गोगा गाथा अथवा ‘गोगाजी रौ झेड़ौ’ के मूल गेय पद एवं हिन्दी भावार्थ

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Published on: 24 September 2019

डॉ सतपाल सिंह (Dr Satpal Singh)

डॉ सतपाल सिंह ने हिंदी, राजस्थानी और भूगोल में अपना एम.ए किया है और वह पीएच.डी शोधकर्ता है| उनकी पुस्तक ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’ 2015 में प्रकाशित हुई थी और भारतीय भाषाओं के लोक सर्वेक्षण के राजस्थान संस्करण में राजस्थानी भाषाओं की चार बोलिओं पर हिंदी व अंग्रेजी में शोध प्रकाशित हुआ (2015–16)

गोगाजी लोकदेवता के रूप में राजस्थान ही नहीं अपितु समीपवर्ती हरियाणापंजाबपश्चिमी उत्तरप्रदेशदिल्ली और मध्यप्रदेश तक पूजे जाते हैं। इनसे जुड़ी हुई लोकगाथा भी इन क्षेत्रों में प्रचलित भाषाओं और बोलियों में गाई जाती हैं जिसे गोगा गाथागोगाजी रौ झेड़ौ /झड़ौगोगाजी रौ झोड़बागड़ की लड़ाई आदि नामों से जाना जाता है। वस्तुतः ये सभी नाम गोगाजी की लोकप्रचलित गाथा के विविध नाम हैं जो राजस्थानी भाषा के साथ-साथ पंजाबीहरियाणवीब्रज और खड़ी बोली में प्रचलित हैं। यह गाथा भी विविध बोलियों में प्रचलित है। 

गाथा का अर्थ गेय अथवा गाये जाने वाले किस्से से होता है। गोगाजी की यह गाथा भी गेयता के गुणों से भरी-पूरी है और लोकगाथा के तमाम गुण इसमें मिलते हैं। गोगाजी के जागरण में समैये (लोकगायक), डैरूँझाँझ और थाली आदि वाद्ययंत्रों की संगत के साथ यह झेड़ा (गाथा) गाते हैं। गोगाजी की गाथा पश्चिमी राजस्थान में इस क्रम के अनुसार गाई जाती है कि इसका आरम्भ गोगाजी के गुरू गोरखानाथ के वर्णन से होता है जो काँगरू प्रदेश में धूनी लगाये हुए योगसाधना कर रहे होते हैं। यहाँ गोगा गाथा का राजस्थानी भाषा में लोकप्रचलित पाठ हिन्दी भावार्थ सहित प्रस्तुत है जिसमें प्रसंगानुरुप खड़ी बोली तथा हरियाणवी बोलियों को प्रयुक्त किया गया है- 

बारहा बरसा गी निंदरा में सोग्या गुरु गोरख जोगी

ओ जोगी मेरा सूत्यै नै कौण जगावै

बारह बरस सूं लियौ मसकोड़ो  

नाथ गुरु गोरख जोगी।।

गोरख- चेला मेरा है कोई गुरु का

हाथ-पगां गै लगी रै बीलणी

माथै चढ़ी मथवार

कोई मेरो भगत सतावै

अेडी तो धरणी गै लगाले

लगाले नाथ कणीपा चेला

चेला मेरा चोटी लाई असमान

नाथ कणीपा चेला

चेला मेरा देखिया बागड़ू अर बंगाल

कणीपा- गढ़ दादर मांय बाछल तापै

नाथ गुरु गोरख जागी 

गुरु मेरा वा तो करै रै संताप

नाथ गुरु जोगी देवै रै सराप।।

भावार्थ:- इस गाथा के आरम्भ में बारह वर्षों की लम्बी आराधना में लगे गुरु गोरखनाथ को अपने शिष्यों के माध्यम से दूर प्राँत में उनकी आराधना कर रही ददरेवा शासक जेवर चौहान की रानी बाछल के बारे में जब पता चलता है तो वे उसका दुःख जानने का यत्न करते हैं। इसके पश्चात् वे अपनी शिष्य मँडली सहित बागड़ प्रदेश में स्थित ददरेवा राज्य की तरफ प्रस्थान कर देते हैं। इससे आगे का प्रसंग इस प्रकार गाया जाता है-

