Sonic worlds: music spirits, and possession in Bastar
ध्वनि संसार : संगीत, प्रेत और भावसमाधि
बस्तर के लोकप्रिय वाद्य
नृत्य ,गीत -संगीत तो आदिवासी संस्कृति के प्राण हैं। बस्तर का संगीत केवल यहाँ के जनसामान्य के जीवन के हर्षोउल्हास का ही साक्ष्य नहीं है , वह यहाँ के अनुष्ठानों और देव आव्हानों तथा सिरहा के माध्यम से उनकी अभिव्यक्ति का भी अभिन्न अंग है। यहाँ के संगीत की धुनों पर केवल नर -नारी ही नहीं देवी -देवता भी खेलते हैं , नृत्य करते हैं। नगाड़े और मौहरी बाजे की पारम्परिक धुनों पर खेलते देवी -देवता यहाँ के मड़ई -मेलों में बहुतायत से देखे जा सकते हैं। इन वाद्यों की धुनें सिरहा को भाव समाधी में ले जाने के लिए उत्प्रेरक का कार्य करतीं हैं। दुसरे शब्दों में कहें तो इन वाद्यों की धुन सुनकर आदिवासी देवी -देवता अपने आप को रोक नहीं पाते और वे सिरहा पर सवार होकर नृत्य समारोह में सम्मिलित हो जाते हैं। विभिन्न देवी -देवताओं की पसंद अलग - अलग वाद्य और उनकी अलग - अलग धुनें होती हैं। देवी लक्ष्मी का आह्वाहन केवल धनकुल वाद्य द्वारा ही संभव होता है।
दशहरा के अवसर पर नगाड़ों और मौहरी बाजे की धुन पर खेलता देव।
बस्तर के आदिवासी बहुत ही सरल वाद्यों से अपने संगीत को संयोजित करते हैं। अपने आस -पास उपलब्ध सीमित प्राकृतिक संसाधनों से ही वे जो वाद्य बनाते हैं वे अदभुद हैं। छत्तीसगढ़ के आदिवासी भी इसका अपवाद नहीं हैं । बस्तर के माड़िया ,मुरिया लोग लकड़ी के कल्पनाशील प्रयोग से जो वाद्य बनाते हैं वे देश के पूर्वोत्तर राज्यों विशेषतः नगालैंड में बनाये जाने वाले लकड़ी के वाद्यों से सिद्धांतरूप में बहुत साम्य रखते हैं।दौनों ही स्थानों पर लकड़ी को आपस में टकराकर अथवा लकड़ी की सतह को लकड़ी की छड़ से लयबद्ध तरीके पीटकर या लकड़ी की छड़ को जमीन पर मारकर ताल उत्पन्न की जाती है। ताल उत्पन्न करने का यह तरीका संगीत का एक आदिम रूप है। सतहों के प्रकार के रूप में खाल एवं धातु के प्रयोग से बाद में अनेक वाद्य विकसित कर लिए गए पर छत्तीसगढ़ में ऐसे अनेक पुरातन वाद्य अब भी प्रचलन में हैं।
छत्तीसगढ़ के मुख्य तीन सांस्कृतिक क्षेत्रों -बस्तर ,रायपुर -बिलासपुर और सरगुजा-रायगढ़ के अनुरूप यहाँ के नृत्य - संगीत को भी मोटे तौर पर तीन समूहों में रखा जा सकता है। इन तीनों क्षेत्रों के पारम्परिक गीत- संगीत में से सर्वाधिक बदलाव रायपुर - बिलासपुर के नगरीय इलाकों में आया है। बस्तर और रायगढ़ - सरगुजा के आदिवासी बहुल इलाकों में यह बदलाव काफी हद तक सिमित हैं। इक्कीसवीं सदी में भारत के प्रत्येक प्रान्त में शहरीकरण और आधुनिकीकरण बोलबाला है। इनके कारण जीवन के हर पहलू में बदलाव हो रहे हैं। कला और संगीत भी इससे अछूते नहीं हैं। बदलाव की इस बयार में अनेक परंपरागत वाद्य अपना अस्तित्व खो चुके हैं और अनेक नए वाद्य प्रवेश कर गए हैं। यह परिवर्तन व्यावसायिक कलारूपों में और भी मुखर रूप से हुआ है। आज छत्तीसगढ़ की भरथरी , पंडवानी ,चंदैनी ,गोपीचन्द आदि कथा गायन मंडलियों तथा नृत्य मंडलियों, करमा गीतों आदि की प्रस्तुतियों में तबला , ढोलक ,हारमोनियम , बैंजो आदि जैसे वाद्य सहज स्थापित हो चुके हैं।
