की भांति होते हैं जिससे वह प्रेरित होता है। प्रसिद्ध लोकदेवता तेजा की गाथा में इसी प्रकार का उदाहरण मिलता है जिसमें वे अपनी भाभी का ताना सुनकर अपनी पत्नी को पीहर से लाने के लिए रवाना होते हैं और सम्पूर्ण घटनाक्रम घटित होता है(चारण 2016: 211)।  

राजस्थानी लोकगाथाएँ: परिचयात्मक विवरण 

साहित्यिक दृष्टि से राजस्थानी साहित्य में आदिकाल से ही सबल परंपरा रही है। यहाँ की राजस्थानी भाषा और उसकी विभिन्न बोलियों में विक्रम की आठवीं सदी से ही साहित्य का सृजन होता रहा है। राजस्थानी भाषा साहित्य के विद्वान डॉ. मोतीलाल मेनारिया(1999: 64)इसी परम्परा पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि इस काल का साहित्य जितना अधिक राजस्थानी भाषा में मिलता हैउतना भारत की अन्य किसी प्राँतीय भाषा में नहीं मिलता है। वे राजस्थानी भाषा के शुरूआती रचनाकारों (वीर गाथा काल, लगभग 11वीं से 13वीं सदी तक) में शांगधर (हम्मीर रासौ)असाइत (हंसावली)श्रीधर (रणमल्ल छंद)दलपत (खुमांण रासौ)नलसिंह (विजयपाल रासौ) आदि का उल्लेख करते हैं(वही, 659)। इसके अलावा लोकसाहित्य की विभिन्न विधाओं यथा लोकगीतलोकगाथालोककथा आदि के माध्यम से भी जनमानस के भावों की प्रभावी व्यंजना होती रही है। लोकसाहित्य वस्तुतः ‘श्रव्य’ और ‘अलिखित’ साहित्य है जो ‘अभिजात्य’ या ‘शिष्ट’ साहित्य की भांति कृत्रिम बंधनों में नहीं बंधा होता परंतु भावों की व्यंजना की दृष्टि से लोकसाहित्य अभिजात्य साहित्य से कहीं अधिक प्रभावी होता है। लोकसाहित्य की एक जनजीवन से जुड़ी बेहद लोकप्रिय विधा ‘लोकगाथाएँ’ हैं जिनमें माटी की सौंधी महक है। लोकगाथा गेय परंपरा एवं विषयगत विविधता से परिपूर्ण अमूल्य विधा है जिसमें लोकनायकोंशासकों व सामन्तों से लेकर मानव-मात्र के कल्याणार्थ प्राणोत्सर्ग करने वाले असंख्य वीरों के बखान के साथ ही नीति-व्यवहार का ज्ञान देने वाली गाथाएँ शामिल हैं। लोकसाहित्य की अन्य विधाओं की भांति राजस्थानी लोकगाथाओं की सबल परंपरा रही है। 

राजस्थान में पचास के लगभग लोकगाथाएँ प्रचलित हैं और वर्तमान में भी इन्हें उत्साह और चाव के साथ सुना जाता है। लोकगाथाओं के रचयिता अनाम हैं तत्पश्चात् लोक अपनी सुविधानुसार इनमें स्वयं की निश्रृत भावना जोड़ता गया। इनकी प्रमुख विशेषताओं में इनके रचयिता का अज्ञात होनाआरंभ करते समय मंगलाचरणलोकवाद्यों की संगतस्थानीय रंगतगद्य-पद्य का मेल आदि गिनी जा सकती हैं। इनमें गीति तत्व एक आवश्यक अंग होता है जो तात्कालिक इतिहास को भी स्वयं में समाहित किये हुए होती हैं। हालांकि इसमें इतिहास के साथ कल्पनाएँ भी काफी हद तक मिश्रित हो गई हैं। जैसा कि कहा गया है- लोकगाथा के गायकों के लिए ‘इतिहास’ साध्य नहीं हैवह तो केवल साधन मात्र है। उनका मुख्य उद्देश्य लोकमानस को रिझाना होता है। 