गोरख- चालो चालो बागड़ रे चालां

बागड़ देसां-देसां बाछल माता रै- बाछल माता रै

करती जोगियाँ गी बा सेवा रे

बोल्या सिध कणीपा चेला- बागड़ देस्यां रूंख रे नाहीं।

बागड़ देसां रूंख रे नाहीं रे।। 

बैठण ने गुरु! छाया रे नांही रे- छाया रे नांही रे।।

बोल्या सिध गोरख जोगी

ओ पाणी मांग्या दूध रै पिलावै

ओ बाछल करती जोगीड़ां गी सेवा रे

चालो चेलो बागड़ रे चालां- चालो चेलो बागड़ रे चालां

सेवा लगाई बाछल माता रे

नौ नाथ री या सेवा रे- नौ नाथ री या सेवा रे

मूंग-चावळ गी भिक्षा ल्याई रे

रे ले-ले रावळा जोगी रे हां- ले रावळा जोगी रे हां।। 

कंकर पत्थर भर ल्याई अे माता 

मैं के बावड़ी चिणाऊं रे हां- मैं के बावड़ी चिणाऊं रे हां

बासी ते बासी टुकड़ा ल्यादो

थारै बाळकां गा जूंठा रे हां- थारै बाळकां गा जूंठा रे हां।

पुतर गा नाम सुण पावै रै

बाछल झरबर रौवै रे हां- बाछल झरबर रौवै रे हां

बासी तो कासी कठै सूं ल्याऊं 

मेरै कोनी याणा-सयाणा

साच बताद्यो बाछल माता रे हां

तैं जोगी कोण- सा सेया रे हां

तिणजी रे सूकी मेरी काया

जोगी तिणधारी सेया रे हां

लकड़ होगी मेरी काया रे

जोगी लकड़नाथ सेया रे हां

साच बताद्यो बाछल माता रे

तैं जोगी कौण सा सेया रे हां

ठिक्कर होगी मेरी काया रे 

रे जोगी ठिक्करनाथ सेया रे हां

धूणै मांय रळगी मेरी काया

रे जोगी धूणै धारी सेया रे हां

साच बताद्यो बाछल माता रे 

जोगी कौणसा सेया रे हां

हरियल होज्या तेरी काया रे 

गुरु गोरख जी रे वचनां रे हां।

भावार्थ:- गुरु गोरखनाथ के शिष्य कणीपानाथ माता बाछल को बताते हैं कि आपके बागों में गुरू गोरखनाथ अपने शिष्यों के साथ आए हुए हैं। आप संतान प्राप्ति के लिए उनकी आराधना करो। इसके बाद माता बाछल गुरू गोरख की सेवा-टहल करती हैं और नाना प्रकार के व्यंजन लेकर प्रस्तुत होती हैं जिसे गोरख अपने योगी होने का कहकर अस्वीकार करते हैं। बाछल के अनुनय के उपरांत वे इन्हें स्वीकार करते हैं। 

इस प्रवास के दौरान उनकी भक्ति-भावना से प्रसन्न होकर गुरू गोरखनाथ बाछल को अपने प्रस्थान के समय से पहले वरदान देने को कहते हैं और उसे ब्रह्ममुहूर्त में आने हेतु कहते हैं। प्रसन्न बाछल महलों में आती है और अपनी बहिन काछल को भी यह बात बता देती हैं जो निःसंतान थी। काछल वर के समय बाछल के कपड़े पहनकर गुरू गोरखनाथ के यहाँ नियत समय पर चली जाती है। गोरख उसे संतानवती होने के आशीर्वाद स्वरूप दो जौ के दाने देते हैं। उसके जाने के बाद वस्तुस्थिति से अनजान बाछल गोरखनाथ के धूणे पर जाती है तो वे उससे आने का कारण पूछते हैं। उसके बाद सारी स्थिति समझकर गुरू गोरखनाथ भगवान शिव का ध्यान करते हैं और उनके कहे अनुसार नागलोक के राजा बासुकी से एक पुत्र माँगकर लाते हैं। उनके आशीर्वाद के कारण भविष्य में गोगाजी का जन्म हुआ जो वासुकी नाग का अवतार भी माने जाते हैं। गोरखनाथ के दिए प्रसाद के अंश से ही गोगाजी के सहयोगी नरसिंह पांडेभज्जू कोतवाल और उनके घोड़े लीले का जन्म हुआ।

इससे आगे की गाथा में अपने परिजनों के कान भरने पर राजा जेवर अपनी गर्भवती पत्नी से रुष्ट होकर उसे पीहर जाने का कहते हैं। प्रस्थान के समय गर्भावस्था में पल रहे गोगाजी अपना चमत्कार दिखाते हैं और रानी बाछल को ले जा रहा रथ तिल भर भी अपने स्थान से आगे नहीं सरकता। राजा जेवर यह देखकर रानी बाछल को अपने महलों में वापिस बुला लेते हैं। इसके बाद नियत समय पर माता बाछल को मिले गोरखनाथ के वरदानस्वरूप गोगा का जन्म होता है। गोगा गाथा में यह जन्मप्रसंग इस प्रकार गाया जाता है-