मौहरी बाजा बजता गांडा जाति का एक मौहरी वादक, बस्तर।
ढपरा, नगाड़ा, निशान, तुड़बुढ़ी, मौहरी अथवा शहनाई छत्तीसगढ़ के और विशेषतः आदिवासी इलकों के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रचलित वाद्य हैं। किसी भी प्रकार के उत्सव और देव-धामी अनुष्ठानों में इन्हे बजाया जाता है। इनके अतिरिक्त मांदर अथवा मांदल, ढोलक, ढोल, झांझ, मंजीरा, चटकोला, आदि जैसे परम्परिक वाद्य भी लगभग समूचे छत्तीसगढ़ में प्रचलन में हैं। वर्तमान में हारमोनियम, तबला, बैंजो, ढफली, झंकार और बांसुरी आदि गायन और नृत्य मंडलियों में अनिवार्य वाद्य बन गए
बांस, राउत अथवा अहीर समुदाय का विशिष्ट वाद्य बांस है जिसे वे कथा गायन के समय बजाते हैं।
बस्तर क्षेत्र के विशेष और लोकप्रिय वाद्य हैं ढपरा, नगाड़ा , निशान , तुड़बुढ़ी , मौहरी अथवा शहनाई मांदर ,मांदरी, ढोल , झांझ , मंजीरा , चटकोला, चरहे ,ढूढ़रा , गूजरी बडगी ,धनकुल और तोड़ी आदि।
ढपरा -
यह एक बेहद सामान्य ताल वाद्य है जो ढपली की आकृति जैसा परन्तु माप में बड़ा होता है। इसका व्यास लगभग २४ इंच होता है तथा परिधि लकड़ी से बनी होती है, जिसमे एक ओर खाल मढ़ी जाती है और दूसरी ओर रिक्त छोड़ी जाती है। इसे बांस की पतली तीली से बजाया जाता है। बीच -बीच में हथेली और उंगलियों के ठोके से ध्वनि परिवर्तन किया जाता है।
सामान्य घरेलू उत्सवों, मड़ई मेलों आदि में ढपरा बजने वाला आगे -आगे ढपरा बजता चलता है।
गांव की मड़ई के अवसर पर ढपरा बाजा बजता हुआ एक वादक, बस्तर।
नगाड़ा –
यह एक ताल वाद्य है जिसे विशेषतः देवस्थानों एवं देव-धामी के अनुष्ठानों के समय बजाया जाता है। कई देवगुढ़ी और मातागुढ़ी में यह स्थाई रूप से रखे रहते हैं और पूजा -अर्चना के समय इन्हें बजाया जाता है। देव -धामी अनुष्ठानों लिए नगाड़े सदैव मोहरी अथवा शहनाई के साथ बजाए जाते हैं। जब यह एक साथ बजाए जाते हैं तब इन्हे मोहरी बाजा या गांडा बाजा भी कहा जाता है। क्योंकि इन वाद्यों को बजाने वाले अधिकांशतः गांडा जाति के होते हैं।
केवल आदिवासी नहीं उनके देवी-देवता भी संगीत -नृत्य के बिना प्रसन्न नहीं होते। वे भी सिरहा के माध्यम से अपनी पसंद के संगीत की मांग करते हैं और सिरहा के ही माध्यम से अपने पसंदीदा संगीत पर खेलते हैं। नगाड़े पर अनेक लय -ताल बजाई जाती हैं। प्रत्येक देवी - देवता के लिए अलग लय -ताल बजाई जाती हैं। नगाड़े की लय -ताल सुनकर ही लोग जान लेते हैं कि इस समय किस देवी -देवता के लिए नगाड़ा बजाया जा रहा है अथवा गुनिया पर इस समय कौन देवी -देवता चढ़ा हुआ है।
नगाड़े का शरीर लोहे का बना होता है जिसे लोहार बनाते हैं। यह अंदर से खोखले होते हैं और इन पर भैंस का चमड़ा मढ़ा जाता है। चमड़ा मढ़ने का कार्य मंगिया जाति के लोग करते हैं। गांडा जाति के लोग नगाड़ा बजाते हैं। नगाड़ा जोड़ी से बनाया और बजाया जाता है और इन्हें लकड़ी की डंडियों से बजाया जाता है। नगाड़े की आवाज़ को चमड़े पर तेल लगाकर एवं मढ़ी हुई खाल के मध्य में राल की परत जमाकर संयोजित किया जाता है।
जगदलपुर हाट बाजार में नगाड़े बेचता एक मंगिआ जाति का नगाड़ा बनानेवाला कारीगर, बस्तर.