पीढ़ियों से श्रुतिपरंपरा के माध्यम से अनवरत चली आ रही समृद्ध परंपरा के रूप में राजस्थानी लोकगाथाएँ सांस्कृतिक जीवन का प्रतिबिम्ब हैं और इनमें लोकजीवन के आदर्शधार्मिक आस्थासामाजिक अनुष्ठानलोकविश्वासपर्वमान्यताएँदर्शनलोकनीति आदि समाविष्ट रहते हैं। लोकगाथाओं का उद्देश्य केवल लोकानुरंजन नहीं है अपितु इनके माध्यम से लोक अपने आदर्श नर-नारी रत्नों को जीवित रखता है। लोकगाथाओं की विषयगत विविधता लोकजीवन से संबंधित अनेक पक्षों की झलक प्रदान करती है। लोकगाथाएँ लोकसम्पति हैं और मौखिक परंपरा में जीवित रहती हैं। सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही मौखिक परंपरा ही इनकी ताकत है। इन्हें कथागीत और अभिनय की अद्भुत त्रिवेणी और संगम कहा जा सकता है। 

ग्राम्य जीवन में कृषि आदि कार्यों से मुक्त होकर संध्या को चौपालों पर एकत्र होकर लोकगाथाओं को सुनने की परंपरा रही है। आकार की दृष्टि से ये लघु से लेकर कई-कई रातों तक चलने वाली होती हैं। लोकगाथाओं को कहने वाला इतना वाक्निपुण होता है कि शब्दों एवं स्वाभिनय के माध्यम से गाथा की पृष्ठभूमि को मानस पर किसी दृश्यावली की भांति अंकित करता जाता है और तल्लीन श्रोता विभिन्न चरित्रों को स्वयं के सामने उपस्थित सा अनुभव करने लगते हैं। कथाओं को कहने वाला ‘वाचक’ लोक में ‘बातपोस’ कहा जाता है। लोकगाथा आरंभ करने से पूर्व सरस वातावरण बनाने के लिए कुछ पद्यनुमा कथनों में देवी-देवताओं की स्तुति की जाती हैजिसे ‘मंगलाचरण’ कहा जाता है। कुछेक गाथाओं में देवी-देवताओं की स्तुति के साथ पीर-पैगम्बरों का भी स्मरण किया जाता है। मंगलाचरण में सद् आदर्शों एवं सदुद्देश्य को व्यक्त किया जाता है। लोकगाथाओं में गाथा के साथ-साथ कथानक रूढ़ियाँ सम्प्रेषणीयता व सरसता में अभिवृद्धि करती हैं। सामान्यतया लोकगाथा का अधिकांश भाग गीत अथवा पद्यात्मक रूप में होता है पर बीच-बीच में गद्य भाग भी होता है। उक्त गद्य खण्ड गाई जा रही गाथा के सूत्र जोड़ने का कार्य करता है। इससे गाथा के गायक के कण्ठों को भी किंचित विश्राम मिलता है। प्रत्येक लोकगाथा के साथ कोई न कोई वाद्य यंत्र अवश्य जुड़ा होता है जिसकी संगत से गाथा प्रस्तुत की जाती है। 

राजस्थानी लोकगाथाओं के साथ कुछेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे पाबूजीबगड़ावत और देवनारायण लोकगाथाओं के साथ ‘पड़’ अथवा ‘फड़’ शब्द का प्रयोग होता है जिसमें चित्रांकन के माध्यम से गाथा का गायन किया जाता है। युद्ध प्रधान लोकगाथाओं में ‘भारत’ शब्द जुड़ा होता हैजैसे काळा-गोरा रौ भारतमाताजी रौ भारतआदि। इसी प्रकार ‘ब्यावलो’ नाम जुड़ी हुई गाथाओं में चरित्रनायक के जन्म से लेकर विवाह तक की घटनाओं का सरस चित्रण मिलता है। 

