मध्य छत्तीसगढ़ का मैदानी भाग अनेक घुमक्कड़ एवं लोक आख्यान गायक समुदायों का प्रिय भूभाग रहा है। पठारी ,जोगी , बैरागी ,वासुदेवा ,देवार और नाथ पंथी जैसे भाट -भिक्षु गायकों साथ यहाँ कबीर पंथी , सतनामी, रामनामी, अहीर भजन एवं लोक गीतों की मंडलियों की भी बहुतायत रही है। एक समय यह कथा एवं भजनगायक समुदाय न केवल स्थानिय वाचिक परंपरा के भंडार , संरक्षक और प्रसारक थे बल्कि वे अपनी भावी पीढ़ियों को इसे हस्तगत कराकर इसके संवाहक की भूमिका भी निबाहते थे। अतः यह कहना कि छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र का संगीत इन्ही समुदायों की देन है , अतिश्योक्ति न होगा
घुमन्तु भजन गयकों और गायन मंडलियों के लिए अलग -अलग प्रकार के वाद्यों की आवश्यकता होती है। घुमन्तु गायकों को हल्के और छोटे वाद्यों की आवश्यकता होती है जिन्हें वे लेकर यहाँ -वहां जा सकें ,जबकि मंडलियों को पूरे आर्केस्ट्रा का साथ चाहिए। घुमन्तु गायक अकेले या एक रागी जैसे साथी के साथ गायन करते थे। वे स्वनिर्मित तम्बूरा ,किंगरा बाजा , सारंगी या सरांगी , बाना , खंजरी या ढफ ,ढफली लेकर खड़े -खड़े गाते थे। सन १९६० के बाद पंडवानी ,भरथरी ,चंदालोरिक आदि लोक आख्यानों के गायन का एक नया दौर शुरू हुआ। अनेक प्रतिभाशाली लोकगायकों ने नई - नई मंडलियां बनालीं। इन मंडलियों में बेंजो ,हारमोनियम, तबला , बांसुरी और ढोलक जैसे वाद्यों का प्रचलन बढ़ गया। व्यावसायिक स्तर पर प्रदर्शन होने लगे तो भव्यता और तड़क -भड़क भी बढ़ गयी।
मांदल बजाता एक करमा नर्तक , छत्तीसगढ़।
मंडलियां बैठक कर अपनी प्रस्तुति देती हैं अतः उन्हें वाद्यों को रखकर बजाने की सुविधा रहती है, इससे भी गायन में वाद्यों की संख्या बढ़ाने में सरलता रही। रेडीमेड वाद्यों का प्रचलन बढ़ने से स्वनिर्मित अथवा स्थानिय स्तर पर हस्तनिर्मित वाद्यों का चलन काम हुआ। वर्तमान में स्थिति यह है कि कुछ प्रचलित लोकवाद्य विलुप्त हो गए। विशेषतौर पर जोगी, वासुदेवा और देवार घुमन्तु गायकों द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली विभिन्न प्रकार की सारंगियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं।
ढपरा , निशान , नगाड़ा ,तुड़बुड़ी , मोहरी -शहनाई , मांदर जैसे पारपरिक वाद्य तो समूचे छत्तीसगढ़ में प्रचलन में हैं। बस्तर ,सरगुजा और रायगढ़ जैसे क्षेत्रों अतिरिक्त या मैदानी छत्तीसगढ़ में भी लोकप्रिय हैं परन्तु निम्न कुछ वाद्य मैदानी छत्तीसगढ़ में अधिक लोकप्रिय हैं।
बांस -
बांस ,अहीरों द्वारा गाए जाने वाले बांस गीत में बजाया जाने वाला सुषिर वाद्य है। यह बांसुरी का एक अन्य रूप है जिसमें ध्वनि उत्पन्न करने के लिए कोई नक्का नहीं होता , बांस में इस प्रकार फूंक मारी जाती है कि उससे ही ध्वनि उत्पन्न हो जाये। बांस ,अहीरों द्वारा गाए जाने वाले बांस गीत में बजाया जाने वाला संगत वाद्य है। यह बांसुरी का एक अन्य रूप है जिसमें ध्वनि उत्पन्न करने के लिए कोई नक्का नहीं होता , बांस में इस प्रकार फूंक मारी जाती है कि उससे ही ध्वनि उत्पन्न हो जाये। इसे बजाने वाले स्वयं ही इसे बनाते हैं। इसकी लम्बाई इतनी राखी जाती है की उसमें बांस की तीन गठानें आ जाएँ। इसके बाद बांस को सामान रूप से पोला किया जाता है , इसके लिए बांस में एक रक्त तप्त लोहे का गोला डाला जाता है जो बांस को अंदर से जलाते हुए आगे बढ़ता है। बार -बार यह क्रिया दोहराने पर बांस ,अंदर से सामान रूप से पोला हो जाता है। बांस से उत्पन्न किये जाने वाले सुरों को संयोजित करने के लिए इसमें पांच छिद्र होते हैं।