जन्म होया राणै गाजन्म होया मैं वारी जन्म होया रे।

गूगा का जनम होया रे 

जनम्या रे मंडली का राव

जनम होया गूगै का जनम होया रे।।

अे नीं दोड़ौ-दोड़ौ रूपा बांदी मैं वारी

दोड़ौ नीं दोड़ौ अे रूपा बांदिया

अे जी राजा जेवर बाळै जनम लिया जी

आपणै महलां सूं बांदी चाली मैं वारी

आपणै महलां सूं बांदी चाली मैं वारी

अे नीं चली आवै ओ सुंदर दाई गी पोळ 

सोवै कै जागै सुन्दर दाई गी पोळ

सोवै कै जागै सुंदर दाई जी ओ

अे जी दाई बाई राजा जेवर घर चालो जी ओ

राजा जेवर कै बाळै जलम लिया जी रे हां

आंखां आंधीजीभां तोतळी मैं वारी

कानां सूं दाई नै सुणता नांय

हाथ-पगां सूं दाई पांगळी जी रे हां

अे नीं लहंगा पहर्या गुजरात का मैं वारी

ओढ्या ओ दिखणी गा चीर

महलां सूं दाइ चालगी जी रे

हाथ लठोरी ले ली जी बांस गी जी रे हां

अे नीं चली आवै बजारो-बजार

अजी रूड़ती-पड़ती दाई आयगी जी रे हां

पहली पैड़ी पर दाई पग धर्या मैं वारी 

खुल गयी पगलां गी टूंट

परचा लगावै गूगा राव।

दूजी पैड़ी पर पग धर्या मैं वारी 

खुली गयी मुखड़ै गी जबान 

हां रे खुल गयी मुखड़ै गी जबान।

परचा लगावै गूगा लाडला रे हां।।

तीजी पैड़ी पर पग धर्या मैं वारी

खुल गई कानां गी डाट

हां रे खुल गई कानां गी डाट।

परचा लगावै गूगा लाडला रै हां।।

अे नीं सोनल करद मंगालिया दाई नै

सोनल करद मंगाय लिया।

अे नीं लिया हो गूगै गा नाळा छील

जी ओ गूगै का नाळा छील।

अे नीं नहाय लिया गूगा राणा।

नहाय लिया जी रे हां

अे नीं कूंडै जी ओ घालो मोहर पचास-

सोनै सपारी रिपिया डेढ़ सै जी रे हां

सखियां मंगळ गाय री मैं वारी

अे नीं महलां में बाजै सोनल थाळ

मंगळस गावै सहेलियां जी रे 

दानज देइयै घर गै बामणां रै

देणा जी गऊओं का दान 

अे नीं देणा जी गऊओं का दान।

दानज देइयै घर के चारणां जी रे

देणां सवरण का दान

दानज देइयै घर के ढोलिया जी

देणां जी घोड़ला गा दान

अे नीं सवाई-बधाई जायर की हो रही जी।।राजा जेवर के यहाँ पुत्रप्राप्ति के बाद हर्षोल्लास छाया हुआ है और इधर योगी गोरखनाथ अनेक क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए गंगा के मैदान में स्थित राज्य धूपा में पहुँच जाते हैं जहाँ राजा सिंझ्या का शासन था। गोरखनाथ से जुड़ा यह प्रसंग गोगा गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

छोड़ा बागड़ नै जोगी चाल्यो

आयो रै कजळी बन मांय।

कजळी बनां सूं जोगी का चालणा रे

आया-आया रे राजा सिंझ्या रै बाग

सौ-सौ बरसां गा कुआ डाट्योड़ा 

सूखा रे पड़्या राजा सिंझ्या गा बाग 

पगां गी खड़ाऊ नाथ गुरु जोगी खोल दी

सींचै-सींचै रै सूखेड़ा बाग

बागां में बोल्या सूआ-कोयलड़ी 

बोलण में लाग्या दादर मोर 

झोळी तो टांगी सूखै लाकड़ी रै

हरियल होग्या राजा सिंझ्या रा बाग।

सिंझ्या तो सूत्यो रंगमहल में राणी तारादे घाले बाळ 

आज तो बागां में क्यांगो च्यानणो अे तारादे राणी 

क्यांगी तो होवै कागारोळ

आज तो बागां में जोगी उतर्या ओ राजा

बांगी तो होवै जै-जैकार

घुड़लौ ल्यादै तारादे राणी

पांचूं ही ल्यादे हथियार।।

पर रानी तारादे राजा सिंझ्या को गोरखनाथ की ख्याति से अवगत करवाती है और उसे साथ ले जाकर योगी और उनके शिष्यों की खूब आवभगत करती है। निःसंतान राजा और रानी को गुरू गोरखनाथ संतान होने का आशीर्वाद देते हैं और समय बीतने के बाद रानी तारादे की कोख से पुत्री के रूप में सरियल का जन्म होता है। वह जब युवा होती है तो राजा सिंझ्या योग्य वर की तलाश में पुरोहित को सगाई का नारियल देकर ददरेवा रवाना करते हैं। यह प्रसंग गोगा गाथा में इस प्रकार गाया जाता है -

धूपा नगरी से दादा चल्या भाइयो

ओहो गढ़ ददरेवै चल्या आवणा रे

दादा जोसी चाल्या मधरी चाल 

पांय उठावै-उठावै दादर मोर ज्यूं रे

बामण दादा किण रा तो ल्याया रे नारेळ

किण रा तो ल्याया टीको सोवणो रे हां

भाई मेरा राजा सिंझ्या रा नारेळ

गोगै राणा गो टीको सोवणौ रे हां।’

गोगा सगाई का नारियल ग्रहण करते हैं पर उनकी माता बाछल को यह पसंद नहीं आता। वह गोगा का विवाह इतनी दूर करने के पक्ष में नहीं है लेकिन गोगा अपनी माता को अंततः मना लेते हैं। इसके बाद ददरेवा गढ़ में हर्षोल्लास छा जाता है। गोगा विवाह की तैयारियाँ आरम्भ करते हैं। विवाह में गुरू गोरखनाथ को आमंत्रित करने के लिए वे अपनी माता बाछल के साथ उनका स्मरण करते हैं। गोरखनाथ अपनी शक्ति से उनके मन की बात ज्ञात कर लेते हैं और अपने शिष्यों के साथ ददरेवा जाने की तैयारियाँ करते हैं। यह प्रसंग गोगा गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

