छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की संगीत की अपनी एक सुदीर्घ एवं समृद्ध परंपरा है। छत्तीसगढ़ के गोंड आदिवासी इस परंपरा को चौदह हजार साल पुरानी मानते हैं,जिसकी स्थापना उनके आदि देव, बड़ा देव ने की थी। उनके विश्वास के अनुसार बड़ादेव में स्त्री और पुरुष दोनों प्रवृतियों का समायोजन है और वे सृष्टि के रचेयता हैं। उन्होंने गोंड समाज का संयोजन किया और उन्हें तीन वाद्य - बाना , सिंगी और डमरू प्रदान किये। बाना एक तंतु वाद्य है जिसे गज की सहायता से बजाया जाता है। सिंगी एक सुषिर वाद्य है जिसे फूंक मारकर बजाया जाता है और डमरू एक ताल वाद्य है। इस प्रकार ताल ,सुषिर और तंतु तीनों आधारभूत वाद्यों का संधान बड़ादेव ने किया और गोंड लोगों को यह वाद्य दिए।
लिम्हा गढ़ जिला बिलासपुर स्थित बड़ा देव का कोट में स्थापित पवित्र गोंड वाद्य बाना , सिंगी और डमरू।
गोंड आदिवासी संगीत में सात नहीं केवल तीन सुर होते हैं - तीव्र जिसे टिन्गी कहते हैं ,मध्यम जिसे मधवा कहते हैं और मंद जिसे ढोढा कहा जाता है। वे मानते हैं कि समस्त आदिवासी संगीत इन्ही तीन सुरों पर आधारित है, इसीलिए उनके पवित्र वाद्य बाना में इन तीन सुरों के लिए केवल तीन तार होते हैं। बाना वाद्य को परधान आदिवासी बजाते हैं। बाना वादक इन परधानों ने, न केवल इस आदि वाद्य बाना को अब तक जीवंत बनाए रखा है बल्कि इसे बजाकर गयी जाने वाली गोंड बृहदावलियों और गोंड राजाओं तथा देवी -देवताओं की पारम्परिक स्तुतियों एवं कथाओं को अपनी अगली पीढ़ियों को हस्तांतरित कर उन्हें विलुप्त होने से बचाया है।
परधान और गोंडों के लिये बाना केवल एक वाद्य नहीं है ,वह पूज्य एवं साक्षात् देव सामान और देव निवास है। बाना में बूढ़ा देव का निवास है, इसकी ध्वनि पर मुग्ध होकर वह जागृत होता है , गुनिया के माध्यम से प्रकट होकर खेलता है - मस्त झूमता है। गोंड विश्वासों के अनुसार आदिकाल में उनके बूढा देव उनके घर में ही निवास करते थे परन्तु एक बार किसी स्त्री ने गलती से माहवारी से होते हुए भी बूढ़ादेव के भोग की सामग्री तैयार करदी इससे रुष्ट होकर बूढ़ादेव गोंड का घर छोड़ कर बाहर निकल गए और जंगल को चल दिए। गोंडों को जब यह पता लगा तो उन्होंने बूढ़ादेव से बहुत विनती की ,उन्हें मनाया , वे वापस घर आने को राजी न हुए। पर वे गांव के बाहर साजा वृक्ष में रहने के लिए मान गए , तब से उनका निवास साजा वृक्ष में है और उन्हें बाना वाद्य के माध्यम से जागृत किया जाता है।
गोंड आदिवासी के घर में स्थित बूढा देव का स्थान , गांव कर्रा , बिलासपुर।
छत्तीसगढ़ में आदिवासी आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा गोंड आदिवासियों का है। मध्यकाल के उत्तरार्द्ध में तो इस क्षेत्र के अनेक भागों पर स्थानिय गोंड राजाओं , जमीदारों का अधिपत्य भी रहा। वे खुशहाल और सक्षम किसान हैं। अनेक उप समूहों में विभक्त यह जनजाति सांस्कृतिक रूप से बेहद संपन्न और समृद्ध है। इन्ही की एक उप जनजाति है परधन जिन्हें गोंडों का भाट कहा जा सकता है। इन्हें पठारी और परघनिया भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर क्षेत्र में इनकी अच्छी खासी आबादी है। इनके पूर्वज अपने गोंड जजमानों ,जिन्हें वे ठाकुर कहते थे के यहाँ वर्ष में एक बार जाकर, बाना बजाते हुए उनके गोत्र और कुल की बृहदावली एवं गोंड देवताओं और राजाओं के कथा गीत सुनाते थे। परधान और गोंड कृषकों के यह सम्बन्ध बहुत प्रगाढ़ और श्रद्धा -विश्वास पर आधारित हैं। सामाजिक व्यवस्था के अनुसार समूचा गोंड समाज पांच प्रमुख गोत्रों में विभाजित है जो छिदैया, नेताम ,मरकाम ,मरई और पोर्ते हैं । प्रत्येक गोत्र के गोंडों का परघनियां परधान उन्ही के सामान गोत्र का होना चाहिए। अतः एक गोत्र का परधान अपने ही गोत्र के गोंड ठाकुर जजमान के यहाँ वार्षिक अनुष्ठान एवं जन्म ,मृत्यु ,विवाह आदि अवसरों पर देव जाग्रति और देव -धामी के अनुष्ठान संपन्न करएगा। यह सभी अनुष्ठान बाना वादन के बिना असंभव हैं क्योंकि बाना वादन से प्रसन्न होकर ही देव जाग्रत होता है।