लोकगाथाएँ अपनी विषयवस्तु के अनुरूप श्रोताओं के हृद्य में रस-भाव जागृत करती हैं और वह स्वयं को प्रस्तुत लोकगाथा के किसी पात्र के साथ जुड़ा अनुभव करता है। विषयवस्तु की दृष्टि से राजस्थानी लोकगाथाओं को वीरतत्व व्यंजक गाथाओंप्रेम-प्रधान गाथाओंपौराणिक गाथाओं तथा भक्तिपरक गाथाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्रेमप्रधान लोकगाथाओं जैसे ढोला-मारूनिहालदे-सुलतानजलाल-बूबनाआदि में श्रोता स्वयं को नायक अथवा नायक के प्रेम से जोड़कर उसमें तल्लीन हो जाता है। इसी प्रकार वीरता प्रधान लोकगाथाओं के चरित्र शौर्य के भाव जाग्रत करते हैं। धार्मिक लोकगाथाओं का स्वरूप अध्यात्म की भावना में अभिवृद्धि करता है। इनमें गोपीचंदभरथरीरामदेवजीगोगाजीतेजाजीगोगाजी आदि की लोकगाथाएँ प्रमुख हैं। राजस्थानी की समस्त लोकगाथाओं में गद्य-पद्य का मेल मिलता है। इनमें गाथा के साथ-साथ नृत्य और संगीत भी चलता रहता है। 

ये गाथाएँ भले ही पुरातन हैं पर इनमें वर्तमान युग के चितराम भी प्रसंगानुसार चित्रित होते रहते हैं और इनके माध्यम से पुराने आदर्शों के साथ नवीन विषय जोड़कर सामाजिक सरोकार का भी निर्वाह भली-भांति किया जाता है। नूतन और पुरातन को जोड़ने वाली ये गाथाएँ एक सबल और सफल विधा के रूप में समाज में प्रतिष्ठित हैं। पराप्राकृतिक तत्वों के वर्णन से ये गाथाएँ सम्पूर्ण ब्रहृाण्ड से जुड़ जाती हैं और सामान्य लोकमानस के माध्यम से यह भाव प्रकट करती हैं कि पराप्राकृतिक तत्व (अतिमानवीय भूत-प्रेतदैत्यदेवी-देवता आदि) किस स्थिति तक मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। राजस्थानी लोकगाथाओं से जुड़े कई अभिप्राय लोकधारणाओं एवं लोकमानस का बोध कराते हैं। जैसे पाबूजी की गाथा के अनुसार पाबूजी जींदराव खींची से लड़ते हुए अपनी घोड़ी केसर सहित आकाश में चले गए और अभी तक वहीं हैं। धरती से आकाश तक पहुंचने की यह घटना पाबू राठौड़ को सामान्य वीर से लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित कर देती है। राजस्थानी लोकगाथाओं में मुख्य कथा के साथ कई छोटी-छोटी उपकथाएँ भी मिलती हैं जो लोकगाथा के स्वरूप में अभिवृद्धि करते हैं। प्रायः ये सभी गाथाएँ मनुष्य को सामान्य से विशिष्ट बनने का मार्ग बताती हैं। 