नाथ कणीया चेला! अेडी तो धरणी गै लगाले

चोटी लाई रे असमान

पूरब देखिआ पछिम देखिआ 

देखिआ बागड़ और बंगाल

नाथ कणीआ चेला! ऊंचो तो चढ़ देखिआ

कुण म्हारो भगत सतावियो रे हां

नाथ गुरु गोरख जोगी सुखी तो बसै रे बागड़ देस

कळप रही रे अम्मा बाछला

गुरुजी थारै चेलै गो मंड्यो है ब्याह

कळप रही अम्मा बाछला

नाथ कणिया चेला! ल्याओ मेरा उडन खटोला

जाय तो उतरां राजा झेवर गै बाग रे हां

अम्मा बाछल नव तो महलां चढ़ देख

कठै तो आवै गुरु गोरखा

गोगा राणा धिन्न थारो गुरु गोरखनाथ

जिण तो उपायो गोगो लाडलो

जाहर राणा धिन्न थारी बाछल मांय

कूख तो खेलायो गोगो लाडलो

जाहर राणा धिन्न थारी सरियल रो भाग

गोगा सरिखा वर पाविया रे हां

सैंया म्हारी गाओ-गाओ अे मंगळाचार

भूआ ओ छबीली करदे आरतो

लाडला रे लागी नगारां बम ठोर

जान चढ़ै गोगा पीर गी रे हां।। 

गोगा के विवाह में गुरु गोरखनाथ नौ नाथ और चौरासी सिद्धों के साथ बारात में जाते हैं और गोगा का विवाह सम्पन्न करवाते हैं। गोगा राजकुमारी सरियल के साथ विवाह करके ददरेवा वापिस आ जाते हैं। कुछ समय बीतने के बाद गोगा के पिता जेवर का देहान्त हो जाता है और ददरेवा के राज की जिम्मेदारी गोगा पर आ जाती है। गोगा के राज्यारोहण से उनके मौसेरे भाई अरजन-सरजन असंतुष्ट थे और वे अपने ठिकाने के गाँव जोड़ी से ददरेवा आकर अपनी मौसी तथा गोगा की माता बाछल से संवाद करके अपना असंतोष प्रकट करते हैं। गोगा गाथा में जोड़ों (अरजन-सरजन का लोकप्रचलित नाम) और माता बाछल का यह संवाद इस प्रकार गाया जाता है-

जोड़ी सूं जोड़ां टुर लिया रे दोवूं भाई

आग्या दादर गाम राजा जी।

मूढलै बैठी माता बाछला रे धन जोड़ा जी

जोड़ां नै भरली सलाम माता जी 

माता केवां कै मौसी अै माताजी

लागै धरमगी माय माताजी 

आधा बिस्वा बांट दे मेरी माताजी

आधी गढ़ गी नींव मेरी माताजी

सीम सीमाणा बांट दे मेरी माता

आधा धन और माल

घोड़ा तो बांधो भांव रे सेल धरो रैसांण

गोगाजी गया है सिकार नै

सांझ पड़ै घर आय

बेटा रे लाल पिलंग पर बैठ जाओ

आज भौत करूंगी मनवार 

लीला घोड़ा गोगाजी टोरिया 

सुरति महल में लगाय जी

जोड़ी स्यूं जोड़ा आयग्या मेरा बेटा

करदे भाइया बरगी बात बेटा जी

लाल पिलंग पर बैठ जाओ मेरा लडला

पंखै सूं ढोळू बाळ

अेसी विखमी के बणी अे मेरी माता 

आज म्हंनै पंखै सूं ढाळौ बाळ माताजी

आधा बिस्वा बांट द्यो मेरा लडला

आधी गढ़ गी नींव

आधा सीम सीमाणा बांट द्यो

आधा धन और माल

आधा हाथी घोड़ा बांट द्यो

आधा खेत और क्यार

बिस्वा रजपूत गा मेरी माता जी

जे बल हीणा रजपूत गा

तलवारां सुँई ल्यो।।’

गोगा गाथा में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रसंग है जिसमें गोगा का प्रथम विवाद अपने मौसेरे भाइयों अरजन-सरजन से होता है। ददरेवा गढ़ में आये अपने मौसेरे भाइयों को गोगा बाग में चौपड़ खिलवाने हेतु ले जाते हैं और इसमें जीतने पर राज्य की शासन देने की बात कहते हैं। गोगा गाथा के इस भाग को गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