निशान –
यह नगाड़े के सामान एक ताल वाद्य है जिसका आकार नगाड़े से कुछ छोटा होता है। इसे विशेषतः विवाह अथवा अन्य उत्सवों के अवसर पर बजाया जाता है। इसका शरीर लोहे का बना होता है जिसे लोहार बनाते हैं। इन पर भैंस का चमड़ा मढ़ा जाता है। चमड़ा मढ़ने का कार्य मंगिया जाति के लोग करते हैं। इन्हें घसिया या गांडा जाति के लोग बजाते हैं। इन्हें चमड़े की डंडियों से बजाया जाता है।निशान की आवाज़ को चमड़े पर तेल लगाकर एवं मढ़ी हुई खाल के मध्य में राल की परत जमाकर संयोजित किया जाता है।
निशान वाद्य
निशान को कमर में बांधकर बजाया जाता है , कई बार इसके साथ हिरण के सींघ बांध लिए जाते हैं। घसिया वादक विवाह समारोहों में इन्हें नाच -नाच कर बजाते हैं। इन पर अनेक लय -ताल बजाई जाती हैं।
तुड़बुढ़ी –
यह एक ताल वाद्य है जिसका आकार और माप ताशे के सामान होता है। इसे नगाड़े के साथ ही बजाय जाता है। इसका शरीर लोहे का बना होता है जिसे लोहार बनाते है। कई बार इसका शरीर पकी मिटटी का बना होता है , तब यह कुम्हारों द्वारा बनाया गया होता है। इसके मुँह पर भैंस की खाल मढ़ी जाती है जिसे मंगिया जाति के लोग मढ़ते हैं। इसे बांस की दो तीलियों से बजाय जाता है।
तुड़बुढ़ी
मौहरी अथवा शहनाई –
यह एक सुषिर वाद्य है जिसे फूंक कर बजाय जाता है। इसका अगला भाग पीतल और शेष भाग लकड़ी से बनाया जाता है। यह शहनाई जैसा ही होता है और उसी के सिद्धांतों पर कार्य करता है। इसे बजाने वाला वाले गांडा जाति के होते हैं। इसके पीतल से बने भाग को हल्बी में मौहरी कहते हैं , यह चिलम के आकार का होता है , जिसके कारण लोग इसे मौहरी बाजा भी कहते हैं। इसे नगाड़े और निशान दौनों के साथ बजाया जा सकता है। विवाह एवं उत्सवों पर इसे निशान के साथ तथा पूजा -जात्रा अनुष्ठानों में नगाड़े के साथ बजाया जाता है। इसके पीतल से बने भाग को घढ़वा धातु शिल्पी तथा लकड़ी वाले भाग को बढ़ई बनाते हैं।
मौहरी बाजा बजता एक मौहरी वादक, बस्तर।
मौहरी बाजा
मांदर अथवा मांदल –
मांदर, ढोलक जैसा वाद्य है जिसका शरीर पोला और बेलनाकार होता है। इसका एक सिरा बड़ा और दूसरा सिरा उससे छोटा रहता है। दौनों सिरों पर खाल मढ़ी जाती है। इसका शरीर बीजा की लकड़ी या मिटटी का बना होता है। मिटटी का शरीर कुम्हार बनाते हैं। इसकी लम्बाई ढोलक से अधिक होती है। माड़िया जनजाति के नर्तक लकड़ी से बनी लम्बी -लम्बी मांदर प्रयोग करते हैं। सभी उत्सवों पर किये जानेवाले नृत्यों, विशेषतः करमा नृत्य के समय मांदर बजाई जाती है।
मांदल वादक मड़िआ नर्तक दल , बस्तर।
मांदल
हुल्की मांदर / मांदरी –
यह मांदर का छोटा रूप है, जब इसका शरीर मिट्टी से बनाया जाता है तब उसे डमरू आकार दिया जाता है। माड़िया आदिवासियों का यह प्रिय वाद्य है ,वे इसे नृत्य करते हुए बजाते हैं। इसे उँगलियों और हथेली की थाप से बजाया जाता है।
मांदरी बजता मुरिआ युवक , बस्तर।
ढोल –
ढोल, लकड़ी का बना बड़ा बेलनाकार वाद्य है। यह खोखला होता है जिसके दौनों सिरों पर बराबर माप के मुख होते हैं जिन पर बैल का चमड़ा मढ़ा जाता है। इसे हथेलियों अथवा लकड़ी की डंडी से बजाया जाता है। ढोल , समारोह पूर्वक होने वाले नृत्यों का अभिन्न अंग होते हैं।
चरहे / टेन्डोड़