बांस ,अहीरों द्वारा बजाया जाने वाला सुषिर वाद्य ।
बांस ,बजाते हुए एक अहीर बांस वादक।
अलगोजा
यह बांस का बना बांसुरी जैसा सुषिर वाद्य है। यह अहीर समुदाय के लोगों द्वारा बांसगीत के साथ बजाया जाता है। वे इस वाद्य को स्वतः ही बना लेते हैं।
अलगोजा, यह बांस का बना बांसुरी जैसा सुषिर वाद्य है।
अलगोजा बजाते हुए एक अहीर अलगोजा वादक।
ढोलक – ढोलक या ढोलकी यह गायन व नृत्य के साथ बजायी जाती है। यह एक प्रमुख ताल वाद्य है।। समूचे उत्तर एवं मध्य भारत में इसका प्रयोग किया जाता है। ढोलक को अधिकतर हाथ से बजाया जाता है। यह आम, बीजा, शीशम, सागौन या नीम की लकड़ी से बनाई जाती है। लकड़ी को पोला करके दोनों मुखों पर बकरे की खाल डोरियों से कसी रहती है। डोरी में छल्ले रहते हैं, जो ढोलक का स्वर मिलाने में काम आते हैं। चमड़े अथवा सूत की रस्सी के द्वारा इसको खींचकर कसा जाता है।
ढोलक एक अपेक्षकृत अधिक लोकप्रिय वाद्य है। यह गांव और शहर दौनों में समानरूप से प्रचलित है। इसे लोक एवं शास्त्रीय तथा सुगम संगीत में सहज स्वीकारा जाता है। गायन एवं भजन मंडलियों का यह अभिन्न अंग है। बीजा की लकड़ी से बना, यह बेलनाकार वाद्य स्त्री -पुरुष सभी के द्वारा बजाया जाता है। इसे गले में लटकाकर या जमीन पर रखकर बजाया जाता है।
पिछले कुछ वर्षों में इसके प्रयोग दायरा और विस्तृत हो गया है, जातीय संगीत मंडली, विभिन्न प्रकार के नृत्यगान में इसे बजाय जाता है। इसकी लयबद्ध ध्वनि बेहद मनमोहक है, आम तौर लोक नृत्य गान और लोकप्रिय संगीतों में उसका ज़्यादा प्रयोग किया जाता है।
छत्तीसगढ़ की लोककथा गायन मंडलियों में ढोलक खूब बजाई जाती है।
ढोलक
मंजीरा –
मंजीरा, कांसे से बानी दो छोटी डिस्क से बना वाद्य है। सामान्यतः यह दौनों डिस्क आपस में एक डोरी द्वारा बंधी रहती हैं, परन्तु कभी -कभी अलग -अलग भी रहती हैं। इसे दौनों हाथों से और कभी एक हाथ से भी बजाया जाता है। मंजीरा, भक्ति संगीत का अभिन्न अंग है। घुमक्कड़ जोगी, मंजीरे की झंकारमय ताल पर भजन गायन करते हैं।
मंजीरा
झांझ –
झांझ बनावट में मंजीरा के सामान होता है परन्तु इसका आकर मंजीरे से बड़ा होता है और इसके डिस्क पीतल की चादर को काटकर एवं रूप देकर बनाये जाते हैं।गोलाकार समतल या उत्तलाकारधातु की तश्तरी जैसा ताल वाद्य, इसके जोड़े को एक-दूसरे से रगड़ते हुए टकराकर बजाया जाता है। सामान्यतः यह दौनों डिस्क आपस में एक डोरी द्वारा बंधी रहती हैं, परन्तु कभी -कभी अलग -अलग भी रहती हैं। इसे दौनों हाथों से बजाया जाता है। झांझ, भक्ति संगीत एवं सामुदायिक नृत्य-गीतों का अभिन्न अंग है। अहीर समुदाय में यह एक लोकप्रिय वाद्य है। यह गायन व नृत्य के साथ बजायी जाती है। यह प्रसिद्ध लोकवाद्य है ।
झांझ
ढफली -
ढफली , खँजड़ी या खँजरी एक छोटा वाद्य यंत्र है जो दो ढाई इंच चौड़ी लकड़ी की बनी गोलाकार परिधि के एक ओर चमड़े से मढ़ा होता है तथा दूसरी ओर खुला रहता है। इसे एक हाथ में पकड़कर दूसरे हाथ से थाप देकर बजाया जाता है। कुछ में लोग गोलाकार परिधि में धातु के बने चार-पाँच गोलाकार टुकड़े लगा लेते हैं जो झाँझ की तरह थाप के साथ स्वत: झंकार उठते हैं। इस वाद्य का प्रयोग मुख्यत: गीत गाकर भीख माँगने वाले भिखारी अथवा लोकगीत गायक तथा साधु भजन गाने के लिए करते हैं। बन्दर की खाल से मढ़ी ढफली सर्वोत्तम मानी जाती है।