दणमण-दणमण रे घोड़ा टोरिया 

कोई चाल्या रे बागां नै जाय जी रे हां

हो तीनूं भाई घोड़ा टोरिया 

कोई चले रे बाग में आय जी रे हां

ओ जी गजगीरी का रे कहिए चूंतरा

सीतळ बड़ की छाया जी रे हां

झाड़ बिछाल्यो रे जोड़ो च्यानणी

खेलां चौपड़ सार जी रे हां

 पहली तो बाजी राजा अरजन बैठ्यो

पड़ रैया पक्का डांव रे हां

बारै तो मांग्या पच्चीस आया 

पड़ रैया पोबारा पच्चीस रे हां

दूजी तो बाजी राजा सरजन बैठ्यौ 

पड़ रैया पक्का डांव जी रे हां

बारै तो मांग्या पच्चीस आया रे हां

पड़ रैया पौ बारह पच्चीस रे हां

तीजी तो बाजी राजा गोगाजी बैठ्यो

गुरु गोरख नै ध्याय रे हां

म्हैं धन हारूं गुरु म्हारा जोड़ा धन जीतै

म्हांरोड़ी राड़ बधाय रे हां

बारा तो मांग्या छव डांव आय

पड़ रैया काणा डोढ डाव रे हां

पहली तो बाजी ददरेवो हार्यो

हार्यो ददरेवै गो राज रे हां।

इसके बाद गाथा में जोड़ों (अरजन-सरजन) तथा गोगाजी के युद्ध का प्रसंग आता है। इस युद्ध में वे जान बचाकर भागते हैं और गोगाजी उनका पीछा करते हैं। दोनों भाई दिल्ली बादशाह के पास जाकर शरण लेते हैं और गोगाजी की चुगली करते हैं। यह अंश गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

भरी रे कचेड़ी दिलड़ी कै मांय

जाय जोड़ा चुगली खायी रे हां

ताम्बै गो पीसो तेरै खजानै

रोक रिपियो मेड़ी जाय रे हां

मेड़ी बैठ्यो न्याय करै 

न्याय करै चौहाण रे हां

पान-पतासां गो बीड़ो फेर्यो

धर्यो कचेड़ी मांय रे हां

बारै बरस गो मुगल को लड़को

बीड़ै नै भरै सलाम रे हां

डावै हाथ सूं बीड़ो झाल्यो

द्यांणै हाथ सूं करै सलाम रे हां

ले बीड़ो घरां नै चाल्यौ

सूरत रही कुम्हलाय रे हां

महलां तो बैठी मायड़ पूछै

के आयो कुबध कमाय रे हां

मिनख होवै तो करूं रै लड़ाई

गोगैजी सूं लड़्यो नहीं जाय रे हां

कित लाख चढ़ै मुगल का लड़का 

कित लाख पठाण रे हां

नौ लाख चढै मुगल का लड़का 

दस लाख चढै पठाण रे हां।

जोड़ों के भड़काने के कारण बादशाह गोगाजी के साथ युद्ध करता है पर इसमें वह पराजित होता है। गाथा के अनुसार गोगाजी उसे दया करके छोड़ देते हैं। इसके बाद जोड़े अपमान का बदला लेने के लिए अवसर की ताक में रहते हैं। एक दिन गोगाजी शिकार पर गए हुए थे। सावन माह की रंगत देखकर उनकी पत्नि सरियल माता बाछल के सामने तालाब देखने की इच्छा प्रकट करती है। अपनी सास से अनुमति लेकर सरियल अपनी सखियों के संग तालाब पर भ्रमण करने चली जाती है। जोड़ों को जब इसका पता चलता है तो वे भी तालाब पर आ जाते हैं और सरियल के साथ अभद्र व्यवहार करते हैं। यह प्रसंग गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

बोलै अरजन राणा के केवै

अे सरियल राणी आगी तूं समन्द तळाब

बोलै सरजन राणा के केवै

अरजन भइया आगी अेकलियै गी नार

थे तो लागो देवर जेठजी

मत ना लगाज्यो म्हारै हाथ

हाथ लगायां पाप लागसी जी

छतरी धरम हट जाय

अरजन झटकी चूंदड़ी रे

सरजन झालरवाळी नाथ

खाली तो हाथां मैं खड़ी ओ जोड़ो

खांडो तो देवो थारै हाथ गो जी 

फेर देखो तिरिया गो हाथ।

 दोनों भाई रानी सरियल का अपमान तो कर देते हैं पर गोगाजी के डर से वे भागकर दिल्ली बादशाह के पास चले जाते हैं। बादशाह की सेना ने गोगाजी के गढ़ ददरेवा पर घेरा डाल दिया। नींद में निश्चिंत होकर सोए हुए गोगाजी को इसकी सूचना देने रानी सरियल रंगमहल में जाती है। यह प्रसंग गाथा में इस प्रकार गाया जाता है- 

माता मेरी तूं क्यूं नीं जण्या दो जणां

अेक दाता अेक सूर

माता मेरी गूगैजी नै जन्म दे के 

क्यूँ खोयो बांको नूर

बेला भर लिया सरियल मक्खन दूध गा

चली भंवरा नै जाय

थे तो सोग्या बालम सुख भर नींद में

मेरा जेठ चढ ल्याया धाड़ 

सोणै तो सोणै मैं गबरू देखे

इस गढ़ दादर में

जिनकी बोली लखी न जाय

सात कंधार बादशाह की आगी

चढियाये मुगल-पठाण

पांच रूपये हाळै के मांगै

कठै सूं ल्यावै सरियल नार

अंगूठा मोड़ राणी सरियल जगावै

उठो म्हारा सिध सरदार

थे तो ओढो बालम सुंई-सुंई चूंदड़ी

मन्नै द्यो सिर गी पाग

भरे दलां मांय म्हैं लड़ूंगी

मेरी भली करै भगवान।

थे तो पहरो बालम हरी-हरी चूड़ियां

मन्नै द्यो हाथ गी तलवार

भरे दलां मांय म्हैं लड़ूंगी

मेरी भली करै भगवान।

 रानी सरियल के व्यंग्य भरे वचनों से गोगाजी की निद्रा भंग होती है और वे अपनी माता से युद्ध की अनुमति लेने जाते हैं। इस युद्ध में गोगाजी के हाथों दोनों जोड़े भाई मारे जाते हैं। इसके बाद गोगाजी घर पहुँचते हैं तो उनकी माता बाछल आतुरता से प्रतीक्षा कर रही थी। यह प्रसंग इस गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