टेन्डोड़, लकड़ी और बांस से बना एक वाद्य है जिसका प्रयोग बस्तर के माड़िया और मुरिया आदिवासी सामूहिक नृत्य के समय लयबद्ध ताल उत्पन्न करने के लिए करते हैं। इसमें बांस के लगभग ढाई फिट ऊँचे टुकड़े के शीर्ष पर आठ इंच वर्गाकार तख्ता लगा होता है। इसपर चार-पांच चिड़िया लगी होतीं हैं जिनकी गर्दनें धागे से एक साथ जुड़ी रहती हैं। धागा खींचने पर चिड़ियों की चोंच तख्ते से टकराकर ध्वनि उत्पन्न करती हैं।
यह बस्तर के आदिवासियों का एक पुरातन वाद्य है, सामूहिक नृत्यों में इसे अपने साथ रखना नर्तक के लिए प्रतिष्ठा का विषय होता है। यह अनेक आकार के बनाये जाते हैं तथा इन पर रंगामेजी भी की जाती है।
चरहे वाद्य लिए एक मुरिआ युवक, बस्तर।
ढूडरा –
यह लकड़ी का बना वाद्य है जिसे लकड़ी के डंडों से बजाया जाता है।यह घंटी के आकर का परन्तु चपटा और अंदर से खोखला होता है। इसका प्रयोग बस्तर के माड़िया और मुरिया आदिवासी सामूहिक नृत्य के समय करते हैं। कई बार इसे नक्काशी अथवा गर्म चाक़ू से जलाकर अलंकृत किया जाता है।
ढूडरा वाद्य लिए एक मुरिआ युवक, बस्तर।
झुनकी बड़गी –
यह लोहे की लगभग चार फिट ऊंची एक छड़ होती है जिसके ऊपरे सिरे पर बने लोहे के छल्लों में लम्बी पत्तियां लगी रहती हैं। छड़ को जमीन पर मारने पर यह पत्तियां आपस में टकराकर झन्न-झन्न आवाज़ करतीं हैं। माड़िया और मुरिया युवतियां सामूहिक नृत्य के समय झुनकी बड़गी एक हाथ में पकड़े रहती हैं और एक निश्चित अंतराल के बाद इन्हे जमीन पर पटक कर एक लय बद्ध झंकार उत्पन्न करतीं हैं।
माड़िया और मुरिया युवतियां सामूहिक नृत्य के समय झुनकी बड़गी एक हाथ में पकड़े रहती हैं।
धनकुल –
धनकुल, बस्तर का बहुत ही विशिष्ट वाद्य है, इसे वाद्य कहने की बजाय संगीत उपकरण कहना अधिक उपयुक्त होगा। यह केवल वाद्य मात्र नहीं है इसकी सहायता से देवी लक्ष्मी को जाग्रत किया जाता है। इसे जगार अनुष्ठान के आयोजन के अवसर पर बजाया जाता है। इस अवसर पर गुरमाय धनकुल बजाते हुए अनुष्ठानिक कथा गीत गाती हैं। इस वाद्य का संयोजन में मिट्टी के बने दो मटके, बांस के बने दो सूपा, बांस और रस्सी से बने दो धनुष, बांस से बानी दो क्षीर काढ़ियाँ से किया जाता है। इसे बजाते समय धनुष का एक सिरा जमीन पर और दूसरा मटके पर रखे सूपा पर रखा जाता है तथा धनुष की कमान को गुरमय अपनी जांघ के नीचे दबा लेती हैं। वे दाहिने हाथ से क्षीर काढ़ी लगातार लयबद्ध तरीके से बांस की कमान पर मारती जाती हैं और बाएं हाथ की उँगलियों से लगातार धनुष की प्रत्यंचा को खींच कर छोड़ती हैं जिससे लयबद्ध टंकार की पुनरावृति होती रहती है।
यह अनुष्ठानिक वाद्य केवल गुरुमाय द्वारा और केवल जगार आयोजन के अवसर पर बजाया जाता है।
धनकुल वाद्य का संयोजन में मिट्टी के बने मटके , बांस के बने सूपा , बांस और रस्सी से बने धनुष आदि से किया जाता है।
बस्तर. बांस से बनी क्षीर काढ़ी।
धनकुल वाद्य का संयोजन करतीं गुरुमाइयाँ, बस्तर।
धनकुल वाद्य का वादन करतीं गुरुमाइयाँ, बस्तर।
तोड़ी –
यह मूलतः भैंस के सींघ से बनाया गया सुषिर वाद्य है जिसे बाद में पीतल से भी बनाया जाने लगा है। बस्तर में इसे घढ़वा धातु शिल्पी बनाते हैं। यह जात्रा, पूजा की सूचना गांव वालों को देने के लिए बजाया जाता है। इसे युवक-युवतियों को घोटुल में एकत्रित होने के लिए संकेत स्वरूप भी बजाया जाता था। इसे बजाकर अनेक ध्वनियाँ निकली जाती हैं जिनके अलग-अलग अर्थ होते हैं। जात्रा जुलूसों में भी इसे बजाया जाता है।
तोड़ी वाद्य
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.