पवित्र वाद्य बाना पर देव स्तुति करते शंकर सिंह पठारी परघनिया , गांव करसियार , बिलासपुर।
आरम्भ में बाना, साजा वृक्ष की लकड़ी से ही बनाया जाता था। मंडला क्षेत्र के परधान आज भी बाना साजा की लकड़ी से बनाते हैं परन्तु बिलासपुर क्षेत्र के परधान सागौन , खमार आदि की लकड़ी से भी बाना बना लेते हैं। बाना के चार मुख्य भाग होते हैं - लकड़ी को तराशकर बनाया गया खोखला मध्य भाग जिसे पुर कहा जाता है। बांस की बनी डाँढ़ , लकड़ी से बनी खूंटियां और गज जिसे हथवा भी कहते हैं। बाना के मध्य भाग पर बूढ़ा देव को बलि दिए गए सफ़ेद बकरे के पेट के नीचे वाली खाल की झिल्ली से मढ़ा जाता है। तार अथवा डोरियाँ बनाने के लिए घोड़े की पूँछ के बाल प्रयुक्त किये जाते हैं। मंद सुर की डोरी के लिए तीस बाल , माध्यम सुर के लिए चालीस बाल और तीव्र सुर की डोरी के लिए पचास बालों का प्रयोग किया जाता है।
मान्यता है कि बड़ा देव ने जब गोंड आदिवासियों के पांच प्रमुख गोत्र बनाये तब प्रत्येक को उनके गोत्र के अनुरूप बाना प्रदान किया। इस आधार पर बाना के पांच प्रकार बने। मूलरूप में यह सभी बाना एक सामान होते हैं परन्तु उनमें अलग -अलग गोत्रों के गण चिन्ह उत्कीर्ण किये जाते हैं। यह बाना और उनके गोत्र निम्न हैं -
- छिदैया गोत्र का गणचिन्ह है गोह अथवा गोहिया। इस गोत्र का बाना, घोरपड़ बाना कहलाता है।
- नेताम गोत्र का गणचिन्ह है कछुआ। इनका बाना , कच्छप बाना कहलाता है।
- मरकाम गोत्र का गणचिन्ह है बाघ। इनका बाना , बाघ बाना कहलाता है।
- मरई गोत्र का गणचिन्ह है नाग । इस गोत्र का बाना , नाग बाना कहलाता है।
- पोर्ते गोत्र का गणचिन्ह है बाज पक्षी। इस गोत्र का बाना , चैचाम बाना कहलाता है।
प्रत्येक गोत्र के गोंडों के परधान परघनिया उनके बूढ़ादेव जगाने के लिए उसी गोत्र का बाना बजाते हैं। अन्य गोत्र के बाना बजने से यह संभव नहीं होता। इसी प्रकार प्रत्येक गोत्र के बाना पर केवल उसी गोत्र की बृहदावली गायी जा सकती है अन्य गोत्र की नहीं। अतः प्रत्येक गोत्र के गोंडों के लिए पृथक बाना बजाया जाता है और पृथक बृहदावली गयी जाती है जिसे उन्ही के गोत्र के परधान परघनिया संपन्न करते हैं।
पवित्र वाद्य बाना बजाता एक युवा पठारी।
प्रत्येक परधान आदिवासी जो परघनिया का काम करता है उसके पास अपना बाना होता है। क्योंकि वे बाना को बूढ़ादेव का निवास अथवा देवरूप मानते हैं अतः इसका बहुत सम्मान करते हैं और इसे अपने घर के बूढ़ादेव स्थान जिसे मूढ़रघर कहते हैं , में स्थापित करते हैं। शनिवार और इतवार के दिन बूढ़ादेव के दिन माने जाते हैं। इनकी पूजा और अनुष्ठान इन्ही दिनों किये जाते हैं। बाना बनाने का काम भी इन्हीं दिनों आरम्भ किया जाता है।
सामान्यतः परघनिया लोग वर्ष में चार माह तक गांव -गांव घूमकर अपने गोंड जजमानों के यहाँ अनुष्ठान पूर्वक बाना बजाते हैं और दान स्वरुप धान , अनाज ,कपड़े , पैसे आदि प्राप्त करते हैं। यह कार्य धान की फसल कटने के उपरांत दशहरा से आरम्भ होकर अगले चार माह तक चलता है। इसके अतिरिक्त जजमानो के यहाँ प्रथम पुत्र प्राप्ति पर हड़िया बदलाव अनुष्ठान के समय , पिता की मृत्यु के उपरांत पीढ़ा पुजाई अनुष्ठान के लिए तथा नए घर में गृह प्रवेश के समय देव उठानी के अनुष्ठान भी परघनिया बाना बजाते हैं।
पवित्र वाद्य बाना
वर्तमान में बाना बनाने और बजाने वाले परधान परघनियाँ बहुत ही कम बचे हैं। जिला जांजगीर के अकलतरा ब्लाक के कटघरी गांव में आज केवल एक बाना वादक बचा है। इसी प्रकार बिलासपुर जिले के रतनपुर ब्लाक के कर्रा गांव में कुछ वर्ष पहले तक अनेक बाना वादक परगनियाँ थे वहां केवल दो बाना वादक शेष रहे हैं। धीरे -धीरे बाना बनाने और बजने की कला समाप्त हो रही है।
(उपरोक्त आलेख कर्रा गांव के युवराज सिंह पठारी और के. पी. परधान, राष्ट्रिय धर्माचार्य , राष्ट्रिय गोंडवाना सभा से हुई चर्चा पर आधारित है।)
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.