दणमण-दणमण रे घोड़ो टोरियो

सूरत महल में लगाय जी रे

एक सलाम रे माता मेरी दो सलाम

माता मेरी मानो सात सलाम

रण का जूझ्या अे माता पाणी का प्यासा

जळ भर गड़वा पिलाय जी रे हां

पाणी छोड़ रे बेटा दूध पिलाऊं

रण की बात बताय जी रे हां

रण बातां अे माता मत ना चितारो

सुण-सुण होज्या दलगीर जी रे हां 

कुण दल हार्या रे बेटाकुण दल जीतिया

कुण दल जीत घर आय जी रे हां

गूगो हार्या अे माता जोड़ा जीत्या

गूगा हार घर आय जी रे हां

साच बताद्यो रे मेरा गूगा रे लाडला

तेरै पिता झेवर की आण जी रे हां

अपणै महलां सूं माता थाळ रे मंगाल्यो

सोनै वाळौ थाळ लाय जी रे हां

भाजी-दौड़ी अे बांदी महल में पधारै

सोनै वाळो थाळ झलाय जी रे हां

घोड़ै कै दानां सूं गोगै सीस उतार्या

दिया थाळी में सरकाय जी रे हां

रे जुलम गुजार्या रे बेटासितम गुजार्या

भाइयां नै मार घर आविया रे हां

जे सुण पावै तेरी मौसल काछल

खागे कटारो मर जाय जी रे हां

आज जोड़ां गै घर में रे बेटा दीवा गुल हो गया

सूना पड़्या रणवास जी रे हां

चौप सुनरा रे बेटाखिल्ली रे बत्तीसी

भंवर रहे बळ खाय जी रे हां

बारह बरसां गो दियो रे देसूंटो 

मुंह देख्यां रे पाप जी रे हां।

अपनी बहन के पुत्रों की अपने पुत्र के हाथों हुई हत्या को देखकर बाछल गोगाजी से नाराज होती है और उन्हें बारह वर्षों को देश निकाला दे देती है। गोगाजी अपनी माता की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए अपने राज्य ददरेवा से निकल जाते हैं। समय निकलता है और वर्षा ऋतु आ गई। गोगाजी के विरह में उनकी पत्नी बड़ी व्याकुल होती है। इस प्रसंग को गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