इस प्रकार गाथाएँ रसात्मक स्थलों द्वारा हृदय की रागात्मक वृत्तियों- रतिशोककरुणा आदि का संतोष और प्रतिपूर्ति करती हैं। लोकगाथाएँ लोक वांड़्गमय की अनमोल धरोहर है और इनमें विषय वैविध्य है। मनुष्य जीवन के उल्लासहर्ष-विषाद और अन्य भाव इनमें समाये हुए हैं। इन गाथाओं में सरल सा काव्य होता है और भावों की अधिक खींचतान नहीं होती। अभिव्यक्ति की इसी सहजतागेयता और संगीतात्मकता के कारण ये गाथाएँ दर्शकों को भाव विभोर कर देती हैं और उसमें रागात्मक भावों की सृष्टि करती हैं। लोकगाथाएँ लोकमानस की कालजयी यात्रा का जय स्तम्भ हैं। ये गााथाएँ सहजतासरलता और रागात्मकता से रंगी हुई बोधगम्यमौलिक और मधुर रचनाएँ हैं। इनके माध्यम से लोक ने अपने जीवन की गीतिमय अभिव्यक्ति दी है। यही इनके कालजयी होने का आधार है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से सामाजिक संरचनामनोविज्ञान की दृष्टि से मन की गहराइयों अर इतिहास की दृष्टि से यथार्थ समझना है तो हमें लोकगाथाओं के महासागर में उतरना पड़ेगा। स्पष्ट है कि अपने विषय से लेकर कथनगीतसंगीत और नृत्य और अभिनेयता तक की लोकगाथाओं की विशिष्ट शैली लोक साहित्य का एक जीवन्त और सांस्कृतिक स्वरूप प्रकट करती है। 

वस्तुतः विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट होता है कि जन-मन के अनुरंजन में लोकगाथाओं का प्रधान स्थान रहा है। यही कारण है कि ये हमारे जीवन का चिरकाल से ही अंग बनी हुई हैं। इनकी प्राचीनता की दृष्टि से देखें तो वैदिक काल से लेकर आज तक इनकी धारा अक्षुण्ण रीति से प्रवाहित होती आ रही है। डॉ. सोहनदान चारण के अनुसार भारत भूमि पर अत्यन्त प्राचीन काल से चरित-गाथाओंयज्ञ-गाथाओंनीति-गाथाओं तथा साहित्यिक गाथाओं का प्रचलन रहा है। प्राचीन काल में सम्पूर्ण भारतवर्ष विश्व कथा साहित्य में अग्रणी रहा था तो मध्यकाल में इसका प्रदेश राजस्थान भारतीय गाथा साहित्य में अग्रणी रहा है (2016: 196)। इसका प्रभाव आधुनिक साहित्य पर भी पड़ा है और समकालीन लेखकों ने परम्परागत कथा और गाथा साहित्य की संप्रेषण क्षमता को अपना आदर्श माना है। राजस्थानी के आरम्भिक कथाकारों का साहित्य लोकगाथाओं के प्रभाव से अछूता नहीं है और इनके कथानकों में कथा साहित्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। डॉ. रामकुमार गरवा(1986: 169)ने इसे इंगित करते हुए लिखा है कि आधुनिक राजस्थानी साहित्य में आज भी कभी-कभी पुरानी गद्य परम्परा के अन्तर्गत ऐतिहासिक बातों में प्राचीन शैली के दर्शन होते हैं। आधुनिक राजस्थानी कहानियों पर लोकगाथा साहित्य का भरपूर प्रभाव पड़ा क्योंकि परम्परागत कथाएँ श्रोताओं को रसानुभूति प्रदान करने में बेजोड़ हैं। 