खंजरी
ढफली
बांसुरी -
बाँसुरी अत्यंत लोकप्रिय सुषिर वाद्य माना जाता है, क्योंकि यह प्राकृतिक बांस से बनायी जाती है, इसलिये लोग उसे बांसुरी भी कहते हैं। बाँसुरी बनाने की प्रक्रिया कठिन नहीं है, सब से पहले बांसुरी के अंदर के गांठों को हटाया जाता है, फिर उस के शरीर पर कुल सात छेद खोदे जाते हैं। पहला छेद मुंह से फूंकने के लिये छोड़ा जाता है, बाक़ी छेद अलग अलग आवाज़ निकले का काम देते हैं।
प्राचीनकाल में लोक संगीत का प्रमुख वाद्य था बाँसुरी।
सारंगी
यह एक तंतु वाद्य है जिसे गज की सहायता से बजाय जाता है। लकड़ी , बंस, घोड़े के बाल , घुँघरू, मिट्टी अथवा लकड़ी के कटोर एवं गोह की खाल से बना यह वाद्य घुमन्तु भजन गयकों का प्रिय वाद्य है। घुमन्तु गायकों को हल्के और छोटे वाद्यों की आवश्यकता होती है जिन्हें वे लेकर यहाँ -वहां जा सकें। वे स्वनिर्मित सारंगी या सरांगी लेकर खड़े -खड़े गाते हैं।
तम्बूरा
तम्बूरा एक तंतु वाद्य है जिसे उंगलियों की सहायता से बजाय जाता है। लकड़ी , बंस, घोड़े के बाल ,लोहे का तार घुँघरू, तूमा के कटोर एवं गोह की खाल से बना यह वाद्य घुमन्तु भजन गयकों का प्रिय वाद्य है। घुमन्तु गायकों को हल्के और छोटे वाद्यों की आवश्यकता होती है जिन्हें वे लेकर यहाँ -वहां जा सकें। वे स्वनिर्मित तम्बूरा लेकर गाते हैं। पंडवानी गायकों का भी तम्बूरा प्रिय वाद्य है।
तम्बूरा
चटकोला -
चटकोला, खड़ताल का ही एक अन्य रूप है। लकड़ी के बने इस वाद्य में पीतल के बने वृताकार डिस्क लगे रहते हैं । जब चटकोला के दौनों हिस्से आपस में टकराते है तब लकड़ी की सतहें और पीतल के यह डिस्क आपस में टकराकर खट - खट मय झंकार उत्पन्न करते हैं। इन्हे गायन के साथ बजाया जाता है।
चटकोला
चटकोला
हारमोनियम –
हारमोनियम एकसंगीत वाद्य यंत्र है जिसमें वायु प्रवाह किया जाता है और भिन्न चपटी स्वर पटलों को दबाने से अलग-अलग सुर की ध्वनियाँ निकलती हैं। इसमें हवा का बहाव हाथों के ज़रिये किया जाता है, हालाँकि हारमोनियम का आविष्कार यूरोप में किया गया था सीखने की आसानी और भारतीय संगीत के लिए अनुकूल होने की वजह से जड़ पकड़ गया।
हारमोनियम भारतीय शास्त्रीय संगीत का अभिन्न हिस्सा है। हारमोनियम को सरल शब्दों में "पेटी बाजा" भी कहा जाता है।
हारमोनियम
तबला –
तबला भारतीय संगीत में प्रयोग होने वाला एक तालवाद्य है । तबले दो भागों को क्रमशः तबला तथा डग्गा या डुग्गी कहा जाता है। तबला शीशम की लकड़ी से बनाया जाता है। तबले को बजाने के लिये हथेलियों तथा हाथ की उंगलियों का प्रयोग किया जाता है। तबले के द्वारा अनेकों प्रकार के बोल निकाले जाते हैं।
तबला हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में काफी महत्वपूर्ण है और इसका प्रयोग शाष्त्रीय एवं उप शास्त्रीय गायन-वादन में लगभग अनिवार्य रूप से हो रहा है। इसके अतिरिक्त सुगम संगीत और हिंदी सिनेमा में भी इसका प्रयोग प्रमुखता से हुआ है।
तबला
झंकार -
झंकार का मूल आकर बच्चों द्वारा बजाए जाने वाले झुन - झुने का बड़ा रूप होता है। टिन के पतरे से बने दो बड़े झुन -झुने जिनके हत्थे लकड़ी के होते हैं। इन्हे दौनों हाथों में पकड़कर बजाया जाता है। यह झन्न -झन्न ध्वनि की ताल उत्पन्न करते हैं।
झंकार
उपरोक्त वाद्यों के साथ -साथ में अन्य वाद्यों का प्रचलन भी होने लगा है इनमे बेंजो , घुँघरू आदि हैं।
बेंजो
घुंघरू
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.