खीवै खांडेलै चमकै बीजळी

बागड़ में बरसै मेह मोकळौ रे हां

म्हारै महलां मत चमको बीजळ बहनां

म्हारै तो राजाजी गो सोग रे हां

म्हारी नगरी गो राजा समाइयो रे 

म्हारो सोग निवाणां रे हां

थारै तो देस में गढ़ ददरेवै में सोग कहीजै

मैं ना चमकूं तो देसां देस सोग मनावणा रे हां

म्हारै चमक्यां सूं थारो बागड़ बसै रे

नीं तो पड़ जावै बैरी काळ रे हां

कित्ता रे महीनां तो घर बसै म्हारी बीजळ बहनां

कित्ता रे महीनां रो थारै चावै रे हां

आठ महीनां तो घर बसां अे सिंझ्या गी बेटी

चार तो महीनां रो म्हारै चाव रे हां

चमक-चमक मंडळ में चमक रही बहनां

कठै ई देख्यो गूगो राव रे हां

सुणो सरियल बहना म्हारी बात

गोरखनाथ के धूणै बैठ्या तपै गूगा राव जी रे हां

लेय कटारो नीचै उतरी रे सरियल

जाय जगायी अपणी सास जी रे हां

कै तो म्हारी जोड़ी मिला दे

कै तो झेलौ रे सराप रे हां

मेरी मिलाई जोड़ी ना मिलै अे सरियल राणी

जोड़ी मिलावै मालक आप रे हां

लेय कटारो राणी नव महलां चढगी

देवै गोरख नै गाळ रे हां

धूणी तो तपतां गोरख बोल्या

कुण दिया भगत संताप रे हां

महलां तो झूरै सरियल गोरी ओ बाबा

देवै गुरजी थानै गाळ रे हां

उड़न खटोलै गुरजी उड़ तो चाल्या

महलां में अलख जगावै रे हां

कै तो म्हारी जोड़ी मिल्या द्यो

नीं तो झेलो मेरो सराप रे हां

राजा इंदर कै चौपड़ खेलै रे गोगो

गेरै बो पौ-बारहा-पच्चीस रे हां

चार दिनां गी बेटी छुट्टी तो दे दे

जोड़ी मिलाऊं तेरी लाय रे हां

जाय इंदर गै जोगी अलख जगाई 

चेलै नै बात सुणावै रे हां

मैं तो चेला तन्नै लेवण आयो

महलां में झूरै सरियल नार रे हां

माता बाछल म्हानै बोल तो बोल्या

मुखड़ो देख्यां गो लागै पाप रे हां

दिन-दिन तो चेला बागां रहीजै 

सांझ पड़्यां महलां जाय जी रे हां।

 गुरु गोरखनाथ की आज्ञा से गोगाजी रात के समय रानी सरियल के महलों में आना शुरू कर देते हैं। समय बीतता जाता है। अरजन-सरजन के वध और गोगाजी के देश निकाले के कारण ददरेवा में लम्बे समय से शोक की स्थिति चल रही थी। अरजन-सरजन की माता काछल ने इस शोक को दूर करने की पहल की और तीज का त्यौहार मनाने की तैयारी आरम्भ करवा दी। रानी सरियल ने गोगाजी के रात्रि समय में उससे मिलने आने की बात अब तक गुप्त रखी थी पर यह भेद दासियों के माध्यम से खुल जाता है और माता बाछल तक बात पहुँच जाती है। इस पर माता बाछल सरियल से वाद-प्रतिवाद करती है और अपने पुत्र गोगा को देखने की जिद करती है। यह प्रसंग गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

आधी सी रात पहर का तड़का

आया लीलै गा असवार

सरियल-सरियल मैं पुकारूं

खोलो सजड़ किंवाड़

घोड़ै वाळा गस्त फिरै पहरेदार

बे आयी मार्यो जाय

रूपां बांदी गस्त हमारा पहरेदार

सरियल घर गी नार

घोड़ै वाळा किण गा कहीजै कंवर लाडला

के कह बतळाय

रूपां बांदी पिता झेवर गा कहीजै कंवर लाडला

गोगा कह बतळाय

घोड़ै वाळा कमर कटारा मेरे बाप दिया

कोई अेक सैनाणी बतळाय

रूपां बांदी लाख टकां में मोल ल्याया

कड़वा करै रै जवाब

घोड़ै वाळा घोड़ा बंधाओ ओ घुड़साळ में 

भाला टंगाओ टंगसाळ

घोड़े वाळा सासू नै मार्या मेरै कोरड़ा

सूंत ली बदन गी खाल

मनड़ै री राणी सास तुम्हारी माय हमारी

माता सूं राणी केयो नीं जाय

टग-टग महलां उतरी रे सरियल राणी

जाय जगाई अपणी सास

सोवै कै जागै सासू बाछला

आयो लीलै गो असवार

नव तो महीना उदर राख्या

माता सूं प्यारी सरियल नार।

माता बाछल सरियल के महल में आती है तो गोगाजी वहाँ से प्रस्थान करने की सोचते हैं और अपने घोड़े पर बैठते ही हैं कि माता बाछल आकर घोड़े की लगाम पकड़ लेती हैं। गोगाजी अपनी माता की तरफ पीठ करके बैठ जाते हैं और माता से घोड़े की लगाम छोड़ने का निवेदन करते हैं पर बाछल लगाम नहीं छोड़ती हैं। अनेक प्रयत्न करने के उपरांत गोगाजी माता के हाथ से लगाम छुड़वाकर वहाँ से निकल जाते हैं। इसके बाद वे माता को मुँह नहीं दिखाने का वचनभंग हो जाने का पश्चाताप करते हैं और धरती माता से स्वयं को समा लेने का निवेदन करते हैं। इस पर धरती माता उन्हें अपने भीतर समा लेती है। यह प्रसंग गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

धरती माता तूं बड़ी

म्हनै तूं दे दे बराड़

जाओ थे मक्का पढो रे कलमा

हिन्दू रा होवो मुसळमान

पांचू तो पीर भेळा होयग्या

गोगै नै कलमा पढाय

लीलो तो घोड़ो हिणकतो आवै

पातळियो असवार

फाटी तो धरती दिया रे बराड़ा

गोगो धरत समाय।

इसके बाद गोगाजी की लम्बे समय तक ददरेवा में कोई खबर नहीं मिली। एक दिन ददरेवा गढ़ में एक चरवाहा स्यामा आकर नई जानकारी माता बाछल को देता है और गोगाजी के धरती में समाने की बात उनको बताता है। उसकी बात पर माता बाछल को विश्वास नहीं होता और वह उस स्थान को देखने की जिद करती है जहां गोगाजी धरती में समाये थे। रानी सरियल और माता बाछल रथ लेकर उस स्थान पर पहुँचती हैं। यह प्रसंग गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

रथ जुड़ाल्यो अे माता

डोळा कसवाल्यो 

चल देखो अखियां की सार

रूणझुण-रूणझुण स्याम रथ जुड़ावै

हो गये बनखंड त्यार

कहां बल देखा रे स्यामा।

कहां बल देख्या

कहां मरद के मकान

यहां बल देख्या 

यहां मरद के मकान

अे माता

चूंहदी लगी अे माता

चूंहदी लगी अे 

यहां पर देखे अे माता

यहां पर देखे

ले कै कोरड़ा बाछल स्यामा नै मारै

मत ना मारो मेरी बाछल माता

मतना उड़ाओ मेरी बदन की खाल

पगड़ी का पल्लाभालै गी ईणी

घोड़ै की कनोतीगूगाजी दिखाविया

यहां बल देख्या माता मेरी

यहां बल देख्या 

यहां मरद के रहे मकान।

 गोगाजी की निशानियाँ देखकर माता बाछल और रानी सरियल रोने लगती हैं। इन दोनों का उक्त करुण संवाद गाथा में इस प्रकार गाया जाता है-