शिल्प शैली एवं भाव-बोध के स्तर पर आधुनिक होते हुए भी आधुनिक राजस्थानी कहानी वात साहित्य’ से एकदम भिन्न नहीं है। राजस्थानी साहित्य के विद्वान डॉ. चेतन स्वामी गाथा साहित्य का आधुनिक राजस्थानी साहित्य पर प्रभाव रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि, ‘आधुनिक राजस्थानी कहानियों में स्थित वात-रस को उसकी पारंपरिक पहचान से जोड़कर ही नृसिंह राजपुरोहित ने इसे अभिव्यक्ति से स्तर पर अलग मठोठ’ (विशिष्टता) का नाम दिया है। राजस्थानी के प्रारंभिक कथाकारों की कहानियों में यह गुण सर्वत्र मिलता है। वात-रस की प्रधानता के कारण ही नृसिंह राजपुरोहितनानूराम संस्कर्ताअन्नाराम सुदामामूलचंद प्राणेश आदि लेखकों की कहानियों को समाज के किन्हीं कथा-प्रेमी लोगों के बीच में बैठकर सस्वर पाठ कर सुनाया जा सकता है क्योंकि ये कहानियां सुनने वालों को लोककथा की ही भांति आनंदित एवं उत्फुल्लित करती हैं’ (स्वामी 2000: 63)। अनेक आधुनिक राजस्थानी कथाकारों के कथा साहित्य पर लोकगाथाओं का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इनमें विजयदान देथाडॉ. मनोहर शर्मारानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावतनृसिंह राजपुरोहित आदि उल्लेखयोग्य हैं। विजयदान देथा लोककथाओं के माध्यम से राजस्थानी साहित्य में प्रविष्ट हुए और राजस्थान की लोकप्रिय कथाओं को लिपिबद्ध स्वरूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने गाथाओं जैसे श्रुतिनिष्ठ राजस्थानी गद्य को अपनी लेखनी के माध्यम से मुखरित किया है। उन्होंने सत्तर के दशक में राजस्थानी लोककथाओं को संग्रह ‘बातां री फुलवाड़ी’ के रूप में प्रस्तुत किया। देथा के लोककथा विषयक योगदान को रेखांकित करते हुए विद्वान डॉ. रामकुमार गरवा लिखते हैं कि देथा ने राजस्थानी जन-समाज की सांस्कृतिक एवं लौकिक अनुभूति को इन कथाओं में साकार किया है। सफल कथाकार के कथा साहित्य में जिन विशिष्ट शैलियों की अपेक्षा की जाती हैवे सब श्री देथा के कथा साहित्य में देखने को मिलती है (1986: 225)। विजयदान देथा के अलावा डॉ. मनोहर शर्मा ने भी लोककथाओं के माध्यम से राजस्थानी संस्कृति को पुनर्जीवित करने का यत्न किया है। इनके साहित्यिक अवदान को रेखांकित करते हुए डॉ. रामकुमार गरवा(वही, 235) लिखते हैं कि डॉ. शर्मा की कहानियों का आधार लोककथाएँ हैं। लेखक ने इन कहानियों को सजाकर एक नया रूप प्रदान किया है। 

लोकगाथाओं को लिपिबद्ध रूप और मौलिकता के साथ प्रस्तुत करने में रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत का योगदान महत्त्वपूर्ण है। उनका अधिकांश लेखन ही लोकगाथाओं को समर्पित रहा है। उनके प्रसिद्ध लोकगाथा संग्रह ‘राजस्थानी लोकगाथा’ में दस तथा ‘गिर ऊँचा ऊँचा गढ़ां’ (2006) में तीस लोकगाथाएँ संकलित हैं। इनके अलावा रानी लक्ष्मीकुमारी ने ‘मांझल रात’ और ‘बगड़ावत गाथा’ को भी पुस्तक रूप (राजस्थानी लोकगाथा, 2006)में प्रस्तुत किया है। नृसिंह राजपुरोहित भी राजस्थानी कथा साहित्य क्षेत्र के नामी रचनाकार हैं। उनकी आरंभिक कहानियों पर लोकगाथा की छाप स्पष्ट रूप से अंकित है। उनके योगदान को रेखांकित करते हुए डॉ. चेतन स्वामी (2000: 66) लिखते हैं कि नृसिंह राजपुरोहित ने अपनी बहुधा कहानियों को लोकगीतहरजसलोककहावतों और मुहावरों से सजाया है। वे इन चीजों का सांस्कृतिक महत्त्व उजागर करते हैं। राजस्थानी भाषा में अनेक विषयों और शैलियों से युक्त लोकगाथाएँ उपलब्ध होती हैं। कलेवर और विषयवस्तु के आधार पर लोकगाथाओं को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। डॉ. सोहनदान चारण ‘बगड़ावत’‘पाबूजी’‘निहालदे-सुलतान’ आदि को वृहत् गाथाओं तथा ‘डूंगजी-जवारजी’ और ‘गोपीचंद भतृहरि’ आदि को लघु गाथाओं की श्रेणी में गिनते हैं(2016: 204)। विषवस्तु की दृष्टि से वे राजस्थानी लोकगाथाओं को चार श्रेणियों प्रेम-प्रधानवीरत्व-व्यंजकपौराणिक और भक्तिपरक लोकगाथाओं में विभाजित करते हैं(वही, 207)। मौलिक कथाओं के साथ ही संस्कृत और फारसी आदि कथाओं के अनेक अनुवाद भी मिल जाते हैं। रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियों को ‘रवि ठाकर री बातां’ (2006)शीर्षक से राजस्थानी में अनुवादित भी किया है (गरवा 1986: 246)। अनेक शोधकार्य भी राजस्थानी लोकगाथाओं पर पूर्व में हो चुके हैं जिनमें डॉ. भरत ओळा का लघुशोध ‘गोगा गाथा’(2015)व मनोहर शर्मा का शोध राजस्थानी वात साहित्य: एक अध्ययनप्रमुख हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में लोकसाहित्य को यथोचित सम्मानजनक स्थान अनवरत प्रदत्त होता रहा है और भारत के एक प्रांत की समृद्ध भाषा राजस्थानी के लोकसाहित्य में भी इसी परंपरा का समुचित निर्वहन किया गया है।