सास-बहू दोनूं रळमळ रोवै

कुरजां दांई कुरळाय

तेरै रोणै सूं मेरो गोगो आवै

रो-रो भरद्यूं समंद-तळाव

चंवरी चढता अेक बर देख्या

मुड़ मेरै निजर नहीं आया

हाथां में मेरै महन्दी राचै

उबटण री आवै खुशबोई

पत्थर मंगा दे सासू चुड़ला फोड़ूं

आज होई बंदी बाळक रांड

आपणै चहुआंणा गै बेटा लाज घणेरी 

घर नै पाछी चालो

नरमा-बाड़ी गी बेटा रूई मंगाद्यूं

चरखा कात करो गुजरान

तोड़ूं-मरोड़ूं सास मेरी भंवर चरखलो

तोड़ूं पीढ़ी गा साळ

रूई गी पूणी गळी अे बखेर द्यूं

नई काढूंगी बंदी तार।

इसके बाद रानी सरियल गोगाजी की समाधि के पास बैठ जाती है और वहीं प्राण त्यागती है। इस प्रकार गोगा गाथा का गायन सम्पूर्ण होता है। इस गाथा के गायन के बाद गाथा के गायक गोगाजी के चमत्कारों का बखान करने वाले प्रशस्ति गीत (छाँवली) गाते हैं। इनमें से एक छाँवली इस प्रकार है जिसमें उनके समाधि लेने के उपरान्त अपने निकटतम लोगों को स्वप्न में दर्शन देकर वार्तालाप करने का वर्णन है-

चादर ताण सोयग्यो घोड़ाळो रे

अव्वल चौहाण सोग्यौ

काची नींद कै भळकै जागियो गूगाजी

जाग्यौ अव्वल चौहाण

बोलै गोगो धरमी के केवै री सरियल राणी

अरज सुणो रे मन लाय

मेरा पांचू ल्यादे कापड़ा अे सरियल राणी

मेरा पांचू ल्यादे हथियार

कठै रे कटारा मेरा बांकड़ा सरियल राणी

सौरठड़ी तलवार

लाल लपेटै ल्यादे जामकी सिंझ्या की बेटी

दादा उमर वाळी ढाल

लीलो ल्यादे पीड़ गे स्याणी

होवां घोड़ै असवार

चढ़ घोड़ै पर निसर्या गोगाजी रे

आवै बिल्यूं गै राह 

कस-कस मारै कोरड़ा घोड़ै गै रे

आवै सूंवै मैदान

गढ़ बिल्यूं गै गोरवै घोड़ला रे

साम्हीं मिलै रे खिराज

कुण सै गढ़ां गो तूं चौधरी मेरा भाया

कुण मरद गो नाम

गढ़ बिल्यूं गो चौधरी घोड़ाळा रे

खिराज सारण मेरो नाम

मेरै लीलै गो पड़्यो ताजणो मेरा भाया रे

ताजणो देवो झलाय

हाथ पगां रै मेरै होया नारवा

नीच्चो लुळ्यो नहीं जाय

आच्छया करूं तेरा नारवा रे भाया

ताजणो देवो झलाय

कुणसै गढ़ां गो राजवी घोड़ाळा रे

कौंण कंवर गो नांव?

गढ़ ददरेवै गो राजवी भाया रे

गूगो मेरो नांव

आच्छ्या कर द्यूं तेरा नारवा 

ताजणो देवो झलाय

मेड़ी चिणा ले सरवा सोवणी

खेओ गूगळ धूप

सरपां गा डंक चूसल्यो

खिराजा सारण पीज्या इमरत घोळ

चेलो बाजूं गोरखनाथ गो मेरा भाया रे

वै मेरा गुरु उस्ताद

भीड़ पड़ी में मन्नै सिमरले खिराजा सारण

अड़्या रे संवारू तेरा काम।

गोगाजी के रात्रि जागरण में भक्त लोग गोगाजी का यह झेड़ा (गाथा) सारी रात गाते हैं। गाथा के गायकों को स्थानीय भाषा में ‘समैया’ कहा जाता है। इनका मुख्य वाद्य यंत्र डैरूँ है जिसके साथ थाली और कटोरे की संगत बैठाकर संगीत दिया जाता है। समैये जब इस गाथा को विशेष राग के साथ गाते हैं तो श्रोता झूमने लगते हैं। ऐसी अवस्था को ‘भाव आना’ अथवा ‘घोट आवणौ’ भी कहा जाता है। इस अवस्था में भक्त गोगाजी की ज्योति के आगे सिर झुकाकर झूमते हुए पीठ पर लोहे की साँकलों से प्रहार भी करते हैं। इसके साथ ही गाथा के दौरान गोगाजी की जय-जयकार लगती रहती है।