[1] ब्राहृमण ग्रंथ: यह नामकरण जातीय आधार पर किया गया क्योंकि माना जाता है कि उस समय अधिकांश ग्रंथ रचनाकार ब्राहृमण थे। इन्हें अलग-अलग कई और नाम भी दिये गये। डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी के आलेख ‘संस्कृत साहित्य में लोकोन्मुखता’ (1987: 32) में इस भारतीय लोकसाहित्य परम्परा पर लिखते हुए इसके क्रमगत विकास को ब्राहृमणआरण्यक और उपनिषद साहित्य के रूप में दर्शाया गया है। इनके अनुसार ऐतरेय ब्राहृमण ग्रंथ व शत्पथ ब्राह्मण ग्रंथ इनके दो प्रमुख प्रकार हैं।

[2] चारण, 2016, पृ.192 से उद्धृत्

[3] वही,पृ. 192-193 से उद्धृत्

[4] A handbook of literature (Ballad) by F.B. Gummer, चारण, 2016, पृ. 193 से उद्धृत् 

[5] वही, पृ. 193 से उद्धृत्

[6] वही, पृ.193से उद्धृत्

[7] वही, पृ.193से उद्धृत्

[8] वही, पृ. 200 से उद्धृत्

[9] स्वामी, 2010, पृ. 37 से उद्धृत्

 

संदर्भ ग्रंथ सूची:- 

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गरवारामकुमार. राजस्थानी गद्य शैली का विकास,प्रथम संस्करण. जयपुर (राज.): देवनागर प्रकाशन, 1986

चारणसोहनदास. राजस्थानी लोकसाहित्य का सैद्धांतिक विवेचन,द्वितीय संस्करण. जोधपुर (राज.): राजस्थानी ग्रंथागार, 2016.

चूंडावतरानी लक्ष्मीकुमारी. गिर ऊँचा ऊँचा गढ़ाँ,पंचम संस्करण. जोधपुर (राज.): राजस्थानी ग्रंथागार, 2006.

चूंडावतरानी लक्ष्मीकुमारी. राजस्थानी लोकगाथा,पंचम संस्करण. जोधपुर (राज.): राजस्थानी ग्रंथागार, 2006

त्रिपाठी, कमलेश दत्त. ‘संस्कृत साहित्य में लोकोन्मुखता.’पुस्तक: लोकसंस्कृति: आयाम एवं परिप्रेक्ष्य, सम्पादक महावीर अग्रवाल, 28-34. भोपालशंकर प्रकाशन, 1987

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शर्मामनोहर. राजस्थानी वात साहित्य: एक अध्ययन.’ जोधपुर (राज.): राजस्थानी ग्रंथागार.

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